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Showing posts from October, 2020

समाजशास्त्र की प्रकृति को स्पष्ट रूप से समझाइए

समाजशास्त्र की प्रकृति को स्पष्ट रूप से समझाइए कुछ विद्वान समाजशास्त्र को विज्ञान मानते हैं जबकि कुछ इसे अध्ययन की मानवीय शाखा समझते हैं । आज भी समाजशास्त्रियों में इस संबंध में मत भिन्नता पाई जाती है कि समाजशास्त्र विज्ञान है या नहीं अथवा क्या यह कभी विज्ञान भी बन सकता है । आगस्त काम्टे समाजशास्त्र को सदैव एक विज्ञान मानते रहे हैं और आपने तो इसे विज्ञानों की रानी की संज्ञा दी । वास्तव में किसी विषय का विज्ञान होना या विज्ञान माना जाना प्रतिष्ठा सूचक था । अतः कुछ समाजशास्त्री समाजशास्त्र को विज्ञान के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहते थे । ऐसा प्रयास करने वाले विद्वानों में दुर्खीम,मैक्स बेबर तथा परेटो आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।        समाजशास्त्र को विज्ञान नहीं मानने वाले विद्वानों का कहना है कि यह विज्ञान कैसे हो सकता है जबकि इसके पास कोई प्रयोगशाला नहीं है, जब यह अपनी विषय सामग्री को मापने में समर्थ नहीं है और जब यह भविष्यवाणी भी नहीं कर सकता है । साथ ही उनका यह भी कहना है की सामाजिक प्रघटनाओं की स्वयं की कुछ ऐसी आंतरिक सीमाएं है जो समाजशास्त्र को एक विज्ञान का दर्जा दिलान

सामाजिक न्याय का अर्थ

सभी विकासशील देशों ने अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बनाने के लिए योजनाओं का आश्रय लिया किन्तु 1970 के दशक से ही यह अनुमान किया जाने लगा कि नियोजित अर्थव्यवस्था में आर्थिक वृद्धि तो अवश्य हो रही है किंतु सामाजिक न्याय नहीं मिल पा रहा है । निर्धन और अधिक निर्धन होते जा रहे हैं तथा धनवान और अधिक धनवान । आर्थिक वृद्धि के साथ-साथ आय एवं धर्म की असमानता में वृद्धि हुई । अतः या स्वीकार किया जाने लगा कि विकास की गति चाहे धीमी भले ही क्यों न हो किंतु इसकी प्रक्रिया को इस प्रकार कार्यान्वित किया जाना चाहिए कि लोगों को सामाजिक न्याय प्राप्त हो सके और वे विकास की प्रक्रिया में एक स्वस्थ एवं विकसित व्यक्तित्व वाले नागरिक के रूप में प्रत्येक स्तर पर अधिक से अधिक भाग ले सकें । सामाजिक न्याय का अर्थ सामाजिक न्याय के संबंध में तीन प्रकार के दृष्टिकोण व्यक्त किए गए हैं : 1. - सामाजिक समझौता संबंधी दृष्टिकोण 2. - उपयोगितावादी दृष्टिकोण 3. - सम्मानवादी दृष्टिकोण 1. - सामाजिक समझौता संबंधी दृष्टिकोण :- इस का प्रतिपादन हाब्स, रूसो तथा जान रॉल्स जैसे विचारको द्वारा किया गया है । यह दृष्टिकोण राजन

नातेदारी की रीतियों का संक्षेप में उल्लेख कीजिए

नातेदारी की रीतियों का संक्षेप में उल्लेख कीजिए नातेदारी के नियामक व्यवहार ( रीतियाँ ) जब हमारा किसी व्यक्ति से संबंध बन जाता है तो वह यहीं तक सीमित नहीं रहता है वरन उस रिश्ते से संबंधित एक विशिष्ट प्रकार का व्यवहार भी पनपता है । विभिन्न प्रकार के संबंधियों के प्रति हमारे व्यवहार भिन्न-भिन्न तरह के होते हैं । किसी के साथ हमारे संबंध श्रद्धा पर आधारित है तो किसी के साथ आदर, प्रेम, मधुरता, परिहास या हंसी मजाक पर आधारित । संतानों का माता-पिता के साथ व्यवहार श्रद्धा और सम्मान का है । पति पत्नी के बीच प्रेम का तो जीजा साली के बीच मधुरता का है । अतः समाज में दो संबंधियों के बीच किस प्रकार के व्यवहार होंगे इसके नियम बने होते हैं जिन्हें हम नातेदारी के नियामक व्यवहार या नातेदारी की रीतियाँ कहते हैं । परिहार या विमुखता :-  इसका अर्थ है कि कुछ संबंधी आपस में विमुखता बरते , एक दूसरे से कुछ दूरी बनाए रखने का प्रयत्न करें और पारस्परिक सामाजिक अंतः क्रिया को डालने का प्रयास करें । इस रीति के अनुसार कई संबंधियों के नाम लेना वर्जित है या किसी न किसी प्रकार से संबंधियों के साथ परिचित रीति से बात कर

