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सामाजिक नियन्त्रण की अवधारणा की व्याख्या कीजिए

सामाजिक नियन्त्रण की अवधारणा की व्याख्या कीजिए

सामाजिक नियंत्रण की अवधारणा का समाजशास्त्रीय साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है। सामाजिक संरचना में दृढ़ता एवं समन्वय रखने वाली शक्तियों के संदर्भ में जितना साहित्य रचा गया उसे सामाजिक नियंत्रण के शीर्षक के अंतर्गत रखा गया है।मैकाइवर कहते हैं कि समाजशास्त्रीय साहित्य का एक बहुत बड़ा भाग सामाजिक नियंत्रण का विवेचन करता है। अमरीकन समाजशास्त्री ई.ए. रास पहला व्यक्ति था जिसने सामाजिक नियंत्रण विषय पर 1901में अपनी कृति Social Control में व्यवस्थित विचार व्यक्त किए।
        सामाजिक नियंत्रण के द्वारा व्यक्तियों के व्यवहारों को समाज के स्थापित प्रतिमाओं के अनुरूप ढालने का प्रयत्न किया जाता है। इस प्रकार सामाजिक नियंत्रण वह विधि है जिसके द्वारा एक समाज अपने सदस्यों के व्यवहारों का नियमन करता है। सामाजिक नियंत्रण के द्वारा एक समाज अपने सदस्यों को उनकी निर्धारित भूमिकाएं निभाने, नियमों का पालन करने एवं व्यवस्था बनाए रखने के लिए प्रेरित करता है। प्रत्येक समाज अपने सदस्यों से यह अपेक्षा करता है कि वे एक निर्धारित तरीके से समाज में आचरण करें, उचित रूप से अपनी भूमिकाओं एवं कर्तव्यों का निर्वाह करें अन्यथा समाज में व्यवस्था बनाए रखना एवं लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति करना कठिन हो जाएगा। प्रत्येक समाज अपने सदस्यों से यह अपेक्षा करता है कि वे उसकी संस्कृति के अनुरूप व्यवहार - प्रतिमानो , प्रथाओं, रीति-रिवाजों, मूल्यों, आदर्शों एवं कानूनों के अनुरूप आचरण कर समाज को स्थायित्व एवं व्यवस्था प्रदान करें। इसलिए वह अपने सदस्यों पर कुछ नियंत्रण लगाता है। इसी प्रकार समाज में जब नई परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं तब भी समाज अपने सदस्यों के व्यवहारों पर अंकुश रखता है जिससे की नई परिस्थितियों से प्रभावित होकर लोग सामाजिक ढांचे को तोड़ना न दें।सामाजिक नियंत्रण एक अन्य दृष्टि से भी आवश्यक है - हॉब्स के अनुसार, मानव अपनी प्रकृति से भी स्वार्थी, व्यक्तिवादी, अराजक, लड़ाकू, हिंसक एवं संघर्षकारी है। यदि उसकी इन प्रवृत्तियों पर अंकुश नहीं रखा जाए और उसे पूरी तरह स्वतंत्र छोड़ दिया जाए तो समाज युद्ध स्थल बन जाएगा व मानव का जीना कठिन हो जाएगा। इस क्लेशकारी , अराजक एवं अव्यवस्थित की स्थिति से बचने के लिए ही प्रत्येक समाज नियंत्रण की व्यवस्था करता है, नियमों एवं कानूनों का निर्माण करता है व आवश्यकतानुसार बल प्रयोग करता है। सामाजिक नियंत्रण के अभाव में मानवीय संबंधों की व्यवस्था एवं संपूर्ण मानव जीवन ही अस्त-व्यस्त हो जाएगा। सामाजिक नियंत्रण के द्वारा ही समाज में संतुलन, दृढ़ता एवं एकरूपता कायम की जाती है। इसके अभाव में सामाजिक मूल्यों एवं आदर्श चकनाचूर हो जाएंगे एवं सामाजिक प्रगति संभव नहीं हो सकेगी। हम यहां सामाजिक नियंत्रण के विभिन्न पक्षों पर विचार करेंगे।

