समाजीकरण की प्रक्रिया या अवस्थाओं की व्याख्या कीजिए
समाजीकरण की प्रक्रिया ( चरण , अवस्था ) बच्चे के जन्म के बाद से ही शुरू हो जाती है । मानव की शरीर रचना अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ है । विकसित मस्तिष्क , केंद्रित की जाने वाली दृष्टि , घुमाई जा सकने वाली गर्दन , हाथ की रचना और अंगूठे की विशिष्ट स्थिति आदि के कारण मानव में ही सभ्यता एवं संस्कृति निर्माण करने की क्षमता है । उसकी इस विशिष्ट संरचना के कारण ही उससे सीखने के गुण पाए जाते हैं । और सामाजिक सीख के द्वारा वह अपने व्यक्तित्व का विकास करता है । इसलिए पारसन्स कहते हैं कि बच्चा उस पत्थर के समान है जिसे जन्म के समय सामाजिक तालाब में फेंक दिया जाता है , जिसमें रहकर वह अपना सामाजिकरण करता है और समाज का अंग बन जाता है । लुण्डवर्ग ने समाजीकरण को एक सूत्र द्वारा प्रकट किया है जो इस प्रकार है : व्यक्ति × समाज = सामाजिक व्यवहार = समाजीकरण ।बच्चे का मस्तिष्क इतना कोमल होता है कि उसे किसी भी दिशा में मोड़ा जा सकता है । कोई भी बात सिखाई जा सकती है । विभिन्न समयों में बच्चा विभिन्न प्रकार की बातें सीखता है और यह कार्य परिवार , पड़ोस , मित्र मंडली , स्कूल एवं अनेक द्वितीयक संस्थाओं द्वारा किया जाता है । बच्चे द्वारा सीखने की अवस्था को मनोवैज्ञानिक पियाजे ने छः भागों में बांटा है । प्रथम अवस्था में स्तनपान करते समय बच्चा सनसनी महसूस करता है । दूसरी अवस्था में बच्चा किसी वस्तु को एक कोण से देखता है और जब वह वस्तु आंखों से ओझल हो जाती है तो वह उसे ढूंढता नहीं है । तीसरी अवस्था में शिशु जो देखता है यदि वह उसकी पहुंच में है तो उसे पकड़ने का प्रयास करता है । वहां ज्ञानेंद्रियों जैसे आंख , कान ,नाक एवं त्वचा से प्राप्त सूचनाओं को समायोजित करने लगता है । यह अवस्था तीन से छः मां के बीच की है । चौथी अवस्था में ( नौ से दस माह के बीच ) बच्चा छिपी हुई चीज को ढूंढने का प्रयास करता है । यदि कपड़े के नीचे कुछ छिपा दिया जाता है तो वह कपड़े को हटा देगा । किंतु वह स्थान परिवर्तन के क्रम को नहीं समझ पाता । यदि एक खिलौने को उसके सामने ही दूसरे कपड़े के नीचे छुपा दिया जाए तो भी वह पहले वाले कपड़े के नीचे ही उसे ढूंढेगा । पांचवी अवस्था में ( बारह से अठारह माह के बीच ) वह पदार्थ का चित्रण करने लगता है ताकि वह उसकी अनुपस्थिति में भी उसकी कल्पना कर सकें । अब बच्चा इस स्थिति में होता है कि वह बाह्म जगत की वस्तुओं को आंतरी कृत कर सकता है । जब बालक बार-बार किसी वस्तु को छूता है , देखता है तो उसके मस्तिष्क में उस वस्तु के चिन्ह अवशेष के रूप में रह जाते हैं और उस वस्तु के सामने आने पर वह उसे पहचान लेता है , इसे ही वस्तु का आंतरीकरण करना कहते हैं । सीखने की प्रक्रिया यही समाप्त नहीं होती वरन जीवन पर्यंत चलती है और उसी के द्वारा बच्चे का समाजीकरण होता है ।
समाजीकरण का कार्य विभिन्न स्तरों या चरणों में होता है । इन चरणों की संख्या के बारे में मनोवैज्ञानिकों एवं समाज शास्त्रियों में मतभेद है । फ्रॉयड ने सात एवं जानसन ने चार सोपानों का उल्लेख किया है । इन सोपानों में बच्चे को सामाजिक दायित्व का निर्वाह करना , अन्य व्यक्तियों के समान व्यवहार करना , आत्मा का विकास एवं व्यक्तित्व का निर्माण करना सिखाया जाता है । यहां हम समाजीकरण के विभिन्न स्तरों या सोपान ओं का उल्लेख करेंगे :-