सामाजिक स्तरीकरण के आधारों का उल्लेख कीजिए

सामाजिक स्तरीकरण के आधारों का उल्लेख कीजिए पारसन्स ने व्यक्ति की प्रास्थिति निर्धारित करने वाले 6 कारकों का उल्लेख किया है जो स्तरीकरण को भी तय करते हैं । वे हैं नातेदारी समूह की सदस्यता, व्यक्तिगत विशेषताएं, अर्जित उपलब्धियां, द्रव्य जात, सत्ता तथा शक्ति । सोरोकिन तथा बेबर स्तरीकरण के प्रमुख तीन आधारों आर्थिक, राजनीतिक एवं व्यवसायिक का उल्लेख करते हैं जबकि कार्ल मार्क्स केवल आर्थिक आधार को ही महत्वपूर्ण मानते हैं । आर्थिक आधार पर समाज में दो प्रकार के वर्ग पनपते हैं - पूंजीपति एवं श्रमिक वर्ग । स्तरीकरण के सभी आधारों को हम प्रमुख रूप से दो भागों में बांट सकते हैं - 1. - प्राणी शास्त्रीय आधार एवं । 2. - सामाजिक सांस्कृतिक आधार । प्राणीशास्त्रीय आधार :-  समाज में व्यक्तियों एवं समूहों की उच्चता एवं निम्नता का निर्धारण प्राणीशास्त्रीय आधारों पर भी किया जाता है । प्रमुख प्राणीशास्त्रीय आधारों से हम लिंग, आयु, प्रजाति एवं जन्म आदि को ले सकते हैं : 1. - लिंग - लिंग के आधार पर स्त्री और पुरुषों के रूप में समाज का स्तरीकरण सबसे प्राचीन है । लगभग सभी समाजों में पुरुषों की स्थिति

सामाजिक स्तरीकरण के स्वरूपों का उल्लेख कीजिए और स्तरीकरण तथा विभेदीकरण में अंतर कीजिए

सामाजिक स्तरीकरण के स्वरूपों का उल्लेख कीजिए और स्तरीकरण तथा विभेदीकरण में अंतर कीजिए :- बोटोमोर ने मानव इतिहास में प्रचलित सामाजिक स्तरीकरण के प्रमुख चार स्वरूपों - दास प्रथा , जागीरें , जाति और सामाजिक वर्ग का उल्लेख किया है । 1. - बंद स्तरीकरण - जाति प्रथा - बंद स्तरीकरण वाली समाज व्यवस्था मैं समाज ऐसे स्थितियां स्तर समूहों में बांटा होता है जो पूरी तरह से बंद होते हैं । इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति के स्तर समूह का निर्धारण जन्म या अनुवांशिकता के आधार पर होता है और जिसे वह आजीवन नहीं बदल सकता क्योंकि ऐसे समूहों की सदस्यता जन्म पर आधारित होती है, अतः एक समूह को छोड़कर किसी अन्य समूह की सदस्यता ग्रहण करने का प्रश्न ही नहीं उठता । इस प्रकार के स्तरीकरण का श्रेष्ठ उदाहरण भारत की जाति व्यवस्था है । इस व्यवस्था के अंतर्गत व्यक्ति की जाति का निर्धारण जन्म के समय ही हो जाता है । व्यक्ति आजीवन उसी जाति का सदस्य बना रहता है जिसमें उसका जन्म हुआ है । बंद स्तरीकरण को कुछ लोग जातिगत स्तरीकरण के नाम से भी पुकारते हैं । इस प्रकार का स्तरीकरण मुसलमानी, ईसाइयों एवं अमेरिका के कई जनजातीय लोगों म

सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ एवं परिभाषा

सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ एवं परिभाषा आदिकाल से ही मानव समाज में असमानता व्याप्त रही है । ऐसा समाज जहां उसके सदस्यों में वास्तविक रूप में समानता हो और स्तरीकरण का अभाव हो , एक कोरी कल्पना है । मानव समाज के इतिहास में ऐसी स्थिति कभी नहीं रही । समनर की मान्यता है कि इतिहास में कभी भी ऐसा समय नहीं रहा है जिसमें वर्ग घृणा उपस्थित ना रही हो । अनेक मानव शास्त्रियों ने आदम समाजों में समानता का उल्लेख किया है किंतु उनमें भी आज के समाज की भांति सामाजिक विषमता के आधार पर समाज में उच्चता और निम्नता का भेद अवश्य रहा है । जैसा कि गिटलर कहते हैं, असमानता सभी संस्कृतियों की विशेषता है, यद्यपि एक समूह से दूसरे समूह में एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति में असमानता के विस्तार एवं प्रकार में अंतर पाया जाता है । हम प्रत्येक समाज में दो प्रकार का विभेदीकरण देख सकते हैं - व्यक्तिगत एवं सामाजिक । दो व्यक्तियों के बीच रंग, रूप, नाक, नक्श, लंबाई चौड़ाई, आयु एवं लिंग के आधार पर पाया जाने वाला अंतर व्यक्तिगत विभेदीकरण है । जबकि कार्य, धर्म, संस्कृति, रुचि, आर्थिक स्थिति, राजनीतिक सप्ताह एवं पद के आधार पर पाए जाने

सामाजिक संबंध ही वास्तव में समाजशास्त्र की विषय वस्तु है समीक्षा कीजिए

सामाजिक संबंध ही वास्तव में समाजशास्त्र की विषय वस्तु है समीक्षा कीजिए मैकाइवर एवं पेज का उपर्युक्त कथन की समाजशास्त्र सामाजिक संबंध के विषय में है पूर्णतः सही है । चाहे समाजशास्त्र की विषय वस्तु कोई सूची में कितने ही विषयों को सम्मिलित क्यों ना किया जाए परंतु यह सत्य है कि मूल रूप में समाजशास्त्र में सामाजिक संबंधों का ही अध्ययन किया जाता है । यह बात कुछ विद्वानों के कथनों में स्वतः ही स्पष्ट हो जाती है । मैक्स वेबर के अनुसार समाजशास्त्र एक ऐसा विज्ञान है जो सामाजिक संबंधों एवं सामाजिक क्रियाओं का अध्ययन करता है । यद्यपि आपने समाजशास्त्र के अंतर्गत सामाजिक क्रिया के अध्ययन पर विशेष जोर दिया है परंतु यहां इस बात पर भी ध्यान देना आवश्यक है कि सामाजिक क्रिया भी सामाजिक संबंधों के संदर्भ में ही हो सकती है । अन्य शब्दों में सामाजिक लिया के संपन्न होने के लिए भी सामाजिक संबंध अत्यंत आवश्यक है । यही कारण है कि समाजशास्त्र के प्रारंभिक काल से लेकर अब तक के सभी प्रमुख समाजशास्त्री सामाजिक संबंधों को ही समाजशास्त्र की विषय वस्तु मानते हैं । वॉन वीज ने सामाजिक संबंधों को ही समाजशास्त्र की विषय

नगरीय अवधारणा तथा विशेषताएं और यह महानगर कब कहलाता है

नगरीय अवधारणा तथा विशेषताएं और यह महानगर कब कहलाता है नगर से व्यक्ति परिचित होता है । उसके चहल-पहल, भीड़ भाड़, प्रचुर मात्रा में यातायात और संदेश वाहन के साधनों का जाल बिछा होता है । व्यवसायिक, वाणिज्य और मनोरंजन के केंद्र होते हैं । शिक्षा, धर्म, व्यवसाय की अनेक संस्थाएं होती है । एक बहुत बड़ी जनसंख्या नगरों में निवास करती है व्यक्तियों के मध्य औपचारिक संबंध होते हैं । बल्कि बड़े नगरों में तो व्यक्ति एक दूसरे को पड़ोस में रहकर भी जान नहीं पाता है । एक अनेक विशेषताओं के होते हुए भी नगर को परिभाषित करना सरल कार्य नहीं है । इसीलिए बर्गल ने लिखा है कि यद्यपि प्रत्येक यह जानता है कि नगर क्या है ? किंतु कोई भी इसकी संतोषप्रद परिभाषा नहीं दे सका है । अस्तु नगरीय समाजशास्त्र में नगर की व्याख्या अनेक दृष्टियों से की जाती है । ये अग्रलिखित हैं :- कानूनी दृष्टिकोण के अनुसार नगर व स्थान है जहां एक निश्चित संख्या से अधिक व्यक्ति निवास करते हो और जहां एक निश्चित सीमा के अंतर्गत, नगरपालिका, सरकार द्वारा प्राप्त अधिकारों का प्रयोग करती हो । इस तरह नगर एक शासकीय इकाई है । परिस्थितिकीय आधार पर नगर को

