सभी विकासशील देशों ने अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बनाने के लिए योजनाओं का आश्रय लिया किन्तु 1970 के दशक से ही यह अनुमान किया जाने लगा कि नियोजित अर्थव्यवस्था में आर्थिक वृद्धि तो अवश्य हो रही है किंतु सामाजिक न्याय नहीं मिल पा रहा है । निर्धन और अधिक निर्धन होते जा रहे हैं तथा धनवान और अधिक धनवान । आर्थिक वृद्धि के साथ-साथ आय एवं धर्म की असमानता में वृद्धि हुई । अतः या स्वीकार किया जाने लगा कि विकास की गति चाहे धीमी भले ही क्यों न हो किंतु इसकी प्रक्रिया को इस प्रकार कार्यान्वित किया जाना चाहिए कि लोगों को सामाजिक न्याय प्राप्त हो सके और वे विकास की प्रक्रिया में एक स्वस्थ एवं विकसित व्यक्तित्व वाले नागरिक के रूप में प्रत्येक स्तर पर अधिक से अधिक भाग ले सकें ।
1. - सामाजिक समझौता संबंधी दृष्टिकोण
2. - उपयोगितावादी दृष्टिकोण
3. - सम्मानवादी दृष्टिकोण
1. - सामाजिक समझौता संबंधी दृष्टिकोण :-
इस का प्रतिपादन हाब्स, रूसो तथा जान रॉल्स जैसे विचारको द्वारा किया गया है । यह दृष्टिकोण राजनीतिक स्वतंत्रता तथा समानता का समर्थन करना है किंतु असमानता को भी स्वीकार करता है क्योंकि यह लोगों की उत्पादन शक्ति को बढ़ाती है । इस दृष्टिकोण के अनुसार हुआ समाज न्याय पूर्ण है जिसकी सामाजिक दिनचर्या सभी लोगों द्वारा मान्य है । ऐसे समाज में प्रत्येक सदस्य तार्किक दृष्टिकोण रखते हुए दीर्घकालीन अभिरुचियों को पूर्ण करने में विश्वास रखता है । यह दृष्टिकोण राजनीतिक एवं आर्थिक दोनों क्षेत्रों में स्वतंत्रता प्रदान करता है किंतु आर्थिक क्षेत्र में असमानता को भी स्वीकार करता है क्योंकि यह असमानताएं ही अधिक उत्पादन करने की सम्प्रेरणा प्रदान करते हुए आवश्यक शक्ति प्रदान करती है । इस विचारधारा के अनुसार अधिक उत्पादन करने वाले लोगों के पास अधिक धन एवं संपत्ति होगी तथा कम उत्पादन करने वाले अथवा उत्पादन न करने वाले व्यक्तियों को जो सामाजिक समझौते से अलग होंगे कठिनाई का सामना करना पड़ेगा ।
2. - उपयोगितावादी दृष्टिकोण :-
इसका प्रतिपादन जान स्टुअर्ट मिल तथा बेन्थम जैसे विद्वानों द्वारा किया गया है । इस दृष्टिकोण के अनुसार यदि संपूर्ण समुदाय के हित के लिए कुछ लोगों के हितों का बलिदान करना पड़े तो इसे करने में किसी प्रकार की हिचक नहीं होनी चाहिए क्योंकि व्यक्ति की तुलना में समुदाय अधिक महत्वपूर्ण है । इस विचारधारा के अनुसार वही समाज न्यायपूर्ण है जो अधिकांश सदस्यों के हितों का संरक्षण एवं संवर्धन करता हैं । यद्यपि यह दृष्टिकोण ऊपर से आकर्षक एवं सही प्रतीत होता है किन्तु यह समानता एवं स्वतंत्रता का आश्वासन प्रदान करने में सच्चे अर्थों में सहायक सिद्ध नहीं होता । इस विचारधारा का प्रमुख लक्ष्य वस्तुओं एवं सेवाओं की मात्रा में वृद्धि करना है ताकि अधिक से अधिक लोगों को इन्हें प्रदान किया जा सके और यदि इस लक्ष्य की प्राप्ति में कुछ व्यक्तियों के हितों की हानि होती है तो इसे स्वीकार करना ही पड़ेगा ।
3. - सम्मानवादी दृष्टिकोण :-
यह विचारधारा कान्ट तथा मार्टिन लूथर किंग के विचारों पर आधारित है । इस विचारधारा के अनुसार समाज में सभी व्यक्तियों को जीवित रहने एवं विकास करने के समान अवसर प्राप्त होने चाहिए । समाज का यह उत्तर दायित्व है कि वह सभी सदस्यों को सुख एवं सुविधा के साधन समान रूप से उपलब्ध कराएं । मानव स्वतंत्रता से मानव कल्याण अधिक महत्वपूर्ण है । इस विचारधारा के अनुसार समाज को अपने सभी सदस्यों को सम्मान प्रदान करना चाहिए । समाज में ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जो लोगों की सामान्य अभिरुचियों की पूर्ति के अवसर उपलब्ध करा सके तथा व्यक्तियों को एक दूसरे का आदर करने के लिए सम्प्रेरित एवं नियमित कर सके । इस दृष्टिकोण में व्यक्ति को स्वयं में एक उद्देश्य माना गया है । साधन नहीं । इस विचारधारा के अनुसार धन का समान वितरण भी आवश्यक है ।
