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समाजीकरण से सम्बंधित अवधारणाएं

समाजीकरण से सम्बंधित अवधारणाएं

समाजीकरण से सम्बंधित कुछ अवधारणाओं को हम यहां स्पष्ट करेंगे :-
1.- नकारात्मक समाजीकरण :- समाजीकरण का तात्पर्य समाज सम्मत व्यवहारों, सामाजिक मूल्यों, आदर्शों एवं प्रतिमानो को सीखने से है । किंतु कई बार व्यक्ति समाज द्वारा अस्वीकृत व्यवहारों को भी सीखता है, उसे ही नकारात्मक समाजीकरण कहते हैं । उदाहरण के लिए एक बच्चा चोरी करना, गाली देना, आज्ञा का उल्लंघन करना , कानून की अवहेलना करना सीखता है ।तो उसे हम समाज विरोधी करार देते हैं यही नकारात्मक समाजीकरण कहलाता है । नकारात्मक सामाजिकरण समाज में अपराध और विपथगामी व्यवहार के लिए उत्तरदाई है ।

2.- वि-समाजीकरण :- (De-Socialization) - वि-समाजीकरण का तात्पर्य पहले से सीखे हुए व्यवहारों को भुला देना अर्थात व्यक्ति का पहले जो समाजीकरण हुआ है उसे समाप्त कर देना है, व्यक्ति को उसके पहले हुए समाजीकरण की त्रुटियां व हानियां बताकर पहले वाले समाजीकरण में सीखे हुए व्यवहारों को छोड़ने व भुलाने को कहा जाता है । उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति चोरी व अपराध करने में संलग्न हो जाता है या कक्षा से भागने की प्रवृत्ति सीख लेता है तो उसे इन बुरी आदतों को छोड़ने को कहा जाता हैं , हिंदी से होने वाली हानियों से उसे परिचित कराया जाता है और जब व्यक्ति उन्हें छोड़ देता है तो इसे वि-समाजीकरण कहते हैं । कई बार काफी समय पूर्व सीखे हुए व्यवहार का प्रयोग एक लंबे समय तक नहीं करने पर हम स्वतः ही उसे भूल जाते हैं, यह भी वि-समाजीकरण हैं । कि समाजीकरण जानबूझकर , चेतन रूप से एवं प्रयत्न पूर्वक भी किया जा सकता है तथा अनजाने व अचेतन रूप से भी ।

3.- पुनर्समाजीकरण :-  
  पुनर्समाजीकरण का कार्य वि-समाजीकरण के बाद ही संभव है । किसी व्यक्ति द्वारा पहले सीखे गए व्यवहार को बुलाकर उसे नया व्यवहार सिखाना ही पुनर्समाजीकरण हैं । एक व्यक्ति अपने संपूर्ण जीवन काल में अपने विचारों, मूल्यों, अभिवृत्तियों, एवं व्यवहारों में नई भूमिकाएं ग्रहण करने के साथ-साथ परिवर्तन लाता जाता है - इसे हम सतत समाजीकरण कहते हैं । किंतु यह परिवर्तन एकदम तेज व मौलिक हो तो उसे पुनर्समाजीकरण कहते हैं । ब्रूम एवं सेल्जनिक ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है पुनर्समाजीकरण मालिक तीव्र परिवर्तन की ओर संकेत करता है । इसमें पहले वाली जीवन विधि के स्थान पर दूसरी जीवन विधि अपनाई जाती है, जो कि पहले वाली से भिन्न एवं विरोधी होती है । मत आरोपण (Brain washing) , अपराधियों का पुनर्वास ( Rehabilitation) , पापी व्यक्ति द्वारा धार्मिक जीवन व्यतीत करने की ओर अग्रसर होना आदि इसके कुछ उदाहरण हैं । चर्च में पादरी या नन का जीवन व्यतीत करने के लिए भी व्यक्ति को धार्मिक नियमों को सीखना होता है । कम्युनिस्ट चीन में मत आरोपण द्वारा लोगों को साम्यवाद से परिचित कराया गया, यह भी पुनर्समाजीकरण ही है । जेल में अपराधी व्यक्ति को अपराधी प्रवृत्ति छोड़ने को कहा जाता है और अच्छी बातें सिखा कर उसका पुनर्समाजीकरण किया जाता है । ब्रूम तथा सेल्जनिक ने पुनर्समाजीकरण के लिए छः बातों को आवश्यक माना है -

1. - व्यक्ति पर पूर्ण नियंत्रण ।
2. - पुनर्समाजीकरण किए जाने वाले व्यक्ति की पुरानी प्रस्थिति का त्याग करना ।
3. - उस व्यक्ति के पुराने 'स्व' को अनैतिक घोषित करना ।
4. - व्यक्ति द्वारा स्वयं की आलोचना, समीक्षा तथा गलतियों को स्वीकार कर पुनर्समाजीकरण में भाग लेना ।
5. - पुनर्समाजीकरण करने वाले व्यक्ति या संस्था का पुनर्समाजीकरण कराने वाले व्यक्ति को दंड देने, पृथक रखने एवं प्यार करने आदि का पूरा अधिकार होना ।
6. - पुनर्समाजीकरण कराने वाले व्यक्ति के मित्र समूह का उस पर दबाव एवं सहयोग प्राप्त होना ।

ब्रूम तथा सेल्जनिक ने पुनर्समाजीकरण के मार्ग में आने वाली कुछ कठिनाइयों का भी उल्लेख किया है,जैसे -

1. - दबाव के कारण किया जाने वाला समाजीकरण सफल नहीं होता है ।
2. - सुधार के लिए किया गया पुनर्समाजीकरण व्यक्ति की पहले वाली प्रस्थिति के मूल्यों के अनुरूप न होने पर कठिनाई आती है ।
3. - पुनर्समाजीकरण करने वाला व्यक्ति इस कार्य को सुधार की भावना से लें अन्यथा वह अपने को हीन व अपराधी महसूस करेगा ।
4. - पुनर्समाजीकरण सिर्फ पुनर्समाजीकरण के लिए ही ना हो वरन व्यक्ति को सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक समर्थन भी दिया जाना चाहिए ।

4. - पूर्वाभ्यासी समाजीकरण :- भविष्य में जो स्थिति आने वाली है उसके लिए पहले से अभ्यास या तैयारी करना या उन व्यवहारों को सीखना ही पूर्वाभ्यासी समाजीकरण है । उदाहरण के लिए यदि एक व्यक्ति पति,पिता, आप सर आगे बढ़ने से पूर्व ही उनसे संबंधित व्यवहारों को सीखता है तो वह व्यक्ति पूर्वाभ्यासी समाजीकरण स्थिति में है । पुजारी या पादरी बहुत पहले से ही इन भूमिकाओं को सीख लेते हैं । मेडिकल कालेज का छात्र अपने छात्र जीवन में ही डॉक्टर की भूमिका को सीख लेता है कि रोगी उसे से किस प्रकार के व्यवहार की अपेक्षा रखता है । इसके लिए वह चेतन प्रयास करता है और कभी कभी इसके लिए वह संकेत भी ग्रहण करता है ।
































































































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