भूमिका का अर्थ अवधारणाएँ एवं परिभाषा और विशेषताओं का उल्लेख कीजिए
भूमिका प्रस्थिति का गतिशील या व्यावहारिक पहलू है । प्रस्थितियां धारण की जाती हैं जबकि भूमिकाओं का निर्वाह किया जाता है । एक व्यक्ति जिस प्रकार से एक प्रस्थिति से सम्बन्धित दायित्वों का निर्वाह और उससे सम्बन्धित सुविधाओं एवं विशेषाधिकारों का उपयोग करता है, उसे ही भूमिका कहते हैं । एक प्रस्थिति धारण करने के कारण व्यक्ति जो कार्य करता है वह उस पद की भूमिका है । उदाहरण के लिए राष्ट्रपति का पद एक प्रस्थिति है, इस प्रस्थिति से सम्बन्धित कुछ दायित्व तथा कर्तव्य है, ये ही राष्ट्रपति की भूमिका के अंतर्गत आएंगे । राष्ट्रपति की भूमिका निभाने वालों को कुछ सुविधाएं एवं विशेषाधिकार भी प्राप्त होते हैं ।सामान्यतः हम भूमिका का तात्पर्य सिनेमा या नाटक में किसी अन्य व्यक्ति की नकल करने से लेते हैं । हम कहते हैं - मीनाकुमारी ने चित्रलेखा की,अमजद खान ने डाकू की,अशोक कुमार ने पिता की अच्छी भूमिका निभायी । शशिकला ने खलनायिका व प्राण ने खलनायक की श्रेष्ठ भूमिका अदा की । किन्तु समाज में भूमिका का तात्पर्य प्रस्थिति से सम्बन्धित कार्यों के निर्वाह से है ।
भूमिका का अर्थ एवं परिभाषा : -
फेयरचाइल्ड के अनुसार - भूमिका किसी भी व्यक्ति का समूह में वह अपेक्षित कार्य या व्यवहार है जो समूह या संस्कृति के द्वारा परिभाषित किया गया है ।डेविस के अनुसार - भूमिका व ढंग है जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी स्थिति सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है ।
इलियट व मेरिल के अनुसार - भूमिका वह कार्य है जिसे वह (व्यक्ति) प्रत्येक प्रस्थिति के अनुरूप निभाता है ।
सार्जेन्ट के अनुसार - किसी व्यक्ति की भूमिका सामाजिक व्यवहार का ही एक प्रतिमान अथवा प्रारूप है जिसे वह अपने समूह के सदस्यों की प्रत्याशाओं के अनुसार एक परिस्थिति में ठीक समझता है ।
लिंटन के अनुसार - भूमिका शब्द का प्रयोग किसी विशेष प्रस्थिति से सम्बन्धित सांस्कृतिक प्रतिमान की समग्रता के लिए किया जाता है । इस प्रकार भूमिका के अंतर्गत उन सभी अभिवृत्तियों (Attitudes), सामाजिक मूल्यों और व्यवहारों को सम्मिलित करते हैं जो किसी विशेष प्रस्थिति से सम्बन्धित व्यक्ति या व्यक्तियों को समाज द्वारा प्रदान किए जाते हैं ।
हार्टन एवं हण्ट के अनुसार - एक विशिष्ट सामाजिक पद धारण करने के फलस्वरुप व्यक्ति जिस प्रकार का व्यवहार करता है उसे भूमिका कहते हैं ।
ब्रूम तथा सेल्जनिक के अनुसार - एक विशिष्ट सामाजिक पद से सम्बन्धित व्यवहार के प्रतिमान को भूमिका के रूप में परिभाषित किया जा सकता है ।
आगबर्न एवं निमकॉफ के अनुसार - भूमि का एक समूह में एक विशिष्ट पद से सम्बन्धित सामाजिक प्रत्याशाओं एवं व्यवहार प्रतिमानों का एक योग है जिसमें कर्त्तव्यों एवं सुविधाओं दोनों का समावेश होता है ।