सामाजिक नियंत्रण का अर्थ एवं परिभाषा

सामाजिक नियंत्रण का प्रयोग विभिन्न अर्थों में किया जाता रहा है। एक सामान्य धारणा यह है कि लोगों को समूह द्वारा स्वीकृत नियमों के अनुसार आचरण करने के लिए बाध्य करना ही सामाजिक नियंत्रण है। किंतु यह एक संकुचित धारणा है। प्रारंभ में सामाजिक नियंत्रण का अर्थ केवल दूसरे समूहों से अपने समूह की रक्षा करना और मुखिया के आदेशों का पालन करना मात्र था । बाद में धार्मिक और नैतिक नियमों के अनुसार व्यवहार करने को सामाजिक नियंत्रण माना गया। किंतु वर्तमान समय में सामाजिक नियंत्रण का तात्पर्य संपूर्ण समाज व्यवस्था के नियमन से लिया जाता है जिसका उद्देश्य सामाजिक आदर्शों एवं उद्देश्यों को प्राप्त करना है। विभिन्न विद्वानों ने सामाजिक नियंत्रण को इस प्रकार परिभाषित किया है।

मैकाइवर एवं पेज के अनुसार - सामाजिक नियंत्रण का अर्थ उस तरीके से है जिससे संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था की एकता और उसका स्थायित्व बना रहता है। इसके द्वारा यह समस्त व्यवस्था का एक परिवर्तनशील संतुलन के रूप में क्रियाशील रहती है।

रॉस के अनुसार - सामाजिक नियंत्रण का तात्पर्य उन सभी शक्तियों से है जिनके द्वारा समुदाय व्यक्ति को अपने अनुरूप बनाता है।

गिलिन तथा गिलिन के अनुसार - सामाजिक नियंत्रण सुझाव,अनुनय,प्रतिशोध, उत्पीड़न तथा बल प्रयोग जैसे साधनों की व्यवस्था है जिसके द्वारा समाज किसी समूह के व्यवहार को मान्यता प्राप्त प्रति मानव के अनुरूप बनाता है अथवा जिसके द्वारा समूह सभी सदस्यों को अपने अनुरूप बना लेता है।

आगबर्न एवं निमकाफ - दबाव का वह प्रतिमान जिसे समाज के द्वारा व्यवस्था बनाए रखने और नियमों को स्थापित करने के उपयोग में लाया जाता है सामाजिक नियंत्रण कहा जाता है।

पी.एच. लेंडिस के अनुसार - सामाजिक नियंत्रण एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा सामाजिक व्यवस्था स्थापित की जाती है और बनाए रखी जाती है।

सामाजिक नियंत्रण की आवश्यकता एवं महत्व

किसी भी समाज का अस्तित्व एवं निरंतरता बनाए रखने के लिए समाज में दृढ़ता, संगठन, एकरूपता एवं नियंत्रण होना आवश्यक है। मानव की अराजक और व्यक्तिवादी प्रवृत्ति पर नियंत्रण लगाए बिना समाज में संतुलन बनाए रखना कठिन हो जाएगा । सामूहिक एवं व्यक्तिगत उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भी समूह एवं समाज के सदस्यों पर नियंत्रण रखना आवश्यक हैं। समाज को व्यवस्थित एवं संगठित रखकर ही हम सामाजिक लक्ष्यों को प्राप्त कर सकते हैं और इसके लिए नियंत्रण होना आवश्यक है। सामाजिक ढांचे को नवीन परिवर्तनों के कारण विघटित होने से बचाने एवं लोगों में पारस्परिक सहयोग उत्पन्न करने के लिए भी समाज में नियंत्रण आवश्यक है। इसी संदर्भ में सामाजिक नियंत्रण के उद्देश्यों, आवश्यकता एवं महत्व का हम यहां उल्लेख करेंगे :

सामाजिक संगठन की स्थिरता - सामाजिक नियंत्रण के द्वारा व्यक्ति की निरंकुश एवं अराजक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखा जाता है और उसे मनमानी नहीं करने दी जाती। उसे समाज द्वारा माननीय व्यवहारों के अनुरूप ढालने का प्रयास किया जाता है। फल स्वरुप समाज में अनिश्चितता एवं स्थिरता समाप्त होती है एवं सामाजिक संगठन की निरंतरता बनी रहती है।

परम्पराओं की रक्षा - सामाजिक नियंत्रण का एक उद्देश्य समाज में व्यवस्था को बनाए रखना एवं परंपराओं का पालन करना भी है। परंपराओं में हमारे पूर्वजों का अनुभव एवं ज्ञान निहित होता है जिसे नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी के द्वारा सीख लेती है। परंपराओं के अनुसार आचरण करने से समाज में एकरूपता एवं दृढ़ता बनी रहती है। परंपराएं हमारी संस्कृति की धरोहर एवं रक्षक है। सामाजिक नियंत्रण द्वारा लोगों को परंपराओं को मानने के लिए बाध्य किया जाता है।

