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Showing posts from November, 2020

अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार पत्र और अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार संस्थायें कौन कौन सी है ?

अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार पत्र और अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार संस्थायें कौन कौन सी है ? संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के समय ही अंतर्राष्ट्रीय बिल ऑफ ह्यूमन राइट्स की बात जोर पकड़े हुई थी । सैन फ्रांसिस्को सम्मेलन में एकत्रित कई प्रतिनिधियों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय अधिकार पत्र के निर्माण की बात की गई, तथापि इसे नहीं किया जा सका । फिर भी सदस्यों द्वारा अनुभव किया गया कि इस दिशा में कदम उठाया जाना चाहिए । संयुक्त राष्ट्र के समक्ष अत्यधिक महत्वपूर्ण कार्य मानव अधिकारों तथा मूल स्वतंत्रताओं के प्रति सम्मान के सिद्धांत का कार्यान्वयन था । अतः इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अंतर्राष्ट्रीय अधिकार पत्र को तैयार करने का निश्चय किया गया । तीस वर्षों के अथक प्रयास के परिणाम स्वरूप वास्तव में अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार पत्र अस्तित्व में आ गया । मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा, 1948 सिविल तथा राजनैतिक अधिकार प्रसंविदा 1960, आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अधिकार प्रसंविदा,1966 और वैकल्पिक प्रोटोकॉल मिलकर अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार पत्र कहलाते हैं ।  अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार संस्थायें : - 1. - मानव अधि

मानव अधिकारों का अन्तर्राष्ट्रीयकारण तथा मानव अधिकारों से सम्बन्धित संयुक्त राष्ट्र निकाय कब हुआ

मानव अधिकारों का अन्तर्राष्ट्रीयकारण तथा मानव अधिकारों से सम्बन्धित संयुक्त राष्ट्र निकाय कब हुआ क. - साधारण दिग्दर्शन : - मानव अधिकारों के संरक्षण का मूल भारत में वैदिक काल के धर्म में पाया जाता है ' सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ' गीता में भी मानवाधिकार का उल्लेख है - कर्मण्येवाधिकारस्ते ' । प्लेटो और अन्य ग्रीक तथा रोमन दार्शनिकों के ग्रंथों में मानवाधिकारों के संरक्षण का आभास पाया जाता है यद्यपि कि उनका आधार धर्म ही था । ग्रीस नगर राज्य ने समान वाक स्वातंत्र्य, विधि के समक्ष समता, मत देने का अधिकार, लोक पद के लिए निर्वाचित होने का अधिकार, और न्याय पाने का अधिकार अपने नागरिकों को दे रखा था । रोमन विधि ने भी रोमन वालों को उसी प्रकार के अधिकार दिए थे ।         इंग्लैण्ड में मानव अधिकारों के निर्माण के लिए प्रयास मैग्नाकार्टा, 1215 और बिल आफ राइट्स,1688 में किया गया है । परन्तु इन लिखितो को लिखित संविधान की सर्वोच्चता जिसके द्वारा पार्लियामेण्ट के अधिनियम को उलट दिया जाए, नहीं मिल पाई है ।       उच्चतर विधि को लिखित संविधान में सम्मिलित करने का प्रयास किया गया

मानव अधिकार का अर्थ और मानव अधिकारों की उत्पत्ति एवं विकास की व्याख्या कीजिए

मानव अधिकार का अर्थ और मानव अधिकारों की उत्पत्ति एवं विकास की व्याख्या कीजिए  ' मानव अधिकार' वे न्यूनतम अधिकार है, जो प्रत्येक व्यक्ति को आवश्यक रूप से प्राप्त होना चाहिए, क्योंकि वह मानव परिवार का सदस्य है । मानव अधिकारों की धारणा मानव गरिमा की धारणा से जुड़ी है । अतएव जो अधिकार मानव गरिमा को बनाए रखने के लिए आवश्यक है, उन्हें मानव अधिकार कहा जा सकता है । इस प्रकार मानव अधिकारों की धारणा आवश्यक रूप से न्यूनतम मानव आवश्यकताओं पर आधारित है । इनमें से कुछ शारीरिक जीवन तथा स्वास्थ्य के लिए है और अन्य मानसिक जीवन तथा स्वास्थ्य के लिए तात्विक हैं । यद्यपि मानव अधिकारों की संकल्पना उतनी ही पुरानी है, जितनी की प्राकृतिक विधि पर आधारित प्राकृतिक अधिकारों का प्राचीन सिद्धांत तथापि ' मानव अधिकारों ' पद की उत्पत्ति द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात अंतर्राष्ट्रीय चार्टरों और अभिसमयों से हुई । द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात व्यक्तियों की स्थिति में रूपांतरण हुआ है जो कि समसामयिक अंतर्राष्ट्रीय विधि में सबसे अधिक महत्वपूर्ण विकास है । राज्यों के अतिरिक्त व्यक्ति अंतर्राष्ट्रीय विधि से व्