1. - मौखिक अवस्था :- गर्भ एवं भ्रूण गर्म और आराम पूर्वक रहता है । जन्म के समय शिशु प्रथम संकट का सामना करता है उसे सांस लेनी होती है , उसे पेट भरने के लिए काफी श्रम करना पड़ता है , उसे सर्दी , गीलेपन और अन्य असुविधाओं से पीड़ा होती है , वह रोता चिल्लाता है । समाजीकरण का यह प्रथम चरण है । बच्चा अपने भोजन के समय के बारे में निश्चित अपेक्षाएं बनाने लगता है । और अपनी देखभाल के लिए संकेत देना सीखता है । शिशु अपना सुख-दुख मुंह के माध्यम से वह चेहरे के हाव भाव से प्रकट करता है । इसीलिए इसे मौखिक अवस्था कहते हैं । इस अवस्था में बच्चा परिवार में अपनी मां के अतिरिक्त और किसी को नहीं जानता । पारसन्स कहते हैं कि परिवार के अन्य सदस्यों के लिए बच्चा एक संपदा से थोड़ा ही अधिक होता है । पिता या परिवार का अन्य सदस्य माता के साथ-साथ बाला की देखभाल करने लगे तो भी भूमिका विभेद नहीं होता , वह भी माता की भूमिका ही निभाता है । इस अवस्था में बच्चा अपनी मां की भूमिका में अंतर नहीं कर पाता । अतः वह अपने को मां से पृथक नहीं समझता। माता और शिशु मिले हुए रहते हैं । इस स्थिति को फ्रॉयड ने प्राथमिक परिचय कहां है । इस अवस्था में बच्चा धीरे-धीरे भूख पर नियंत्रण करना सीखता है । उसे मां के शारीरिक संपर्क से आनंद महसूस होने लगता है । इसको पान की अवधि एक डेढ़ वर्ष तक की होती है ।
2. - शौच अवस्था (Anal Stage) - समाजीकरण का दूसरा स्तर विभिन्न प्रकार के परिवारों एवं समाजों में भिन्न-भिन्न आयु में प्रारंभ होता है । अमेरिकन समाज में यह अवस्था पहले वर्ष से प्रारंभ होकर तीसरे वर्ष में समाप्त हो जाती है । हमारे समाज में यह डेढ़ दो वर्ष की आयु से प्रारंभ होकर तीन चार वर्ष की आयु तक चलती है । इस अवस्था में बच्चे से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने आप को थोड़ा बहुत स्वयं सँभाले । इस समय उसे शौच प्रशिक्षण दिया जाता है । बच्चे को कब और कहां शौच करना चाहिए , का ज्ञान कराया जाता है । हाथ साफ करना , कपड़े गंदे ना करना आदि को भी उसे शिक्षा दी जाती है । इस अवस्था में बच्चा अपनी और अपनी मां की भूमिका को आन्तरीकृत करता है । वह मां से प्यार पाता भी है और उसे प्यार करता भी है । सही व्यवहार करने पर उसे मां का प्यार मिलता है । और गलत व्यवहार करने पर दण्ड । सभी समाजों में बच्चे को गलत व सही में भेद करना सिखाया जाता है । सही व्यवहार के लिए उसे पुरस्कृत एवं गलत के लिए दंडित किया जाता है ।
इस अवस्था में मां की दोहरी भूमिका होती है । एक तरफ़ वह बच्चे को शौच प्रशिक्षण देती है और दूसरी तरफ वह परिवार के सभी कार्यों में भी भाग लेती है । इस अवस्था में मां बच्चे के लिए एक साधक नेता होती है । क्योंकि बच्चे की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वह अभी भी मुख्य रूप से उत्तरदाई होती है , बालक इस प्रणाली में सहयोग और प्यार देकर भावात्मक योगदान देता है । इस अवस्था में बच्चा अपने परिवार व समाज के सामान्य मूल्यों से परिचित होता है । उनके अनुसार आचरण करता है । और उसमें अनुकरण की प्रवृत्ति का उदय होता है । इस अवस्था मैं बच्चा परिवार के अन्य सदस्यों के संपर्क में आता है । और उनके व्यवहार से प्रभावित होता है । सदस्यों द्वारा क्रोध , स्नेह , विरोध और सहयोग प्रदर्शित करने पर बच्चे में भी तनाव और प्रेम के भाव पैदा होते हैं । इसी अवस्था में बच्चे में व्यक्तित्व के विविध गुण उत्पन्न होते हैं ।
