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Showing posts from April, 2020

सामाजिक नियंत्रण के साधन या अभिकरण

सामाजिक नियंत्रण के साधन या अभिकरण सामाजिक नियंत्रण की व्यवस्था को प्रभावी बनाने के लिए अनेक साधनों एवं अभिकरणों का सहारा लिया जाता है। सामान्यतः साधन एवं अधिकरण में कोई भेद नहीं किया जाता है किंतु इन में पर्याप्त अंतर है। अभिकरण का तात्पर्य उन समूहों संगठनों एवं सत्ता से है जो नियंत्रण को समाज पर लागू करते हैं।नियमों को लागू करने का माध्यम अभिकरण कहलाता है उदाहरण के लिए परिवार, राज्य, शिक्षण, संस्थाएं एवं अनेक संगठन जो प्रथाओं परंपराओं नियमों और कानूनों को लागू करने वाले मूर्त माध्यम है अभिकरण कहे जाएंगे।   साधन से तात्पर्य किसी विधि या तरीके से है किसके द्वारा कोई भी अभिकरण या एजेंसी अपनी नीतियों और आदेशों को लागू करती है। प्रथा, परंपरा, लोकाचार, हास्य, व्यंग, प्रचार, जनमत, कानून, पुरस्कार एवं दंड आदि सामाजिक नियंत्रण के साधन है।सभी अभिकरण एवं साधन मिलकर सामाजिक नियंत्रण की व्यवस्था को कायम रखते हैं।हम यहां सामाजिक नियंत्रण के विभिन्न साधनों एवं अभी कारणों का उल्लेख करेंगे। 1. परिवार नियंत्रण के अनौपचारिक, असंगठित और प्राथमिक साधनों में परिवार का स्थान सर्वोपरि है। परिवार व्यक्ति

सामाजिक नियन्त्रण की अवधारणा की व्याख्या कीजिए

सामाजिक नियन्त्रण की अवधारणा की व्याख्या कीजिए सामाजिक नियंत्रण की अवधारणा का समाजशास्त्रीय साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है। सामाजिक संरचना में दृढ़ता एवं समन्वय रखने वाली शक्तियों के संदर्भ में जितना साहित्य रचा गया उसे सामाजिक नियंत्रण के शीर्षक के अंतर्गत रखा गया है।मैकाइवर कहते हैं कि समाजशास्त्रीय साहित्य का एक बहुत बड़ा भाग सामाजिक नियंत्रण का विवेचन करता है। अमरीकन समाजशास्त्री ई.ए. रास पहला व्यक्ति था जिसने सामाजिक नियंत्रण विषय पर 1901में अपनी कृति Social Control में व्यवस्थित विचार व्यक्त किए।         सामाजिक नियंत्रण के द्वारा व्यक्तियों के व्यवहारों को समाज के स्थापित प्रतिमाओं के अनुरूप ढालने का प्रयत्न किया जाता है। इस प्रकार सामाजिक नियंत्रण वह विधि है जिसके द्वारा एक समाज अपने सदस्यों के व्यवहारों का नियमन करता है। सामाजिक नियंत्रण के द्वारा एक समाज अपने सदस्यों को उनकी निर्धारित भूमिकाएं निभाने, नियमों का पालन करने एवं व्यवस्था बनाए रखने के लिए प्रेरित करता है। प्रत्येक समाज अपने सदस्यों से यह अपेक्षा करता है कि वे एक निर्धारित तरीके से समाज में आचरण करें, उचित रूप

सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए

सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए परिवर्तन प्रकृति का एक शाश्वत एवं जटिल नियम है। मानव समाज भी उसी प्रकृति का अंश होने के कारण परिवर्तनशील है। समाज की इस परिवर्तनशील प्रकृति को स्वीकार करते हुए मैकाइवर लिखते हैं " समाज परिवर्तनशील एवं गत्यात्मक है । " बहुत समय पूर्व ग्रीक विद्वान हेरेक्लिटिस ने भी कहा था सभी वस्तुएं परिवर्तन के बहाव में हैं। उसके बाद से इस बात पर बहुत विचार किया जाता रहा कि मानव की क्रियाएं क्यों और कैसे परिवर्तित होती हैं? समाज के वे क्या विशिष्ट स्वरूप हैं जो व्यवहार में परिवर्तन को प्रेरित करते हैं? समाज में अविष्कारों के द्वारा परिवर्तन कैसे लाया जाता है एवं अविष्कार करने वालों की शारीरिक विशेषताएं क्या होती है? परिवर्तन को शीघ्र ग्रहण करने एवं ग्रहण न करने वालों की शारीरिक रचना में क्या भिन्नता होती है? क्या परिवर्तन किसी निश्चित दिशा से गुजरता है? यह दिशा रेखीय हैं या चक्रीय? परिवर्तन के संदर्भ में इस प्रकार के अनेक प्रश्न उठाए गए तथा उनका उत्तर देने का प्रयास भी किया गया। मानव परिवर्तन को समझने के प्रति जिज्ञासा पैदा हुई। उसने परिवर्तन के

सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख सिद्धान्तों का वर्णन कीजिये

सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख सिद्धान्तों का वर्णन कीजिये  समाज में सामाजिक परिवर्तन किन कारणों से तथा किन नियमों के अंतर्गत होता है, उसकी गति एवं दिशा क्या होती है,इन प्रश्नों को लेकर प्राचीन समय से ही विद्वान अपने अपने मत व्यक्त करते रहे हैं। प्रारंभ में दार्शनिकों ने सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांत प्रस्तुत किए बाद में समाज शास्त्रियों ने भी अपना योगदान दिया। सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या कुछ विद्वानों ने सिद्धांतों के प्रतिपादन द्वारा की है। उनका विश्वास है कि समाज में परिवर्तन इन्हीं नियमों एवं सिद्धांतों के अनुसार होते हैं। 16 वीं सदी में जीन बोडिंग ने विश्व की विभिन्न सभ्यताओं के ऐतिहासिक अध्ययन के आधार पर यह मत व्यक्त किया कि समाज में परिवर्तन सक्रिय रूप में घटित होते हैं।यद्यपि उनकी यह बात उस समय पूर्णतया स्वीकार नहीं की गई किंतु बाद में कुछ विद्वानों ने परिवर्तन के चक्रीय सिद्धांतों को जन्म दिया। 18 वीं सदी में फ्रांस में यह मत प्रचलित हुआ कि विचार और चिंतन समाज में परिवर्तन उत्पन्न करते हैं। 19 वीं सदी में काम्टे ,हीगल एवं कार्ल मेनहीम जैसे विचार को उन्हें सामाजिक परिवर्तन मे

नातेदारी व्यवस्था संगोत्रता एवं आवास के नियम

नातेदारी व्यवस्था संगोत्रता एवं आवास के नियम अंग्रेजी भाषा के kinshil शब्द की हिंदी संगोत्राता ,बंधुत्व,नातेदारी एवं स्वजनता की गई हैं। नातेदारी एवं विवाह जीवन के आधारभूत तथ्य हैं। यौन इच्छा विवाह को जन्म देती है और विवाह परिवार एवं नातेदारी को। सृष्टि के प्रारंभ से ही जिन बातों ने व्यक्तियों को एकता के सूत्र में बांधने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है और मैं आर्थिक हित और सम्मान सुरक्षा महत्वपूर्ण है। सामूहिक सुरक्षा की भावना ने ही कई छोटे-मोटे संघों के निर्माण की प्रेरणा दी जो परिवार से लेकर राष्ट्र तक है। समान भाषा धर्म जाति एवं राष्ट्र के लोगों के बीच व्यक्ति अपने को अधिक सुरक्षित महसूस करता है लेकिन इनसे भी अधिक सुरक्षित वह अपने को नातेदारों में पाता है। जिनके साथ उसके सामाजिक नैतिक आर्थिक हित जुड़े हुए हैं। यह राष्ट्रीयता धर्म प्रदेश सभी बदल सकता है परंतु नातेदार नहीं, इसमें रक्त का संबंध है। अतः जंगली और असभ्य जनजातियों से लेकर सभ्य समाजों तक इसे पुष्ट एवं विश्वसनीय माना जाता है। उपर्युक्त संदर्भ में हम कह सकते हैं कि नातेदारी का प्रत्येक समाज में बहुत महत्व है। संगमन, गर्भा

