सामाजिक प्रस्थिति की अवधारणा को परिभाषित कीजिए और सामाजिक प्रस्थितियाँ कैसे निश्चित होतीं हैं
प्रत्येक व्यक्ति का अपने समूह या समाज में एक समय विशेष में कोई न कोई स्थान अथवा पद अवश्य होता है । कोई उच्च पद पर आसीन होता है तो कोई निम्न पद पर । एक व्यक्ति एक क्षेत्र में महत्वपूर्ण पद पर हो सकता है तो दूसरे क्षेत्र में उसका दर्जा नीचा हो सकता है । उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री का पद धारण करने वाले व्यक्ति की स्थिति राजनीतिक क्षेत्र में बहुत ऊंची है जबकि खिलाड़ी ना होने पर खेल जगत में उसका कोई स्थान नहीं हो सकता है । संयुक्त परिवार में दादा परिवार का मुखिया होने से सम्माननीय एवं शक्तिशाली व्यक्ति माना जाता है जबकि वही व्यक्ति किसी ऑफिस में चपरासी होने पर अधिकारी एवं क्लर्क की तुलना में नीचा माना जाता है ।
इस प्रकार एक व्यक्ति का समाज में अपना कोई न कोई पद या दर्जा होता है जिसे समाजशास्त्रीय भाषा में 'प्रस्थिति' कहा जाता है और एक प्रस्थिति धारण करने के फलस्वरूप व्यक्ति से जिस प्रकार के कार्यों की समाज सामान्यतः अपेक्षा करता है तथा उसके अनुरूप वह जो कुछ करता है उसे उसकी भूमिका कहते हैं । प्रत्येक समाज की संरचना एवं संगठन का निर्माण विभिन्न व्यक्तियों के द्वारा धारण की गई सामाजिक प्रस्थितियों एवं भूमिकाओं के व्यवस्थित सहयोग से ही होता है ।
इसलिए ही वीरस्टीड लिखते हैं कि, " समाज सामाजिक प्रस्थितियों का जाल है । अनेक प्रस्थितियाँ व्यवस्थित रूप से मिलकर ही संपूर्ण समाज का निर्माण करती है । समाज में उनके महत्व एवं उपयोगिता के आधार पर ही प्रस्थितियों के साथ सम्मान एवं शक्ति जुड़ी हुई होती है । प्रत्येक सामाजिक प्रस्थिति को धारण करने वाला व्यक्ति वैसा ही व्यवहार करता है जैसा उस प्रस्थिति से सम्बन्धित मानदण्डों द्वारा अपेक्षित और मान्य होता है । एक पिता, पति, खिलाड़ी, राजनेता, अध्यापक, डॉक्टर, इंजीनियर, दुकानदार, छात्र खाद किस प्रकार से समाज में अपनी भूमिका अदा करेंगे, यह सामाजिक नियमों द्वारा तय होता है ।
प्रस्थिति के अनुरूप भूमिका के निर्वाह की स्थिति को हम 'प्रस्थिति एवं भूमिका का सन्तुलन ' कहते हैं । यह संतुलन ही सामाजिक संगठन का मुख्य आधार है । इसके अभाव में समाज व्यवस्था विघटित होने लगती है । सामाजिक प्रस्थिति के अनुरूप ही व्यक्ति समाज में परस्पर अन्तः क्रिया करते एवं सामाजिक सम्बन्धो का निर्माण करते हैं ।
समाजशास्त्र में प्रस्थित एवं भूमिका का अध्ययन समाजशास्त्रियों द्वारा समूह, सामाजिक संगठन एवं सामाजिक मानदण्डों के अध्ययन के यंत्र के रूप में प्रयुक्त हुआ है । सामाजिक प्रस्थिति एवं भूमिका के बारे में महत्वपूर्ण विचार प्रकट करने वालों में लिंटन, हिलर, मर्टन,पारसन्स एवं डेविस आदि समाजशास्त्रीय प्रमुख हैं ।
इलियट एवं मैरिल के अनुसार - प्रस्थिति व्यक्ति का वह पद है जिसे व्यक्ति किसी समूह में अपने लिंग,आयु,परिवार, वर्ग,व्यवसाय, विवाह अथवा प्रयत्नों आदि के कारण प्राप्त करता है ।
आगबर्न तथा निमकॉफ के अनुसार - प्रस्थिति की सबसे सरल परिभाषा यह है कि यह समूह में व्यक्ति के पद का प्रतिनिधित्व करती है ।
लेपियर के अनुसार - सामाजिक प्रस्थिति सामान्यतः उस पद के रूप में समझी जाती है जो एक व्यक्ति समाज में प्राप्त किए होता है ।
मैकाइबर एवं पेज के अनुसार - प्रस्थिति वह सामाजिक पद है जो व्यक्तिगत गुण तथा सामाजिक सेवा से पृथक व्यक्ति के अंदर प्रतिष्ठा तथा प्रभाव की मात्रा का निर्धारण करती है ।
मार्टिण्डेल तथा मौनाचेसी ने लिखा है, " सामाजिक प्रस्थिति का अर्थ है सामाजिक संकलन में व्यक्ति का पद जो कि आदर के प्रतीकों एवं क्रियाओं के प्रतिमानो से पहचाना जाता है ।
किम्बाल यांग के अनुसार, - प्रत्येक समाज तथा समूह में प्रत्येक व्यक्ति को कुछ कार्यों को संपन्न करना होता है जिनके साथ शक्ति तथा प्रतिष्ठा की कुछ मात्रा जुड़ी होती है । शक्ति तथा प्रतिष्ठा की जिस मात्रा का हम प्रयोग करते हैं, वही उसकी प्रस्थिति हैं ।
लिंटन के अनुसार - सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत किसी व्यक्ति को एक समय विशेष में जो स्थान प्राप्त होता है उसी को उस व्यक्ति की सामाजिक प्रस्थिति कहा जाता है ।
जॉन लेवी के अनुसार - किसी सामाजिक संरचना में व्यक्ति अथवा समूह के संस्थागत पदों की सम्पूर्णता का नाम ही प्रस्थिति है ।
वीरस्टीड ने बताया हैं, सामान्यतः एक प्रस्थिति समाज अथवा एक समूह में एक पद है ।
हर्टन एवं हण्ट के अनुसार - प्रस्थिति को सामान्यतः एक व्यक्ति की समूह में अथवा एक समूह की दूसरे समूहों के सम्बन्ध में श्रेणी या पद के रूप में परिभाषित किया जा सकता है ।
डेविस के अनुसार - प्रस्थिति किसी भी सामान्य संस्थात्मक व्यवस्था में किसी पद की सूचक है, ऐसा पति जो समाज द्वारा स्वीकृत है और जिसका निर्माण स्वतः ही हुआ है तथा जो जनरीतियों एवं रूढ़ियों से सम्बद्ध हैं ।
