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मानव अधिकारों का अन्तर्राष्ट्रीयकारण तथा मानव अधिकारों से सम्बन्धित संयुक्त राष्ट्र निकाय कब हुआ

मानव अधिकारों का अन्तर्राष्ट्रीयकारण तथा मानव अधिकारों से सम्बन्धित संयुक्त राष्ट्र निकाय कब हुआ

क. - साधारण दिग्दर्शन : -
मानव अधिकारों के संरक्षण का मूल भारत में वैदिक काल के धर्म में पाया जाता है ' सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ' गीता में भी मानवाधिकार का उल्लेख है - कर्मण्येवाधिकारस्ते ' । प्लेटो और अन्य ग्रीक तथा रोमन दार्शनिकों के ग्रंथों में मानवाधिकारों के संरक्षण का आभास पाया जाता है यद्यपि कि उनका आधार धर्म ही था । ग्रीस नगर राज्य ने समान वाक स्वातंत्र्य, विधि के समक्ष समता, मत देने का अधिकार, लोक पद के लिए निर्वाचित होने का अधिकार, और न्याय पाने का अधिकार अपने नागरिकों को दे रखा था । रोमन विधि ने भी रोमन वालों को उसी प्रकार के अधिकार दिए थे ।
        इंग्लैण्ड में मानव अधिकारों के निर्माण के लिए प्रयास मैग्नाकार्टा, 1215 और बिल आफ राइट्स,1688 में किया गया है । परन्तु इन लिखितो को लिखित संविधान की सर्वोच्चता जिसके द्वारा पार्लियामेण्ट के अधिनियम को उलट दिया जाए, नहीं मिल पाई है ।
      उच्चतर विधि को लिखित संविधान में सम्मिलित करने का प्रयास किया गया है जिसके द्वारा प्रभुताधारी की अज्ञात इच्छा को प्राकृतिक विधि से उत्पन्न मानकों से बाध्य किया जाए । अठारहवीं शताब्दी के मानव के प्राकृतिक अधिकारों को लिखित संविधान में सम्मिलित करके प्रभुताधारी के विरुद्ध व्यक्ति के मूल अधिकारों की नींव डाली गई जैसा कि अमेरिका में किया गया । विल ऑफ राइट्स को न्यायिक पुनर्विलोकन द्वारा पुष्ट किया गया है और व्यक्ति अपने मूल अधिकारों को अपने राज्य के विरुद्ध न्यायालय द्वारा प्रवर्तित करा सकता है ।

