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समाजीकरण के प्रमुख अभिकरण या संस्थाओं का वर्णन कीजिए

समाजीकरण के प्रमुख अभिकरण या संस्थाओं का वर्णन कीजिए

मानव के समाजीकरण की प्रक्रिया बड़ी लंबी एवं जटिल है । इस कार्य में अनेक संस्थाओं एवं समूहों का योगदान होता है । यह संस्थाएं समय-समय पर विभिन्न बातें सिखाती हैं कभी तो ये एक दूसरे की पूरक एवं सहयोगी होती हैं तो कभी परस्पर स्वतंत्र एवं संघर्षकारी । बच्चे का समाजीकरण करने में अनेक प्राथमिक संस्थाओं , जैसे परिवार , पड़ोस, मित्र मंडली, विवाह एवं नातेदारी समूह एवं द्वितीयक संस्थाओं, जैसे विद्यालय, धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं व्यवसायिक संगठनों आदि का योगदान होता है । व्यक्ति इन संस्थाओं एवं समूहों से जितना अनुकूलन करता है, समाजीकरण भी उतना ही सफल माना जाता है । हम यहां समाजीकरण की प्रमुख संस्थाओं व समूहों का उल्लेख करेंगे ।

1.- परिवार एवं समाजीकरण करने वाली संस्था के रूप में :- समाजीकरण करने वाली संस्थाओं में परिवार सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि बालक परिवार में ही जन्म लेता है और सर्वप्रथम परिवार के सदस्यों के ही संपर्क में आता है । परिवार में ही उसे समाज के रीति रिवाज, लोकचारों, प्रथाओं एवं संस्कृति का ज्ञान कराया जाता है । समय और महत्व की दृष्टि से परिवार समाजीकरण करने वाली प्राथमिक संस्था है । बच्चा यदि एकाकी परिवार का सदस्य है तो उसे चार प्रकार की भूमिकाओं का ज्ञान होता है । वे हैं : पति - पिता , पत्नी - माता , पुत्र - भाई , और पुत्री - बहन । चूंकि परिवार एक सार्वभौमिक संस्था है, अतः विश्व के सभी समाजों में समाजीकरण की यह आधारभूत संस्था है । जेलडिच ने छप्पन ( 56 ) समाजों का मानव शास्त्रीय अध्ययन करके समाजीकरण में माता एवं पिता की भूमिका का पता लगाया । सभी समाजों में पिता ' साधक नेतृत्व ' और माता ' भावात्मक नेतृत्व ' प्रदान करते हैं । साधक नेता के रूप में पिता ही खेत एवं व्यवसाय का मालिक होता है । आखेट में अगुआ होता है । सभी शिकायतें उसी के पास आती हैं , वही उन सब पर विचार कर निर्णय लेता और आवश्यकतानुसार बच्चों को दंड देता है । उन्हें अनुशासन एवं नियंत्रण में रखता है परिवार में माता बच्चे के लिए भावात्मक भूमिका निभाती है । वहीं परिवार में मध्यस्थता करती है । समझौता कराने का कार्य करती है । परिवार में झगड़ों को शांत करती है । और वैमनस्य को दूर करती है । माता का व्यवहार बच्चे के प्रति स्नेहमय ,घनिष्ठ, हितैषी और भावपूर्ण होता हैं , वह उदार दण्ड न देने वाली होती हैं। सभी समाजों में पत्नी भावात्मक दृष्टि से पति से बढ़कर होती है। रौब जमाने वाली औरतें समाज में अच्छी नहीं मानी जाती । पुत्र सदैव पिता के समान और पुत्री मां के समान बनना चाहती है । इस प्रकार बच्चों पर माता-पिता का सर्वाधिक प्रभाव होता है ।