समाजीकरण की या अवस्था मां व बच्चे दोनों के लिए असुखकर होती है । बच्चे को दूध छुड़ाते समय , शौच प्रशिक्षण देते समय तथा उसे कष्ट उठाते देखकर मां को आनंद नहीं मिलता , फिर भी उसके अंतिम परिणामों को ध्यान में रखकर हुआ अपने को सांत्वना देती है । माता की दोहरी भूमिका होने के कारण हुआ कुछ हद तक बालक को परिवार के अन्य सदस्यों के दबाव से बचा पाती है । और इसी समय वह अपनी भावात्मक भूमिका निभाती है । इस अवस्था में बच्चा थोड़ा बहुत बोलने वह चलने फिरने लग जाता है । इसी समय उसके सामाजिक संबंधों का विकास भी होता है । क्योंकि तब वह मां के अतिरिक्त अन्य सदस्यों के भी संपर्क में आता है ।
3.- इडिपस या तादात्मीकारण अवस्था :- (Oedipus of Identification Stage) या अवस्था लगभग चार वर्ष की आयु से प्रारंभ होकर बारह तेरह वर्ष की आयु तक चलती है । इस अवस्था में बच्चा पूरे परिवार का सदस्य हो जाता है । इस अवस्था में बच्चा लड़के और लड़की के यौनिक भेद और शारीरिक भिन्नताओं को देख भले ही ले परंतु उसे उनके यौन संबंधी प्रकार्यों का ज्ञान नहीं होता है । उसके लिए ना तो मां ही स्त्री होती है और ना ही पिता ही पुरुष । किंतु धीरे-धीरे उसमें यौन भावना अव्यक्त रूप से विकसित होने लगती है । बालक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने लिंग के अनुसार अपने को ढाले । लड़कों को उस व्यवहार के लिए पुरस्कृत किया जाता है जो लड़कों के लिए उचित हो और लड़कियों को लड़कियों की तरह व्यवहार करने पर पुरस्कृत किया जाता है । लड़कों को दिए जाने वाले खिलौने लड़कियों के खिलौनों से भिन्न होते हैं । इस अवस्था में बच्चा लिंगभेद सीखता है और अपने लिंग के बारे में पूर्णतः जागरूक हो जाता है , विपरीत लिंग के प्रति उसकी रूचि बढ़ने लगती है । बच्चे में यौन कल्पना को स्पष्ट करने मैं खुद सांस्कृतिक तत्वों का भी योगदान होता है , जैसे लड़के व लड़की को भिन्न भिन्न प्रकार के वस्त्र पहनाए जाते हैं । इस आयु में बालकों में यौन भावना का विकास इस सीमा तक हो जाता है कि वे अपने माता-पिता तक से ईर्ष्या करने लगते हैं । बालक का माता व पिता के प्रति प्रेम अचेतन रूप से उन्हें ऑडिपस काम्पलेक्स ( Oedipus Complex) अर्थात पुत्र का मां के प्रति प्यार और इलेक्ट्रा काम्प्लेक्स ( Electra Complex) अर्थात पुत्री का पिता के प्रति प्यार की ओर उन्मुख कर देता है । मन के इस अन्तरंग संकट से बचने के लिए तथा अपने स्वतंत्र अस्तित्व की नई मांगों को पूरा करने के लिए बच्चा अपने हमजोलियों के समूहों में जाता है ।