कस्बा या उपनगर किसे कहते हैं

कस्बा या उपनगर किसे कहते हैं ,   भारत में कस्बे का जनसंख्यात्मक आधार क्या रखा गया है कस्बा या उपनगर मानवीय अविस्थापन्नता का ऐसा स्वरूप है जिसमें ग्रामीण और नगरीय दोनों प्रकार की विशेषताएं साथ-साथ देखी जाती है । इस क्षेत्र को हम पूरी तरह से ना तो गांव कह सकते हैं और ना ही नगर कह सकते हैं । बड़े गांव में जब नगरीय प्रवृत्तियों और गतिविधियों का समावेश होता और इनके क्रियाकलापों का स्वरूप व्यापक होने लगता है तब हम ऐसे गांव को कस्बे की संज्ञा देते हैं । ग्रामीण क्षेत्रों की विभिन्न आवश्यकताओं को यह क्षेत्र पूर्ण करते हैं ।      कस्बे को परिभाषित करते हुए बर्गल ने लिखा है, " कस्बे को एक नगरीय अविस्थापना के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो पर्याप्त आयामों के ग्रामीण क्षेत्र पर प्रभाव रखता हो " ।   नगरीयता की मुख्य प्रवृत्तियों में औद्योगिकरण और व्यापीकरण है । इन प्रवृत्तियों में बैंक, बीमा, श्रमिक संगठन, शिक्षा, मनोरंजन, यातायात, संचार साधन आदि समाहित है । किसी ग्रामीण क्षेत्र पर जब जनसंख्या स्थाई रूप से रहने लगती है और इस क्षेत्र में विविध प्रकार की गतिविधियों जैसे धर्म, साहित्य,

नगरों के प्रकारों की विवेचना कीजिए

नगरों के प्रकारों की विवेचना कीजिए नगरों को विभिन्न श्रेणियों में विभाजित करना एक कठिन कार्य है क्योंकि एक नगर किसी एक कारण से स्थापित नहीं होता बल्कि अनेक ऐसे महत्वपूर्ण सहयोगी कारक होते हैं जो नगर को बनाने और बसाने में सहायक होते हैं । उदाहरण के लिए रेगिस्तान में बड़ी जनसंख्या का जमाव और ठहराव नहीं हो सकता । वहां नगर स्थापित होना सरल कार्य नहीं है । इसके विपरीत एक ऐसे स्थान पर जनसंख्या बढ़ने लगे जहां की भूमि उपजाऊ हो, जल की सुविधा हो, उद्योग पनपने के अवसर हो ऐसे स्थान शीघ्र ही बड़े नगरों की श्रेणी में आ जाते हैं । कुछ ऐसे ही स्थान जो किसी चीज के लिए प्रसिद्ध हो जाते हैं वे अपनी विशेषताओं के द्वारा छोटे नगर बन जाते हैं किंतु महानगर नहीं बन पाते हैं जैसे प्रयागराज, मथुरा, अजमेर, नैनीताल, मसूरी आदि । इस तरह नगरों के प्रकारों के निर्धारण की दृष्टि से जनसंख्या, क्षेत्र की जलवायु और पारिस्थितिकीय विशेषताओं पर ध्यान रखना आवश्यक है ।    अनेक विद्वानों ने नगर को अलग-अलग आधारों पर विभाजित करने का प्रयास किया है । नोइल जिस्ट और एल ए हरबर्ट ने निम्नलिखित रूप में नगरों के प्रकार बताएं हैं । इन्ह