         परिवार के अन्य सदस्यों एवं भाई बहनों का भी बच्चे के समाजीकरण पर गहरा प्रभाव पड़ता है । सदस्यों के पारस्परिक प्रेम , सहयोग, त्याग, अधिकार, बलिदान, सेवा, कर्तव्यनिष्ठा आदि से बच्चे में भी सद्गुणों का विकास होता है । परिवार में आयु, लिंग एवं पद की दृष्टि से विभिन्न प्रकार के व्यक्ति होते हैं जिनके संपर्क में बच्चा उनके आचरणों का अनुकरण करता है । वह मां, बहन तथा पिता और भाई में लिंग भेद होने से विषम लिंगियों के प्रति समाज में प्रचलित व्यवहारों एवं मूल्यों को ग्रहण करता है । इसी प्रकार से परिवार में छोटी एवं बड़ी सभी आयु के व्यक्ति होते हैं । बड़े छोटे के प्रति अधिकारों का एवं छोटे बड़ों के प्रति कर्तव्यों का निर्वाह करते हैं जिसे बच्चा भी ग्रहण करता है । अधिकारों एवं दायित्वों का परिवार में सुंदर समन्वय पाया जाता है । परिवार का सहयोगी एवं भावात्मक पर्यावरण बच्चे के व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । अनेक महापुरुषों के उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि उनके महान बनने में परिवार का प्रमुख साथ रहा है । परिवार में बच्चा जो कुछ सीखता है , उसे पुनः गुड़ियों के खेल के दौरान प्रकट करता है । माता-पिता जब उसकी क्रियाओं को अनुरूप पाते हैं तो उसे स्नेह से पुरस्कृत करते और विपरीत क्रिया करने पर डांटते हैं । पुरस्कार एवं दंड के आधार पर बच्चा उचित एवं अनुचित में भेद करना सीखता है, उसमें नैतिकता के भाव पैदा होते हैं और वह सही कार्यों को ग्रहण करता है ।

       परिवार में बच्चा जो कुछ सीखता है वह उसके जीवन की स्थाई पूंजी होतीं हैं । परिवार के सदस्यों में से ही वह किसी को अपना आदर्श बना लेता है और अपने व्यवहार को उसी प्रकार बनाने का प्रयास करता है । भाषा का प्रयोग भी बच्चा परिवार में ही सीखता है । परिवार में भिन्न-भिन्न स्वभाव एवं रुचि वाले व्यक्ति होते हैं । बच्चा उन सभी के साथ अनुकूलन करना सीखता है । अनुकूलन के दौरान उसमें सहिष्णुता का गुण पैदा होता है । परिवार में सबसे छोटा होने के कारण शिशु को दूसरों के व्यवहारों को सहना पड़ता है । इससे उसमें सहनशीलता पैदा होती है जो एक महत्वपूर्ण सामाजिक गुण है । छोटा होने के कारण उसे बड़ों की आज्ञा का पालन करना पड़ता है । इससे उसमें आज्ञाकारिता का गुण पैदा होता है । परिवार में ही बच्चा खानपान, वस्त्र धारण करने, अभिवादन करने, पूजा पाठ एवं आचरण के अन्य नियमों को सीखता है । पारिवारिक आदर्श और मूल्य बच्चे के भी आदर्श और मूल्य बन जाते हैं । परिवार ही उसे आदर्श नागरिकता का पाठ पढ़ाता है । वही उसमें प्रेम, त्याग, बलिदान, सहयोग, दया, क्षमा, परोपकार, देश प्रेम, सहिष्णुता, आज्ञाकारिता, अनुकूलन आदि गुण भरता है । इसलिए ही कहा जाता है कि परिवार शिशु की प्रथम पाठशाला है । बच्चा परिवार का ही प्रतिरूप होता है ।

