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Showing posts from May, 2020

समाजशास्त्र का अर्थ एवं परिभाषा

यद्यपि मनुष्य आदिकाल से ही समाज में रहता रहा है परंतु उसने समाज और अपने स्वयं के अध्ययन में काफी देर से रुचि लेना प्रारम्भ किया । सर्वप्रथम मनुष्य ने प्राकृतिक घटनाओं का अध्ययन किया, अपने चारों ओर के पर्यावरण को समझने का प्रयत्न किया और अंत में स्वयं के अपने समाज के विषय में सोचना विचारना शुरू किया । यही कारण है कि पहले प्राकृतिक विज्ञानों का विकास हुआ और उसके पश्चात सामाजिक विज्ञानों का । सामाजिक विज्ञानों के विकास क्रम में समाजशास्त्र का एक विषय के रूप में विकास काफी बाद में हुआ । पिछली शताब्दी में ही इस नवीन विषय को अस्तित्व में आने का अवसर मिला । इस दृष्टि से अन्य सामाजिक विज्ञानों की तुलना में समाजशास्त्र एक नवीन विज्ञान है ।  समाजशास्त्र 'समाज' का ही विज्ञान या शास्त्र है । इसके द्वारा समाज या सामाजिक जीवन का अध्ययन किया जाता है । इस नवीन विज्ञान को जन्म देने का श्रेय फ्रांस के प्रसिद्ध विद्वान आगस्त काम्टे को है । आप ने ही सर्वप्रथम सन 1838 में इस नवीन शास्त्र को समाजशास्त्र नाम दिया है । इसी कारण आपको समाजशास्त्र का जनक कहा जाता है । समाजशास्त्र के प्रारंभिक लेखकों में

समाजीकरण से सम्बंधित अवधारणाएं

समाजीकरण से सम्बंधित अवधारणाएं समाजीकरण से सम्बंधित कुछ अवधारणाओं को हम यहां स्पष्ट करेंगे :- 1.- नकारात्मक समाजीकरण :- समाजीकरण का तात्पर्य समाज सम्मत व्यवहारों, सामाजिक मूल्यों, आदर्शों एवं प्रतिमानो को सीखने से है । किंतु कई बार व्यक्ति समाज द्वारा अस्वीकृत व्यवहारों को भी सीखता है, उसे ही नकारात्मक समाजीकरण कहते हैं । उदाहरण के लिए एक बच्चा चोरी करना, गाली देना, आज्ञा का उल्लंघन करना , कानून की अवहेलना करना सीखता है ।तो उसे हम समाज विरोधी करार देते हैं यही नकारात्मक समाजीकरण कहलाता है । नकारात्मक सामाजिकरण समाज में अपराध और विपथगामी व्यवहार के लिए उत्तरदाई है । 2.- वि-समाजीकरण :- (De-Socialization) - वि-समाजीकरण का तात्पर्य पहले से सीखे हुए व्यवहारों को भुला देना अर्थात व्यक्ति का पहले जो समाजीकरण हुआ है उसे समाप्त कर देना है, व्यक्ति को उसके पहले हुए समाजीकरण की त्रुटियां व हानियां बताकर पहले वाले समाजीकरण में सीखे हुए व्यवहारों को छोड़ने व भुलाने को कहा जाता है । उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति चोरी व अपराध करने में संलग्न हो जाता है या कक्षा से भागने की प्रवृत्ति सीख लेता है तो

समाजीकरण के विभिन्न सिद्धांतों की विवेचना कीजिए

समाजीकरण के विभिन्न सिद्धांतों की विवेचना कीजिए विभिन्न विद्वानों ने अपने सिद्धांत प्रतिपादित कर यह दर्शाने का प्रयास किया है कि व्यक्ति का समाजीकरण किस प्रकार से होता है ? उसकी मानसिक स्थिति क्या होती है ? मनोवैज्ञानिकों एवं समाज शास्त्रियों ने समाजीकरण के सिद्धांत को आत्म या स्व के विकास के आधार पर समझने का प्रयत्न किया है 'आत्म ' कोई शारीरिक तत्व ना होकर एक मानसिक तथ्य है । व्यक्ति के समाजीकरण में 'आत्म ' या ' स्व' का उद्भव और विकास केंद्र बिंदु है । ' स्व ' का अर्थ गर्व या घमंड से नहीं है वरुण व्यक्ति का स्वयं के बारे में ज्ञान से है जो कि दूसरों के संपर्क एवं व्यक्ति के प्रति दूसरे लोग क्या सोचते हैं , से विकसित होता है । ' स्व' के ज्ञान के बाद ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है । वह व्यक्ति को उसके मानसिक अस्तित्व का बोध कराता है यद्यपि शारीरिक अस्तित्व पहले से ही मौजूद होता है । हम यहां आत्म के विकास एवं समाजीकरण से संबंधित कुछ सिद्धांतों का उल्लेख करेंगे । 1. - कूले का सिद्धान्त (Cooley's Theory) :- अमेरिकन समाजशास्त्री कू