समूह में एकता - समाज एवं समूह का सुचारू रूप से संचालन तभी संभव है जब उसमें एकता हो, विघटन की प्रवृत्ति प्रबल ना हो अन्यथा वह समूह या समाज विघटित हो जाएगा। नियंत्रण के द्वारा समाज विरोधी शक्तियों पर अंकुश रखा जाता है और उन्हें समाज के अनुरूप ढाला जाता है।

समूह में एकरूपता - समूह के व्यवस्थित रूप से संचालन के लिए यह भी आवश्यक है कि उसके सदस्यों के व्यवहारों में समानता एवं एकरूपता हो। सामाजिक नियंत्रण द्वारा लोगों के विचारों, व्यवहारों ,मनोवृत्तियों एवं दृष्टिकोण में एकरूपता लाई जाती है।

सहयोग - समाज के अस्तित्व एवं निरंतरता को बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि उसके सदस्यों में परस्पर सहयोग हो । नियंत्रण की सहायता से लोगों से सहयोग प्राप्त किया जाता है । सहयोग के अभाव में समाज में संघर्ष, अनियन्त्रित जीवन एवं विघटन पैदा होंगे जो सामूहिक जीवन को खतरे में डाल देंगे। सामाजिक नियंत्रण की उपस्थिति में ही सहयोग एवं सहकारिता संभव है। सहयोग से ही सामूहिक लक्ष्यों की प्राप्ति हो सकती है।

सामाजिक सुरक्षा - सामाजिक नियंत्रण लोगों को मानसिक एवं व बाह्म सुरक्षा प्रदान करता है। व्यक्ति को जब यह विश्वास होता है कि उसके हितों की रक्षा होगी तो वह मानसिक रूप से संतुष्ट एवं सुरक्षित महसूस करता है। सामाजिक नियंत्रण के द्वारा व्यक्ति की शारीरिक एवं संपत्ति की रक्षा भी की जाती है। इसी प्रकार उसके भरण-पोषण की समुचित व्यवस्था को बनाए रखने में भी सामाजिक नियंत्रण द्वारा सहयोग देता है। सामाजिक नियंत्रण लोगों में नैतिक दायित्व की भावना पैदा कर उन्हें अपनी पास विकृतियों से मुक्त दिलाता और उन्हें समाज के अनुरूप बनना सिखाता है।

व्यक्तिगत व्यवहार पर नियंत्रण - सामाजिक नियंत्रण के द्वारा व्यक्ति के स्वच्छंद व्यवहार एवं मनमानी करने पर भी रोक लगाई जाती है। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छा अनुसार आचरण करने लगेगा तो सामाजिक जीवन का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। नियंत्रण के अभाव में मानव मानव ना होकर पशु के समान हो जाएगा। इसी संदर्भ में लेंडिस ने उचित ही कहा है मानव नियंत्रण के कारण ही मानव है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सामाजिक नियंत्रण के कारण ही समाज का संगठन संभव है। इसके अभाव में मानव जीवन कष्टमय हो जाएगा। सहयोग के स्थान पर संघर्ष एवं विघटन पनपेगा,असुरक्षा फैलेगी,एकरूपता नष्ट हो जाएगी एवं मानव का विकास रुक जाएगा। अतः समाज की सुरक्षा , स्थिरता एवं निरंतरता के लिए सामाजिक नियंत्रण आवश्यक है।

सामाजिक नियंत्रण के स्वरूप , ( प्रकार )

प्रत्येक समाज में नियंत्रण की व्यवस्था होती है किन्तु सभी समाजों में इसके प्रकारों या स्वरूपों में भिन्नता पाई जाती है। इसका कारण यह है कि समाज और सामाजिक संबंधों की प्रकृति, सामाजिक दशाओं एवं व्यक्तिगत व्यवहारों में भिन्नता पाई जाती है। सदस्यों के उद्देश्यों, हितों एवं विचारों के भिन्न-भिन्न होने के कारण एक ही प्रकार के नियंत्रण से सभी के व्यवहारों को नियमित नहीं किया जा सकता । ग्रामीण एवं शहरी , बंद एवं मुक्त, परंपरात्मक एवं जनतांत्रिक एवं एकतंत्र समाज में सामाजिक नियंत्रण के स्वरूपों में भिन्नता होना स्वाभाविक ही है। कभी पुरस्कार के द्वारा तो कभी दंड के द्वारा, कभी औपचारिक व संगठित शक्तियों द्वारा, तो कभी अनौपचारिक हुआ असंगठित शक्तियों द्वारा नियंत्रण रखा जाता है। विभिन्न विद्वानों ने सामाजिक नियंत्रण के विभिन्न प्रकारों या स्वरूपों का उल्लेख किया है, जिसका हम यहां वर्णन करेंगे :-

