हिन्दू विवाह से सम्बंधित नियम
प्रत्येक समाज में विवाह से संबंधित कुछ नियम पाए जाते हैं जीवनसाथी के चुनाव के दौरान तीन बातें सामने आती हैं - चुनाव का क्षेत्र , चुनाव का पक्ष एवं चुनाव की कसौटीयां । चुनाव के क्षेत्र को दो प्रकार से सीमित किया जाता है -1 - कुछ लोगों को विवाह में अधिमान्यता प्रदान करके और ऐसा करना वांछनीय ही नहीं वरन कर्तव्य भी समझा जाता है। उदाहरण के लिए, दक्षिणी भारत एवं महाराष्ट्र में मेरे दुखे रे भाई बहनों के विवाह को अधिमान्यता दी जाती है। 2 - कुछ संबंधियों से विवाह करना अवांछनीय या निषेध माना जाता है । इसके अतिरिक्त अंतर्विवाह एवं बहुर्विवाह के नियम भी जीवन साथी के चुनाव को निर्देशित करते हैं । कपाड़िया एवं प्रभु दोनों ने ही इस बात को स्वीकार किया है । प्रभु लिखते हैं हिंदू धर्म शास्त्रों में जीवन साथी के चुनाव को नियंत्रित करने की दृष्टि से हिंदू विवाह को व्यवस्थित करने हेतु अंतर्विवाह और बहिर्विवाह के कुछ नियम निर्धारित किए गए हैं । हिंदू विवाह से संबंधित सभी नियमों को हम अंतर्विवाह ,बहिर्विवाह, अनुलोम एवं प्रतिलोम आदि चार भागों में बांट सकते हैं। संक्षेप में इनका हम यहां विवेचन करेंगे ।1. अंतर्विवाह :-
अंतर्विवाह का तात्पर्य है एक व्यक्ति अपने जीवन साथी का चुनाव अपने ही समूह से करें । यह समूह अलग-अलग लोगों के लिए भिन्न-भिन्न हो सकता है। इसे परिभाषित करते हुए डॉ रिवर्स लिखते हैं अंतर्विवाह से अभिप्राय उस विनियम से है जिसमें अपने समूह में से ही विवाह साथी चुनना अनिवार्य होता है ।वैदिक एवं उत्तर वैदिक काल में द्विजों ( ब्राह्मण क्षत्रिय एवं वैश्य ) का एक ही वर्ण था और द्विज वर्ग के लोग अपने में ही विवाह करते थे । शुद्र वर्ण पृथक था स्मृतिकाल में अन्तर्वर्ण विवाहों की स्वीकृति प्रदान की गई थी । लेकिन अब एक वर्ड कई जातियों एवं उप जातियों में विभक्त हुआ तो विवाह का दायरा सीमित होता गया और लोग अपनी जाति एवं उप जाति में विवाह करने लगे और इसे ही अंतर्विवाह माना जाने लगा । डॉ कापड़िया ने वैश्यों की एक जाति बनिया की कई उपशाखा हो जैसे लाढ , मोढ , पोरवाड़ , नागर , श्रीमाली आज का उल्लेख किया है ।लाढ स्वयं भी बीसा एवं दस्सा इन 21 भागों में बंटी हुई है । स्वयं बीसा भी अहमदाबादी, खम्बाती आज स्थानीय खण्डों में बंटी हुई है । प्रत्येक खण्ड अंतर्विवाही हैं । कुछ उप जातियों में गोल , एकड़ा आदि है जो चुनाव के क्षेत्र को एक स्थानीय सीमा तक संकुचित कर देते हैं। गांव के लोग अपनी कन्या का विवाह कस्बों के लोगों के साथ कर देते हैं किंतु उनके पुत्रों के लिए कस्बे वाले कन्याएं नहीं देते । ऐसी स्थिति में विवाह का एक क्षेत्र निर्धारित करना पड़ता है जो गोल अथवा एकड़ा कहलाता है । वर्तमान समय में एक व्यक्ति अपनी ही जाति उपजाति प्रजाति धर्म क्षेत्र भाषा एवं वर्ग के सदस्यों से ही विवाह करता है । केतकर ने कहा है कि कुछ हिंदू जातियां ऐसी है जो 15 परिवारों के बाहर विवाह नहीं करती । एक तरफ हमें अंतर्जातीय एवं अंतर्राष्ट्रीय विवाह देखने को मिलते हैं वहीं दूसरी ओर अंतर्विवाह के कारण विवाह का दायरा अत्यंत संकुचित हो गया है ।