इन परिभाषाओ से स्पष्ट है कि एक प्रस्थिति धारण करने के कारण समाज जिस प्रकार के कार्यों की व्यक्ति से अपेक्षा करता है, वही भूमिका कहलाती है । भूमिका प्रस्थिति का व्यवहारात्मक एवं गत्यात्मक पहलू हैं । एक व्यक्ति अपनी प्रस्थिति से सम्बन्धित भूमिका का निर्वाह कैसे करेगा यह कई बातों पर निर्भर करता है, जैसे वह अपने कर्तव्यों के प्रति कितना जागरूक है, अपने दायित्व निर्वाह के लिए कितना कठिन परिश्रम करता है, उसमें कर्तव्यनिष्ठा कितनी है, वह समाज के आदर्श नियमों के प्रति कितना सजग है और एक साथ कितनी भूमिकाएं निभा रहा है,आदि । अधिक क्षमता एवं अनुभव रखने वाला व्यक्ति अपनी भूमिका का निर्वाह अच्छी प्रकार से करता है । आनुवंशिकता भी व्यक्ति की भूमिका निर्वाह की क्षमता को प्रभावित करती है । कोई भी व्यक्ति किसी पद पर कब तक बना रहेगा यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह अपनी भूमिका का पालन कितनी कार्यकुशलता से करता है ।
समाज में कोई भी भूमिका अकेली या एकपक्षीय नहीं होती है, प्रत्येक भूमिका का महत्व अन्य प्रस्थितियों एवं भूमिकाओं के संदर्भ में ही होता है । उदाहरणार्थः, एक अध्यापक अपनी भूमिका छात्रों के संदर्भ में, एक डॉक्टर अपनी भूमिका रोगियों के संदर्भ में और एक राजा अपनी भूमिका प्रजा के संदर्भ में ही निभाता है । एक व्यक्ति अपने जीवन काल में अनेक प्रस्थितियाँ धारण करता है, उनके अनुसार ही वह अलग-अलग प्रकार की भूमिकाएं भी निभाता है । एक प्रस्थिति विशेष को धारण करने पर व्यक्ति किस प्रकार की भूमिका निभाएगा, यह उस समाज की संस्कृति एवं सामाजिक मूल्यों द्वारा तय होता है । समाज एवं संस्कृति ही किसी भूमिका से सम्बन्धित दायित्वों एवं अधिकारों को तय करते हैं ।
एक व्यक्ति एक समय में अनेक सामाजिक प्रस्थितियों में होने पर अलग-अलग प्रकार के कार्य करता है । सभी प्रस्थितियों में एक सी भूमिका निभाने वाले व्यक्ति जीवन में असफल होते देखे गए हैं । प्रत्येक प्रस्थिति से सम्बन्धित एक विशिष्ट भूमिका होती है । यदि उसका निर्वाह उचित रूप से नहीं होता है तो समाज में असंतुलन एवं विघटन पैदा होता है । अतः प्रस्थिति एवं भूमिका निर्वाह के बीच संतुलन एवं सामंजस्य होना आवश्यक है ।
1. - भूमिका का सम्बन्ध उन व्यवहारों की सम्पूर्णता से है जिनकी एक विशिष्ट प्रस्थिति धारण करने के कारण समूह अथवा समाज द्वारा अपेक्षा की जाती है ।
2. - भूमिका का निर्धारण संस्कृति एवं सामाजिक मानदंडों के आधार पर होता है ।
3. - समाज में कोई भी भूमिका अकेली या एकपक्षीय नहीं होती है वरन वह सदैव दूसरी प्रस्थितियों या भूमिकाओं के संदर्भ में ही निभाई जाती है ।
4. - भूमिका का सम्बन्ध प्रस्थिति के साथ जुड़ा होता है । चूँकि प्रस्थितियाँ ' प्रदत्त ' और ' अर्जित ' दो प्रकार की है अतः भूमिकाएं भी प्रदत्त और अर्जित होती हैं ।
5. - भूमिका गतिशील और परिवर्तनशील है । एक ही भूमिका विभिन्न लोगों द्वारा भिन्न भिन्न प्रकार से निभाई जाती है और विभिन्न समूहों एवं संस्कृतियों में अलग-अलग प्रकार से निभाई जाती है ।
6. - प्रत्येक व्यक्ति अपनी भूमिका का निर्वाह स्वयं की योग्यता, क्षमता, रुचि, मनोवृत्ति आदि के आधार पर ही करता है ।
7. - व्यक्ति समाज में अनेक भूमिका निभाता है किंतु जिस भूमिका के कारण व समाज में जाना जाता है वह उसकी " मुख्य भूमिका " ( Key Role ) कहलाती है । अन्य छोटी मोटी भूमिकाओं को सामान्य भूमिकाएं कहते हैं ।
8. - अलग-अलग भूमिकाओं का निर्वाह करने के लिए भिन्न भिन्न प्रकार का व्यवहार किया जाता है । सभी भूमिकाओं का निर्वाह एक ही प्रकार के व्यवहार द्वारा नहीं किया जाता ।