ख. - मानव अधिकारों का अंतर्राष्ट्रीय विधि और विश्व व्यवस्था में घोतन : -
जैसा कि ऊपर विवेचन किया गया है उच्चतर विधि और उससे प्राप्त मानव अधिकारों के दर्शन ने एक और आयाम ग्रहण कर लिया । परंतु यह राज्य विधि या राष्ट्र विधि के क्षेत्र तक ही सीमित थी और अन्य राज्य या विश्व, राज्य और उसकी प्रजा के सम्बन्ध से कोई सरोकार नहीं रखता था । परंतु 1650 में डच दार्शनिक ग्रोशस, जिसको राष्ट्रों की विधि क जनक कहा जाता है, वे मानव अधिकार को अंतर्राष्ट्रीय विधि और विश्व व्यवस्था में घोतित करने का प्रयास किया । उन्होंने अपना यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि जब एक राज्य का प्रभुताधारी लगातार अपनी प्रजा के मूलभूत मानवाधिकारों को कुचलता रहता है तो यह एक अंतर्राष्ट्रीय प्रश्न हो जाता है । ऐसे निरंकुश शासक,ग्रोशस के अनुसार राष्ट्रों की विधि के अंतर्गत प्रभुताधारी के रूप में अपनी शक्तियों को खो बैठता है, और अन्य राष्ट्रों को प्रकृति की विधि और राष्ट्रों की विधि के घोर अतिक्रमण के मामलों में हस्तक्षेप करना न्यायोचित होगा । परंतु इस सिद्धांत का कोई प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि राष्ट्रों के पारम्परिक सौजन्य के अनुसार कोई राज्य अन्य राज्य और उसकी प्रजा के संबंध में हस्तक्षेप नहीं करेगा क्योंकि यह इसका घरेलू मामला है । अन्य राज्य मानव अधिकारों के अतिक्रमण के मामले में अपनी आपत्ति जता सकते हैं ।
     परन्तु मानव अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीयकरण के लिए मानव अधिकार आंदोलन द्वितीय विश्व युद्ध के अनुभव के परिणाम स्वरूप प्रारंभ हो गया । युद्ध के दौरान मानवता के विरुद्ध वीभत्स अपराध किए गए और उस समय मूल मानव अधिकारों का पूर्ण रूप से दमन कर दिया गया था । जर्मनी के नाजी नेताओं ने पूर्ण विधिहीनता और अत्याचार का शासन स्थापित कर रखा था । उन लोगों ने अपने आधिपत्य के राज्य क्षेत्रों में मानवीय मूल्यों और गरिमा का खंडन कर दिया था । उस समय यह अनुभव किया गया था कि अंतर्राष्ट्रीय शांति तथा सुरक्षा को स्थापित करने के लिए आवश्यक शर्तों में से एक यह है कि लोगों की स्वतंत्रता तथा उनके अधिकारों का प्रत्यावर्तन किया जाए इस धारणा को समय-समय पर राज्यों की विभिन्न घोषणाओं में प्रतिविम्बित किया गया है । इन घोषणाओं में सबसे महत्वपूर्ण घोषणा अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट की है जो 6 जनवरी 1941 को की गई जिसमें चार स्वतंत्रताओं का उल्लेख किया गया है । वे स्वतंत्रताएँ इस प्रकार है - वाक स्वातंत्र्य , धर्म स्वातंत्र्य, अभाव से मुक्ति और भय से मुक्ति ।
       अंतर्राष्ट्रीय शांति की स्थापना के लिए अंतर्राष्ट्रीय संगठन के सृजन के लिए प्रयास उसी समय किए जाने लगे थे जबकि द्वितीय विश्व युद्ध चल ही रहा था । अनेक सम्मेलन और सभाएं संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय संगठन के स्थापित होने के पहले की गई । सम्मेलनों में की गई घोषणाओं ने मानव अधिकारों के महत्व को प्रतिपादित कर दिया । अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रुजवेल्ट और इंग्लैंड के प्रधानमंत्री विन्सटन चर्चिल ने 14 अगस्त 1941 को एक संयुक्त घोषणा ' अटलांटिक चार्टर ' मैं की जिसमें शांति को सुनिश्चित करने के लिए यह आशा संजोई गई थी कि सभी देशों में मनुष्य भय और अभाव से मुक्त जीवन निर्वाह करेंगे । वाशिंगटन में 1 जनवरी 1942 को हस्ताक्षरित संयुक्त राष्ट्र चार्टर यह घोषणा करके अटलांटिक चार्टर में प्रतिपादित सिद्धांतों की अभीपुष्टि करता है कि सभी देशों में मानव अधिकारों का संरक्षण युद्ध में विजय के परिणामों में से एक होगा जिसको प्राप्त करने की वांछा की जाती है । डम्वरटन ओक्स के प्रस्तावों में मानव अधिकारों की अभिवृद्धि के विषय में एक संक्षिप्त निर्देश प्रस्तावित महासभा और इसके अधीन आर्थिक और सामाजिक परिषद के कार्य कलाप से संबंधित था जिसको उनके द्वारा पूरा किए जाने की परिकल्पना की गई थी ।
ग. - संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अन्तर्गत मानव अधिकार : -