नगरीय उद्विकास की विभिन्न अवस्थाओं का उल्लेख करें

नगरीय उद्विकास की विभिन्न अवस्थाओं का उल्लेख करें नगरों के उद्विकास की अवस्थाएं - ममफोर्ड ने नगर के उत्थान और पतन की 6 अवस्थाएं बताई है । ये नगर की उत्पत्ति के सामान्य तथ्य हो सकते हैं पर यह सभी देशों के नगरों के विकास पर सामान्य रूप से लागू होते हैं, इसे स्वीकारा नहीं जा सकता है । प्रथम अवस्था - यह वह अवस्था है जिसमें ग्राम समुदाय की स्थापना होती है । ऐसी अवस्था में पशुपालन और कृषि का विकास भी होता है । इस अवस्था में समाज में अनेक प्रकार की विभिन्नतायें देखी जाती हैं जैसे व्यवसायिक समूहों में अंतर, छोटे बड़े गांव की स्थापना, गांव व्यवसाय पर केंद्रित होने लगे जैसे कृषि व्यवसाय, मछली व्यवसाय आदि । प्राथमिक समूह के महत्त्व में वृद्धि हुई । कालांतर में बड़े गांव की स्थापनाये होने लगी जहां शिक्षा और कारीगरी में भी पर्याप्त विकास हुआ । इस अवस्था में पाषाण युगीन संस्कृति का प्रभाव देखा जाता है । द्वितीय चरण - प्रथम चरण में बड़े गांव की स्थापना हो गई थी और द्वितीय चरण में गांव में सामान्य संगठनों की स्थापना हुई जो रक्त समूह पर आधारित थे । यह संगठन एक सामान्य स्थान पर बने जो सामूहिक रूप से आ

नगर की उत्पत्ति के संबंध में विभिन्न विद्वानों के विचार

नगर की उत्पत्ति के संबंध में विभिन्न विद्वानों के विचार  यह बताना अत्यंत कठिन कार्य है कि किस युग विशेष में नगरों की स्थापना हुई समाज में विभिन्न चीजें जो हमें आज दिखाई पड़ रही है उसकी पृष्ठभूमि में विकास का एक लंबा इतिहास समाहित है लाखों वर्षों के विकास क्रम में यह समाज देश गांव नगर महानगर बने हैं। मनुष्य की आवश्यकताओं ने उत्पादन के साधनों की खोज की है । प्रत्येक युग में उसकी कुशलता क्षमता बुद्धि का विकास हुआ है क्योंकि यह कहा जाता है कि मनुष्य औजारों को बनाने वाला पशु है । माननीय साधनों के विकास के साथ नगर का विकास भी जुड़ा है समय की धूल ने नगर के विकास के इतिहास को भी ढक दिया है इतिहास के पन्नों में जो अवशेष मिलते हैं वे नगर के विकास के युवक को नहीं बताते खंडहर और पांडुलिपि या किसी देश को विकसित सभ्यता और संस्कृति के प्रतीक हो सकते हैं ।इनसे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि अमुक देश हजारों वर्ष पूर्व भी संपन्न और विकसित था किंतु इतिहास के अवशेषों और टूटे चिन्हों से यह कैसे निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि गांव बनने का युग और काल कौन सा है और नगर कब और कैसे स्थापित हुए । नगर के विकास के सा

नगरीय समाजशास्त्र के अध्ययन के महत्व की उपयोगिता वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य

नगरीय समाजशास्त्र के अध्ययन के महत्व की उपयोगिता वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य  प्राचीन नगरों और आधुनिक नगरों की प्रकृति में भूमि आकाश का अंतर है आधुनिक युग वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी विकास और प्रगति का है नगरीय जीवन सरल था कि नहीं जटिलता के प्रतीक हैं नगर के व्यक्तियों के सामाजिक संबंध मूल्य आदर्श मान्यताएं व्यवहार करने के ढंग रहन-सहन के स्तर में विभिन्न अदाएं सोच और मानसिकता आदमी अत्यधिक बदलाव और जटिलता आ गई है इस परिवर्तित होते हुए नगरी प्रतिमान का वैज्ञानिक अध्ययन नगरीय समाजशास्त्र करता है इस दृष्टि से नगरीय समाजशास्त्र का महत्व आज के संदर्भ में निरंतर बढ़ता जा रहा है इसके अध्ययन के महत्व को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से जाना जा सकता है । नगरीय जटिल समाज का अध्ययन - सामाजिक दृष्टि से इस शास्त्र का महत्व अत्यधिक है सामाजिक संबंधों में जटिलता और दुरुहता का वैज्ञानिक अध्ययन नगरीय समाजशास्त्र ही करने में सक्षम है परिवर्तित होते हुए नगरीय समाज में व्यक्तियों के मूल्य दृष्टिकोण सोच मानसिकता आदि में भी तीव्रता से परिवर्तन हो रहे हैं संस्थाओं समूह समितियों समुदाय के ढांचे में बदलाव आ रहा है इन