अंतर्विवाह के कारण :- विवाह के क्षेत्र को इस प्रकार सीमित करने के कई जातीय एवं सांस्कृतिक कारक रहे हैं इनमें से प्रमुख इस प्रकार हैं।
1. प्रजाति मिश्रण पर रोक :- भारत में समय-समय पर कई प्रजातियों के लोग आए और उन्होंने अपने को किसी न किसी वर्ण में सम्मिलित कर लिया । अंतर प्रजातिय मिश्रण को रोकने के लिए अंतर्वर्ण विवाहों पर प्रतिबंध लगाए गए । विशेषता आर्य एवं द्रविड प्रजातियों के बीच रक्त मिश्रण को रोकने के लिए ऐसा किया गया ।
2. सांस्कृतिक भिन्नता :- आर्य एवं द्रविड़ों तथा बाह्म आक्रमणकारियों की संस्कृति में पर्याप्त भिन्नता थी । इस कारण वैवाहिक संबंधों में भी कठिनाई पैदा होती थी । जब वर्ण विभिन्न जातियों एवं उप जातियों में विभक्त हुए तो सांस्कृतिक भिन्नता में भी वृद्धि हुई । प्रत्येक जाति और उपजाति अपनी सांस्कृतिक विशेषता को बनाए रखना चाहती थी । अतः उन्होंने अंतर्विवाह पर जोर दिया ।
3. जन्म का महत्व :- प्रारंभ में व्यक्ति को उसके कर्म के आधार पर आंका जाता था किंतु धीरे-धीरे जन्म का महत्व बड़ा और रक्त शुद्धता की भावना ने जोर पकड़ा और फल स्वरूप अंतर्विवाह प्रथा पनपी ।
4. जैन एवं बौद्ध धर्म का विकास :- ब्राह्मणवाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया के कारण जैन एवं बौद्ध धर्मों का उदय हुआ । इस कारण ब्राह्मण की शक्ति में गिरावट आई । किंतु ज्योहीं इन दोनों धर्मों में शिथिलता आई , ब्राह्मणों ने अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करने के लिए कठोर जातीय नियम बनाए और अंतर्विवाह के नियमों का कड़ाई से पालन किया जाने लगा ।
5. मुसलमानों का आक्रमण :- मुसलमान आक्रमणकारियों ने हिंदुओं के धर्म एवं संस्कृति पर कठोर प्रहार किया उन्होंने हिंदू लड़कियों से विवाह करने प्रारंभ किए इस स्थिति से बचने एवं अपने धर्म तथा संस्कृति की रक्षा के लिए हिंदुओं ने अंतर्विवाह के नियमों को कठोर बना दिया ।
6. बाल विवाह :- मध्य युग से ही जब बाल विवाहों की वृद्धि हुई तो अंतर्विवाह का पालन किया जाने लगा क्योंकि जब माता-पिता ही बच्चों का विवाह तय करते हैं तो वे जातीय नियमों के विरुद्ध विवाह की बात नहीं सोच पाते ।
7. उप जातियों का क्षेत्रीय केंद्रीयकरण :- भौगोलिक दृष्टि से पृथक पृथक क्षेत्रों में निवास तथा यातायात और संचार वाहन के साधनों के अभाव के कारण उप जातियों का पारस्परिक संपर्क संभव नहीं था अतः ए क्षेत्र में निवास करने वाली उप जातियों ने अपने ही सदस्यों से विवाह करने पर जोर दिया ।
8. व्यावसायिक ज्ञान की सुरक्षा :- प्रत्येक जाति का एक परम्परात्मक व्यवसाय पाया जाता है । अपने व्यावसायिक ज्ञान को गुप्त रखने की इच्छा ने भी अंतर्विवाह को प्रोत्साहित किया ।
उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त व्यक्ति का अपनी ही जाति के प्रति लगाव जाति से बहिष्कृत किए जाने का डर तथा जाति पंचायत द्वारा जातीय नियमों को कठोरता से लागू करने आदि के कारण भी अंतर्विवाह के नियमों का पालन उत्तरोत्तर बढ़ता गया । अंतर्विवाह के इन नियमों से एक ओर हिंदू समाज को कुछ लाभ प्राप्त हुए तो दूसरी ओर इससे कई कहानियां भी हुई है । ऐसे लोगों के संपर्क का दायरा सीमित हो गया, संकीर्णता की भावना पनपी , पारस्परिक घृणा , द्वेष एवं कटुता में वृद्धि हुई , क्षेत्रीयता की भावना पनपी , जातिवाद बढ़ा , व्यवसायिक ज्ञान एवं समूह तक ही सीमित हो गया । इन सभी के कारण भारतीय समाज की प्रगति अवरुद्ध हुई । किंतु वर्तमान समय में नगरीकरण , औद्योगिकरण , यातायात एवं संचार वाहन के साधनों के विकास एवं एकाकी परिवारों की स्थापना के कारण अंतर्विवाह के नियम शिथिल होते जा रहे हैं । विवाह से संबंधित विधान ओं ने भी अंतर्वर्ण एवं अंतर्जातीय विवाहों को स्वीकृति प्रदान की है । फिर भी नैतिक शक्ति और सामाजिक बाध्यता इतनी प्रबल है कि हिंदू अंतर्विवाह के नियमों को पूर्णता त्याग नहीं पाते ।
2 . बहिर्विवाह
बहिर्विवाह से तात्पर्य है एक व्यक्ति जिसे समूह का सदस्य है उससे बाहर विवाह करें । रिवर्स लिखते हैं बहिर्विवाह से बोध होता है उस विनियम का जिसमें एक सामाजिक समूह के सदस्य के लिए यह अनिवार्य होता है कि वह दूसरे सामाजिक समूह से अपना जीवन साथी ढूंढ ।
हिन्दुओ में बहिर्विवाह के नियमों के अनुसार एक व्यक्ति को अपने परिवार , गोत्र , प्रवर ,पिण्ड आदि समूहों के बाहर विवाह करना पड़ता है । जनजातियों में एक ही टोटम को मानने वाले लोगों को भी परस्पर विवाह करने की मनाही है । गोत्र , प्रवर एवं पिण्ड के नियमों की सदैव अनिश्चितता रही है । इस संदर्भ में प्रभु ने लिखा है ' अपने उत्पत्ति के समय से लेकर प्रत्येक युग में बहिर्विवाह के नियमों से संबंधित इन तीन शब्दों गोत्र,प्रवर,और पिण्ड के वास्तविक अर्थों के संबंध में निश्चित रूप से कुछ भी कहना असंभव सा हो गया है । हिंदुओं में प्रचलित बहिर्विवाह के स्वरूपों का हम यहां संक्षेप में उल्लेख करेंगे
A . गोत्र बहिर्विवाह :- हिंदुओं में संगोत्र विवाह निषेध है । गोत्र का सामान्य अर्थ उन व्यक्तियों के समूह से है जिन की उत्पत्ति एक ऋषि पूर्वज से हुई हो । ' सत्याषाढ़ हिरण्यकेशी श्रोतसूत्र ' के अनुसार विश्वामित्र , जमदग्नि , भारद्वाज , गौतम , अत्रि , वशिष्ठ , कश्यप , अगस्त्य नामक आठ ऋषियों की संतानों को गोत्र के नाम से पुकारा गया । छान्दोग्य उपनिषद में गोत्र शब्द का प्रयोग परिवार के अर्थ में हुआ है । गोत्र शब्द के तीन या चार अर्थ है जैसे गौशाला , गाय का समूह , किला तथा पर्वत आदि । इस प्रकार एक घेरे में या स्थान पर रहने वाले लोगों में परस्पर विवाह वर्जित था । गोत्र का शाब्दिक अर्थ गो + त्र अर्थात गायों के बांधने का स्थान ( गौशाला या बाड़ा ) अथवा गोपालन करने वाला समूह से है । जिन लोगों की गाय एक स्थान पर बनती थी । उनमें नैतिक संबंध बन जाते थे और संभवतः वे रक्त संबंधी भी होते थे अतः वे परस्पर विवाह नहीं करते थे । विज्ञानेश्वर ने गोत्र का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा है कि वंश परंपरा में जो नाम प्रसिद्ध होता, उसी को गोत्र कहा जाता । इस प्रकार एक गोत्र के सदस्यों द्वारा अपने गोत्र से बाहर विवाह करना ही गोत्र बहिर्विवाह कहलाता है ।