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि प्रस्थिति व्यक्ति की समूह अथवा समाज में पद की सूचक है । यह पद व्यक्ति को समाज द्वारा स्वतः ही प्रदान किया जा सकता है या व्यक्ति अपने गुणों एवं योग्यता के आधार पर प्राप्त कर सकता है । एक व्यक्ति की प्रस्थिति सदैव ही दूसरे व्यक्तियों की प्रस्थितियों की तुलना में ही होती है । अकेले व्यक्ति की कोई प्रस्थिति नहीं होती,अर्थात जब हम यह कहते हैं कि अमुक व्यक्ति अध्यापक है तो इसका अर्थ यह है कि कोई उसके छात्र भी हैं । बिना छात्र के कोई व्यक्ति अध्यापक कैसे हो सकता है । प्रस्थिति शब्द एक ओर तो श्रेणी के विचार को प्रकट करता है तो दूसरी ओर यह व्यक्ति के व्यवहार का भी बोध कराता है । प्रस्थिति एक व्यक्ति के दूसरे व्यक्तियों की तुलना में प्राप्त अधिकारों एवं कर्तव्यों की परिचायक भी है । साथ ही प्रत्येक प्रस्थिति के साथ कुछ सामाजिक नियम, मूल्य और मानदण्ड भी जुड़े होते हैं और प्रत्येक व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि वह उस प्रस्थिति से सम्बद्ध इन मानदण्डों का पालन करें । ऐसा ना करने पर उसकी आलोचना की जाती है । एक व्यक्ति समाज में एक साथ अनेक प्रस्थितियों को प्राप्त करता है किंतु वह किसी एक ही प्रमुख प्रस्थिति के द्वारा ही समाज में जाना जाता है । उदाहरण के लिए एक व्यक्ति प्राध्यापक, पिता,पति,मामा, भाई एवं पुत्र आदि विभिन्न प्रस्थितियों को एक साथ धारण करता है किंतु समूह तथा समुदाय में वह किसी एक प्रमुख प्रस्थिति से ही जाना जाता है ।
1. - प्रदत्त प्रस्थिति ( Ascribed Status ) : - समाज में कुछ प्रस्थितियाँ ऐसी होती हैं जो व्यक्ति के गुणों पर ध्यान दिए बिना ही उसको स्वतः ही प्राप्त हो जाती है । ये प्रस्थितियाँ व्यक्ति को किसी परिवार विशेष में जन्म लेने व परम्परा आदि के कार्य प्राप्त होती है और बच्चे को उस समय प्रदान कर दी जाती है जबकि उसके व्यक्तित्व के बारे में समाज कुछ नहीं जानता । समाज में प्रदत्त प्रस्थितियाँ पहले से ही मौजूद होती हैं जो नवीन जन्म लेने वाले प्राणी को प्रदान कर दी जाती है । प्रस्थितियाँ बच्चे के द्वारा भविष्य में प्राप्त किए जाने वाली प्रस्थितियों की सीमा तथा रूप भी निश्चित करती है । विश्व के सभी समाजों में प्रदत्त प्रस्थितियाँ पाई जाती है । प्रदत्त प्रस्थिति पर व्यक्ति का अपना कोई नियंत्रण नहीं होता जैसे स्त्री या पुरुष होना, बालक या युवा होना, सुंदर व कुरूप तथा लम्बा व छोटा होना । लिंग भेद,आयु,नातेदारी, प्रजाति, जाति, वैध एवं अवैध सन्तान, परिवार में बच्चों की कुल संख्या, गोद लेने, माता पिता की मृत्यु तथा विवाह विच्छेद आदि व्यक्ति की इच्छा का कोई ध्यान नहीं रखते हुए उसको एक प्रस्थिति प्रदान करते हैं । इन सब के आधार पर प्राप्त प्रस्थितियाँ प्रदत्त प्रकार की होती है । आधुनिक समाजों की तुलना में आदिम एवं परम्परात्मक समाजों में प्रदत्त प्रस्थितियाँ अधिक पाई जाती है ।
प्रदत्त प्रस्थिति के निर्धारण के आधार : -
किसी भी व्यक्ति की प्रस्थिति का निर्धारण अनेक आधारों पर होता है । प्रदत्त प्रस्थिति निर्धारण के कुछ प्रमुख आधार इस प्रकार हैं :
1. - लिंग-भेद : - शिशु का लिंग जन्म काल से ही निश्चित तथा प्रत्यक्ष दृश्य मान शारीरिक लक्षण है जो आजीवन स्थाई बना रहता है । लगभग सभी संस्कृतियों में स्त्री एवं पुरुष की प्रस्थितियों एवं भूमिकाओं में अंतर पाया जाता है । प्रायः स्त्रियों की तुलना में पुरुषों की प्रस्थिति ऊंची पाई जाती है । पश्चिमी संस्कृति में स्त्रियों को कमजोर, कोमल, भावुक, सहज विश्वासी, धार्मिक तथा एक विवाही माना जाता रहा है । भारत में भी स्त्रियों की प्रस्थिति पुरुषों से नीची रही है और उन्हें अबला,दासी एवं सम्पत्ति के रूप में समझा जाता रहा है । इसी कारण स्त्रियों को उच्च शिक्षा तथा व्यवसाय से पृथक रखा गया, उनको सम्पत्ति एवं राज्याधिकारों से वंचित किया गया तथा उन्हें पुरुषों के अधीन रखा गया । दूसरी ओर पुरुषों को साहस,वीरता, तर्क एवं शौर्य का प्रतीक माना गया है । यही कारण है कि स्त्रियों को छोटे-मोटे घरेलू कार्य जैसे सिलाई,बर्तन बनाना, खाना बनाना एवं पुरुषों के पालन पोषण का कार्य सौंपा गया है जबकि पुरुष पशु चारण, मछली मारने, शिकार व युद्ध करने आदि के कार्य करते रहे हैं जिनमें अधिक शारीरिक शक्ति एवं साहस की आवश्यकता होती है । कई आदिम समाजों में स्त्रियां धार्मिक एवं जादुई क्रियाओं में भाग नहीं ले सकती थी । नीलगिरी की टोडा जनजाति में स्त्रियों को भैंस पालन का कार्य करने की मनाही है । स्त्री एवं पुरुषों में श्रम विभाजन विभिन्न संस्कृतियों में सम्मान नहीं है । एक समाज में एक प्रकार का कार्य पुरुषों के लिए निर्धारित है तो वही कार्य दूसरे समाज में स्त्रियों के लिए । स्त्री एवं पुरुषों के कार्य विभाजन का आधार सम्भवतः यह माना जाता है कि उनके अनुवांशिकता से प्राप्त चारित्रिक लक्षण भिन्न-भिन्न होते हैं, जिसके कारण उनका सामाजिक व्यवहार भी भिन्न होता है । स्त्री पुरुषों में पाई जाने वाली शारीरिक रचना की भिन्नता भी उनके कार्यों में भिन्नता पैदा करती है । नारी को प्रजनन का कार्य करना पड़ता है,अतः उसे ऐसे कार्य सौंपें गए हैं जो प्रजनन क्रिया के अनुकूल है । इसलिए ही उन्हें युद्ध, शिकार एवं शक्ति के कार्यों के स्थान पर बच्चों के लालन-पालन से संबंधित एवं घरेलू कार्य सौंपे गए हैं जिससे कि गर्व काल में उन पर विपरीत प्रभाव ना पड़े और वे घर के नजदीक रहे । इस प्रकार हम देखते हैं कि कई प्रदत्त एवं अर्जित पद यौन भेद पर आधारित हैं ।