संयुक्त राष्ट्र के जन्म के कारण मानव अधिकार आंदोलन ने बहुत जोर पकड़ लिया । सार्वभौम मानव अधिकारों जैसे जीवन का अधिकार स्वतंत्रता और समानता के अधिकार के युग का प्रारंभ हो गया जिनको सभी मानवों को उपलब्ध कराया गया,वे चाहें जहां रहते हों । यह उद्देश्य पहले ही 1929 में अंतर्राष्ट्रीय विधि संस्था द्वारा निर्मित कर लिया गया था परंतु इसको व्यावहारिक रूप संयुक्त राष्ट्र चार्टर में 1945 में दिया गया । सभ्य जीवन की इन न्यूनतम दशाओं का संरक्षण ऐसा अनुभव किया गया, केवल राष्ट्र राज्यों की चिंता का विषय नहीं था बल्कि संपूर्ण विश्व का था । राष्ट्र राज्य की बाध्यता, उलटे, केवल अपने राष्ट्रीयों के प्रति ही नहीं हुई बल्कि उसके राज्य क्षेत्र में सभी व्यक्तियों के संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अंतर्गत मानव अधिकारों को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है ।
    चार्टर में कई उपबन्ध हैं जो मानवाधिकारों और मूल स्वतंत्रताओं के संरक्षण से संबंधित है । चार्टर की उद्देशिका में घोषणा की गई है कि " संयुक्त राष्ट्र के लोग....... मूल मानव अधिकारों के प्रति, मानव की गरिमा और महत्व के प्रति, पुरुषों और स्त्रियों तथा बड़े और छोटे राष्ट्रों के समान अधिकारों के प्रति निष्ठा को पुनः अभिपुष्ट करने के लिए दृढ़ संकल्प करते हैं । " तदनुसार संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 1 के परिच्छेद 3 में यथावर्णित उद्देश्यों में से एक मूल वंश, लिंग या भाषा या धर्म के आधार पर विभेद किए बिना सभी के लिए मानव अधिकारों और मूल स्वतंत्रता ओं के प्रति सम्मान की अभिवृद्धि करने और उसे प्रोत्साहित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग उत्पन्न करना है । इस प्रकार मानव अधिकारों के क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र का प्राथमिक उद्देश्य है कि प्रत्येक व्यक्ति द्वारा अधिकतम स्वतंत्रता तथा गरिमा प्राप्त की जाए । संयुक्त राष्ट्र के सदस्य चार्टर के अनुच्छेद 56 के अधीन अनुच्छेद 55 में उपवर्णित प्रयोजनों की पूर्ति के लिए संगठन के सहयोग से संयुक्त या पृथक रूप से कार्यवाही करने की प्रतिज्ञा करते हैं । अनुच्छेद 55 में मूल वंश,लिंग, भाषा या धर्म के आधार पर विभेद किए बिना सभी के लिए मानव अधिकारों और मूल स्वतंत्रताओं के प्रति विश्वव्यापी आदर तथा उनके पालन को सम्मिलित किया गया है । संयुक्त राष्ट्र चार्टर ने आर्थिक तथा सामाजिक परिषद को मानव अधिकारों तथा मूल स्वतंत्रताओं को प्रोत्साहित करने के लिए अधिकार प्रदान किए हैं । आर्थिक तथा सामाजिक परिषद इस निमित्त कमीशन नियुक्त कर सकती हैं । लुइस हेकिंन के अनुसार " संयुक्त राष्ट्र की किसी भी कथा में मानव अधिकारों का महत्वपूर्ण स्थान रहेगा ।
   संयुक्त राष्ट्र का एक उद्देश्य मानव अधिकारों एवं मूल स्वतंत्रताओं के प्रति सम्मान को प्रोन्नति देना है । संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों का नैतिक तथा विधिक ( चाहे वह कितना ही अपूर्ण क्यों ना हो ) कर्तव्य हैं कि वे इस उद्देश्य के समर्थन हेतु कार्य करें ।
    मानव अधिकारों के पालन में अंतर्राष्ट्रीय शांति का तत्व निहित है । राष्ट्रपति ट्रूमन ने सैन फ्रैंसिस्को के सम्मेलन में मानवाधिकार की अभिवृद्धि और अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के संबंध में अपने समापन भाषण में इस प्रकार कहा है -
     " चार्टर मानव अधिकारों और मूल स्वतंत्रताओं के पालन की उपलब्धि के प्रति समर्पित है । जब तक हम इन उद्देश्यों की प्राप्ति हर जगह सभी मनुष्यों और स्त्रियों के लिए मूल वंश, भाषा या धर्म की परवाह किए बिना नहीं कर लेते हैं तब तक किसी को विश्व में स्थाई शांति और सुरक्षा नहीं मिल सकती है ।

