मानव अधिकार का अर्थ और मानव अधिकारों की उत्पत्ति एवं विकास की व्याख्या कीजिए
' मानव अधिकार' वे न्यूनतम अधिकार है, जो प्रत्येक व्यक्ति को आवश्यक रूप से प्राप्त होना चाहिए, क्योंकि वह मानव परिवार का सदस्य है । मानव अधिकारों की धारणा मानव गरिमा की धारणा से जुड़ी है । अतएव जो अधिकार मानव गरिमा को बनाए रखने के लिए आवश्यक है, उन्हें मानव अधिकार कहा जा सकता है । इस प्रकार मानव अधिकारों की धारणा आवश्यक रूप से न्यूनतम मानव आवश्यकताओं पर आधारित है । इनमें से कुछ शारीरिक जीवन तथा स्वास्थ्य के लिए है और अन्य मानसिक जीवन तथा स्वास्थ्य के लिए तात्विक हैं । यद्यपि मानव अधिकारों की संकल्पना उतनी ही पुरानी है, जितनी की प्राकृतिक विधि पर आधारित प्राकृतिक अधिकारों का प्राचीन सिद्धांत तथापि ' मानव अधिकारों ' पद की उत्पत्ति द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात अंतर्राष्ट्रीय चार्टरों और अभिसमयों से हुई । द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात व्यक्तियों की स्थिति में रूपांतरण हुआ है जो कि समसामयिक अंतर्राष्ट्रीय विधि में सबसे अधिक महत्वपूर्ण विकास है । राज्यों के अतिरिक्त व्यक्ति अंतर्राष्ट्रीय विधि से व्युत्पन्न अधिकारों और कर्तव्यों से युक्त होने के कारण अंतर्राष्ट्रीय विधि का विषय हो गया हैं । जबकि कतिपय नियम प्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति की स्थिति और कार्य कलाप के विनियमन से सम्बन्धित हैं, कतिपय अन्य अप्रत्यक्ष रूप से उसे प्रभावित करते हैं ।
2. - उच्चतर विधि और प्राकृतिक अधिकारों की खोज : प्राकृतिक विधि
हमेशा से राजनैतिक समाज में सभ्य जीवन के प्रारम्भ होने पर शक्तियों के दोष और अत्याचार ने मनुष्य को वरिष्ठ व्यवस्था की खोज के लिए प्रेरित किया है । भौतिक संसार से परे इसने अध्यात्मवाद और दैवी विधि की तरफ़ प्रोत्साहित किया । सामाजिक व्यवस्था में अत्याचारियों या परोपकारी तानाशाहों द्वारा विहित विधियों के असंतोष ने प्राकृतिक विधि की तरफ आकर्षण पैदा किया जिसमें तर्क, न्याय,अपरिवर्तनीयता और सार्वभौमिकता का समावेश था, जिनका मानव निर्मित विधियों में अभाव था । पाश्चात्य विद्वान प्राकृतिक विधि के इस आदर्श की उत्पत्ति सोफोकिल्स ( Sopohocles ) के समय से बताते हैं,जो कि क्राइस्ट के पहले चार सौ वर्ष से अधिक है । इंग्लैंड में सत्रहवीं शताब्दी में ब्लैकस्टन ने अपनी पुस्तक ' कमेंट्रीज आन लाज ऑफ इंग्लैंड में प्राकृतिक विधि की चर्चा की है, जो कि मानव निर्मित विधि से वरिष्ठ हैं ।
प्राकृतिक अधिकार -
एक बार जब मानव प्राधिकारियों पर आबद्धकर उच्चतर विधि की संकल्पना का उद्विकास हो गया तो यह निश्चयपूर्वक कहा गया कि समाज से पूर्ववर्ती कतिपय अधिकार है, जो मानव प्राधिकारियों द्वारा सृजित अधिकारों से वरिष्ठ है तथा जिनको सार्वभौम रूप से सभी मनुष्यों पर सभी काल में लागू किया जा सकता है । इनके बारे में यह भी मान लिया गया है कि ये अधिकार राजनीतिक समाज के जन्म के पहले ही अस्तित्व में थे । अतः इन अधिकारों का राज्य द्वारा अतिक्रमण नहीं किया जा सकता ।
विधिक दृष्टि से प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत में दोष यह था कि केवल कोरी सिद्धांतवादिता थी । प्राकृतिक अधिकारों की कोई सम्मत प्रसूची नहीं थी और ना ही उनके प्रवर्तन के लिए कोई तंत्र ही था, जब तक कि उन्हें राष्ट्रीय संविधानों में न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय ' बिल ऑफ राईट्स ' के रूप में संहिताबद्ध नहीं कर दिया गया ।
मानव अधिकारों की उत्पत्ति एवं विकास : -