स्त्री एवं पुरुषों की प्रस्थितियों में सांस्कृतिक कारणों से भी भिन्नता पाई जाती है । सदैव ही पुरुषों की तुलना में स्त्रियों को निम्न स्थान नहीं दिया जाता है । भारत में गारो, खासी तथा नायर मातृ सत्तात्मक परिवारों में पुरुषों की तुलना में स्त्री की प्रस्थिति ऊंची है, वहीं परिवार की मुखिया होती है सम्पत्ति एवं धार्मिक कार्यों में वही प्रधान होती है वंश एवं उत्तराधिकार भी स्त्रियों के आधार पर ही तय किए जाते हैं। वर्तमान समय में स्त्री एवं पुरुषों को कुछ कार्यों को छोड़कर, शेष में समान रूप से नौकरी के अवसर प्रदान किए जाते हैं । फिर भी यह बात संदेहपूर्ण प्रतीत होती है कि यौन आधार पर श्रम विभाजन एवं पदों की प्राप्ति का भी समाप्त हो सकेगी ।
2. - आयु भेद - यौन भेद की भांति आयु-भेद भी निश्चित एवं स्पष्ट शारीरिक लक्षण है किंतु आयु एक परिवर्तनशील तथ्य भी है । विश्व की सभी संस्कृतियों में आयु के आधार पर प्रस्थिति भेद पाया जाता है । आयु का विभाजन शिशु, बालक, युवा, प्रौढ़ एवं वृद्ध आदि स्तरों में किया जा सकता है । समाज में अलग-अलग आयु के लोगों को विभिन्न प्रस्थितियां प्रदान की जाती है तथा एक विशेष प्रस्थिति के लिए निश्चित आयु का होना भी आवश्यक है । बड़े भाई एवं छोटे भाई का भेद आयु पर निर्भर है । प्रायः बच्चों की तुलना में वृद्ध लोगों को समाज में अधिक सम्मान दिया जाता है । इसका कारण आयु के अतिरिक्त यह भी है कि उन्हें जीवन का अनुभव अधिक होता है तथा वे परम्परा एवं संस्कृति के रक्षक माने जाते हैं । भारत के राष्ट्रपति के लिए कम से कम 35 वर्ष की आयु होना आवश्यक है । इसी प्रकार से मत देने, उम्मीदवार होने तथा सरकारी नौकरी प्राप्त करने के लिए भी एक निश्चित आयु प्राप्त करना आवश्यक है । हिंदू संयुक्त परिवार का मुखिया वयोवृद्ध पुरुष ही होता है । भारत में ब्रह्मचर्य,गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम के विभाजन का मूल आधार आयु ही है । आयु के आधार पर प्रस्थिति का विशुद्ध रूप तब दिखायी पड़ता है जब उस पद को प्राप्त करने के लिए अन्य तत्वों का कोई हाथ ना हो ।
किंतु सदैव ही प्रस्थिति निर्धारण में आयु ही महत्वपूर्ण नहीं होती है वरन उसके साथ लिंग, व्यक्ति के गुण, नातेदारी, क्षमता, शिक्षा,सम्पत्ति तथा सांस्कृतिक आधार भी जुड़े होते हैं । यही कारण है कि एक ही आयु के होने पर भी लोगों को भिन्न-भिन्न प्रस्थितियां प्रदान की जाती है । जिन समाजों में आजीविका प्राप्त करना कठिन होता है वहां युवा लोगों का अधिक महत्व होता है । एस्कीमो लोगों में वृद्ध व्यक्ति की हत्या करना नैतिक दायित्व माना जाता है । स्पष्ट है कि व्यक्ति की प्रस्थिति निर्धारण में आयु के महत्वपूर्ण तथ्य होते हुए भी इसे एकमात्र आधार नहीं माना जा सकता ।
3. - नातेदारी - व्यक्ति को नातेदारी के आधार पर भी अनेक प्रस्थितियां प्राप्त होती है । एक व्यक्ति का अपने माता-पिता एवं रक्त सम्बन्धियों से सम्बन्ध होता हैं । उनसे सम्बन्धित होने के कारण ही वह अनेक प्रस्थितियां प्राप्त करता है । नातेदारी से सम्बन्धित प्रस्थितियाँ प्रदत्त होती है क्योंकि हम हमारे माता-पिता एवं भाई-बहन का चयन नहीं करते । नातेदारी जैविकीय एवं सांस्कृतिक दोनों ही तथ्यों का मिश्रित रूप है । समाज में हमें कई पद माता-पिता के द्वारा ही प्राप्त होते हैं । राजा का पुत्र राज पद ग्रहण करता है, हम अपने माता-पिता का वर्ग,धर्म और कभी कभी व्यवसाय भी ग्रहण करते हैं ।
समाजशास्त्र में प्रस्थित एवं भूमिका का अध्ययन समाजशास्त्रियों द्वारा समूह, सामाजिक संगठन एवं सामाजिक मानदण्डों के अध्ययन के यंत्र के रूप में प्रयुक्त हुआ है । सामाजिक प्रस्थिति एवं भूमिका के बारे में महत्वपूर्ण विचार प्रकट करने वालों में लिंटन, हिलर, मर्टन,पारसन्स एवं डेविस आदि समाजशास्त्रीय प्रमुख हैं ।
सामाजिक प्रस्थिति का अर्थ एवं परिभाषा :-
प्रस्थिति की अवधारणा को समझने के लिए हम यहां विभिन्न विद्वानों द्वारा प्रस्तुत कुछ परिभाषाओं का उल्लेख करेंगे :-इलियट एवं मैरिल के अनुसार - प्रस्थिति व्यक्ति का वह पद है जिसे व्यक्ति किसी समूह में अपने लिंग,आयु,परिवार, वर्ग,व्यवसाय, विवाह अथवा प्रयत्नों आदि के कारण प्राप्त करता है ।
आगबर्न तथा निमकॉफ के अनुसार - प्रस्थिति की सबसे सरल परिभाषा यह है कि यह समूह में व्यक्ति के पद का प्रतिनिधित्व करती है ।
लेपियर के अनुसार - सामाजिक प्रस्थिति सामान्यतः उस पद के रूप में समझी जाती है जो एक व्यक्ति समाज में प्राप्त किए होता है ।
मैकाइबर एवं पेज के अनुसार - प्रस्थिति वह सामाजिक पद है जो व्यक्तिगत गुण तथा सामाजिक सेवा से पृथक व्यक्ति के अंदर प्रतिष्ठा तथा प्रभाव की मात्रा का निर्धारण करती है ।
मार्टिण्डेल तथा मौनाचेसी ने लिखा है, " सामाजिक प्रस्थिति का अर्थ है सामाजिक संकलन में व्यक्ति का पद जो कि आदर के प्रतीकों एवं क्रियाओं के प्रतिमानो से पहचाना जाता है ।