           किंतु परिवार का बच्चे के समाजीकरण पर विपरीत प्रभाव भी पड़ता है । यदि परिवार विघटित है, माता-पिता में अनबन एवं तनावपूर्ण संबंध है, माता पिता या भाई बहन अपराधी व्यवहारों में संलग्न रहते हैं तो बच्चे पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । बाल अपराध एवं अपराध से संबंधित अनेक अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं कि यदि माता-पिता हुआ भाई-बहन अपराधी है तो बच्चा उनसे अपराधी प्रवृत्ति शीघ्र सीख लेता है । कई अपराधी विघटित परिवारों के सदस्य पाए गए जिन्हें बचपन में माता पिता का स्नेह नहीं मिल सका और जिन की शिक्षा दीक्षा उचित प्रकार से नहीं हुई । टरमन का तो मत है कि केवल वे ही बच्चे विवाह को सुख पूर्ण बना सकते हैं जिनके माता-पिता का पारिवारिक जीवन सुखी था ।

2.- क्रीड़ा समूह :- समाजीकरण की दृष्टि से बचने के लिए ' मित्रों का समूह' अथवा ' खेल समूह ' एक महत्वपूर्ण प्राथमिक समूह है । परिवार के बाद बालक अपने हमजोलियों एवं खेल के साथियों के संपर्क में आता है जो उसके हम उम्र होते हैं । ये लोग उसे उसकी प्रस्थिति एवं वर्ग के मूल्यों से परिचित कराते हैं । खेल समूह में बच्चा खेल के नियमों का पालन करना सीखता है , वह दूसरों के नियंत्रण में रहना और अनुशासन का पालन करना भी सीखता है । उसमें नेतृत्व के गुण विकसित होते हैं तथा वह लोगों को नियंत्रण व अनुशासन में रहना भी सिखाता है । वह खेल में हार और जीत होने पर परिस्थितियों से अनुकूलन करना भी सीखता है । खेल के दौरान ही हुआ पारस्परिक सहयोग, प्रतिस्पर्धा और स्वस्थ संघर्ष की भावनाएं भी ग्रहण करता है । समय आने पर बच्चा कानून और व्यवस्था का प्रतीक बन जाता है । जब कोई खेल के नियमों को तोड़ता है तो वह उसका विरोध करता है तथा स्वयं नियमों का रक्षक बन जाता है । अन्य समूह की भांति क्रीडा समूह भी पुरस्कार एवं दंड के द्वारा अपने सदस्यों के व्यवहार को स्वीकृत किया अस्वीकृत करता है । रिजमैन यह मानते हैं कि खेल समूह वर्तमान समय में समाजीकरण करने वाला एक महत्वपूर्ण समूह है । क्योंकि आजकल व्यक्ति मार्गदर्शन एवं दिशा-निर्देश के लिए अपने हम उम्र के लोगों पर अधिक निर्भर करता है । इसलिए व्यक्ति अपने निर्णय ओं के लिए मित्रों की सलाह को अधिक महत्व देता है । रिजमैन का मत है कि आज का व्यक्ति दूसरों द्वारा अधिक निर्देशित होता है जबकि ग्रामीण एवं आदिम समाजों के लोग परस्पर व स्व निर्देशित होते हैं । मित्रों का समूह मिलने जुलने के अधिक अवसर प्रदान करता है, इसमें बच्चा वह ज्ञान प्राप्त करता है जो परिवार के सदस्य नहीं दे पाते क्योंकि उनका ज्ञान पुराना हो चुका होता है । इस प्रकार खेल समूह में वह नवीन मूल्यों को ग्रहण करता है ।

3.- पड़ोस :- पड़ोस का भी बच्चे के समाजीकरण में महत्वपूर्ण योगदान होता है । बच्चों के ही नहीं वरन युवकों के समाजीकरण में भी पड़ोस का विशेष योगदान होता है । नगरों की तुलना में गांव में पड़ोस का अधिक प्रभाव होता है । बच्चे अनजान में ही पढ़ो से कई बातें सीख जाते हैं । पड़ोस के लोग बच्चे को स्नेह एवं प्यार में कई नई बातों का ज्ञान कराते हैं । उसकी प्रशंसा एवं निंदा द्वारा उसे समाज समस्त व्यवहार करने को प्रेरित करते हैं । पड़ोसी समय-समय पर उसे यह बताते रहते हैं कि उससे किस प्रकार के आचरण की अपेक्षा की जाती है ।