सामाजिक न्याय के बारे में विचार व्यक्त करते हुए एस के राव ने कहा है यह सभी व्यक्तियों को उन्हें देय न्याय एवं औचित्य की स्थिति है । इसके अंतर्गत शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं आत्मिक विकास के लिए न्याय पूर्ण परिस्थितियों के प्रावधान हेतु कुछ लोगों को इनके कल्याण हेतु अवसर प्रदान करते समय दूसरे लोगों को क्षति न पहुंचाने हेतु, सभी को उनकी योग्यताओं एवं क्षमताओं के अवसरों को प्रदान करने हेतु विभिन्न दिशाओं में समाज की क्रिया अर्थात भौतिक वस्तुओं का न्यायपूर्ण वितरण सम्मिलित है ।
सामाजिक न्याय की परिभाषा समाज में पाई जाने वाली ऐसी स्थिति के रूप में की जा सकती है जिनमें प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व का विकास करने के लिए आवश्यक अवसर उपलब्ध हो, प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यता एवं क्षमताओं के अनुसार उपयुक्त कार्य की शर्तों पर स्वस्थ कार्य की परिस्थितियों में अपना कार्य संपादित करने के अवसर प्राप्त हो, लोगों द्वारा किए गए कार्य के परिणाम स्वरूप होने वाले लाभों में उन्हें साम्यपूर्ण हिस्सा प्राप्त हो सके, तथा ऐसे व्यक्तियों जो कार्य करने के योग्य नहीं है अथवा इस योग्य नहीं बनाए जा सकते, को एक सम्मानजनक जीवन स्तर पर आश्वासन प्राप्त हो ।
सामाजिक न्याय के प्रत्यय की उत्पत्ति :-
सामाजिक न्याय का अर्थ
सामाजिक न्याय के संबंध में तीन प्रकार के दृष्टिकोण व्यक्त किए गए हैं :1. - सामाजिक समझौता संबंधी दृष्टिकोण
2. - उपयोगितावादी दृष्टिकोण
3. - सम्मानवादी दृष्टिकोण
1. - सामाजिक समझौता संबंधी दृष्टिकोण :-
इस का प्रतिपादन हाब्स, रूसो तथा जान रॉल्स जैसे विचारको द्वारा किया गया है । यह दृष्टिकोण राजनीतिक स्वतंत्रता तथा समानता का समर्थन करना है किंतु असमानता को भी स्वीकार करता है क्योंकि यह लोगों की उत्पादन शक्ति को बढ़ाती है । इस दृष्टिकोण के अनुसार हुआ समाज न्याय पूर्ण है जिसकी सामाजिक दिनचर्या सभी लोगों द्वारा मान्य है । ऐसे समाज में प्रत्येक सदस्य तार्किक दृष्टिकोण रखते हुए दीर्घकालीन अभिरुचियों को पूर्ण करने में विश्वास रखता है । यह दृष्टिकोण राजनीतिक एवं आर्थिक दोनों क्षेत्रों में स्वतंत्रता प्रदान करता है किंतु आर्थिक क्षेत्र में असमानता को भी स्वीकार करता है क्योंकि यह असमानताएं ही अधिक उत्पादन करने की सम्प्रेरणा प्रदान करते हुए आवश्यक शक्ति प्रदान करती है । इस विचारधारा के अनुसार अधिक उत्पादन करने वाले लोगों के पास अधिक धन एवं संपत्ति होगी तथा कम उत्पादन करने वाले अथवा उत्पादन न करने वाले व्यक्तियों को जो सामाजिक समझौते से अलग होंगे कठिनाई का सामना करना पड़ेगा ।
2. - उपयोगितावादी दृष्टिकोण :-
इसका प्रतिपादन जान स्टुअर्ट मिल तथा बेन्थम जैसे विद्वानों द्वारा किया गया है । इस दृष्टिकोण के अनुसार यदि संपूर्ण समुदाय के हित के लिए कुछ लोगों के हितों का बलिदान करना पड़े तो इसे करने में किसी प्रकार की हिचक नहीं होनी चाहिए क्योंकि व्यक्ति की तुलना में समुदाय अधिक महत्वपूर्ण है । इस विचारधारा के अनुसार वही समाज न्यायपूर्ण है जो अधिकांश सदस्यों के हितों का संरक्षण एवं संवर्धन करता हैं । यद्यपि यह दृष्टिकोण ऊपर से आकर्षक एवं सही प्रतीत होता है किन्तु यह समानता एवं स्वतंत्रता का आश्वासन प्रदान करने में सच्चे अर्थों में सहायक सिद्ध नहीं होता । इस विचारधारा का प्रमुख लक्ष्य वस्तुओं एवं सेवाओं की मात्रा में वृद्धि करना है ताकि अधिक से अधिक लोगों को इन्हें प्रदान किया जा सके और यदि इस लक्ष्य की प्राप्ति में कुछ व्यक्तियों के हितों की हानि होती है तो इसे स्वीकार करना ही पड़ेगा ।