9. - प्रत्येक भूमिका के साथ कुछ ना कुछ अधिकार एवं सुविधाएं जुड़ी होती है ।
2. - भूमिका ग्रहण - इस प्रक्रिया के दौरान व्यक्ति विशिष्ट भूमिकाओं को निभाना सीखता है । उदाहरण के लिए सेना में भर्ती होने पर एक व्यक्ति सैनिक की भूमिका निभाना सीखता है ।
3. - अभिनय की भूमिका - इस प्रक्रिया में व्यक्ति किसी अन्य पात्र की भूमिका का अभिनय करता है । उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति रामलीला या कृष्ण लीला में राम, रावण, कृष्ण अथवा कंस की भूमिका का अभिनय करता है तो उसे अभिनय की भूमिका कहते हैं ।
4. - भूमिका वंचन - जब एक व्यक्ति एक प्रस्थिति को छोड़कर दूसरे प्रस्थिति धारण करता है तो उसे अपनी पहले की प्रस्थिति से सम्बन्धित भूमिका त्यागनी पड़ती है । इसे ही भूमिका वंचन कहते हैं । एक भूमिका को त्याग कर दूसरी भूमिका ग्रहण करने के बीच की स्थिति को भूमिका संक्रमण कहते हैं ।
5. - असफल भूमिका - जब एक व्यक्ति अपने प्रस्थिति के अनुरूप भूमिका निभाने में असफल रहता है तो उसे असफल भूमिका कहा जाता है । स्थिर एवं संगठित समाजों में जहां प्रदत्त भूमिकाएं अधिक होती हैं, भूमिकाओं का निर्वाह सफलतापूर्वक किया जाता है किंतु परिवर्तनशील एवं असंगठित समाजों में जहां अर्जित भूमिकाएं अधिक होती हैं, भूमिका निर्वाह में असफलता भी अधिक पाई जाती है । प्रत्येक प्रकार की भूमिका के सफल निर्वाह के लिए विशेष प्रकार के गुणों की आवश्यकता होती है ।
6. - भूमिका प्रत्याशा - एक पद या प्रस्थिति धारण करने के फल स्वरुप समाज व्यक्ति से जिस प्रकार की भूमिका की अपेक्षा करता है उसे भूमिका प्रत्याशा कहते हैं । कई बार भूमिका प्रत्याशा और व्यक्ति द्वारा निभाई जाने वाली वास्तविक भूमिका में अंतर होने पर समाज में अव्यवस्था पैदा हो जाती है ।
7. - भूमिका संघर्ष - कई बार व्यक्ति को दो भिन्न प्रस्थितियों की भूमिका एक साथ निभाने होती हैं और यदि उनमें विरोधाभास है तो उसे हम भूमिका संघर्ष कहते हैं । उदाहरण के लिए, जब एक न्यायाधीश के सम्मुख उसके पुत्र को ही अपराधी के रूप में लाया जाता है तब वह इस उलझन में पड़ जाता है कि वह पिता के रूप में दया करके उसे छोड़ दे या न्यायाधीश के रूप में उसे दण्ड दे। इन दोनों भूमिकाओं को एक साथ निभाना कठिन है, यह प्रस्थिति भूमिका संघर्ष की स्थिति है । भूमिका संघर्ष के लिए समाज में सांस्कृतिक मूल्य भी उत्तरदाई है । आधुनिक एवं परिवर्तनशील समाजों में भूमिका संघर्ष अधिक पाया जाता है क्योंकि यहां नवीन एवं पुराने मूल्य साथ साथ चलते हैं । भूमिका संघर्ष मानसिक तनाव पैदा करता है । लुण्डबर्ग कहते हैं की भूमिका संघर्ष की स्थिति में व्यक्ति प्रभावशाली भूमिका को चुन लेता है और कमजोर भूमिका को छोड़ देता है तथा जो व्यक्ति ऐसा नहीं कर पाते, उनके व्यक्तित्व का विघटन होने लगता है । भूमिका संघर्ष की स्थिति में व्यक्ति किस भूमिका का चयन करेगा व किसे छोड़ेगा, इसको तय करने के लिए समाज द्वारा प्राथमिकताओं की एक सूची बनी हुई है, उसी के अनुसार वह कम महत्वपूर्ण कार्य की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण कार्य को करता है ।