गोत्र बहिर्विवाह का प्रारंभ कब हुआ कैसे हुआ इस बारे में निश्चितता से कुछ भी नहीं कहा जा सकता । डॉ कापड़िया का मत है कि वैदिक काल में संगोत्र विवाह निषिद्ध नहीं थे क्योंकि इस समय गंधर्व विवाह एवं स्वयंवर की प्रथा का प्रचलन था जिनमें गोत्र संबंधी निषेध हो कब बना रहना असंभव था । धर्म शास्त्रों में द्विजों को कलयुग में संगोत्र विवाह से बचने को कहा गया है । इसका अर्थ है कि उस समय संगोत्र विवाह पर प्रतिबंध नहीं थे। डॉ अल्टेकर का मत है कि ईसा के 600 वर्ष पूर्व संगोत्र विवाह पर निषेध नहीं था मनु ने भी संगोत्र विवाह को पाप माना है । सर्व प्रथम गृह सूत्र में साहित्य में संगोत्र विवाह की मनाही की गई । बौधायन धर्मसूत्र में तो कहा गया है कि यदि अज्ञान वश भी संगोत्र कन्या से विवाह हो जाता है तो उसका पालन माता की तरह किया जाए । स्मृति कारों ने संगोत्र विवाह करने वालों के लिए अनेक दंड प्रायश्चित एवं जाति से बहिष्कृत करने की व्यवस्था की है । ऐसे व्यक्ति को चांडाल की संज्ञा दी गई है।
विज्ञानेश्वर का मत है कि ब्राह्मणों के ही वास्तविक गोत्र होते हैं । क्षत्रियों एवं वैश्यों के गोत्र उनके पुरोहितों के गोत्रों के आधार पर होते हैं । सूत्रों के कोई गोत्र नहीं होते। किंतु वर्तमान में सभी जातियों में गोत्र पाए जाते हैं और वे गोत्र बहिर्विवाह के नियमों का पालन करती है । हिंदू विवाह अधिनियम द्वारा वर्तमान में संगोत्र विवाह संबंधी प्रतिबंध हटा दिए गए हैं किंतु व्यवहार में आज भी इसका प्रचलन है ।
B . सप्रवर बहिर्विवाह - गोत्र से संबंधित ही एक शब्द है " प्रवर " जिसका वैदिक इंडेक्स के अनुसार शाब्दिक अर्थ है " आह्वान करना " कर्वे के अनुसार प्रवर का अर्थ क्षत्रियों में लगभग वंशकार या कुल कार की तरह ही है । प्रवर का अर्थ है महान ब्राह्मण लोग हवन यज्ञ आदि के समय गोत्र व वंशकार के नाम का उच्चारण करते थे । इस अर्थ में प्रवर का तात्पर्य श्रेष्ठ से ही था । प्रभु का मत है कि प्राचीन समय में अग्नि पूजा और हवन का प्रचलन था । हवन के लिए अग्नि प्रज्वलित करते समय पुरोहित अपने प्रसिद्ध ऋषि पूर्वजों का नाम उच्चारण करता था । इस प्रकार समान पूर्वज और सामान ऋषि यों के नामों का उच्चारण करने वाले व्यक्ति अपने को एक ही प्रवर से संबद्ध मानने लगे । एक प्रवाह के व्यक्ति अपने को सामान्य ऋषि पूर्वजों से संस्कार आत्मक एवं आध्यात्मिक रूप से संबंधित मानते हैं, अतः वे परस्पर विवाह नहीं करते । डॉ कापड़िया लिखते हैं प्रवर संस्कार अथवा ज्ञान के उस समुदाय की ओर संकेत करता है जिससे एक व्यक्ति संबंधित होता है । प्रवर आध्यात्मिक दृष्टि से परस्पर संबंधित लोगों के समूह की ओर संकेत करता है ना कि रक्त संबंधियों की ओर ।
प्रवर पहले केवल ब्राह्मणों के ही होते थे किंतु बाद में क्षत्रियों एवं वैश्यों ने भी अपना लिए । शूद्रों के कोई प्रभाव नहीं थे । ऐसी मान्यता है कि धर्मसूत्र काल व मनु के समय में सप्रवर विवाह पर कठोर नियंत्रण नहीं था । पी. बी. काणे का मत है कि सप्रवर विवाह निषेध तीसरी शताब्दी से प्रारंभ हुए और नवी शताब्दी तक चलते चलते तो इनका रूप कठोर हो गया । वर्तमान समय में यज्ञों के प्रचलन एवं महत्त्व में कमी आ जाने के कारण प्रवर जैसी कोई संस्था नहीं पाई जाती । हिंदू विवाह अधिनियमों द्वारा सप्रवर विवाह संबंधी निषादों को समाप्त कर दिया गया है ।