किम्बाल यांग के अनुसार, - प्रत्येक समाज तथा समूह में प्रत्येक व्यक्ति को कुछ कार्यों को संपन्न करना होता है जिनके साथ शक्ति तथा प्रतिष्ठा की कुछ मात्रा जुड़ी होती है । शक्ति तथा प्रतिष्ठा की जिस मात्रा का हम प्रयोग करते हैं, वही उसकी प्रस्थिति हैं ।
लिंटन के अनुसार - सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत किसी व्यक्ति को एक समय विशेष में जो स्थान प्राप्त होता है उसी को उस व्यक्ति की सामाजिक प्रस्थिति कहा जाता है ।
जॉन लेवी के अनुसार - किसी सामाजिक संरचना में व्यक्ति अथवा समूह के संस्थागत पदों की सम्पूर्णता का नाम ही प्रस्थिति है ।
वीरस्टीड ने बताया हैं, सामान्यतः एक प्रस्थिति समाज अथवा एक समूह में एक पद है ।
हर्टन एवं हण्ट के अनुसार - प्रस्थिति को सामान्यतः एक व्यक्ति की समूह में अथवा एक समूह की दूसरे समूहों के सम्बन्ध में श्रेणी या पद के रूप में परिभाषित किया जा सकता है ।
डेविस के अनुसार - प्रस्थिति किसी भी सामान्य संस्थात्मक व्यवस्था में किसी पद की सूचक है, ऐसा पति जो समाज द्वारा स्वीकृत है और जिसका निर्माण स्वतः ही हुआ है तथा जो जनरीतियों एवं रूढ़ियों से सम्बद्ध हैं ।
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि प्रस्थिति व्यक्ति की समूह अथवा समाज में पद की सूचक है । यह पद व्यक्ति को समाज द्वारा स्वतः ही प्रदान किया जा सकता है या व्यक्ति अपने गुणों एवं योग्यता के आधार पर प्राप्त कर सकता है । एक व्यक्ति की प्रस्थिति सदैव ही दूसरे व्यक्तियों की प्रस्थितियों की तुलना में ही होती है । अकेले व्यक्ति की कोई प्रस्थिति नहीं होती,अर्थात जब हम यह कहते हैं कि अमुक व्यक्ति अध्यापक है तो इसका अर्थ यह है कि कोई उसके छात्र भी हैं । बिना छात्र के कोई व्यक्ति अध्यापक कैसे हो सकता है । प्रस्थिति शब्द एक ओर तो श्रेणी के विचार को प्रकट करता है तो दूसरी ओर यह व्यक्ति के व्यवहार का भी बोध कराता है । प्रस्थिति एक व्यक्ति के दूसरे व्यक्तियों की तुलना में प्राप्त अधिकारों एवं कर्तव्यों की परिचायक भी है । साथ ही प्रत्येक प्रस्थिति के साथ कुछ सामाजिक नियम, मूल्य और मानदण्ड भी जुड़े होते हैं और प्रत्येक व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि वह उस प्रस्थिति से सम्बद्ध इन मानदण्डों का पालन करें । ऐसा ना करने पर उसकी आलोचना की जाती है । एक व्यक्ति समाज में एक साथ अनेक प्रस्थितियों को प्राप्त करता है किंतु वह किसी एक ही प्रमुख प्रस्थिति के द्वारा ही समाज में जाना जाता है । उदाहरण के लिए एक व्यक्ति प्राध्यापक, पिता,पति,मामा, भाई एवं पुत्र आदि विभिन्न प्रस्थितियों को एक साथ धारण करता है किंतु समूह तथा समुदाय में वह किसी एक प्रमुख प्रस्थिति से ही जाना जाता है ।
सामाजिक प्रस्थितियों के प्रकार या विशेषताएं : -
सन 1936 में राल्फ लिंटन ने समाज में पाई जाने वाली प्रस्थितियों को प्रमुख रूप से दो भागों - प्रदत्त तथा अर्जित में विभक्त किया । हम यहां इन दोनों का ही उल्लेख करेंगे : -1. - प्रदत्त प्रस्थिति ( Ascribed Status ) : - समाज में कुछ प्रस्थितियाँ ऐसी होती हैं जो व्यक्ति के गुणों पर ध्यान दिए बिना ही उसको स्वतः ही प्राप्त हो जाती है । ये प्रस्थितियाँ व्यक्ति को किसी परिवार विशेष में जन्म लेने व परम्परा आदि के कार्य प्राप्त होती है और बच्चे को उस समय प्रदान कर दी जाती है जबकि उसके व्यक्तित्व के बारे में समाज कुछ नहीं जानता । समाज में प्रदत्त प्रस्थितियाँ पहले से ही मौजूद होती हैं जो नवीन जन्म लेने वाले प्राणी को प्रदान कर दी जाती है । प्रस्थितियाँ बच्चे के द्वारा भविष्य में प्राप्त किए जाने वाली प्रस्थितियों की सीमा तथा रूप भी निश्चित करती है । विश्व के सभी समाजों में प्रदत्त प्रस्थितियाँ पाई जाती है । प्रदत्त प्रस्थिति पर व्यक्ति का अपना कोई नियंत्रण नहीं होता जैसे स्त्री या पुरुष होना, बालक या युवा होना, सुंदर व कुरूप तथा लम्बा व छोटा होना । लिंग भेद,आयु,नातेदारी, प्रजाति, जाति, वैध एवं अवैध सन्तान, परिवार में बच्चों की कुल संख्या, गोद लेने, माता पिता की मृत्यु तथा विवाह विच्छेद आदि व्यक्ति की इच्छा का कोई ध्यान नहीं रखते हुए उसको एक प्रस्थिति प्रदान करते हैं । इन सब के आधार पर प्राप्त प्रस्थितियाँ प्रदत्त प्रकार की होती है । आधुनिक समाजों की तुलना में आदिम एवं परम्परात्मक समाजों में प्रदत्त प्रस्थितियाँ अधिक पाई जाती है ।
प्रदत्त प्रस्थिति के निर्धारण के आधार : -
किसी भी व्यक्ति की प्रस्थिति का निर्धारण अनेक आधारों पर होता है । प्रदत्त प्रस्थिति निर्धारण के कुछ प्रमुख आधार इस प्रकार हैं :