घ. - मानव अधिकारों का कार्यान्वयन : - अंतर्राष्ट्रीय विधि के पुरातन काल में राष्ट्र पूर्ण रूप से स्वतंत्र थे और अपने नागरिकों के साथ जैसा चाहे वैसा व्यवहार कर सकते थे । अब विश्व युद्ध के पश्चात अधिकतर लोग यह बात स्वीकार करते हैं कि अपने नागरिकों के प्रति व्यवहार के मामले में राज्यों के स्वविवेक या स्वतन्त्रता की कुछ सीमाएँ हैं । पुरातन काल में जब कोई राष्ट्र अपने नागरिकों के साथ निर्दयता का व्यवहार करता था या उनके साथ अत्याचार करता था अथवा उन्हें उनके मूल अधिकार और स्वतंत्रताएं नहीं देता था तो मानवता के हित में ऐसे राज्यों के मामले में दूसरे राज्यों द्वारा हस्तक्षेप किया जा सकता था । न्यायाधीश लाटर पैट के अनुसार संयुक्त राष्ट्र चार्टर मानव अधिकार के मामले में राज्यों पर कुछ उत्तरदायित्व अधिरोपित करता है । प्रोफेसर जान हम्फ्री के अनुसार संयुक्त राष्ट्र ने मानव अधिकारों के विषय में कुछ नियम और मानदण्ड स्थापित किए हैं और राज्यों का यह उत्तरदायित्व है कि वे इस नियम में सहयोग करें । परंतु जहां तक मूल मानव अधिकारों को लागू कराने का प्रश्न है, अंतर्राष्ट्रीय विधि में ऐसी संस्था का अभाव है जो इनको लागू करवा सकें । संस्थापक पक्ष में अभी अंतर्राष्ट्रीय विधि कमजोर हैं । प्रोफेसर ओपेन हाइम के अनुसार मूल मानव अधिकारों को लागू करने के मामले में अभी बहुत प्रारंभिक अवस्था है । इस विषय में सबसे बड़ी रुकावट यह है कि राज्य के घरेलू मामलों में संयुक्त राष्ट्र हस्तक्षेप नहीं कर सकता है । मानव अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में राज्य बहुधा इसी बात का हवाला देते हैं । परंतु जैसे-जैसे अंतर्राष्ट्रीय विधि का विकास हो रहा है वैसे ही राज्यों के घरेलू मामलों का क्षेत्र समयानुक्रम में घटता जा रहा है । बहुत से मामले जिनको पहले राज्यों का घरेलू मामला समझा जाता था उनको अब अंतर्राष्ट्रीय विषय माना जाता है । यह बात आप स्वीकार की जाने लगी है कि मानव अधिकारों के कार्यान्वयन में घरेलू मामले जिनका उल्लेख चार्टर के अनुच्छेद 2 (7) में किया गया है अपवाद हैं और वे अब लागू नहीं होंगे । यह खेद का विषय है कि बांग्लादेश में मानव अधिकारों के अप्रत्याशित उल्लंघन के प्रति संयुक्त राष्ट्र उदासीन और अकर्मण्य रहा । यदि मानव अधिकारों के उल्लंघन से अंतर्राष्ट्रीय शांति तथा सुरक्षा को खतरा उत्पन्न होता है तो संयुक्त राष्ट्र हस्तक्षेप कर सकता है । बांग्लादेश के अनुभव ने इस बात को सिद्ध कर दिया है कि संयुक्त राष्ट्र चार्टर में प्रतिपादित मानव अधिकारों के प्रोत्साहन तथा अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के बीच घनिष्ठ संबंध है ।
     अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में प्रत्येक नई घटना नए नियमों को जन्म देने की क्षमता रखती है । बांग्लादेश के उदाहरण से इस क्षेत्र में उपयुक्त विधि के विकास की आशा करना अनुचित नहीं होगा । भारत द्वारा की गई कार्यवाही से भी राज्यों के व्यवहार में परिवर्तन आने की संभावना है । मानव अधिकारों को प्रोत्साहित करने के लिए तथा भविष्य में मानव अधिकारों के उल्लंघन को रोकने के लिए यह नितांत आवश्यक है कि अंतर्राष्ट्रीय विधि प्रणाली को और भी अधिक प्रभावी बनाया जाए । विश्व स्तर पर मानव विधिक नीति को निर्धारित करने की अत्यंत आवश्यकता है ।

1. - मानव अधिकार एवं घरेलू या आन्तरिक अधिकारिता : -


मानव अधिकारों के क्रियान्वयन में एक प्रमुख समस्या घरेलू अधिकारिता की है । इसका मुख्य कारण संयुक्त चार्टर का अनुच्छेद 2 (7) हैं क्योंकि इसमें प्रावधान है कि संयुक्त राष्ट्र ऐसे मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा जो आवश्यक रूप से किसी राज्य की घरेलू या आंतरिक अधिकारिता में आता है तथा ना ही संयुक्त राष्ट्र सदस्यों को ऐसे मामलों या विवादों को चार्टर के अनुसार निस्तारण करने के लिए विवश करेगा । कुछ विधिवेत्ता यह कहते हैं कि चार्टर में यह निषेध मानव अधिकारों के संरक्षण को कम कर देता है । फिर भी यह मत ठीक नहीं जान पड़ता है । वस्तुतः बेहतर या सही मत यह है कि मानव अधिकारों से संबंधित चार्टर के प्रावधानों के कार्यान्वयन में घरेलू अधिकारिता का प्रश्न नहीं उठता है । इस विषय में यह उल्लेखनीय है कि घरेलू या आंतरिक पहलू एक दूसरे से घनिष्ठता से जुड़े हुए हैं । प्रत्येक समस्या जो अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों से जुड़ी है किसी ना किसी प्रकार से राज्य के घरेलू या आंतरिक संबंधों या घरेलू सीमाओं के अंतर्गत आती है तथा वह अन्य राज्य की सीमा में पहुंच सकती है तथा वह अंतर्राष्ट्रीय समस्या बन जाती है । अस्तु कोई भी मामला आवश्यक रूप से घरेलू मामला नहीं होता है यदि वह राज्य द्वारा स्वीकृत किसी अंतर्राष्ट्रीय दायित्व का विषय होता है । चूँकि मानवाधिकार एवं मूल स्वतंत्रताएँ एक गंभीर अंतर्राष्ट्रीय दायित्व का विषय हो गए हैं अब यह संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों के घरेलू या आंतरिक अधिकारिता के विषय नहीं रह गए हैं । आज से पाँच दशकों के पूर्व प्रत्येक राज्य को अपनी प्रजा पर पूर्ण प्रभुत्व तथा पूर्ण अधिकारिता इस प्रकार थी कि वह अपनी प्रजा के साथ जैसा चाहे वैसा व्यवहार कर सकता था, उन पर अत्याचार कर सकता था, तथा कोई अन्य राज्य उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था । संयुक्त राष्ट्र की स्थापना, चार्टर में मूल अधिकार एवं मूल स्वतंत्रताओं का समावेश, मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा का अंगीकार किया जाना तथा उक्त घोषणा के कार्यान्वयन हेतु प्रादेशिक तथा क्षेत्रीय अभिसमय जैसे मानव अधिकारों का यूरोपीय अभिसमय, मानव अधिकारों का अमेरिकी अभिसमय आदि का किया जाना, मानव अधिकारों की अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा का अंगीकार किया जाना, मानव अधिकारों के संयुक्त राष्ट्र कमीशन का स्थापित किया जाना आदि महत्वपूर्ण उपलब्धियों ने क्रांतिकारी परिवर्तन किए । आप यह सामान्यतया स्वीकार किया जाता है कि अपने नागरिकों के साथ व्यवहार के मामले में भी प्रत्येक राज्य की कुछ परिसीमायें हैं । यदि कोई नागरिक यह अनुभव करता है वह अपने राज्य द्वारा मानव अधिकारों के उल्लंघन का शिकार है या उससे पीड़ित है तो वह संयुक्त राष्ट्र के महासचिव के माध्यम से अपनी याचिका मानव अधिकार के संयुक्त राष्ट्र कमीशन को भेज सकता है । अस्तु , अब यह सार्वभौम रूप से स्वीकार किया जाता है कि मानव अधिकार एवं मूल स्वतंत्रताएं अंतर्राष्ट्रीय चिंता का विषय हो गए हैं तथा जो विषय अंतर्राष्ट्रीय चिंता का विषय हो जाता है वह आवश्यक रूप से राज्य की घरेलू अधिकारिता का विषय नहीं हो सकता है ।