चेतन और अचेतन नियन्त्रण - अमरीकन समाजशास्त्री कूले तथा एल एल बर्नार्ड ने सामाजिक नियंत्रण के 2 स्वरूपों चेतन व अचेतन का उल्लेख किया है। हम अपने दैनिक जीवन के व्यवहार को प्रमुखता दो भागों में बांट सकते हैं - चेतन एवं अचेतन । कुछ व्यवहार ऐसे हैं जिनके प्रति हम अधिक सचेत होते हैं और यह ध्यान रखते हैं कि उनके निभाने में कोई त्रुटि ना हो जाए। उदाहरण के लिए एक क्लर्क ऑफिस में अपने बॉस की कुर्सी पर नहीं बैठता है किंतु उन्हीं कुर्सियों पर बैठता है जोक लड़कों के लिए हैं। इस प्रकार वह स्थिति को समझ कर कार्य करता है। दूसरी ओर कुछ व्यवहार ऐसे हैं जो हमारे व्यक्तित्व, आदर्श एवं मूल्यों के अंग बन चुके हैं और जिनका हमारे मस्तिष्क में प्रभाव स्थाई हो चुका है। उनका पालन करने के लिए हमें अधिक सोचना नहीं पड़ता वरन हम स्वतः ही वैसा आचरण करने लगते हैं । उदाहरण के लिए वस्त्र पहनते समय हमें वस्त्र को जहां धारण करना है वहीं पहनते हैं। बनियान को कोट पर धारण नहीं करते । ऐसा अचेतन रूप से ही होता है क्योंकि वर्षों से एक निश्चित प्रकार का आचरण करने के कारण हम स्वतः ही वैसा करने लगते हैं। पहली स्थिति में जिसमें हम सचेत एवं जागरूक व्यवहार करते हैं । नियंत्रण करने वाली व्यवस्था को चेतन नियंत्रण और दूसरी स्थिति में जिसमें हम अचेतन एवं स्वाभाविक रूप से आचरण करते हैं नियंत्रण की व्यवस्था को अचेतन नियंत्रण कहते हैं। जाति व्यवस्था में खानपान, छुआछूत और विवाह के नियमों का पालन चेतन नियंत्रण का उदाहरण है। प्रथाओं, कानूनों और लोकाचारों द्वारा किया जाने वाला नियंत्रण चेतन नियन्त्रण होता है क्योंकि उन्हें लागू करते समय हम उनकी उपयोगिता एवं लाभों को भी ध्यान में रखते हैं। दूसरी और परंपराओं, संस्कारों एवं धार्मिक विश्वासों पर समाज में अचेतन नियंत्रण रखा जाता है क्योंकि इनसे संबंधित नियमों का पालन व्यक्ति के व्यक्तित्व का अंग बन चुका है और व्यक्ति स्वतः ही उनका पालन करने लगता है। आधुनिक समय में कानून का महत्व बढ़ने के कारण चेतन नियंत्रण का महत्व भी बढ़ता जा रहा है।

प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष नियन्त्रण - कार्ल मैनहीम ने सामाजिक नियंत्रण के प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष स्वरूपों का उल्लेख किया है। प्रत्यक्ष नियंत्रण का तात्पर्य से नियंत्रण से है जो व्यक्ति पर उसके बहुत समीप के व्यक्तियों द्वारा लागू किया जाता है,जैसे माता पिता ,मित्रो,गुरुजनों, अथवा पड़ोसियों द्वारा किया जाने वाला नियंत्रण। यह नियंत्रण प्रशंसा, आलोचना, सम्मान या परिष्कार के रूप में किया जाता है। इस प्रकार के नियंत्रण का प्रभाव गहरा एवं स्थाई होता है क्योंकि ये ही व्यक्ति के सामाजिकरण के माध्यम होते हैं और व्यक्ति इन की प्रक्रिया को आन्तरीकृत कर लेता है। व्यक्ति के शेष सामाजिक व भौतिक पर्यावरण तथा विभिन्न समूहों एवं संस्थाओं द्वारा लागू किया जाने वाला नियंत्रण अप्रत्यक्ष नियंत्रण कहलाता है । नियंत्रण का यह स्वरूप अत्यधिक सोच और छोटे-छोटे व्यवहारों को नियंत्रित करने वाला होता है। यह व्यक्ति को एक विशेष प्रकार से व्यवहार करने को बाध्य करता है। शुरू में तो हुम चेतन रूप में इससे नियंत्रित होते हैं किंतु बाद में यह नियंत्रण हमारे व्यवहार एवं मूल्यों का अंग बन जाता है और हम स्वाभाविक रूप से उसे मानने लगते हैं । अप्रत्यक्ष नियंत्रण में तर्क एवं सामूहिक कल्याण को अधिक महत्व दिया जाता है।