1. - लिंग-भेद : - शिशु का लिंग जन्म काल से ही निश्चित तथा प्रत्यक्ष दृश्य मान शारीरिक लक्षण है जो आजीवन स्थाई बना रहता है । लगभग सभी संस्कृतियों में स्त्री एवं पुरुष की प्रस्थितियों एवं भूमिकाओं में अंतर पाया जाता है । प्रायः स्त्रियों की तुलना में पुरुषों की प्रस्थिति ऊंची पाई जाती है । पश्चिमी संस्कृति में स्त्रियों को कमजोर, कोमल, भावुक, सहज विश्वासी, धार्मिक तथा एक विवाही माना जाता रहा है । भारत में भी स्त्रियों की प्रस्थिति पुरुषों से नीची रही है और उन्हें अबला,दासी एवं सम्पत्ति के रूप में समझा जाता रहा है । इसी कारण स्त्रियों को उच्च शिक्षा तथा व्यवसाय से पृथक रखा गया, उनको सम्पत्ति एवं राज्याधिकारों से वंचित किया गया तथा उन्हें पुरुषों के अधीन रखा गया । दूसरी ओर पुरुषों को साहस,वीरता, तर्क एवं शौर्य का प्रतीक माना गया है । यही कारण है कि स्त्रियों को छोटे-मोटे घरेलू कार्य जैसे सिलाई,बर्तन बनाना, खाना बनाना एवं पुरुषों के पालन पोषण का कार्य सौंपा गया है जबकि पुरुष पशु चारण, मछली मारने, शिकार व युद्ध करने आदि के कार्य करते रहे हैं जिनमें अधिक शारीरिक शक्ति एवं साहस की आवश्यकता होती है । कई आदिम समाजों में स्त्रियां धार्मिक एवं जादुई क्रियाओं में भाग नहीं ले सकती थी । नीलगिरी की टोडा जनजाति में स्त्रियों को भैंस पालन का कार्य करने की मनाही है । स्त्री एवं पुरुषों में श्रम विभाजन विभिन्न संस्कृतियों में सम्मान नहीं है । एक समाज में एक प्रकार का कार्य पुरुषों के लिए निर्धारित है तो वही कार्य दूसरे समाज में स्त्रियों के लिए । स्त्री एवं पुरुषों के कार्य विभाजन का आधार सम्भवतः यह माना जाता है कि उनके अनुवांशिकता से प्राप्त चारित्रिक लक्षण भिन्न-भिन्न होते हैं, जिसके कारण उनका सामाजिक व्यवहार भी भिन्न होता है । स्त्री पुरुषों में पाई जाने वाली शारीरिक रचना की भिन्नता भी उनके कार्यों में भिन्नता पैदा करती है । नारी को प्रजनन का कार्य करना पड़ता है,अतः उसे ऐसे कार्य सौंपें गए हैं जो प्रजनन क्रिया के अनुकूल है । इसलिए ही उन्हें युद्ध, शिकार एवं शक्ति के कार्यों के स्थान पर बच्चों के लालन-पालन से संबंधित एवं घरेलू कार्य सौंपे गए हैं जिससे कि गर्व काल में उन पर विपरीत प्रभाव ना पड़े और वे घर के नजदीक रहे । इस प्रकार हम देखते हैं कि कई प्रदत्त एवं अर्जित पद यौन भेद पर आधारित हैं ।
स्त्री एवं पुरुषों की प्रस्थितियों में सांस्कृतिक कारणों से भी भिन्नता पाई जाती है । सदैव ही पुरुषों की तुलना में स्त्रियों को निम्न स्थान नहीं दिया जाता है । भारत में गारो, खासी तथा नायर मातृ सत्तात्मक परिवारों में पुरुषों की तुलना में स्त्री की प्रस्थिति ऊंची है, वहीं परिवार की मुखिया होती है सम्पत्ति एवं धार्मिक कार्यों में वही प्रधान होती है वंश एवं उत्तराधिकार भी स्त्रियों के आधार पर ही तय किए जाते हैं। वर्तमान समय में स्त्री एवं पुरुषों को कुछ कार्यों को छोड़कर, शेष में समान रूप से नौकरी के अवसर प्रदान किए जाते हैं । फिर भी यह बात संदेहपूर्ण प्रतीत होती है कि यौन आधार पर श्रम विभाजन एवं पदों की प्राप्ति का भी समाप्त हो सकेगी ।
2. - आयु भेद - यौन भेद की भांति आयु-भेद भी निश्चित एवं स्पष्ट शारीरिक लक्षण है किंतु आयु एक परिवर्तनशील तथ्य भी है । विश्व की सभी संस्कृतियों में आयु के आधार पर प्रस्थिति भेद पाया जाता है । आयु का विभाजन शिशु, बालक, युवा, प्रौढ़ एवं वृद्ध आदि स्तरों में किया जा सकता है । समाज में अलग-अलग आयु के लोगों को विभिन्न प्रस्थितियां प्रदान की जाती है तथा एक विशेष प्रस्थिति के लिए निश्चित आयु का होना भी आवश्यक है । बड़े भाई एवं छोटे भाई का भेद आयु पर निर्भर है । प्रायः बच्चों की तुलना में वृद्ध लोगों को समाज में अधिक सम्मान दिया जाता है । इसका कारण आयु के अतिरिक्त यह भी है कि उन्हें जीवन का अनुभव अधिक होता है तथा वे परम्परा एवं संस्कृति के रक्षक माने जाते हैं । भारत के राष्ट्रपति के लिए कम से कम 35 वर्ष की आयु होना आवश्यक है । इसी प्रकार से मत देने, उम्मीदवार होने तथा सरकारी नौकरी प्राप्त करने के लिए भी एक निश्चित आयु प्राप्त करना आवश्यक है । हिंदू संयुक्त परिवार का मुखिया वयोवृद्ध पुरुष ही होता है । भारत में ब्रह्मचर्य,गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम के विभाजन का मूल आधार आयु ही है । आयु के आधार पर प्रस्थिति का विशुद्ध रूप तब दिखायी पड़ता है जब उस पद को प्राप्त करने के लिए अन्य तत्वों का कोई हाथ ना हो ।
किंतु सदैव ही प्रस्थिति निर्धारण में आयु ही महत्वपूर्ण नहीं होती है वरन उसके साथ लिंग, व्यक्ति के गुण, नातेदारी, क्षमता, शिक्षा,सम्पत्ति तथा सांस्कृतिक आधार भी जुड़े होते हैं । यही कारण है कि एक ही आयु के होने पर भी लोगों को भिन्न-भिन्न प्रस्थितियां प्रदान की जाती है । जिन समाजों में आजीविका प्राप्त करना कठिन होता है वहां युवा लोगों का अधिक महत्व होता है । एस्कीमो लोगों में वृद्ध व्यक्ति की हत्या करना नैतिक दायित्व माना जाता है । स्पष्ट है कि व्यक्ति की प्रस्थिति निर्धारण में आयु के महत्वपूर्ण तथ्य होते हुए भी इसे एकमात्र आधार नहीं माना जा सकता ।