यहाँ पर यह देखने की बात है कि संयुक्त राष्ट्र चार्टर का अनुच्छेद 2 (7) जिसमें घरेलू अधिकारिता के विषय में निषेध है वह स्वयं एक अपवाद उपबन्धित करता है । यह अपवाद चार्टर के अध्याय 7 के अंतर्गत की गई कार्यवाही के प्रवर्तन के बारे में लागू होता है । यदि मानव अधिकारों के उल्लंघन से ऐसी परिस्थिति या विवाद की उत्पत्ति होती है कि जिससेअंतर्राष्ट्रीय शांति या सुरक्षा को खतरा पहुंचता है तो चार्टर के अध्याय 7 के अंतर्गत इस आधार पर कार्यवाही की जा सकती है । सुरक्षा परिषद ने इस प्रकार की कार्यवाही दक्षिण अफ्रीका 1977, ईराक 1997, सोमालिया 1992 तथा रुआंडा 1994 में की है । एक लेखक ने ठीक ही लिखा है कि जैसा कई प्रस्ताव विशेषकर दक्षिण अफ्रीका से संबंधित प्रस्ताव से स्पष्ट है कि यदि शांति को खतरा नहीं भी है तो भी संस्था कार्यवाही करेगी । ऐसे मामलों में भी धारा 2 (7) के अंतर्गत घरेलू अधिकारिता का तर्क बाधा नहीं बना है । प्रचलित मत के अनुसार मानव अधिकारों का गंभीर उल्लंघन राज्यों के " आवश्यक रूप से घरेलू अधिकारिता के अंतर्गत " नहीं आता है तथा न ही वह कार्यवाहियाँ जो संयुक्त राष्ट्र ने की है तकनीकी विधिक अर्थों में हस्तक्षेप मानी जाएगी ।

2. - मानव अधिकारों से सम्बन्धित संयुक्त राष्ट्र निकाय :-

मानव अधिकार परिषद :- 15 मार्च 2006 को महासभा ने अपने 60वें सत्र में निर्णय किया कि मानव अधिकार आयोग के स्थान पर 47 सदस्यीय मानव अधिकार परिषद बनाई जाए । यह परिषद निर्णय के साथ बन भी गई ।
    इस सम्बन्ध मैं यह उल्लेखनीय है कि चूँकि 6 दशकों तक मानव अधिकार कमिशन ने मानवाधिकार के संरक्षण एवं उत्थान के लिए सराहनीय कार्य किया है अतः इसकी विवेचना की जा रही है ।

संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार कमीशन -
फरवरी 1946 में संयुक्त राष्ट्र की आर्थिक एवं सामाजिक परिषद द्वारा स्थापित संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार कमीशन मानव अधिकारों के संरक्षण की समस्या के पुनरीक्षण की स्थाई व्यवस्था की निकटतम पहुंच या उपागम है । यह आर्थिक एवं सामाजिक परिषद स्थापित 6 कार्यकारी कमीशनों में से एक हैं । इसकी स्थापना के निबन्धनों ( Terms ) के अनुसार कमीशन को निम्नलिखित विषयों पर रिपोर्ट तथा संस्तुतियाँ तैयार करना था -