रॉबर्ट मर्टन ने भूमिका एवं प्रस्थिति से सम्बन्धित तीन अवधारणाएं - भूमिका प्रतिमान,प्रस्थिति प्रतिमान एवं प्रस्थिति श्रृंखला दी है । उनका हम यहाँ संक्षेप में उल्लेख करेंगें : -
8. - भूमिका प्रतिमान - समाज में कोई भी भूमिका एकपक्षीय या पृथक नहीं होती वरन वह दूसरों के संदर्भ में ही होती है । एक व्यक्ति अपनी प्रस्थिति से सम्बन्धित विभिन्न परिस्थितियों को धारण करने वाले व्यक्तियों के साथ अलग-अलग प्रकार की जो भूमिका निभाता है उसकी संपूर्णता को ही भूमिका प्रतिमान कहते हैं । उदाहरण के लिए एक डॉक्टर डॉक्टर होने के नाते दूसरे डॉक्टरों से,नर्सो से,मरीजों से एवं चिकित्सा अधिकारी से भिन्न भिन्न प्रकार की भूमिका निभाता है, उसे ही भूमिका प्रतिमान कहते हैं । इसे हम एक अन्य उदाहरण द्वारा भी स्पष्ट कर सकते हैं । मान लीजिए कि एक मन्त्री हैं, मन्त्री होने के नाते वह मुख्यमंत्री, अन्य मंत्रियों जनता एवं प्रशासनिक अधिकारियों से भिन्न भिन्न प्रकार से व्यवहार करता है और सभी के साथ उसकी भूमिका भी अलग-अलग होती है इसे ही भूमिका प्रतिमान कहते हैं ।
9. - प्रस्थिति प्रतिमान - एक व्यक्ति अपने जीवन काल में अनेक प्रस्थितियां धारण करता है और उनके अनुसार अलग-अलग भूमिकाएं भी निभाता है । विभिन्न प्रस्थितियों कि इस संपूर्णता को ही प्रस्थिति प्रतिमान कहते हैं । उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति पिता,पति,भाई, वकील,ग्राहक, भू स्वामी आदि अनेक प्रस्थितियां एक साथ धारण करता है । ये सभी प्रस्थितियां मिलकर उस व्यक्ति का प्रस्थिति प्रतिमान कहलाएंगीं ।
10. - प्रस्थिति श्रृंखला - व्यक्ति एक ही समय में कई प्रस्थितियां धारण नहीं करता वरन विभिन्न समूहों में भी अलग-अलग प्रस्थितियां धारण करता है । प्रस्थितियों के इस उत्तरोत्तर क्रम से एक श्रृंखला बन जाती है उसे ही हम प्रस्थिति श्रंखला कहते हैं । उदाहरणार्थः, एक व्यक्ति आज छात्र है, कलुआ किसी पंचायत का सरपंच बनता है, फिर विधायक, फिर संसद सदस्य और राष्ट्रपति प्रस्थितियों का यह क्रम ही प्रस्थिति श्रंखला कहलाता है । इसका दूसरा उदाहरण है व्यक्ति पहले कुंवारा होता है, विवाह के बाद वह पति, पिता, दादा और परदादा आदि प्रस्थितियां ग्रहण करता है । इन सब से मिलकर उसकी प्रस्थिति श्रंखला बनती है ।
भूमिका की विशेषताएं :-
भूमिका को और अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिए हम उसकी विशेषताओं का यहां उल्लेख करेंगे : -1. - भूमिका का सम्बन्ध उन व्यवहारों की सम्पूर्णता से है जिनकी एक विशिष्ट प्रस्थिति धारण करने के कारण समूह अथवा समाज द्वारा अपेक्षा की जाती है ।
2. - भूमिका का निर्धारण संस्कृति एवं सामाजिक मानदंडों के आधार पर होता है ।
3. - समाज में कोई भी भूमिका अकेली या एकपक्षीय नहीं होती है वरन वह सदैव दूसरी प्रस्थितियों या भूमिकाओं के संदर्भ में ही निभाई जाती है ।
4. - भूमिका का सम्बन्ध प्रस्थिति के साथ जुड़ा होता है । चूँकि प्रस्थितियाँ ' प्रदत्त ' और ' अर्जित ' दो प्रकार की है अतः भूमिकाएं भी प्रदत्त और अर्जित होती हैं ।
5. - भूमिका गतिशील और परिवर्तनशील है । एक ही भूमिका विभिन्न लोगों द्वारा भिन्न भिन्न प्रकार से निभाई जाती है और विभिन्न समूहों एवं संस्कृतियों में अलग-अलग प्रकार से निभाई जाती है ।