समाजीकरण के प्रमुख अभिकरण या संस्थाओं का वर्णन कीजिए

समाजीकरण के प्रमुख अभिकरण या संस्थाओं का वर्णन कीजिए मानव के समाजीकरण की प्रक्रिया बड़ी लंबी एवं जटिल है । इस कार्य में अनेक संस्थाओं एवं समूहों का योगदान होता है । यह संस्थाएं समय-समय पर विभिन्न बातें सिखाती हैं कभी तो ये एक दूसरे की पूरक एवं सहयोगी होती हैं तो कभी परस्पर स्वतंत्र एवं संघर्षकारी । बच्चे का समाजीकरण करने में अनेक प्राथमिक संस्थाओं , जैसे परिवार , पड़ोस, मित्र मंडली, विवाह एवं नातेदारी समूह एवं द्वितीयक संस्थाओं, जैसे विद्यालय, धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं व्यवसायिक संगठनों आदि का योगदान होता है । व्यक्ति इन संस्थाओं एवं समूहों से जितना अनुकूलन करता है, समाजीकरण भी उतना ही सफल माना जाता है । हम यहां समाजीकरण की प्रमुख संस्थाओं व समूहों का उल्लेख करेंगे । 1.- परिवार एवं समाजीकरण करने वाली संस्था के रूप में :- समाजीकरण करने वाली संस्थाओं में परिवार सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि बालक परिवार में ही जन्म लेता है और सर्वप्रथम परिवार के सदस्यों के ही संपर्क में आता है । परिवार में ही उसे समाज के रीति रिवाज, लोकचारों, प्रथाओं एवं संस्कृति का ज्ञान कराया जाता

समाजीकरण की प्रक्रिया या अवस्थाओं की व्याख्या कीजिए

समाजीकरण की प्रक्रिया या अवस्थाओं की व्याख्या कीजिए समाजीकरण की प्रक्रिया ( चरण , अवस्था ) बच्चे के जन्म के बाद से ही शुरू हो जाती है । मानव की शरीर रचना अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ है । विकसित मस्तिष्क , केंद्रित की जाने वाली दृष्टि , घुमाई जा सकने वाली गर्दन , हाथ की रचना और अंगूठे की विशिष्ट स्थिति आदि के कारण मानव में ही सभ्यता एवं संस्कृति निर्माण करने की क्षमता है । उसकी इस विशिष्ट संरचना के कारण ही उससे सीखने के गुण पाए जाते हैं । और सामाजिक सीख के द्वारा वह अपने व्यक्तित्व का विकास करता है । इसलिए पारसन्स कहते हैं कि बच्चा उस पत्थर के समान है जिसे जन्म के समय सामाजिक तालाब में फेंक दिया जाता है , जिसमें रहकर वह अपना सामाजिकरण करता है और समाज का अंग बन जाता है । लुण्डवर्ग ने समाजीकरण को एक सूत्र द्वारा प्रकट किया है जो इस प्रकार है : व्यक्ति × समाज = सामाजिक व्यवहार = समाजीकरण ।         बच्चे का मस्तिष्क इतना कोमल होता है कि उसे किसी भी दिशा में मोड़ा जा सकता है । कोई भी बात सिखाई जा सकती है । विभिन्न समयों में बच्चा विभिन्न प्रकार की बातें सीखता है और यह कार्य परिवार , पड़ोस ,

