प्रस्थिति तथा भूमिका के सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए
प्रस्थिति एवं भूमिका में सदैव भेद किया जाता है । प्रस्थिति एक समाजशास्त्रीय अवधारणा है यह एक सामाजिक सांस्कृतिक तथ्य है जबकि भूमिका सामाजिक मनोविज्ञान का विषय एवं प्रघटना हैं । विभिन्न प्रकार की भूमिकाओं का निर्वाह विभिन्न व्यक्तियों द्वारा अलग-अलग प्रकार से किया जाता है। इसका कारण है व्यक्तियों के व्यक्तित्वों ,क्षमता एवं व्यवहार मैं भिन्नता का होना । यही कारण है कि राष्ट्रपति या प्राचार्य के पद की भूमिका सभी लोग समान रूप से नहीं निभा पाते । प्रत्येक व्यक्ति की भूमिका दूसरे व्यक्ति से भिन्न होती है । इसका एक कारण यह भी है कि समूह एवं संगठन के विकास के साथ-साथ उसके पदाधिकारियों के कार्यों एवं दायित्वों में भी परिवर्तन आ जाता है । इसलिए ही कहते हैं कि भूमिका प्रस्थिति का गतिशील पहलू है ।प्रस्थिति एवं भूमिका के सम्बन्ध सदैव स्थिर न होकर बदलते रहते हैं । नये विचारों, नए मूल्यों एवं मान्यताओं के साथ-साथ प्रस्थिति व भूमिकाओं के सम्बन्ध भी परिवर्तित होते रहते हैं। मजदूर एवं मालिक के सम्बन्ध जैसे मध्य युग में थे वैसे आज के औद्योगिक युग में नहीं है । पति पत्नी, माता-पिता और संतानों के सम्बन्ध,शासक और जनता के सम्बन्ध, गुरु और शिष्य के सम्बन्ध जैसे वैदिक काल में थे वैसे आज नहीं है । इनमें से कई प्रस्थितियों की प्रतिष्ठा एवं भूमिकाओं में अंतर आया है ।
प्रस्थिति एवं भूमिका का इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि दोनों को एक ही सिक्के के दो पहलू कहा जाता है, कुछ लोग कहते हैं , बिना प्रस्थिति के कोई भूमिका नहीं होती और बिना भूमिका के कोई प्रस्थिति नहीं होती । उदाहरण के लिए, यदि किसी संस्था में प्राचार्य की प्रस्थिति ही न हो तो कोई भी व्यक्ति बिना प्राचार्य की भूमिका निभाएं प्राचार्य कैसे हो सकता है । किन्तु वीरस्टीड इस मत से सहमत नहीं है । वे कहते हैं कि दोनों ही पृथक पृथक भी हो सकते हैं । उदाहरण के लिए विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर द्वारा पद त्याग देने पर नए वाइस चांसलर की नियुक्ति तक प्रशासन द्वारा उनके कार्यों का बंटवारा कर दिया जाता है। इस स्थिति में वाइस चांसलर की भूमिका निभाने वाले व्यक्ति को ना तो हम वाइस चांसलर ही कह सकते हैं और न ही उसे वे सारी सुविधाएं ही प्राप्त होती हैं जो वास्तविक वाइस चांसलर को प्राप्त होती है ।
इसी प्रकार से बिना एक प्रस्थिति को धारण किए भी एक व्यक्ति उस पद से सम्बन्धित भूमिका निभा सकता है । उदाहरण के लिए प्राचार्य के छुट्टी चले जाने पर अन्य प्राध्यापक और डॉक्टर के छुट्टी चले जाने पर कम्पाउण्डर उसकी भूमिका निभा सकते हैं । फिर भी वे प्राचार्य या डॉक्टर नहीं कहला सकते । इसलिए ही वीरस्टीड कहते हैं कि, प्रस्थिति संस्थागत भूमिका है। फिर भी प्रस्थिति और भूमिका एक दूसरे के पूरक और परस्पर सम्बन्धित तथ्य हैं ।
प्रस्थिति और भूमिका का समाजशास्त्रीय महत्त्व : -
प्रस्थिति एवं भूमिका का वैयक्तिक एवं सामाजिक दोनों ही दृष्टियों से निम्नांकित महत्व है : -1. - प्रस्थिति व भूमिकाएं मिलकर ही समाज व्यवस्था का निर्माण करती हैं और सामाजिक संगठन को सुचारू रूप से चलाने के लिए इनमें पारस्परिक संतुलन एवं तालमेल होना आवश्यक है ।