6. - प्रत्येक व्यक्ति अपनी भूमिका का निर्वाह स्वयं की योग्यता, क्षमता, रुचि, मनोवृत्ति आदि के आधार पर ही करता है ।
7. - व्यक्ति समाज में अनेक भूमिका निभाता है किंतु जिस भूमिका के कारण व समाज में जाना जाता है वह उसकी " मुख्य भूमिका " ( Key Role ) कहलाती है । अन्य छोटी मोटी भूमिकाओं को सामान्य भूमिकाएं कहते हैं ।
8. - अलग-अलग भूमिकाओं का निर्वाह करने के लिए भिन्न भिन्न प्रकार का व्यवहार किया जाता है । सभी भूमिकाओं का निर्वाह एक ही प्रकार के व्यवहार द्वारा नहीं किया जाता ।
9. - प्रत्येक भूमिका के साथ कुछ ना कुछ अधिकार एवं सुविधाएं जुड़ी होती है ।
भूमिका से सम्बन्धित कुछ अवधारणाएँ : -
1. - भूमिका पालन - जब एक व्यक्ति समाज द्वारा निर्धारित प्रतिमानों के अनुरूप अपनी भूमिका निभाता है तो उसे ' भूमिका पालन ' करना कहा जाता है । समाज में पंडित, पादरी, पिता, पुत्र, अध्यापक आदि सभी को हम अपनी अपनी भूमिका का पालन करते देखते हैं ।2. - भूमिका ग्रहण - इस प्रक्रिया के दौरान व्यक्ति विशिष्ट भूमिकाओं को निभाना सीखता है । उदाहरण के लिए सेना में भर्ती होने पर एक व्यक्ति सैनिक की भूमिका निभाना सीखता है ।
3. - अभिनय की भूमिका - इस प्रक्रिया में व्यक्ति किसी अन्य पात्र की भूमिका का अभिनय करता है । उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति रामलीला या कृष्ण लीला में राम, रावण, कृष्ण अथवा कंस की भूमिका का अभिनय करता है तो उसे अभिनय की भूमिका कहते हैं ।
4. - भूमिका वंचन - जब एक व्यक्ति एक प्रस्थिति को छोड़कर दूसरे प्रस्थिति धारण करता है तो उसे अपनी पहले की प्रस्थिति से सम्बन्धित भूमिका त्यागनी पड़ती है । इसे ही भूमिका वंचन कहते हैं । एक भूमिका को त्याग कर दूसरी भूमिका ग्रहण करने के बीच की स्थिति को भूमिका संक्रमण कहते हैं ।
5. - असफल भूमिका - जब एक व्यक्ति अपने प्रस्थिति के अनुरूप भूमिका निभाने में असफल रहता है तो उसे असफल भूमिका कहा जाता है । स्थिर एवं संगठित समाजों में जहां प्रदत्त भूमिकाएं अधिक होती हैं, भूमिकाओं का निर्वाह सफलतापूर्वक किया जाता है किंतु परिवर्तनशील एवं असंगठित समाजों में जहां अर्जित भूमिकाएं अधिक होती हैं, भूमिका निर्वाह में असफलता भी अधिक पाई जाती है । प्रत्येक प्रकार की भूमिका के सफल निर्वाह के लिए विशेष प्रकार के गुणों की आवश्यकता होती है ।
6. - भूमिका प्रत्याशा - एक पद या प्रस्थिति धारण करने के फल स्वरुप समाज व्यक्ति से जिस प्रकार की भूमिका की अपेक्षा करता है उसे भूमिका प्रत्याशा कहते हैं । कई बार भूमिका प्रत्याशा और व्यक्ति द्वारा निभाई जाने वाली वास्तविक भूमिका में अंतर होने पर समाज में अव्यवस्था पैदा हो जाती है ।