' मानव अधिकारों ' पद का प्रयोग सर्वप्रथम अमेरिकन राष्ट्रपति रुजवेल्ट ने 16 जनवरी 1941 में कांग्रेश को संबोधित अपने प्रसिद्ध संदेश में किया था जिसमें उन्होंने चार मर्म भूत स्वतंत्रताओं पर आधारित विश्व की घोषणा की थी । इनको उन्होंने इस प्रकार सूचीबद्ध किया था - 1. - वाक स्वतन्त्र, 2. - धर्म स्वतन्त्र, 3. - गरीबी से मुक्ति और , 4. - वैसे स्वतन्त्र । चार स्वतन्त्र संदेश के अनुक्रम में राष्ट्रपति ने घोषणा किया " स्वतंत्र से हर जगह मानव अधिकारों की सर्वोच्चता अभिप्रेत है । हमारा समर्थन उन्हीं को है, जो इन अधिकारों को पाने के लिए या बनाए रखने के लिए संघर्ष करते हैं । ' मानव अधिकारों ' पद का प्रयोग फिर अटलांटिक चार्टर में किया गया था । तदनुरूप मानव अधिकारों का लिखित प्रयोग संयुक्त राष्ट्र चार्टर में पाया जाता है जिसको द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात सैनफ्रांसिस्को में 25 जून 1945 को अंगीकृत किया गया था । उसी वर्ष के अक्टूबर माह में बहुसंख्या में हस्ताक्षरकर्ताओं ने इसका अनुसमर्थन कर दिया । संयुक्त राष्ट्र चार्टर की उद्देशिका में घोषणा की गई कि अन्य बातों के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र का उद्देश्य " मूल मानव अधिकारों के प्रति निष्ठा को पुनः अभिपुष्ट करना ... होगा । तदुपरांत संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 1 में कहां गया है कि संयुक्त राष्ट्र के प्रयोजन ... मूलवंश, लिंग,भाषा या धर्म के आधार पर विभेद किए बिना मानव अधिकारों का मूल स्वतंत्रताओं के प्रति सम्मान की अभिवृद्धि करने और उसे प्रोत्साहित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग........ प्राप्त करना " होंगे ।स्टार्ट का मत है कि संयुक्त राष्ट्र चार्टर आबद्धकर लिखित नहीं था और इसमें आदर्श का कथन किया गया है, इसे वाद में अभिकरणों और अंगों द्वारा विकसित किया जाना है ।
1. - मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा - अनेक मानव अधिकारों के निर्माण करने में पहला ठोस कदम संयुक्त राष्ट्र महासभा ने दिसम्बर 1948 में ' मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा ' को अंगीकृत करके किया । आशय यह था कि इसका अनुसरण ' अंतर्राष्ट्रीय बिल ऑफ राइट्स ' द्वारा होगा , जो कि प्रसंविदा करने वाले पक्षकारों पर वैध रूप से आबद्धकर होगा ।
2. - 1966 की अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदाएँ - कुछ भी हो, सार्वभौम घोषणा केवल आदर्शों के कथन के रूप में क्रियाशील रही, जिसका स्वरूप वैध रूप से आबद्धकर प्रसंविदा के रूप में नहीं था और इसके प्रवर्तन के लिए कोई तंत्र नहीं था । इस कमी को दूर करने का प्रयास संयुक्त राष्ट्र महासभा ने दिसंबर, 1966 में मानव अधिकारों के पालन के लिए दो प्रसंविदाएँ अंगीकृत करके किया -
क. - सिविल और राजनीतिक अधिकारों पर प्रसंविदा ,
ख. - आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर प्रसंविदा ।
यद्यपि पूर्ववर्ती ने व्यक्ति के विधिक रुप से प्रवर्तनीय अधिकारों को निर्मित किया, तथापि पश्चातवर्ती राज्यों को उन्हें विधान द्वारा कार्यान्वित करने के लिए संबोधित थी ।
दोनों प्रसंविदाएँ दिसम्बर 1976 में प्रवृत्त हुई, जब अपेक्षित संख्या में 35 सदस्य हैं राज्यों ने उनका अनुसमर्थन कर दिया । 1981 के अंत तक 69 राज्यों ने इसका अनुसमर्थन कर दिया । ये प्रसंविदाएँ अनु समर्थन करने वाले राज्यों पर वैध रूप से आबद्धकर हैं । इस बात पर अति खेद है कि संयुक्त राष्ट्र अमेरिका ने जो कि मानव अधिकारों पर प्रसंविदाएँ तैयार करने का आदर तथा तथा जिसने मानव अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीयकरण में अत्यधिक रूचि लिया था, अभी तक अंतरराष्ट्रीय प्रसंविदाओं, 1966 का अनुसमर्थन नहीं किया है ।
ऐसे अनुसमर्थन का प्रभाव यह है कि अनुसमर्थन करने वाला राज्य प्रसंविदा को कार्यान्वित करने के लिए विधायी उपाय अपनाएं जिससे प्रसंविदा में वर्णित अधिकारों को परिवर्तित किया जाए , यद्यपि कि स्वयं प्रसंविदा अनुसमर्थन करने वाले की घरेलू विधि का भाग नहीं है, तथापि सुसंगत विधान में समाविष्ट अधिकार घरेलू न्यायालयों द्वारा प्रवर्तनीय है ।