1. - मानव अधिकार पर अंतर्राष्ट्रीय बिल
2. - सिविल स्वतंत्रताओं,महिलाओं की प्रस्थिति, सूचना की स्वतंत्रता तथा समान अन्य विषयों पर अंतर्राष्ट्रीय तथा अभिसमयों एवं घोषणाओं को तैयार करना,
3. - अल्पसंख्यकों का संरक्षण,
4. - प्रजाति, लिंग,भाषा या धर्म के आधार पर विभेद को रोकना,
5. - मानव अधिकार से सम्बन्धित अन्य मामले ।

कमीशन के निबन्धन ( Terms ) बहुत व्यापक है । इसके अंतर्गत, कमीशन मानव अधिकारों से सम्बन्धित किसी भी विषय पर कार्य कर सकता है । कमीशन या तो स्वयं अपनी पहल पर अध्ययन करता है, संस्तुतियाँ भेजता है या वह ऐसा महासभा की प्रार्थना पर करता है । कमीशन के सदस्यों का निर्वाचन 3 वर्ष के लिए किया जाता है तथा प्रतिवर्ष 5 से 6 सप्ताह के लिए सत्र किया जाता है । कमीशन के सभी निर्णय उपस्थित तथा मतदान करने वाले सदस्यों के बहुमत से किए जाते हैं । प्रत्येक सत्र के पश्चात कमीशन अपनी रिपोर्ट को आर्थिक एवं सामाजिक परिषद को भेजता है । कमीशन के मूलतः 18 सदस्य थे । परंतु उनकी संख्या 1962 में 21 , 1966 में 32 कर दी गई । इसके उपरान्त सदस्यों की संख्या 43 और अन्त में 53 कर दी गई । मई 1982 में भारत का निर्वाचन पुनः 3 वर्ष के लिए किया गया ।
      अपनी सहायता के लिए कमीशन ने कई गौड़ निकायों की स्थापना की है जैसे अल्पसंख्यकों के संरक्षण एवं विभेद पर रोकने पर उप कमीशन, सामयिक रिपोर्टों पर एडहाक समिति, दक्षिण अफ्रीका हेतु मानव अधिकारों के विशेषज्ञों का एडहाक कार्यकारिणी दल, तथा अन्य कार्यकारिणी जिन्हें विशिष्ट कार्य सुपुर्द किए जाते हैं ।
      अपनी स्थापना के निबन्धनों के अनुसार, कमीशन अध्ययन करता है, संस्तुतियाँ तैयार करता है तथा मानव अधिकारों से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय संलेख या लिखित के प्रारूप बनाता है । यह महासभा द्वारा समनुदेशित अन्य विशेष कार्य भी करता है । इसी प्रकार आर्थिक एवं सामाजिक परिषद द्वारा समनुदेशित विशेष कार्य भी इसके द्वारा किया जाता हैं । इन कार्यों के अंतर्गत मानव अधिकारों के उल्लंघन की जांच करना तथा ऐसे उल्लंघनों की संसूचना का कार्य भी आता है । कमीशन मानव अधिकारों के क्षेत्र में क्षमता रखने वाले संयुक्त राष्ट्र के अन्य निकायों के साथ सहयोग करता है ।
    कमीशन प्रतिवर्ष हजारों शिकायतें प्राप्त करता है तथा उन्हें संबंधित सरकारों के पास उत्तर एवं टीका टिप्पणी हेतु प्रेषित करता है । इसने मानव अधिकारों के उल्लंघन के मामलों की जांच में सक्रिय भूमिका अदा की है । कमीशन द्वारा किए गए कार्यों में प्रमुख कार्य मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा, महिलाओं के राजनीतिक अधिकारों का अभिसमय तथा सार्वभौम घोषणा के पूरक मानव अधिकारों के अभिसमय तैयार करना आदि हैं ।
      कमीशन द्वारा बहुत महत्वपूर्ण कार्य किए जाने के फलस्वरूप इटली और स्पेन ने चार्टर के पुनरीक्षण ( Revision ) एवं संस्था की भूमिका को सुदृढ़ बनाने हेतु विशेष समिति में न्यूयॉर्क में 14 फरवरी से 11 मार्च 1977 को हुए सत्र में प्रस्ताव रखा कि मानव अधिकारों का " उच्च कमिश्नर " का पद स्थापित किया जाए । इसमें यह भी प्रस्तावित किया गया कि न्यास परिषद के कार्यों को व्यापक करके उनमें मानव अधिकारों का संरक्षण शामिल किया जाए जिससे यह परिषद " मानव अधिकार एवं न्यास परिषद " हो जाएगी ।
        संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार कमीशन के 53 सदस्य हैं । कमीशन ने अपना 61वां सत्र 14 मार्च से अप्रैल 2005 तक पूरा किया । इस सत्र में कमीशन ने ईराक में मानव अधिकारों की स्थिति पर विचार किया ।