इस अवस्था में तादात्मीकारण स्थापन दो रूपों में होता है - एक सामाजिक भूमिका से तादात्मीकारण और दूसरा सामाजिक समूह से तादात्मीकारण । सामाजिक भूमिका से तादात्मीकारण करने के लिए वह अपनी भूमिका को आन्तरीकृत करता है , उसी से संबंधित योग्यता को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है । उदाहरण के लिए बालक, पिता , भाई संबंधियों तथा परिवार के अन्य सदस्यों की आशाओं के अनुरूप भूमिका निभाना सीखता है । समूह से तादात्मीकारण करने के लिए वह परिवार , अपने लिंग के साथियों , स्कूल के साथियों व मित्रों के अनुरूप कार्य करता है । जॉनसन के अनुसार बालक अपने समाजीकरण के तीसरे सोपान में तीस प्रकार के तादात्म्य स्थापित करता है । प्रथम हुआ अपने पिता और भाइयों के साथ तादात्म्य स्थापित करता है ( लिंग भूमिका तादात्म्य स्थापना ) द्वितीय , वह अपने भाई-बहनों के साथ तादात्म्य स्थापित करता है ( परिवार में संतान की भूमिका ) और अंत में वह पूरे परिवार के साथ एक सदस्य के रूप में तादात्म्य स्थापित करता है । इस प्रकार इस अवस्था में बच्चे में विभेदीकरण की प्रवृत्ति का विकास होता हैं , वह यह समझने लगता है कि पिता का स्थान मां से भिन्न है । सफल तादात्म्य स्थापित करने के लिए जॉनसन ने परिवार में निम्नांकित परिस्थितियों का होना आवश्यक माना है - 1. - लड़के को पिता का एवं लड़की को मां का पूरा स्नेह मिले , 2.- बच्चे का परिवार या समूह में जिस सदस्य को वह अपना आदर्श मानता हो उसके साथ घनिष्ठ संबंध हो , 3.- अन्य महत्वपूर्ण व्यक्ति विशेष रुप से माता लड़के को अपने पिता को आदर्श मानने के लिए प्रोत्साहित करें , तथा 4.- पिता का मां से सम्मान पूर्ण व्यवहार हो । ये परिस्थितियां बच्चे में भावात्मक सुरक्षा उत्पन्न करेंगीं और उसे कुंठा तथा तनावों से बचायेगी जो कि सफल समाजीकरण के लिए आवश्यक है ।
4.- किशोरावस्था :- किशोरावस्था जो कि प्रायः यौवनारम्भ (Puberty) के समय से प्रारंभ होती है, एक ऐसी अवस्था है जिसमें युवा बालक आत्मा बालिका अपने माता-पिता के नियंत्रण से अधिकाधिक स्वतंत्रता चाहते हैं , विशेष रूप से यौन संबंधी गतिविधियों में । इस अवस्था में बालक के शरीर में कुछ स्पष्ट शारीरिक परिवर्तन होने लगते हैं । इन शारीरिक परिवर्तनों के कारण किशोर के मन में एक तरफ स्वतंत्रता की कामना तीव्र होती जाती है और दूसरी तरफ वह स्वतंत्रता से भयभीत भी होने लगता है ।
किशोरावस्था भारी तनाव का काल है क्योंकि भावी व्यस्क को प्रायः स्वयं ही कई आवश्यक निर्णय लेने होते हैं , जैसे जीवनसाथी का चुनाव और अपने व्यवसाय का चुनाव आदि से संबंधित निर्णय उसे स्वयं ही लेने हो तो उसके सामने दुविधा अवश्य आ जाती है क्योंकि उसके बाद उसे नई स्थिति के अनुसार नए कार्य करने होते हैं । उससे यह भी अपेक्षा की जाती है कि वह निर्णय करते समय पारिवारिक परंपराओं और सांस्कृतिक मूल्यों को ध्यान में रखें । किशोर पर लगाए गए इस प्रकार के नियंत्रण उसके मनोभावों के प्रतिकूल होते हैं , अतः बच्चे को तनावों का शिकार होना पड़ता है ।
किशोरावस्था में बच्चा परिवार के अतिरिक्त पड़ोस, विद्यालय, खेल के साथियों और नवागन्तुकों के संपर्क में आता है । इन सभी के विचारों एवं व्यवहारों से उसे समायोजन करना होता है । वह अपनी संस्कृति के अनेक निषेधों एवं यौन संबंधी निषेधों का पालन करना सीखता है । इस अवस्था में उसे अनेक नई परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है । इस समय उसे कई नए नए अनुभव होते हैं । कई समाजों में तो किशोर को आर्थिक क्रियाओं में भी भाग लेना होता है अपने आर्थिक जीवन में सफलता बहुत कुछ उसके समाजीकरण पर निर्भर करती है । इस अवस्था में उसमें परा अहम ( Super Ego) अर्थात नैतिकता की भावना भी पैदा होती है । इस प्रकार इस अवस्था में सांस्कृतिक मूल्यों एवं व्यक्तिगत अनुभवों के द्वारा किशोर में आत्म नियंत्रण की क्षमता पैदा होती है ।