प्रस्थिति तथा भूमिका के सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए

प्रस्थिति तथा भूमिका के सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए प्रस्थिति एवं भूमिका में सदैव भेद किया जाता है । प्रस्थिति एक  समाजशास्त्रीय अवधारणा है यह एक सामाजिक सांस्कृतिक तथ्य है जबकि भूमिका सामाजिक मनोविज्ञान का विषय एवं प्रघटना हैं । विभिन्न प्रकार की भूमिकाओं का निर्वाह विभिन्न व्यक्तियों द्वारा अलग-अलग प्रकार से किया जाता है। इसका कारण है व्यक्तियों के व्यक्तित्वों ,क्षमता एवं व्यवहार मैं भिन्नता का होना । यही कारण है कि राष्ट्रपति या प्राचार्य के पद की भूमिका सभी लोग समान रूप से नहीं निभा पाते । प्रत्येक व्यक्ति की भूमिका दूसरे व्यक्ति से भिन्न होती है । इसका एक कारण यह भी है कि समूह एवं संगठन के विकास के साथ-साथ उसके पदाधिकारियों के कार्यों एवं दायित्वों में भी परिवर्तन आ जाता है । इसलिए ही कहते हैं कि भूमिका प्रस्थिति का गतिशील पहलू है ।    प्रस्थिति एवं भूमिका के सम्बन्ध सदैव स्थिर न होकर बदलते रहते हैं । नये विचारों, नए मूल्यों एवं मान्यताओं के साथ-साथ प्रस्थिति व भूमिकाओं के सम्बन्ध भी परिवर्तित होते रहते हैं। मजदूर एवं मालिक के सम्बन्ध जैसे मध्य युग में थे वैसे आज के औद्योगिक युग

भूमिका का अर्थ अवधारणाएँ एवं परिभाषा और विशेषताओं का उल्लेख कीजिए

भूमिका का अर्थ अवधारणाएँ एवं परिभाषा और विशेषताओं का उल्लेख कीजिए भूमिका प्रस्थिति का गतिशील या व्यावहारिक पहलू है । प्रस्थितियां धारण की जाती हैं जबकि भूमिकाओं का निर्वाह किया जाता है । एक व्यक्ति जिस प्रकार से एक प्रस्थिति से सम्बन्धित दायित्वों का निर्वाह और उससे सम्बन्धित सुविधाओं एवं विशेषाधिकारों का उपयोग करता है, उसे ही भूमिका कहते हैं । एक प्रस्थिति धारण करने के कारण व्यक्ति जो कार्य करता है वह उस पद की भूमिका है । उदाहरण के लिए राष्ट्रपति का पद एक प्रस्थिति है, इस प्रस्थिति से सम्बन्धित कुछ दायित्व तथा कर्तव्य है, ये ही राष्ट्रपति की भूमिका के अंतर्गत आएंगे । राष्ट्रपति की भूमिका निभाने वालों को कुछ सुविधाएं एवं विशेषाधिकार भी प्राप्त होते हैं ।    सामान्यतः हम भूमिका का तात्पर्य सिनेमा या नाटक में किसी अन्य व्यक्ति की नकल करने से लेते हैं । हम कहते हैं - मीनाकुमारी ने चित्रलेखा की,अमजद खान ने डाकू की,अशोक कुमार ने पिता की अच्छी भूमिका निभायी । शशिकला ने खलनायिका व प्राण ने खलनायक की श्रेष्ठ भूमिका अदा की । किन्तु समाज में भूमिका का तात्पर्य प्रस्थिति से सम्बन्धित कार्यों क

सामाजिक प्रस्थिति की अवधारणा को परिभाषित कीजिए और सामाजिक प्रस्थितियाँ कैसे निश्चित होतीं हैं