अमेरिका का पहली बार संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार कमिशन से बाहर होना : -
सन 1947 में संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार कमीशन की स्थापना से लेकर पिछले कई वर्षों तक संयुक्त राष्ट्र अमेरिका कमीशन का सदस्य बना रहा । 3 मई 2001 को पश्चिमी सदस्यों के निर्वाचन में अमेरिका को आश्चर्यजनक हार का सामना करना पड़ा । 3 पश्चिमी सीटों के लिए 4 देशों में प्रतिद्वंदिता थी । फ्रांस, ऑस्ट्रिया, स्वीडन ने क्रमशः 52, 41 तथा 32 मत प्राप्त किए किंतु अमेरिका 29 मत प्राप्त कर सका । अमेरिका की इस हार से संपूर्ण अमेरिका में सदमे एवं क्रोध की लहर दौड़ गई क्योंकि उसे संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार कमीशन से पहली बार बाहर होना पड़ा । इस हार के लिए अमेरिका स्वयं ही जिम्मेदार है क्योंकि अमेरिका का अंतर्राष्ट्रीय सन्धियों को समर्थन करने तथा उनके दायित्वों का पालन करने के सम्बन्ध में रिकॉर्ड बहुत खराब रहा है ।
       फिर भी अमेरिका को पुनः चुन लिया गया । इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि कुछ देश जैसे लीविया, क्यूबा, सूडान, अल्जीरिया तथा वियतनाम जो मानव अधिकारों के उल्लंघन के दोषी है उनको कमीशन के सदस्य के रूप में चुन लिया गया ।

मानव अधिकार परिषद : -
15 मार्च 2006 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने एक प्रस्ताव द्वारा मानव अधिकार कमीशन के स्थान पर मानव अधिकार परिषद की स्थापना कर दिया ।
     मानव अधिकार परिषद का मुख्यालय जेनेवा में स्थित है तथा यह महासभा का एक गौण अंग हैं । पाँच वर्ष के बाद महासभा इसकी प्रास्थिति का पुनरीक्षण करेगी । इसके साथ ही महासभा ने यह भी निर्णय किया है कि मानव अधिकार परिषद मानव अधिकार कमीशन के अधिकार एवं जिम्मेदारियां भी ग्रहण करेगी तथा एक वर्ष पश्चात इनका पुनरीक्षण करेगी ।
     परिषद में 47 सदस्य होंगे जिन्हें प्रत्यक्ष तथा व्यक्तिगत रूप से महासभा के सदस्यों द्वारा निर्वाचित किया जाएगा तथा सदस्यता प्रादेशिक दलों में साम्यापूर्ण विभाजन पर आधारित होगी । यह विभाजन निम्नलिखित ढंग से होगा -

1. - अफ्रीका दल ( 13 )
2. - एशिया दल ( 13 )
3. - पूर्वी यूरोपीय दल ( 67 )
4. - लैटिन अमेरिका एवं कैरीबियन दल ( 8 )
5. - पश्चिमी यूरोपीय तथा अन्य दल ( 7 )