समाजीकरण का अर्थ एवं परिभाषा

समाजीकरण का अर्थ एवं परिभाषा समाजीकरण शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थों में किया गया है । अर्थशास्त्री और मुख्यतः मार्क्सवादी अर्थशास्त्री समाजीकरण शब्द का प्रयोग उत्पादन के साधनों एवं संपत्ति पर समाज के अधिकार के रूप में करते हैं । उदाहरणार्थ , वे कहते हैं कारखानों , बैंकों एवं भूमिका समाजीकरण किया जाना चाहिए, इसका अर्थ है इन पर समाज का स्वामित्व होना चाहिए । किम्बाल यंग ने समाजीकरण शब्द के तीन भिन्न भिन्न अर्थों का उल्लेख किया है : 1. - समाज सुधारक एवं उपदेशक :- इस शब्द का प्रयोग बच्चों एवं युवकों को नैतिक प्रशिक्षण देने के अर्थ में करते हैं । 2.- बाल मनोविज्ञान में संकीर्ण अर्थ में इस शब्द का प्रयोग बच्चों को सामाजिक प्रशिक्षण देने के अर्थ में किया गया है । 3. - समाजशास्त्र में इसका प्रयोग उन प्रक्रियाओं के लिए किया जाता है जिनके द्वारा व्यक्ति को सामाजिक सांस्कृतिक संसार से परिचित कराया जाता है । इस अर्थ में समाजीकरण वह विधि है जिसके द्वाराा संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित किया जाता है । इसके द्वारा व्यक्ति अपनेेे समूह एवं समाज के मूल्यों, जनरीतिय

कुलीन विवाह से आप क्या समझते हैं

कुलीन विवाह से आप क्या समझते हैं कुलीन विवाह का अर्थ जैसा कि उपरोक्त विवेचना से स्पष्ट है कि कुलीन विवाह वह प्रथा है जो कि लड़की को अपनी ही जाति या उप जाति में अपने से बराबर या ऊँचे कुलों में विवाह करने की आज्ञा देती है । दूसरे शब्दों में लड़की को अपने से नीचे कुलों इस वंश में विवाह करने की छूट है परंतु एक व्यक्ति को अपने लड़की का विवाह अपनी ही जाति में अपने बराबर या अपने से ऊंचे कुलों में करना पड़ता है यही कुलीन विवाह है । उदाहरणार्थ , ' अ ' ' ब ' ' स ' और ' द ' चारो कुल ब्राह्मण जाति के अंतर्गत ही आते हैं, पर सामाजिक प्रतिष्ठा के दृष्टिकोण से ' अ ' की स्थिति सर्वश्रेष्ठ है और उसके बाद क्रमशः ' ब ' ' स ' और ' द ' का स्थान है । अतः यदि ' ब ' 'स ' या ' द ' कुल या वंश की लड़की का विवाह ' अ ' के लड़के के साथ होता है तो उसे कुलीन विवाह कहेंगे । उसी प्रकार ' द ' वंश की लड़की की शादी ' ब ' या ' स ' वंश के साथ होने पर भी वह कुलीन विवाह होगा । अतः कुलीन विवाह में लड़के की

हिन्दू विवाह सम्बंधित नियम

हिन्दू विवाह से सम्बंधित नियम प्रत्येक समाज में विवाह से संबंधित कुछ नियम पाए जाते हैं जीवनसाथी के चुनाव के दौरान तीन बातें सामने आती हैं - चुनाव का क्षेत्र , चुनाव का पक्ष एवं चुनाव की कसौटीयां । चुनाव के क्षेत्र को दो प्रकार से सीमित किया जाता है -1 - कुछ लोगों को विवाह में अधिमान्यता प्रदान करके और ऐसा करना वांछनीय ही नहीं वरन कर्तव्य भी समझा जाता है। उदाहरण के लिए, दक्षिणी भारत एवं महाराष्ट्र में मेरे दुखे रे भाई बहनों के विवाह को अधिमान्यता दी जाती है। 2 - कुछ संबंधियों से विवाह करना अवांछनीय या निषेध माना जाता है । इसके अतिरिक्त अंतर्विवाह एवं बहुर्विवाह के नियम भी जीवन साथी के चुनाव को निर्देशित करते हैं । कपाड़िया एवं प्रभु दोनों ने ही इस बात को स्वीकार किया है । प्रभु लिखते हैं हिंदू धर्म शास्त्रों में जीवन साथी के चुनाव को नियंत्रित करने की दृष्टि से हिंदू विवाह को व्यवस्थित करने हेतु अंतर्विवाह और बहिर्विवाह के कुछ नियम निर्धारित किए गए हैं । हिंदू विवाह से संबंधित सभी नियमों को हम अंतर्विवाह ,बहिर्विवाह, अनुलोम एवं प्रतिलोम आदि चार भागों में बांट सकते हैं। संक्षेप मे