3. - नातेदारी - व्यक्ति को नातेदारी के आधार पर भी अनेक प्रस्थितियां प्राप्त होती है । एक व्यक्ति का अपने माता-पिता एवं रक्त सम्बन्धियों से सम्बन्ध होता हैं । उनसे सम्बन्धित होने के कारण ही वह अनेक प्रस्थितियां प्राप्त करता है । नातेदारी से सम्बन्धित प्रस्थितियाँ प्रदत्त होती है क्योंकि हम हमारे माता-पिता एवं भाई-बहन का चयन नहीं करते । नातेदारी जैविकीय एवं सांस्कृतिक दोनों ही तथ्यों का मिश्रित रूप है । समाज में हमें कई पद माता-पिता के द्वारा ही प्राप्त होते हैं । राजा का पुत्र राज पद ग्रहण करता है, हम अपने माता-पिता का वर्ग,धर्म और कभी कभी व्यवसाय भी ग्रहण करते हैं ।
भारत में जाति का आधार जन्म ही है । माता, पिता,भाई, बहन,चाचा,मामा, जीजा,साला, दादा,दादी,सास-ससुर आज सभी प्रस्थितियां नातेदारी के आधार पर ही तय होती है । नातेदारी के साथ व्यक्ति के कुछ अधिकार एवं दायित्व भी जुड़े होते हैं । समाज में माता-पिता की सामाजिक स्थिति के आधार पर ही बच्चे का भी मूल्यांकन किया जाता है और उनकी उच्च एवं निम्न स्थिति के अनुसार बच्चे को भी सामाजिक प्रस्थिति प्राप्त होती है । इसका कारण यह है कि प्राणी शास्त्रीय रूप से बच्चे की विशेषताओं को माता-पिता की विशेषताओं के समान समझा जाता है और बच्चे के समाजीकरण के दौरान भी उनका मुख्य हाथ होता है । यद्यपि माता-पिता की स्थिति के अनुसार बच्चे की स्थिति की तुलना एक विवाद का विषय है क्योंकि बुद्धिमान एवं प्रभावशाली पिता की सन्तान मूर्ख भी हो सकती है और पागल व्यक्ति की सन्तान बुद्धिमान भी । इसी प्रकार निर्धन परिवार में जन्म लेने वाली सन्तान धन अर्जित कर सम्पत्तिशाली बन सकती हैं और अशिक्षित माता पिता की सन्तान शिक्षा ग्रहण करने अविष्कार कर सकती है । आदिम समाजों में तो अनेक सामाजिक प्रस्थितियों का नातेदारी से घनिष्ठ संबंध पाया जाता है ।
4. - जन्म - व्यक्ति का जन्म किस परिवार,जाति अथवा प्रजाति में हुआ है, इस आधार पर भी प्रस्थिति का निर्धारण होता है । शाही घर आने एवं उच्च जाति में जन्म लेने वाले की सामाजिक प्रस्थिति निम्न परिवारों एवं अस्पृश्य जातियों के लोगों की तुलना में ऊँची रही हैं ।
5. - शारीरिक विशेषताएँ - कई प्रस्थितियां व्यक्ति को उसके शारीरिक विशेषताओं के आधार पर प्रदान की जाती है । काले एवं कुरूप की तुलना में सुन्दर, निर्बल की तुलना में शक्तिशाली तथा बीमार,लूले लँगड़े एवं अपँग व्यक्ति की तुलना में स्वस्थ एवं सक्षम व्यक्ति की सामाजिक प्रस्थिति ऊँची होतीं हैं ।
6. - जाति एवं प्रजाति - भारत में जाति व्यक्ति की प्रस्थिति निर्धारण का प्रमुख आधार है । ऊँची जातियों में जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य मैं जन्म लेने वाले की प्रस्थिति शुद्र एवं अछूत जातियों मैं जन्म लेने वाले से ऊंची समझी जाती है । इसी प्रकार काली एवं पीली प्रजाति की तुलना में गोरी प्रजाति के लोगों की सामाजिक प्रस्थिति ऊंची मानी जाती रही है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि समाज में व्यक्ति की प्रदत्त प्रस्थिति के निर्धारण में अनेक कारकों का हाथ है ।
2. अर्जित प्रस्थिति - दूसरी ओर समाज में कुछ प्रस्थितियां ऐसी भी होती है जिन्हें व्यक्ति अपने गुण, योग्यता एवं क्षमता के आधार पर ग्रहण करता है । ये अर्जित प्रस्थितियां कहलाती है । हार्टन एवं हण्ट के अनुसार, " सामाजिक पद जिसे व्यक्ति अपनी इच्छा एवं प्रतिस्पर्धा के द्वारा प्राप्त करता है अर्जित प्रस्थिति के नाम से जाना जाता है । अर्जित प्रस्थितियों के लिए समाज में प्रतिस्पर्धा पाई जाती है और योग्य एवं सक्षम व्यक्ति इन प्रस्थितियों को प्राप्त कर लेते हैं । शिक्षा, व्यवसाय, सम्पत्ति संचय, विवाह,श्रम विभाजन आदि का सम्बन्ध अर्जित प्रस्थितियों से ही है । व्यक्ति की सफलता एवं असफलता के आधार पर भी उसे सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त होती है । साधारणतः दयालु,बुद्धिमान, योग्य,प्रतिभाशाली, साहसी एवं शक्तिशाली व्यक्ति को सभी महत्व देते हैं । प्रो. डेविस कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति समाज में सदैव होते हैं जो इतने चतुर, प्रतिभाशाली, शक्तिशाली, क्षमताशील एवं महत्वकांक्षी होते हैं कि अनेक बाधाओं पर विजय प्राप्त करके वे समाज के नेता बन जाते हैं । प्रत्येक देश एवं प्रत्येक समाज का इतिहास उनके अमर नामों से जगमगाता रहता है । वे इतिहास का निर्माण करते हैं, वे अन्य व्यक्तियों पर नियंत्रण रखने तथा समाज में परिवर्तन लाने में सक्षम होते हैं । अतः समाज में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लेते हैं । इस संदर्भ में अनेक नेताओं के उदाहरणों से स्पष्ट है जो सामान्य व्यक्ति होते हुए भी अपने प्रयत्नों के कारण उच्च सामाजिक राजनीतिक प्रस्थिति प्राप्त कर सके हैं । जिन प्रस्थितियों के लिए असामान्य प्रतिभा या योग्यता की आवश्यकता पड़ती है,वे सब के द्वारा अर्जित किए जा सकने के लिए स्वतंत्र रखी जाती है । आधुनिक समाज में जहां जन्म के स्थान पर व्यक्ति के गुणों को अधिक महत्व दिया जाता है अर्जित प्रस्थितियां अधिक पाई जाती हैं ।
अर्जित प्रस्थिति के निर्धारण के आधार - अर्जित प्रस्थिति के निर्धारण के कुछ प्रमुख आधार इस प्रकार हैं : -