दल के सदस्यों का कार्यकाल 3 वर्ष होगा तथा दो बार लगातार चुने जाने के पश्चात वे निर्वाचन योग्य नहीं होंगें ।
      परिषद की सदस्यता संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों के लिए खुली है । परिषद के सदस्यों को चुनते समय संयुक्त राष्ट्र के सदस्य अभ्यर्थी के मानव अधिकार की प्रोन्नति एवं संरक्षण के लिए योगदान एवं उनकी स्वेच्छा से संकल्प एवं प्रतिबद्धता को ध्यान में रखेंगे । महासभा विद्यमान एवं मतदान करते हुए सदस्यों के 2/3 बहुमत से परिषद के सदस्य के अधिकारों को निलंबित कर सकती है जो मानव अधिकारों का खुले एवं सोचे समझे तरीके से उल्लंघन करते हैं ।
      महासभा ने उपरोक्त प्रस्ताव में यह भी निर्णय किया कि परिषद पूरे वर्ष नियमित रूप से मिलेगी तथा प्रत्येक वर्ष मुख्य सत्र समिति जिसकी अवधि 10 सप्ताह से कम नहीं होगी, कम से कम 3 सत्र होंगे । इसके अतिरिक्त किसी सदस्य द्वारा जिसे परिषद के 1/3 सदस्यों का समर्थन प्राप्त हो, कहे जाने पर परिषद का विशेष सत्र बुलाया जा सकता है ।
     महासभा के प्रस्ताव में यह भी उल्लेख किया गया था कि परिषद के कार्य का ढंग पारदर्शी, उचित तथा निष्पक्ष होगा तथा जिससे वैध वार्ता सुगम हो उसकी प्रक्रिया में पारस्परिक युक्ति या क्रियाविधि होगी ।
      महासभा ने आर्थिक एवं सामाजिक परिषद से संस्तुति किया कि वह मानव अधिकार कमीशन से निवेदन करें कि वह अपना कार्य 16 जून 2006 तक 62वें सत्र में समाप्त कर दे ।
         अस्तु परिषद के पहले सदस्यों का चुनाव 9 मई 2006 को संपन्न हुआ । परिषद की पहली मीटिंग 19 जून 2006 को बुलाई गई । इस सत्र में परिषद ने 8 प्रस्ताव, 3 निर्णय एवं अध्यक्ष के 2 कथन 29 जून 2006 को पारित किए । इसके अतिरिक्त परिषद ने बाध्य लोप ( Forced Disappearance ) जिनकी संख्या 60 देशों में 40000 हो गई हैं, अपराध को रोकने एवं दंडित करने हेतु सन्धि को स्वीकार किया । परिषद ने देसी या देशज लोगों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र घोषणा को भी अंगीकार किया तथा उसे महासभा के सितंबर सत्र में भेज दिया । परिषद का पहला सत्र 30 जून 2006 को समाप्त हुआ ।
        अमेरिका मानव अधिकार परिषद से बाहर ही रहा क्योंकि उसने परिषद की सदस्यता हेतु चुनाव नहीं लड़ा । अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने कहा कि अमेरिका परिषद के बाहर से अधिक प्रभावशाली होगा । परंतु उन्होंने परिषद को वित्तीय सहायता देने का वचन दिया । परंतु अमेरिका के इस कदम के प्रति संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने निराशा व्यक्त की तथा उन्होंने आशा व्यक्त की कि 2007 में अमेरिका अपने निर्णय पर पुनर्विचार करेगा ।
       प्रस्तुत मानव अधिकार परिषद पूर्व मानव अधिकार कमीशन की तुलना में अधिक प्रतिनिधिक एवं लोकतांत्रिक है । परिषद के प्रथम सदस्यों के निर्वाचन में महासभा ने एक भिन्न प्रक्रिया लागू किया जो पूर्व मानव अधिकार कमीशन से भिन्न थी । पूर्व मानव अधिकार कमीशन 16 जून को समाप्त कर दिया गया ।
       मानव अधिकार परिषद द्वारा प्रथम मीटिंग की तिथि के 1 वर्ष बाद अर्थात 18 जून 2007 को संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद ने संस्थात्मक निर्माण पैकेज ( Institutional Building Package ) को अंगीकृत किया । इसके अंतर्गत, सामयिक पुनरीक्षण ( Universal Periodic Review ) स्थापित किया । यह संयुक्त राष्ट्र के सभी ( 192 ) सदस्य देशों में मानव अधिकार की स्थिति की निगरानी रखेगी । इसके अतिरिक्त एक सलाहकारी समिति गठित की गई है । यह सलाहकारी समिति, संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद के विचार कोष के रूप में कार्य करेगी । इसके अतिरिक्त संस्थात्मक निर्माण पैकेज का एक आवश्यक तत्व इसकी शिकायत प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत व्यक्ति एवं संस्थाएं अपनी शिकायतें मानव अधिकार परिषद के पास भेज सकते हैं ।
       इस विषय में यह भी उल्लेखनीय है कि मानव अधिकार परिषद मानव अधिकार उच्च कमिश्नर के साथ मिलकर कार्य करती है तथा संयुक्त राष्ट्र की उपर्युक्त विहित प्रक्रिया को लागू कर दी है ।

इजराइल के सम्बन्ध में 2008 की डिक्री : -
इजराइल के संबंध में संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद ने एक कथन जारी किया जिसमें कहा गया कि इजराइल गाजा क्षेत्र ( Gazastrip ) में अपनी सैनिक कार्रवाई बंद कर दें तथा गाजा क्षेत्र में सामान, इंधन, दवाइयों आदि के आने जाने की अनुमति दें । यह प्रस्ताव पाकिस्तान द्वारा लाया गया था तथा परिषद ने इसे 1 के विरुद्ध 30 मतों से पारित किया था ।

इस पोस्ट में आप पढ़ेंगे

1. - मानव अधिकारों का अन्तर्राष्ट्रीयकारण ?

2. - संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अन्तर्गत मानव अधिकार ?

3. - मानव अधिकारों का कार्यान्वयन ?

4. - मानव अधिकार एवं घरेलू या आन्तरिक अधिकारिता ?

5. - मानव अधिकारों से सम्बन्धित संयुक्त राष्ट्र निकाय ?

6. - अमेरिका का पहली बार संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार कमिशन से बाहर होना ?

7. - इजराइल के सम्बन्ध में 2008 की डिक्री ?

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