3. - यूरोपीय अभिसमय - सार्वभौम घोषणा और 1966 के दोनों अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदाओं के बीच में सार्वभौम घोषणा का सामूहिक कार्यान्वयन राज्यों के एक समूह द्वारा जो यूरोप की परिषद के सदस्य थे, मानव अधिकार के संरक्षण के लिए 1950 में मानव अधिकार पर यूरोपीय अभिसमय को अंगीकार करके किया था । यह अभिसमय उन राज्यों पर वैध रूप से आबद्धकर हैं, जिन्होंने इसका अनुसमर्थन किया है। ऐसे अनुसमर्थन के बाद यह 1953 में प्रवृत्त हुआ ।
यद्यपि यूरोप के बाहर के लोग यूरोपीय अभिसमय के कार्यकरण में प्रत्यक्ष रूप से हितबद्ध नहीं है, तथापि मानव अधिकार के सांविधानिक संरक्षण में हितबद्ध सम्पूर्ण विश्व के लिए इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है,क्योंकि अभिसमय ने 1959 में मानव अधिकार यूरोपीय न्यायालय की स्थापना किया है । इस न्यायालय का कृत्य अभिसमय के प्रवर्तन मैं होने वाले विवादों का निस्तारण करना है और इसके विनिश्चय वैध निर्णय के रूप में सुनाए जाते हैं । इन विनिश्चय में अभिसमय के पाठ का निर्वचन अन्तर्ग्रस्त रहता है और इस प्रकार वे राष्ट्रीय संविधान के निर्वचन में,जिनमें तदनुरूप मूल अधिकारों की प्रत्याभूति है, महत्वपूर्ण मार्गदर्शन करते हैं ।
4. - मानव अधिकार अमेरिकी अभिसमय, 1969 - मानव अधिकारों के प्रवर्तन के लिए सामूहिक तंत्र का निर्माण लैटिन अमेरिका के राज्यों द्वारा किया गया है, जिन्होंने अमेरिकी राज्यों का संगठन बनाया है । संगठन ने 1969 में मानव अधिकार पर अभिसमय अंगीकार किया है, जिसकी बाध्यताएं अभिसमय के पक्षकारों पर आबद्धकर है । संगठन ने अंतर अमेरिकी मानव अधिकार आयोग भी स्थापित किया है, जिसका उद्देश्य मानव अधिकारों के सम्मान की अभिवृद्धि करना है, जिनको मानव अधिकार और कर्तव्य की अमेरिकी घोषणा, 1948 में घोषित किया गया था ।
5. - कामनवेल्थ के भीतर विकास - अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसंविदाओं के अगीकरण ने कामनवेल्थ के भीतर भी जो कि एक आभासी अंतर्राष्ट्रीय संगठन है मानव अधिकार के संरक्षण के लिए प्रेरित किया । इस बात का अनुभव किया गया कि कामनवेल्थ संगठन के आदर्शों की प्राप्ति तभी हो सकती है जब जातिभेद को सदस्य राष्ट्रों द्वारा पूर्ण रूप से उनके राज्य क्षेत्रों में तथा पारस्परिक संबंधों में अवैध घोषित कर दिया जाए ।
सिंगापुर घोषणा - इस उद्देश्य से प्रेरित होकर कामनवेल्थ देशों की सरकारों के अध्यक्षों ने सिंगापुर में जनवरी, 1971 में एकत्र होकर एक बैठक में अन्य बातों के साथ घोषणा किया -
1. - हम जातीय पक्षपात को मानव जाति के स्वस्थ विकास को जोखिम में डालने वाली भयावह बीमारी मानते हैं... हममें से प्रत्येक अपने राष्ट्र में इस बुराई का प्रबल रूप से विरोध करेगा ।
2. - हम सब प्रकार के औपनिवेशिक प्रभुत्व और जातीय दमन का विरोध करते हैं और मानव गरिमा तथा समानता के सिद्धांत के लिए प्रतिबद्ध है ।
3. - हम सर्वत्र मानवीय समानता और गरिमा को प्रोत्साहित करने के लिए अपना पूर्ण प्रयास करेंगे ।
लुसाका घोषणा - कामनवेल्थ सरकार के अध्यक्षों ने अगस्त 1979 लुसाका की बैठक में दक्षिण अफ्रीका में ' एपार्थीड ' व्यवहार की तरफ ध्यान दिया और अन्य बातों के साथ घोषणा किया -
" ....... हम एपार्थीड को बनाए रखने की परिकल्पित सभी नीतियों को अमानवीय मानकर स्वीकार करते हैं जो कि इन सिद्धांतों पर आधारित है कि जातीय वर्ग अन्तर्निहित रूप से वरिष्ठ या निकृष्ट होते हैं या हो सकते हैं । कामनवेल्थ को विशिष्ट रूप से उन अन्य संगठनों से अपने कार्यकलाप में समन्वय बढ़ाना चाहिए जो उसी प्रकार मानव अधिकारों और मूल स्वतन्त्रताओं की अभिवृद्धि और संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध है । "
इस विवेचन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि मानव अधिकारों की आधुनिक रूप में उत्पत्ति अंतर्राष्ट्रीय विधि में हुई है ।
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