सामाजिक प्रस्थिति की अवधारणा को परिभाषित कीजिए और सामाजिक प्रस्थितियाँ कैसे निश्चित होतीं हैं  प्रत्येक व्यक्ति का अपने समूह या समाज में एक समय विशेष में कोई न कोई स्थान अथवा पद अवश्य होता है । कोई उच्च पद पर आसीन होता है तो कोई निम्न पद पर । एक व्यक्ति एक क्षेत्र में महत्वपूर्ण पद पर हो सकता है तो दूसरे क्षेत्र में उसका दर्जा नीचा हो सकता है । उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री का पद धारण करने वाले व्यक्ति की स्थिति राजनीतिक क्षेत्र में बहुत ऊंची है जबकि खिलाड़ी ना होने पर खेल जगत में उसका कोई स्थान नहीं हो सकता है । संयुक्त परिवार में दादा परिवार का मुखिया होने से सम्माननीय एवं शक्तिशाली व्यक्ति माना जाता है जबकि वही व्यक्ति किसी ऑफिस में चपरासी होने पर अधिकारी एवं क्लर्क की तुलना में नीचा माना जाता है ।      इस प्रकार एक व्यक्ति का समाज में अपना कोई न कोई पद या दर्जा होता है जिसे समाजशास्त्रीय भाषा में 'प्रस्थिति' कहा जाता है और एक प्रस्थिति धारण करने के फलस्वरूप व्यक्ति से जिस प्रकार के कार्यों की समाज सामान्यतः अपेक्षा करता है तथा उसके अनुरूप वह जो कुछ करता है उसे उसकी भूमिका कहते

प्रकार्य की अवधारणा एवं विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए

प्रकार्य की अवधारणा एवं विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए सामान्यतः प्रकार्य (Function) का अर्थ हम समाज या समूह द्वारा किए जाने वाले कार्य या उसके योगदान से लगाते हैं । किंतु समाज में प्रकार्य का अर्थ सम्पूर्ण सामाजिक संरचना को व्यवस्थित बनाए रखने एवं अनुकूलन करने में उसकी इकाइयों द्वारा जो सकारात्मक योगदान दिया जाता है, से लगाया जाता है । प्रकार्य की अवधारणा को हम शरीर के उदाहरण से स्पष्टतः समझ सकते हैं । शरीर की संरचना का निर्माण विभिन्न इकाइयों या अंगों जैसे हाथ, पाँव, नाक,कान,पेट,हृदय,फेफड़े आदि से मिलकर होता है । शरीर के वे विभिन्न अंग शरीर व्यवस्था को बनाए रखने और अनुकूलन में अपना जो योगदान देते हैं,जो कार्य करते हैं, उसे ही इन इकाइयों का प्रकार्य कहा जायेगा ।  परिभाषा (Definition) -  प्रकार्य को इसी अर्थ में परिभाषित करते हुए रैडक्लिफ ब्राउन लिखते हैं, " किसी सामाजिक इकाई का प्रकार्य उस इकाई का वह योगदान है जो वह सामाजिक व्यवस्था को क्रियाशीलता के रूप में सामाजिक जीवन को देती है । वे पुनः लिखते हैं, " प्रकार्य एक आंशिक क्रिया द्वारा उसे संपूर्ण क्रिया को दिया जाने वाला योगदान ह

समाज कार्य की अवधारणा

समाज कार्य की अवधारणा अवधारणा से हमारा तात्पर्य कुछ विशिष्ट प्रकार की विचारधाराओं से होता है जिस पर कोई कला या विज्ञान आधारित होता है तथा इन्हीं अवधारणाओं के आधार पर उसे पूरे विज्ञान अथवा कला के बारे में कल्पना की जा सकती है। आधुनिक युग में समाज कार्य एक व्यवसाय के रूप में विकसित हुआ है और विज्ञान तथा कला के रूप में सर्वत्र स्वीकार किया जा चुका है अतः समाज कार्य भी कुछ विशिष्ट अवधारणाओं पर आधारित है जो निम्नलिखित है समूह में व्यक्ति के व्यवहार के संबंध में ज्ञान  समाज कार्य के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति एवं उसके सामूहिक व्यवहारों का संपूर्ण ज्ञान प्राप्त किया जाए समाज कार्य का कार्यक्षेत्र व्यक्ति है इसलिए उसके व्यवहारों का ज्ञान होना आवश्यक है इस ज्ञान प्राप्ति के लिए अन्य विज्ञानों का सहारा लेना पड़ता है उदाहरण व्यक्ति की आंतरिक दशा एवं व्यवहारों की जानकारी के लिए मनोविज्ञान सामाजिक स्थिति व सांस्कृतिक दशाओं का व्यक्ति पर प्रभाव जानने के लिए समाजशास्त्र व्यक्ति की आर्थिक दशाओं के ज्ञान के लिए अर्थशास्त्र तथा उसकी शारीरिक स्थिति की जानकारी के लिए जीव विज्ञान की सहायता ली जाती है इस