2. - प्रस्थिति व भूमिकाएं समाज में श्रम विभाजन कर सामाजिक कार्यों को सरल बना देती हैं ।
3. - ये समाज में सामाजिक नियंत्रण बनाए रखने में योग देते हैं क्योंकि प्रत्येक प्रस्थिति एवं भूमिका से सम्बन्धित सामाजिक प्रतिमान एवं नियम होते हैं और व्यक्ति से उनके अनुरूप आचरण करने की अपेक्षा की जाती है ।
4. - ये व्यक्ति का समाजीकरण करने में भी योग देते हैं, क्योंकि व्यक्ति के जन्म के पूर्व ही ये समाज में विद्यमान होते हैं और व्यक्ति उनके अनुसार आचरण करना सीखता है ।
5. - प्रस्थिति एवं भूमिका व्यक्ति की क्रियाओं का मार्गदर्शन करते हैं और उसे बताते हैं कि किस प्रस्थिति में उसे किस प्रकार की भूमिका निभानी होगी ।
6. - इनके द्वारा हम किसी भी व्यक्ति के व्यवहार का पूर्वानुमान लगा सकते हैं । उदाहरणार्थः, यदि कोई व्यक्ति प्रधानमंत्री बनता है तो हम उसके कार्यों के बारे में पूर्वानुमान लगा सकते हैं और भविष्यवाणी कर सकते हैं क्योंकि संविधान एवं सामाजिक प्रथाओं द्वारा उसके कार्य निर्धारित कर दिए गए हैं।
7. - भूमिकाओं के निर्वाह से समाज की प्रकार्यात्मक आवश्यकताएं पूरी होती रहती हैं इससे समाज में निरंतरता एवं स्थिरता बनी रहती है ।
8. - एक प्रस्थिति और उससे सम्बन्धित भूमिका व्यक्ति में एक विशेष प्रकार की मनोवृत्ति को जन्म देते हैं । व्यापारी, अध्यापक, छात्र, सैनिक और राजा की मनोवृत्ति यों के निर्धारण में उनकी प्रस्थिति एवं भूमिका का भी प्रभाव होता है ।
9. - प्रस्थितियाँ व्यक्ति में जागरूकता एवं उत्तरदायित्व की भावना पैदा करती है ।
10. - समाज में ऊंची एवं नीची प्रस्थितियां होती हैं। ये व्यक्ति को प्रयत्न करने के लिए प्रेरित करती हैं और प्रयत्नों के कारण ही उसकी प्रगति संभव हो पाती है।
वर्तमान समय में सामाजिक व्यवस्था में तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं । इससे प्रस्थिति एवं भूमिका के पारस्परिक तालमेल में असंतुलन पैदा हो गया है । आज भूमिका प्रत्याशा एवं भूमिका ग्रहण मैं काफी अंतर आ गया है । इसके कारण वैयक्तिक एवं सामाजिक विघटन की स्थिति उत्पन्न होने लगी है । उदाहरण के लिए छात्र, अध्यापक, राजनेता, न्यायाधीश, प्रशासक आदि सभी अपनी भूमिकाओं को उसी प्रकार नहीं निभा रहे हैं जिस प्रकार की उनसे अपेक्षा की जाती है । इसलिए ही समाज में असंतोष, अपराध, तोड़फोड़ एवं विघटन की प्रवृत्तियां बलवती होती दिखाई दे रही है । तथा वैयक्तिक एवं पारिवारिक विघटन की मात्रा बढ़ती जा रही है। समाज व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए यह आवश्यक है कि वैयक्तिक स्तर पर एवं सामाजिक स्तर पर प्रस्थित एवं भूमिका में संतुलन बना रहे और लोग बदलती हुई सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्था के अनुरूप अपनी भूमिका निभाते रहे ।
Antar to mila hi nahi paristhiti or bhomika ma kya dal rakha jaye blogger per jo serch kiya vo mila hi nahi mujhe
ReplyDeleteSo helpful and thanks for given this ans.. so simple words🙌
ReplyDelete