समाजीकरण के अन्य सोपान :-
समाजीकरण की प्रक्रिया उपर्युक्त चार अवस्थाओं में ही समाप्त नहीं हो जाती वरन यह आजीवन चलती रहती है । किंतु व्यक्तित्व निर्माण की दृष्टि से यह सोपान अधिक महत्वपूर्ण है । बाद की अवस्था में यह प्रक्रिया सरल हो जाती है क्योंकि तब तक व्यक्ति भाषा का अच्छी तरह से ज्ञान प्राप्त कर चुका होता है । वह अपने क्रियाओं को उद्देश्य मूलक बना लेता है और नई भूमिकाएं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में पहले पूरी की गई भूमिकाओं के अनुरूप ही होती हैं । अतः बाद की अवस्था में समाजीकरण की प्रक्रिया स्वचालित हो जाती है । किशोरावस्था के बाद भी समाजीकरण की प्रक्रिया तीन प्रमुख सोपानों - युवावस्था, प्रौढ़ावस्था, एवं वृद्धावस्था से गुजरती है ।युवावस्था में व्यक्ति को अनेक नए पद प्राप्त होते हैं और उनसे संबंधित भूमिकाओं को उसे निभाना होता है । उसे एक पति, पिता, दामाद, अधिकारी आदि की प्रस्थितियां प्राप्त होती है और उसे उनके अनुरूप भूमिकाएं निभानी होती है । इस अवस्था में हुआ परिवार तथा बाह्म जगत में कई महत्वपूर्ण दायित्वों को निभाता है , कभी-कभी उसे भूमिका संघर्ष की स्थिति का भी सामना करना पड़ता है ।
प्रौढ़ावस्था में व्यक्ति पर सामाजिक दायित्व और बढ़ जाते हैं । उस पर अपने बच्चों की शिक्षा दीक्षा एवं विवाह आदि का भार पड़ता है । उसे मामा के रूप में एवं ऑफिस में वरिष्ठ अधिकारी या सेवक के रूप में नए उत्तरदायित्व संभालने होते हैं । जॉनसन कहते हैं कि कम से कम तीन कारणों से वयस्कों का समाजीकरण बच्चों के समाजीकरण से सरल होता है - 1. - वयस्क साधारणतया उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कार्य करने को प्रेरित होता है जो वह स्वयं देख चुका है । 2.- जिस नई भूमिका को वह आन्तरीकृत करने का प्रयास करता है, उसमें और उसके व्यक्तित्व में पहले से उपस्थित भूमिकाओं में काफी समानता होती है, तथा 3.- समाजीकरण करने वाला भाषा के माध्यम से सरलता से सीख लेता है ।
वृद्धावस्था में व्यक्ति में शारीरिक, मानसिक व सामाजिक दृष्टि से कई परिवर्तन आ जाते हैं । अब वह दादा, परदादा, ससुर , नाना आदि के रूप में कई नए पद ग्रहण करता है और उनके अनुरूप भूमिकाएं भी निभाता है । यदि वह नौकरी कर रहा होता है तो सेवानिवृत्त कर दिया जाता है । अब वह आर्थिक रूप से कमाने योग्य नहीं रहता है । अतः उसे पराश्रित होना पड़ता है , अनेक इच्छाओं का दमन करना होता है । नई परिस्थितियों से अनुकूलन नहीं कर पाने की अवस्था में उसे कई तनावों को सहन करना होता है । पुत्र , पौत्र एवं स्वयं के विचारों में पीढ़ीगत भेद के कारण कई बार उसे ऐसा लगता है कि उसके अनुभवों की अवहेलना की जा रही है और तब वह कुंठा ग्रस्त हो जाता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि व्यक्ति का समाजीकरण जीवन पर्यन्त चलता रहता है और वह कुछ न कुछ सीखता ही रहता है ।
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