4.- नातेदारी समूह :- नातेदारी समूह में रक्त एवं विवाह से संबंधित सभी रिश्तेदार आ जाते हैं । भाई बहन, पति पत्नी, साले साली, ,सास ससुर, देवर भाभी और अन्य सभी संबंधियों के संपर्क से व्यक्ति कुछ न कुछ सीखता ही है । इन सभी के प्रति उसे भिन्न-भिन्न प्रकार की भूमिकाएं निभानी होती है । किसी के साथ घनिष्ठ और हंसी मजाक के संबंध होते हैं तो किसी से परिहार या दूरी बरती जाती है । विभिन्न रिश्तेदार भी बच्चे पर अपना प्रभाव डालते हैं जिसे वह आत्मसात कर लेता है ।

5.- विवाह :- विवाह का भी व्यक्ति के जीवन पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है । विवाह के बाद लड़के व लड़की को पति व पत्नी की भूमिका निभानी होती है । यह भूमिका उनके लिए बिल्कुल नहीं होती है जिसका पूर्वाभ्यास भारतीय समाज में नहीं होता है । पाश्चात्य देशों में तो 'डेटिंग ' प्रथा में इस प्रकार का पूर्वाभ्यास हो जाता है । वहां पति पत्नी एक दूसरे से अपरिचित नहीं होते । किंतु भारत में स्थिति भिन्न है । यहां वे लोग जिन्होंने कभी पहले एक-दूसरे को देखा ही नहीं और एक दूसरे से पूर्व परिचित नहीं होते ' परिणय सूत्र ' में बंध जाते हैं । मनोवैज्ञानिक रूप से उन्हें एक दूसरे के अनुरूप ढलने में समय लगता है । सफल वैवाहिक जीवन के लिए उनका अनुकूलन आवश्यक है । विवाह के बाद लड़के लड़की को दायित्वों का निर्वाह करना होता है । उन्हें एक दूसरे के लिए त्याग करना होता है, निष्ठा रखनी होती है ।


उपर्युक्त प्राथमिक संस्थाओं के अतिरिक्त वर्तमान समय में अनेक द्वितीयक संस्थाएं भी समाजीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं । द्वितीयक संस्थाएं किसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए निर्मित की जाती है । हम यहां प्रमुख द्वितीयक संस्थाओं के योगदान का उल्लेख करेंगे ।

6.- शिक्षण संस्थाएं :- शिक्षण संस्थाओं में हम स्कूल, कॉलेज एवं विश्वविद्यालय आदि सभी को गिनते हैं । शिक्षण संस्थाओं में बच्चा प्रमुख रूप से गुरुजनों, पाठ्य पुस्तकों एवं साहित्य तथा कक्षा के साथियों से अनेक बातें सीखता है । कोई ना कोई अध्यापक उसका मॉडल अवश्य होता है । जिसके अनुरूप व अपने को ढालने का प्रयास करता है । अध्यापक के आदर्श विचार, आचरण तथा रहन-सहन के ढंग छात्र भी अपनाता है । छात्रावास में एवं कक्षा में वह अन्य सहपाठियों के संपर्क से भी अनेक बातें सीखता है । पुस्तकों एवं साहित्य से भी वह नवीन ज्ञान अर्जित करता है, उसकी मानसिक क्षमता का विकास होता है, अज्ञान से ज्ञान की ओर तथा अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ता है । वह देश विदेश के समाज एवं संस्कृति के बारे में ज्ञान प्राप्त करता है ।