C. सपिण्ड बहिर्विवाह - सप्रवर और संगौत्र बहिर्विवाह के नियम पितृपक्ष के संबंधियों से विवाह की स्वीकृति नहीं देते । सपिण्ड विवाह निषेध के नियम मातृ एवं पितृ पक्ष की कुछ पीढियों में विवाह पर रोक लगाते हैं । इरावती कर्वे सपिण्डता का अर्थ बताती हैं ,स + पिण्ड अर्थात मृति व्यक्ति को पिण्ड दान देने वाले या उसके रक्त कण से संबंधित लोग । स्मृति में सपिण्ड का प्रयोग दो अर्थों में हुआ है । 1 - वे सभी व्यक्ति सपिण्डी है जो एक व्यक्ति को पिण्ड दान करते हैं , 2 - मिताक्षरा के अनुसार वे सभी व्यक्ति जो एक ही शरीर से पैदा हुए हैं सपिण्डी है । विज्ञानेश्वर के अनुसार एक ही पिण्ड या देह रखने वालों में एक ही शरीर के अवयव होने के कारण सपिण्डता का संबंध होता है । पिता और पुत्र सपिण्डी है क्योंकि पिता के शरीर के अवयव पुत्र में आते हैं । इसी प्रकार से मां व सन्ताने ,दादा- दादी एवं पोते भी सपिण्डी है । सपिण्ड विवाह भी निषिद्ध रहे हैं । रामायण एवं महाभारत काल में सपिण्डता का नियम एक स्थान पर निवास करने वाले पित्र पक्षीय लोगों पर लागू होता था । मध्ययुगीन टीकाकारों के अनुसार पिता की ओर से सात व माता की ओर से पांच पीढ़ियों में विवाह नहीं किया जाना चाहिए ।
दायभाग के प्रवर्तक जीमूतवाहन पिण्ड का अर्थ जौ या चावल के आटे से बने गोलों से लेते हैं जो मृत व्यक्ति को नदी के किनारे या जलाशय के पास श्राद्ध या मृत्यु के समय अर्पित किए जाते हैं और यह तर्पण का अधिकार किसी एक पूर्वज की संतानों को ही है । इस प्रकार के पिण्डों का तर्पण करने वाले सपिण्डी माने जाते हैं और वे परस्पर विवाह नहीं कर सकते । कितनी पीढ़ियों के लोगों को सपिण्डी कहां जाए इस बारे में मतभेद है । वशिष्ठ ने पिता की ओर से सात व माता की ओर से पांच , गौतम ने पिता की ओर से आठ व माता की ओर से छः पीढ़ियों तक के लोगों से विवाह करने पर प्रतिबंध लगाया है । गौतम ने तो सपिण्ड विवाह करने वाले को प्रेषित करने एवं जाति से बहिष्कृत करने की बात कही है ।
किंतु सदैव ही सपिण्डता के नियमों का विवाह में पालन नहीं हुआ है । कृष्ण ने अपने मामा की लड़की रुक्मणी तथा अर्जुन ने भी अपने मामा की लड़की सुभद्रा से विवाह किया था । कृष्ण ने अपने पिता की ओर से पांचवी पीढ़ी की लड़की सत्यभामा से भी विवाह किया था । डॉ कापड़िया लिखते हैं कि पांचवीं ,छठी और सम्भवतः चौथी पीढ़ी मैं विवाह की परंपरा यादव कुल में भी थी ।
देवण भट्ट तथा माधवाचार्य ने मामा की लड़की से विवाह करने का समर्थन किया था । कर्नाटक व मैसूर के ब्राह्मणों में बहन की लड़की तथा दक्षिण भारत में मामा की लड़की से विवाह करने की प्रथा आज भी प्रचलित है। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 ने सपिण्ड बहिर्विवाह को मान्यता प्रदान की है । माता एवं पिता दोनों पक्षों से तीन तीन पीढ़ियों के सपिण्डयों मैं परस्पर विवाह पर रोक लगा दी गई है । फिर भी यदि किसी समूह की प्रथा अथवा परंपरा इसे निषिद्ध नहीं मानती है तो ऐसा विवाह भी वैध माना जाएगा ।