7. - भूमिका संघर्ष - कई बार व्यक्ति को दो भिन्न प्रस्थितियों की भूमिका एक साथ निभाने होती हैं और यदि उनमें विरोधाभास है तो उसे हम भूमिका संघर्ष कहते हैं । उदाहरण के लिए, जब एक न्यायाधीश के सम्मुख उसके पुत्र को ही अपराधी के रूप में लाया जाता है तब वह इस उलझन में पड़ जाता है कि वह पिता के रूप में दया करके उसे छोड़ दे या न्यायाधीश के रूप में उसे दण्ड दे। इन दोनों भूमिकाओं को एक साथ निभाना कठिन है, यह प्रस्थिति भूमिका संघर्ष की स्थिति है । भूमिका संघर्ष के लिए समाज में सांस्कृतिक मूल्य भी उत्तरदाई है । आधुनिक एवं परिवर्तनशील समाजों में भूमिका संघर्ष अधिक पाया जाता है क्योंकि यहां नवीन एवं पुराने मूल्य साथ साथ चलते हैं । भूमिका संघर्ष मानसिक तनाव पैदा करता है । लुण्डबर्ग कहते हैं की भूमिका संघर्ष की स्थिति में व्यक्ति प्रभावशाली भूमिका को चुन लेता है और कमजोर भूमिका को छोड़ देता है तथा जो व्यक्ति ऐसा नहीं कर पाते, उनके व्यक्तित्व का विघटन होने लगता है । भूमिका संघर्ष की स्थिति में व्यक्ति किस भूमिका का चयन करेगा व किसे छोड़ेगा, इसको तय करने के लिए समाज द्वारा प्राथमिकताओं की एक सूची बनी हुई है, उसी के अनुसार वह कम महत्वपूर्ण कार्य की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण कार्य को करता है ।
रॉबर्ट मर्टन ने भूमिका एवं प्रस्थिति से सम्बन्धित तीन अवधारणाएं - भूमिका प्रतिमान,प्रस्थिति प्रतिमान एवं प्रस्थिति श्रृंखला दी है । उनका हम यहाँ संक्षेप में उल्लेख करेंगें : -
8. - भूमिका प्रतिमान - समाज में कोई भी भूमिका एकपक्षीय या पृथक नहीं होती वरन वह दूसरों के संदर्भ में ही होती है । एक व्यक्ति अपनी प्रस्थिति से सम्बन्धित विभिन्न परिस्थितियों को धारण करने वाले व्यक्तियों के साथ अलग-अलग प्रकार की जो भूमिका निभाता है उसकी संपूर्णता को ही भूमिका प्रतिमान कहते हैं । उदाहरण के लिए एक डॉक्टर डॉक्टर होने के नाते दूसरे डॉक्टरों से,नर्सो से,मरीजों से एवं चिकित्सा अधिकारी से भिन्न भिन्न प्रकार की भूमिका निभाता है, उसे ही भूमिका प्रतिमान कहते हैं । इसे हम एक अन्य उदाहरण द्वारा भी स्पष्ट कर सकते हैं । मान लीजिए कि एक मन्त्री हैं, मन्त्री होने के नाते वह मुख्यमंत्री, अन्य मंत्रियों जनता एवं प्रशासनिक अधिकारियों से भिन्न भिन्न प्रकार से व्यवहार करता है और सभी के साथ उसकी भूमिका भी अलग-अलग होती है इसे ही भूमिका प्रतिमान कहते हैं ।
9. - प्रस्थिति प्रतिमान - एक व्यक्ति अपने जीवन काल में अनेक प्रस्थितियां धारण करता है और उनके अनुसार अलग-अलग भूमिकाएं भी निभाता है । विभिन्न प्रस्थितियों कि इस संपूर्णता को ही प्रस्थिति प्रतिमान कहते हैं । उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति पिता,पति,भाई, वकील,ग्राहक, भू स्वामी आदि अनेक प्रस्थितियां एक साथ धारण करता है । ये सभी प्रस्थितियां मिलकर उस व्यक्ति का प्रस्थिति प्रतिमान कहलाएंगीं ।
10. - प्रस्थिति श्रृंखला - व्यक्ति एक ही समय में कई प्रस्थितियां धारण नहीं करता वरन विभिन्न समूहों में भी अलग-अलग प्रस्थितियां धारण करता है । प्रस्थितियों के इस उत्तरोत्तर क्रम से एक श्रृंखला बन जाती है उसे ही हम प्रस्थिति श्रंखला कहते हैं । उदाहरणार्थः, एक व्यक्ति आज छात्र है, कलुआ किसी पंचायत का सरपंच बनता है, फिर विधायक, फिर संसद सदस्य और राष्ट्रपति प्रस्थितियों का यह क्रम ही प्रस्थिति श्रंखला कहलाता है । इसका दूसरा उदाहरण है व्यक्ति पहले कुंवारा होता है, विवाह के बाद वह पति, पिता, दादा और परदादा आदि प्रस्थितियां ग्रहण करता है । इन सब से मिलकर उसकी प्रस्थिति श्रंखला बनती है ।
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