सकारात्मक और नकारात्मक नियन्त्रण - किम्बल यंग ने सामाजिक नियंत्रण को सकारात्मक एवं नकारात्मक दो भागों में बांटा है। सकारात्मक नियंत्रण में व्यक्ति को पुरस्कार देकर सही व्यवहार करने को प्रेरित किया जाता है। उदाहरणार्थ , अच्छे आचरण वाले छात्र को, श्रेष्ठ छात्र को, श्रेष्ठ खिलाड़ी को, वीर सिपाही को पुरस्कार, प्रशंसा पत्र, धन्यवाद, शाबाशी आदि देना सकारात्मक नियंत्रण है । बच्चों को अच्छे कार्य के लिए माता-पिता द्वारा प्यार करना या चुम्बन देना भी पुरस्कार ही है। सकारात्मक नियंत्रण में पुरस्कार प्रदान कर अन्य लोगों को भी वैसा ही व्यवहार करने को प्रोत्साहित किया जाता है । नकारात्मक नियंत्रण में समाज विरोधी व्यवहार करने वाले व्यक्ति को दण्डित किया जाता हैं। दण्ड की मात्रा कितनी होगी यह इस बात पर निर्भर है कि व्यक्ति ने कितना गंभीर अपराध किया है। दण्ड , उपहास, व्यंग, आलोचना, बहिष्कार,जेल,जुर्माना और मृत्यु दण्ड आदि कई प्रकार का हो सकता है। आदिम एवं आधुनिक समाजों में नकारात्मक सामाजिक नियंत्रण अधिक प्रभाव कारी है।

संगठित,असंगठित तथा सहज नियन्त्रण - गुरबिच तथा मूर ने सामाजिक नियंत्रण के तीन स्वरूपों संगठित असंगठित तथा सहज नियन्त्रण का उल्लेख किया है। संगठित नियंत्रण का अर्थ उस नियंत्रण से है जो अनेक छोटी बड़ी एजेंसियों और व्यापक नियमों द्वारा व्यक्तियों के व्यवहारों को प्रभावित करता है। इनका विकास नियमित रूप से होता है और इसे स्वेच्छाचारी प्रकृति का कहा जा सकता है । इसमें व्यक्ति के अधिकारों एवं कर्तव्यों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाता है। शिक्षण संस्था, परिवार, राज्य, बैंक आदि द्वारा लागू किए गए नियंत्रण इसी श्रेणी में आते हैं।

असंगठित नियंत्रण में सांस्कृतिक प्रतीक एवं नियम आते हैं। दैनिक जीवन में इनका प्रभाव सर्वाधिक होता है। संस्कारों, परंपराओं, जनरीतियों व लोकाचारों द्वारा किया जाने वाला नियंत्रण इसी प्रकार का है ।
सहज नियंत्रण का आधार व्यक्तियों के अनुभव, मूल्य, आदर्श, विचार और आवश्यकताएं हैं। व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु। स्वतः ही कार्य करता है और कुछ व्यवहारों को सीखता है। व्यक्ति स्वयं अपने अनुभव एवं आवश्यकता के कारण कुछ नियन्त्रणों को स्वीकार करता है। इस प्रकार का नियंत्रण सहज प्रकृति का होता है और इसका प्रभाव भी अधिक होता है । कानून की तरह या व्यक्ति पर थोपा नहीं जाता है। धार्मिक नियमों को हम सहज नियंत्रण के अंतर्गत रख सकते हैं ।