D . ग्राम बहिर्विवाह - उत्तरी भारत और प्रमुखतः पंजाब एवं दिल्ली के आसपास यह नियम है कि एक व्यक्ति अपने ही गांव में विवाह नहीं करेगा। पंजाब में तो उन गांव में भी विवाह करने की मनाही है जिनकी सीमा व्यक्ति के गांव की सीमा को छूती हो । इस प्रकार के विवाह का कारण गांव की जनसंख्या का सीमित होना , उसमें एक ही गोत्र , वंश आत्मा परिवार के सदस्यों का निवास होना आदि रहे हैं । संगोत्री एवं सपिण्डियों से विवाह के निषेध के कारण ही ऐसे विवाह प्रचलन में आए । गांव में इस प्रकार के विवाह को खेड़ा बहिर्विवाह के नाम से जाना जाता है ।
E. टोटम बहिर्विवाह - इस प्रकार के विवाह का नियम भारतीय जनजातियों में प्रचलित है । टोटम कोई भी एक पशु , पक्षी , पेड़ पौधा अथवा निर्जीव वस्तु हो सकती है जिसे एक गोत्र के लोग आदर एवं श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं , उससे अपना आध्यात्मिक संबंध जोड़ते हैं । एक गोत्र का एक टोटम होता है । और एक टोटम को मानने वाले परस्पर भाई-बहन समझे जाते हैं । अतः वे परस्पर विवाह नहीं कर सकते ।
कुछ लोग दिशा बहिर्विवाह का भी पालन करते हैं । किस दिशा में उनकी कन्या का विवाह होता है । उसी दिशा से वे पुत्र वधू प्राप्त नहीं करते हैं । उत्तरी भारत में एक कहावत प्रचलित है पूर्व की बेटी पश्चिम का बेटा अर्थात लड़कियां पूर्व दिशा के गांव से ही प्राप्त की जाती है और लड़के पश्चिम दिशा के गांव से ।
अनुलोम तथा प्रतिलोम विवाह
हिंदुओं में विवाह साथी के चुनाव में जिन निषेधों हो का पालन किया जाता है , फोन में अनुलोम एवं प्रतिलोम के नियम भी महत्वपूर्ण हैं । इन नियमों का पालन लगभग सभी हिंदू करते हैं । हम यहां इनका उल्लेख करेंगे
अनुलोम विवाह - जब एक उच्च वर्ग, जाति, उप जाति, कुल एवं गोत्र के लड़के का विवाह ऐसी लड़की से किया जाए जिसका वर्ण, जाति , उप जाति , कुल एवं लड़के से नीचा हो तो ऐसे विवाह को अनुलोम विवाह कहते हैं । अन्य शब्दों में इस प्रकार के विवाह में लड़का उच्च सामाजिक समूह का होता है । और लड़की निम्न सामाजिक समूह की । उदाहरण के लिए एक ब्राम्हण लड़के का विवाह एक क्षत्रिय या वैश्य लड़की से होता है तो इसे हम अनुलोम कहेंगे । वैदिक काल से लेकर स्मृति काल तक अनुलोम विवाह का प्रचलन रहा है । मनुस्मृति में लिखा है कि एक ब्राह्मण को अपने से निम्न तीन वर्णों, क्षत्रिय , वैश्य , एवं शूद्र की कन्या से , क्षत्रिय को अपने से निम्न दो वर्णों , वैश्य एवं शूद्र से और वैश्य अपने वर्ण के अतिरिक्त शूद्र कन्या से भी विवाह कर सकता है । किंतु मनु पाणिग्रहण संस्कार करने की स्वीकृति केवल सवर्ण, विवाह के लिए ही देते हैं । याज्ञवल्क्य ने ब्राह्मण को चार , क्षत्रिय को तीन ,वैश्य को दो एवं शूद्र को एक विवाह करने की बात कही है । मनु ने एक अन्य स्थान पर शूद्र कन्या से द्विज लड़के का विवाह अनुचित भी बताया है । ऐसे विवाह से द्विज का वर्ण दूषित हो जाता हैं, उसके परिवार का स्तर गिर जाता है और उसकी संतान को शूद्र की स्थिति प्राप्त होती है । ऐसे विवाह से