3. - सम्मानवादी दृष्टिकोण :-
यह विचारधारा कान्ट तथा मार्टिन लूथर किंग के विचारों पर आधारित है । इस विचारधारा के अनुसार समाज में सभी व्यक्तियों को जीवित रहने एवं विकास करने के समान अवसर प्राप्त होने चाहिए । समाज का यह उत्तर दायित्व है कि वह सभी सदस्यों को सुख एवं सुविधा के साधन समान रूप से उपलब्ध कराएं । मानव स्वतंत्रता से मानव कल्याण अधिक महत्वपूर्ण है । इस विचारधारा के अनुसार समाज को अपने सभी सदस्यों को सम्मान प्रदान करना चाहिए । समाज में ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जो लोगों की सामान्य अभिरुचियों की पूर्ति के अवसर उपलब्ध करा सके तथा व्यक्तियों को एक दूसरे का आदर करने के लिए सम्प्रेरित एवं नियमित कर सके । इस दृष्टिकोण में व्यक्ति को स्वयं में एक उद्देश्य माना गया है । साधन नहीं । इस विचारधारा के अनुसार धन का समान वितरण भी आवश्यक है ।
सामाजिक न्याय के बारे में विचार व्यक्त करते हुए एस के राव ने कहा है यह सभी व्यक्तियों को उन्हें देय न्याय एवं औचित्य की स्थिति है । इसके अंतर्गत शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं आत्मिक विकास के लिए न्याय पूर्ण परिस्थितियों के प्रावधान हेतु कुछ लोगों को इनके कल्याण हेतु अवसर प्रदान करते समय दूसरे लोगों को क्षति न पहुंचाने हेतु, सभी को उनकी योग्यताओं एवं क्षमताओं के अवसरों को प्रदान करने हेतु विभिन्न दिशाओं में समाज की क्रिया अर्थात भौतिक वस्तुओं का न्यायपूर्ण वितरण सम्मिलित है ।
सामाजिक न्याय की परिभाषा समाज में पाई जाने वाली ऐसी स्थिति के रूप में की जा सकती है जिनमें प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व का विकास करने के लिए आवश्यक अवसर उपलब्ध हो, प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यता एवं क्षमताओं के अनुसार उपयुक्त कार्य की शर्तों पर स्वस्थ कार्य की परिस्थितियों में अपना कार्य संपादित करने के अवसर प्राप्त हो, लोगों द्वारा किए गए कार्य के परिणाम स्वरूप होने वाले लाभों में उन्हें साम्यपूर्ण हिस्सा प्राप्त हो सके, तथा ऐसे व्यक्तियों जो कार्य करने के योग्य नहीं है अथवा इस योग्य नहीं बनाए जा सकते, को एक सम्मानजनक जीवन स्तर पर आश्वासन प्राप्त हो ।
सामाजिक न्याय का उद्देश्य :-
सामाजिक न्याय का उद्देश्य समाज के सभी लोगों को विकास एवं कार्य के समान अवसर प्रदान करना, निर्बल वर्ग के लोगों के लिए विशिष्ट प्रकार के प्रावधान करना, लोगों को विभिन्न क्रियाओं से होने वाले लाभों में साम्यपूर्ण हिस्सा दिलाना, शोषण रहित समाज की स्थापना करना तथा प्रत्येक व्यक्ति को एक सम्मानजनक जीवन व्यतीत करने का आश्वासन प्रदान करना है ।सामाजिक न्याय के प्रत्यय की उत्पत्ति :-
निर्धनों एवं दुखी व्यक्तियों की सहायता करने का कार्य सभी समाजों द्वारा प्राचीन काल से ही किया जाता रहा है किंतु सामाजिक न्याय के प्रत्यय की उत्पत्ति बीसवीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति एवं विश्वयुद्धों के फल स्वरुप उत्पन्न हुई अनेक सामाजिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने के एक उपकरण के रूप में कल्याणकारी राज्य की विचारधारा की उत्पत्ति के साथ हुआ है । संतुलित विकास का आश्वासन प्रदान करने हेतु सामाजिक न्याय निर्धनों तथा धनवानों के बीच पाई जाने वाली खाई को पाटता है और समाज के निर्बल वर्गों के लिए विशेष प्रकार के प्रावधान करते हुए उन्हें भी सम्मानजनक जीवन स्तर का आश्वासन प्रदान करता है ।
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