सत्तावादी एवं लोकतान्त्रिक नियन्त्रण - लेपियर ने सामाजिक नियंत्रण को सत्तावादी एवं लोकतांत्रिक दो भागों में बांटा है। लेपियर कहते हैं कि जब कभी कोई प्रशासनिक संस्था अथवा दंड देने वाला व्यक्ति समाज द्वारा स्वीकृत संगठनों के अतिरिक्त किसी दूसरे लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उत्पीड़न अथवा शक्ति का प्रयोग करता है तब इस प्रकार से स्थापित किए गए नियंत्रण को सत्तावादी नियंत्रण कहते हैं। सत्तावादी नियंत्रण में शक्ति का उपयोग जन सामान्य की इच्छाओं के विरुद्ध होता है। यदि सत्ताधारी शक्ति का उपयोग समाज की परम्पराओं, सामाजिक मूल्यों और स्वीकृत व्यवहारों के विपरीत करते हैं तो इसे सत्तावादी नियंत्रण कहां जाएगा। निरंकुश एवं तानाशाही शासकों द्वारा इसी प्रकार का नियंत्रण रखा जाता है। सत्तावादी नियंत्रण रखने के लिए धमकियों, कूटनीति, अधिकार प्रदर्शन, गुप्त संगठन, प्रलोभन, एवं कूटनीतिक एजेंसियों आदि का सहारा लिया जाता है। लोकतांत्रिक नियंत्रण में व्यक्ति नियंत्रण को अपने पर भार नहीं समझते वरन अपने हित में अच्छा मानते हैं और यह विधि सामाजिक मूल्यों के अनुरूप मानी जाती है। लोकतांत्रिक नियंत्रण में व्यक्तियों को स्वेच्छा से एक विशेष प्रकार का आचरण करने को प्रेरित किया जाता है। इसमें व्यक्तियों को संतुष्ट करने के लिए आपसी वार्तालाप किया जाता है। सत्तावादी नियंत्रण में धमकी एवं शारीरिक उत्पीड़न का सहारा लिया जाता है। जबकि लोकतांत्रिक नियंत्रण में व्यक्तियों को पुरस्कार एवं भावात्मक प्रेरणाओं के द्वारा नियंत्रण में रखा जाता है। ऐच्छिक आज्ञाकारिता , अनुनय , वार्तालाप तथा सामाजिक प्रोत्साहन आदि लोकतांत्रिक नियंत्रण के प्रमुख साधन है। हिटलर एवं मुसोलिनी का नियंत्रण सत्तावादी था जबकि प्रजातंत्रीय देशों में नियंत्रण लोकतांत्रिक पद्धति से रखा जाता है।

औपचारिक एवं अनौपचारिक सामाजिक नियन्त्रण - कुछ समाज शास्त्रियों ने सामाजिक नियंत्रण को औपचारिक एवं अनौपचारिक दो भागों में बांटा है। गुरबिच एवं मूर का संगठित एवं असंगठित नियंत्रण वास्तव में औपचारिक एवं अनौपचारिक नियंत्रण ही है । औपचारिक नियंत्रण लिखित एवं निश्चित कानूनों तथा नियमों द्वारा किया जाता है। उसके पीछे राज्य एवं सरकार की शक्ति होती है। नियमों का पालन कराने के लिए औपचारिक संस्थाओं एवं न्याय की व्यवस्था होती है तथा नियमों का उल्लंघन करने पर न्यायालय अथवा अन्य किसी संस्था द्वारा दण्ड दिया जाता है। उदाहरण के लिए, चोरी, जालसाजी एवं डकैती करने वाले को औपचारिक प्रक्रिया के माध्यम से दण्डित किया जाता है । इस प्रकार कानून, न्यायालय, पुलिस एवं जेल औपचारिक नियंत्रण के माध्यम हैं। दूसरी ओर आदिम , सरल और ग्रामीण समाजों में प्रथाओं ,परम्पराओं, लोकाचारों, विश्वासों,हास्य , व्यंग्य ,जनमत,आलोचना ,संस्कार,एवं धर्म आदि के द्वारा नियंत्रण रखा जाता है। ये नियंत्रण के औपचारिक साधन है । अनौपचारिक नियंत्रण का संबंध राज्य से ना होकर समाज से होता है। आज के आधुनिक जटिल समाजों में सामाजिक नियंत्रण के अनौपचारिक साधनों का प्रभाव कमजोर पड़ता जा रहा है। परिणाम स्वरूप वहां सामाजिक नियंत्रण के औपचारिक साधनों की उपयोगिता एवं प्रयोग बढ़ता जा रहा है।

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