उत्पन्न संतान को मनु " पार्षव " ( एक जीवित शव ) की संज्ञा देते हैं तथा उसे संपत्ति में कोई अधिकार नहीं होता है । प्राचीन समय में अनुलोम विवाह का विस्तार वर्णों तक था । किंतु जब वर्णन 1 जातियों एवं उप जातियों में बैठ गए और उन में रक्त शुद्धता एवं ऊंच-नीच की भावना पनपी तथा जैन एवं बौद्ध धर्म का उदय हुआ तो कुलीन विवाह का प्रचलन हुआ । डॉ राधाकृष्णन का मत है कि भारत में अनुलोम विवाह का प्रचलन 10 वीं शताब्दी तक रहा ।
रिजले का मत है कि आरंभ में अंतर्वर्ण विवाहों का प्रचलन इंडो आर्यन प्रजाति में स्त्रियों की कमी पूरी करने के लिए हुआ और जैसे ही उनकी आवश्यकता की पूर्ति हो गई उन्होंने ऐसे विवाहों पर प्रतिबंध लगा दिया ।
अनुलोम विवाह के प्रभाव -
हानियां :- अनुलोम विवाह ने समाज में अनेक समस्याओं को जन्म दिया । उसके निम्नांकित दुष्परिणाम निकले :-
1. उच्च कुलों में लड़कों की कमी :- जो कुल सामाजिक दृष्टि से ऊंचा माना जाता है उस स्कूल के लड़कों से नीचा समझे जाने वाले कुल के लोग अपनी कन्या का विवाह करना चाहते हैं , परिणामस्वरूप ऊंचे कुल के लड़कियों के लिए वर का अभाव हो जाता है और ऐसी स्थिति में कई लड़कियों को अविवाहित ही रहना पड़ता है ।
2. नीचे कुल में लड़कियों की कमी :- नीचे कुल के सभी लोग जब अपनी कन्या का विवाह उच्च कुल में कर देते हैं तो नीचे कुल के लड़कों के लिए कन्या का अभाव हो जाता है और कई लड़कों को अविवाहित ही रहना पड़ता है ।
3. बहुपति एवं बहुपत्नी विवाह का जन्म :- ऊंचे कुल के लड़के से नीचे कुल के सभी लोग अपनी कन्या का विवाह करना चाहते हैं । ऐसी स्थिति में उच्च कुल में बहुपत्नी विवाह का प्रचलन होगा , दूसरी और नीचे कुल में लड़कियों का अभाव होने पर बहुपति विवाह का प्रचलन होगा ।
4. वर मूल्य प्रथा :- जब नीचे कुल वाले उच्च कुल के लड़कों को वर के रूप में प्राप्त करना चाहते हैं तो लड़कों का अभाव हो जाता है । ऐसी स्थिति में वर मूल्य प्रथा का प्रचलन बढ़ जाता है ।
5. वेमेल विवाह :- अनुलोम विवाह के कारण ऊंचे कुल में लड़की का विवाह कभी-कभी प्रौढ़ एवं वृद्ध व्यक्ति के साथ भी कर दिया जाता है । बंगाल एवं बिहार में उच्च कुलों के कई लड़कों के तो सौ तक पत्नियां होती हैं। जिन्हें याद रखने के लिए रजिस्टर रखना होता है । कई बार तो बधू की आयु वर की पुत्री के बराबर होती है ।
6. बाल विधवाओं में वृद्धि :- अनुलोम विवाह के कारण उच्च कुल के पुरुषों के कई पत्नियां होती हैं । ऐसे व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर समाज में बाल विधवाओं की संख्या बढ़ जाती है ।
7. बाल विवाह का प्रचलन :- अनुलोम विवाह में प्रत्येक पिता यह चाहता है कि उसकी कन्या का विवाह उच्च कुल के लड़के से हो । अतः ज्योहीं कोई योग्य वर मिला कि कन्या का विवाह करवा दिया जाता है । कई बार तो चार-पांच वर्ष से कम आयु की कन्याओं का विवाह करवा दिया जाता है ।
8. कन्या मूल्य का प्रचलन :- अनुलोम विवाह के कारण नीचे फूलों में कन्याओं का अभाव हो जाता है जिसके फलस्वरूप कन्या मूल्य का प्रचलन होता है ।
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