सामाजिक परिवर्तन के अन्य सिद्धांत

सामाजिक परिवर्तन के अन्य सिद्धांत उपरोक्त सिद्धांतों के अतिरिक्त के सामाजिक परिवर्तन के कुछ अन्य सिद्धांत भी हैं जिनका हम यहां संक्षेप में उल्लेख करेंगे। माल्थस में सामाजिक परिवर्तन के लिए जनसंख्या वृद्धि का सिद्धांत प्रस्तुत किया। उनका मत है कि मानव समाज में खाद्य पदार्थों के उत्पादन की तुलना में जनसंख्या वृद्धि तीव्र गति से होती है। जनसंख्या वृद्धि ज्यामितिक प्रकार से अर्थात 1,2,4,8,16,32,64, के क्रम में होती है। इसकी तुलना में खाद्य सामग्री की वृद्धि अंकगणितीय प्रकार से अर्थात 1,2,3,4,5,6,7 के क्रम में होती है। फलस्वरूप एक समय ऐसा आता है जब जनसंख्या के लिए खाद्य पदार्थों का अभाव होता है। यदि बढ़ती जनसंख्या पर रोक नहीं लगाई जाती है तो किसी देश की जनसंख्या 25 वर्षों में दुगनी हो जाती है। जब जनसंख्या बढ़ती है या घटती है तो समाज में परिवर्तन घटित होते हैं।            सैडलर ने भी जनसंख्या संबंधी सिद्धांत का समर्थन किया और जनसंख्या वृद्धि का संबंध मानव की सुख समृद्धि एवं पारस्परिक संबंधों से जुड़ा है। वे यह मानते हैं कि मानव के विकास के साथ-साथ उसकी संतानोत्पत्ति की छमता में कमी आई है

जिला प्रशासन

जिला प्रशासन क्या है वास्तव में जिला हमारे देश के इतिहास में सदैव ही किसी न किसी रूप में प्रशासन की इकाई रहा है।भारत के इतिहास में प्रथम प्रमाणित मौर्य साम्राज्य ने अपने विशाल राज्य को कुशल एवं प्रभावशाली प्रशासन के लिए प्रांतों में तथा प्रांतों को जिलों में विभाजित किया था। इन्हें ' अहर ' ' विश्यास ' ' और प्रदेश कहा जाता था। अशोक के शिलालेखों में जनपद प्रदेश या जिलों के कल्याण के लिए ' रजुका ' ' प्रदेशिका ' अधिकारियों का उल्लेख मिलता है। गुप्त काल में उनका विस्तृत साम्राज्य प्रांतों में तथा प्रांत विश्मा या मंडल में विभक्त होते थे। विश्मा का प्रभारी अधिकारी आयुक्त या विश्वपति कहलाता था। मुगल सम्राटों ने इस पद्धति का अनुसरण कर इसे निरंतरता प्रदान की।प्रशासन तथा राजस्व संग्रह के लिए साम्राज्य को प्रांत या सूबो में और सूबों को सरकार या जिलों में विभाजित किया। प्रत्येक सरकार जिला अनेक परगना और प्रत्येक परगना अनेक गांवों को मिलाकर बनता था। सरकार आधुनिक जिला का प्रतिरूप था। इसका महत्वपूर्ण कार्य संपूर्ण प्रशासन था। ब्रिटिश शासकों ने क्षेत्र प्रशा