1. - सम्पत्ति (Wealth ) - व्यक्ति के पद का निर्धारण करने में सम्पत्ति एक महत्वपूर्ण कारक है । सम्पत्ति पर अधिकार होने या न होने के आधार पर ही व्यक्ति की ऊंची या नीची प्रस्थिति होती है । अक्सर गरीब की तुलना में पूंजीपति की सामाजिक प्रस्थिति ऊंची होती है । आधुनिक युग में जिन लोगों के पास भौतिक सुख सुविधाएं अधिक हैं, वे ऊँचे माने जाते हैं । मात्र सम्पत्ति से ही व्यक्ति की प्रस्थिति निर्धारित नहीं होती हैं वरन यह भी देखा जाता हैं कि वह सम्पत्ति किस प्रकार से अर्जित की गई हैं । ईमानदार पूंजीपति की प्रस्थिति काला बाजारी, अनैतिक तरीके के धन कमाने वाले की तुलना में ऊंची होती । किन्तु कई बार सम्पत्ति त्यागने वाले को भी सम्मान की दृष्टि से देखा जाता हैं ।
2. - व्यवसाय - व्यवसाय भी व्यक्ति की सामाजिक प्रस्थिति निर्धारित करता है । आई. ए. एस., डॉक्टर, इंजीनियर आदि का पद चपरासी, मिल मजदूर, कृषक एवं जूते ठीक करने वाले से ऊँचा माना जाता हैं ।
3. - शिक्षा - अशिक्षित की तुलना में शिक्षक का तथा कम पढ़े लिखे व्यक्ति की तुलना में बी. ए. , एम. ए. तथा अन्य डिप्लोमा और प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्ति की प्रस्थिति ऊँची होती हैं ।
4. - राजनीतिक सत्ता - राजनीतिक सत्ता के आधार पर ही शासन एवं शासित में भेद किया जाता है । साधारण जन की अपेक्षा सत्ता एवं राजनीतिक अधिकार प्राप्त व्यक्ति की प्रस्थिति ऊँची होतीं हैं । प्रजातंत्र में शासक दल से सम्बन्धित लोगों एवं विरोधी दल के प्रमुख नेताओं की सामाजिक प्रस्थिति ऊंची होती है ।
5. - विवाह - विवाह भी व्यक्ति को नई प्रस्थितियाँ प्रदान करता है । विवाह करने पर ही पति-पत्नी, माता-पिता एवं अन्य प्रस्थितियां जैसे जीजा,दामाद,बहू, भाभी आदि प्राप्त की जाती हैं । विधवा या विधुर होने, सजाति एवं अन्तर्जातीय विवाह करने,एक विवाह एवं बहु विवाह करने आदि के आधार पर भी समाज में भिन्न-भिन्न सामाजिक प्रस्थितियां प्रदान की जाती है ।
6. - उपलब्धियाँ - व्यक्ति द्वारा परिश्रम करके प्राप्त विभिन्न उपलब्धियां भी उसकी सामाजिक प्रस्थिति का निर्धारण करती है । ये उपलब्धियां धार्मिक,सामाजिक,राजनीतिक, शैक्षणिक, आर्थिक एवं खेल कूद आदि के क्षेत्र में हो सकती हैं । इसीलिए अच्छे खिलाड़ी, वैज्ञानिक, आविष्कारकर्त्ता, श्रेष्ठ साहित्यकार, संगीतकार, कलाकार, कवि आदि की सामाजिक प्रस्थिति ऊँची होती है ।
7. - प्रदत्त प्रस्थिति निर्धारण के उपर्युक्त आधारों का काफी महत्व है । परंतु समाज विशेष में प्रदत्त प्रस्थिति निर्धारण के क्या आधार होंगे, यह बहुत कुछ सीमा तक समाज की सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्था पर निर्भर करता है । किसी समाज में धन को, किसी में आध्यात्मिक प्रगति को और किसी अन्य में वीरता या साहसिक कार्यों को विशेष महत्व दिया जाता है । जहां जिस कारक पर ज्यादा जोर दिया जाता है, वहां वही कारक या आधार प्रदत्त प्रस्थिति के निर्धारण में प्रमुख भूमिका निभाता है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि समाज में व्यक्ति की प्रस्थिति के निर्धारण में आने कारकों का हाथ है । प्रदत्त प्रस्थिति के निर्धारण के लिए उपयुक्त कारकों में से लिंग भेद,आयु भेद,नातेदारी, जन्म,शारीरिक विशेषताएँ, जाति एवं प्रजाति उत्तरदायी हैं । अर्जित प्रस्थिति के निर्धारण में सम्पत्ति व्यवसाय ,शिक्षा, राजनीतिक सत्ता, विवाह एवं उपलब्धियों का विशेष महत्व हैं ।
4. - जन्म - व्यक्ति का जन्म किस परिवार,जाति अथवा प्रजाति में हुआ है, इस आधार पर भी प्रस्थिति का निर्धारण होता है । शाही घर आने एवं उच्च जाति में जन्म लेने वाले की सामाजिक प्रस्थिति निम्न परिवारों एवं अस्पृश्य जातियों के लोगों की तुलना में ऊँची रही हैं ।
5. - शारीरिक विशेषताएँ - कई प्रस्थितियां व्यक्ति को उसके शारीरिक विशेषताओं के आधार पर प्रदान की जाती है । काले एवं कुरूप की तुलना में सुन्दर, निर्बल की तुलना में शक्तिशाली तथा बीमार,लूले लँगड़े एवं अपँग व्यक्ति की तुलना में स्वस्थ एवं सक्षम व्यक्ति की सामाजिक प्रस्थिति ऊँची होतीं हैं ।
6. - जाति एवं प्रजाति - भारत में जाति व्यक्ति की प्रस्थिति निर्धारण का प्रमुख आधार है । ऊँची जातियों में जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य मैं जन्म लेने वाले की प्रस्थिति शुद्र एवं अछूत जातियों मैं जन्म लेने वाले से ऊंची समझी जाती है । इसी प्रकार काली एवं पीली प्रजाति की तुलना में गोरी प्रजाति के लोगों की सामाजिक प्रस्थिति ऊंची मानी जाती रही है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि समाज में व्यक्ति की प्रदत्त प्रस्थिति के निर्धारण में अनेक कारकों का हाथ है ।
2. अर्जित प्रस्थिति - दूसरी ओर समाज में कुछ प्रस्थितियां ऐसी भी होती है जिन्हें व्यक्ति अपने गुण, योग्यता एवं क्षमता के आधार पर ग्रहण करता है । ये अर्जित प्रस्थितियां कहलाती है । हार्टन एवं हण्ट के अनुसार, " सामाजिक पद जिसे व्यक्ति अपनी इच्छा एवं प्रतिस्पर्धा के द्वारा प्राप्त करता है अर्जित प्रस्थिति के नाम से जाना जाता है । अर्जित प्रस्थितियों के लिए समाज में प्रतिस्पर्धा पाई जाती है और योग्य एवं सक्षम व्यक्ति इन प्रस्थितियों को प्राप्त कर लेते हैं । शिक्षा, व्यवसाय, सम्पत्ति संचय, विवाह,श्रम विभाजन आदि का सम्बन्ध अर्जित प्रस्थितियों से ही है । व्यक्ति की सफलता एवं असफलता के आधार पर भी उसे सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त होती है । साधारणतः दयालु,बुद्धिमान, योग्य,प्रतिभाशाली, साहसी एवं शक्तिशाली व्यक्ति को सभी महत्व देते हैं । प्रो. डेविस कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति समाज में सदैव होते हैं जो इतने चतुर, प्रतिभाशाली, शक्तिशाली, क्षमताशील एवं महत्वकांक्षी होते हैं कि अनेक बाधाओं पर विजय प्राप्त करके वे समाज के नेता बन जाते हैं । प्रत्येक देश एवं प्रत्येक समाज का इतिहास उनके अमर नामों से जगमगाता रहता है । वे इतिहास का निर्माण करते हैं, वे अन्य व्यक्तियों पर नियंत्रण रखने तथा समाज में परिवर्तन लाने में सक्षम होते हैं । अतः समाज में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लेते हैं । इस संदर्भ में अनेक नेताओं के उदाहरणों से स्पष्ट है जो सामान्य व्यक्ति होते हुए भी अपने प्रयत्नों के कारण उच्च सामाजिक राजनीतिक प्रस्थिति प्राप्त कर सके हैं । जिन प्रस्थितियों के लिए असामान्य प्रतिभा या योग्यता की आवश्यकता पड़ती है,वे सब के द्वारा अर्जित किए जा सकने के लिए स्वतंत्र रखी जाती है । आधुनिक समाज में जहां जन्म के स्थान पर व्यक्ति के गुणों को अधिक महत्व दिया जाता है अर्जित प्रस्थितियां अधिक पाई जाती हैं ।
अर्जित प्रस्थिति के निर्धारण के आधार - अर्जित प्रस्थिति के निर्धारण के कुछ प्रमुख आधार इस प्रकार हैं : -
1. - सम्पत्ति (Wealth ) - व्यक्ति के पद का निर्धारण करने में सम्पत्ति एक महत्वपूर्ण कारक है । सम्पत्ति पर अधिकार होने या न होने के आधार पर ही व्यक्ति की ऊंची या नीची प्रस्थिति होती है । अक्सर गरीब की तुलना में पूंजीपति की सामाजिक प्रस्थिति ऊंची होती है । आधुनिक युग में जिन लोगों के पास भौतिक सुख सुविधाएं अधिक हैं, वे ऊँचे माने जाते हैं । मात्र सम्पत्ति से ही व्यक्ति की प्रस्थिति निर्धारित नहीं होती हैं वरन यह भी देखा जाता हैं कि वह सम्पत्ति किस प्रकार से अर्जित की गई हैं । ईमानदार पूंजीपति की प्रस्थिति काला बाजारी, अनैतिक तरीके के धन कमाने वाले की तुलना में ऊंची होती । किन्तु कई बार सम्पत्ति त्यागने वाले को भी सम्मान की दृष्टि से देखा जाता हैं ।
2. - व्यवसाय - व्यवसाय भी व्यक्ति की सामाजिक प्रस्थिति निर्धारित करता है । आई. ए. एस., डॉक्टर, इंजीनियर आदि का पद चपरासी, मिल मजदूर, कृषक एवं जूते ठीक करने वाले से ऊँचा माना जाता हैं ।
3. - शिक्षा - अशिक्षित की तुलना में शिक्षक का तथा कम पढ़े लिखे व्यक्ति की तुलना में बी. ए. , एम. ए. तथा अन्य डिप्लोमा और प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्ति की प्रस्थिति ऊँची होती हैं ।
4. - राजनीतिक सत्ता - राजनीतिक सत्ता के आधार पर ही शासन एवं शासित में भेद किया जाता है । साधारण जन की अपेक्षा सत्ता एवं राजनीतिक अधिकार प्राप्त व्यक्ति की प्रस्थिति ऊँची होतीं हैं । प्रजातंत्र में शासक दल से सम्बन्धित लोगों एवं विरोधी दल के प्रमुख नेताओं की सामाजिक प्रस्थिति ऊंची होती है ।
5. - विवाह - विवाह भी व्यक्ति को नई प्रस्थितियाँ प्रदान करता है । विवाह करने पर ही पति-पत्नी, माता-पिता एवं अन्य प्रस्थितियां जैसे जीजा,दामाद,बहू, भाभी आदि प्राप्त की जाती हैं । विधवा या विधुर होने, सजाति एवं अन्तर्जातीय विवाह करने,एक विवाह एवं बहु विवाह करने आदि के आधार पर भी समाज में भिन्न-भिन्न सामाजिक प्रस्थितियां प्रदान की जाती है ।
6. - उपलब्धियाँ - व्यक्ति द्वारा परिश्रम करके प्राप्त विभिन्न उपलब्धियां भी उसकी सामाजिक प्रस्थिति का निर्धारण करती है । ये उपलब्धियां धार्मिक,सामाजिक,राजनीतिक, शैक्षणिक, आर्थिक एवं खेल कूद आदि के क्षेत्र में हो सकती हैं । इसीलिए अच्छे खिलाड़ी, वैज्ञानिक, आविष्कारकर्त्ता, श्रेष्ठ साहित्यकार, संगीतकार, कलाकार, कवि आदि की सामाजिक प्रस्थिति ऊँची होती है ।
7. - प्रदत्त प्रस्थिति निर्धारण के उपर्युक्त आधारों का काफी महत्व है । परंतु समाज विशेष में प्रदत्त प्रस्थिति निर्धारण के क्या आधार होंगे, यह बहुत कुछ सीमा तक समाज की सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्था पर निर्भर करता है । किसी समाज में धन को, किसी में आध्यात्मिक प्रगति को और किसी अन्य में वीरता या साहसिक कार्यों को विशेष महत्व दिया जाता है । जहां जिस कारक पर ज्यादा जोर दिया जाता है, वहां वही कारक या आधार प्रदत्त प्रस्थिति के निर्धारण में प्रमुख भूमिका निभाता है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि समाज में व्यक्ति की प्रस्थिति के निर्धारण में आने कारकों का हाथ है । प्रदत्त प्रस्थिति के निर्धारण के लिए उपयुक्त कारकों में से लिंग भेद,आयु भेद,नातेदारी, जन्म,शारीरिक विशेषताएँ, जाति एवं प्रजाति उत्तरदायी हैं । अर्जित प्रस्थिति के निर्धारण में सम्पत्ति व्यवसाय ,शिक्षा, राजनीतिक सत्ता, विवाह एवं उपलब्धियों का विशेष महत्व हैं ।
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