7.- राजनैतिक संस्थाएं :- व्यक्ति के समाजीकरण में राजनैतिक संस्थाओं का योगदान भी महत्वपूर्ण है । ये संस्थाएं व्यक्ति को कानून, शासन तथा अनुशासन से परिचित कराती है, उसे अधिकार एवं कर्तव्य का बोध कराती है । तानाशाही एवं प्रजातंत्रीय शासन में भिन्न-भिन्न प्रकार से बालक का समाजीकरण होता है । तानाशाही सरकार में व्यक्ति के जीवन में सुरक्षा की भावना कम होती है, अतः उसके स्वाभाविक विकास में बाधा पड़ती है । प्रजातंत्रीय एवं कल्याणकारी राज्य में सरकार लोगों की भलाई , शिक्षा एवं कल्याण के लिए अनेक कार्य करती है, इससे व्यक्ति को व्यक्तित्व निर्माण के सुअवसर प्राप्त होते हैं । राजनैतिक दलों द्वारा भी जनता को राजनैतिक प्रशिक्षण दिया जाता है ।

8.- आर्थिक संस्थाएं :- आर्थिक संस्थाएं व्यक्ति को जीवन यापन के लिए समर्थ बनाती हैं । इनके द्वारा हम यह सीखते हैं कि बाजार, बैंक व दुकान में किस प्रकार से व्यवहार करें ? ये संस्थाएं ही व्यक्ति को व्यवसायिक संघों से परिचित कराती है, व्यक्ति में सहयोग, प्रतिस्पर्धा एवं समायोजन के भाव पैदा करती है । बेईमानी व ईमानदारी के लक्षण भी व्यक्ति इन्हीं संस्थाओं के द्वारा सीखता है । मार्क्स एवं बेबलिन का मत है कि आर्थिक संस्थाएं ही व्यक्ति के जीवन और सामाजिक ढांचे को निर्धारित करती हैं ।

9.- धार्मिक संस्थाएं :- व्यक्ति के जीवन पर धर्म का गहरा प्रभाव होता है । ईश्वरीय भय एवं श्रद्धा के कारण वह नैतिकता तथा अन्य गुणों को ग्रहण करता है । व्यक्ति में पवित्रता, न्याय, शांति,सच्चरित्रता , कर्तव्य परायणता , दया, ईमानदारी आदि गुणों का विकास करने मैं धर्म प्रमुख भूमिका निभाता है । मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे एवं चर्च में हम किस प्रकार का आचरण करेंगे, या धार्मिक संस्थाएं ही बताती हैं। धर्म ग्रंथ, उपदेशक एवं साधु संतों का प्रभाव भी लोगों के आचरण पर पड़ता है । पाप पुण्य तथा स्वर्ग एवं नर्क की धारणा भी लोगों को सामाजिक प्रतिमानों के अनुरूप आचरण करने पर बल देती है । धार्मिक भय के कारण ही कई अपराधी, डाकू, हत्यारे एवं क्रूर व्यक्ति अपने व्यवहार को नियंत्रित व परिवर्तित करने में सफल हो पाते हैं ।

10.- सांस्कृतिक संस्थाएं :- आधुनिक समाज में अनेक सांस्कृतिक संस्थाएं - जैसे संगीत अकादमी, नाटक मंडली, कवि सम्मेलन एवं क्लब आदि व्यक्ति के विकास में योगदान देती हैं

यह संस्थाएं व्यक्ति को उसकी संस्कृति से परिचित कराती है। इनके द्वारा व्यक्ति अपनी प्रथाओं, परंपराओं, वेशभूषा, साहित्य, संगीत कला, भाषा आदि से परिचित होता है । वास्तव में सांस्कृतिक संस्थाएं व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास में काफी योग देती है ।

11.- व्यवसाय समूह :- व्यक्ति जिस व्यवसाय में लगा होता है, उसके मूल्यों को भी ग्रहण करता है । वह व्यवसाय के दौरान अनेक व्यक्तियों के संपर्क में आता है । छोटे एवं बड़े अधिकारी, एजेंट, मैनेजर आदि के संपर्क से वह व्यवसाई ज्ञान व गुण ग्रहण करता है तथा प्रशासनिक ढांचे से परिचित होता है ।

          इन सभी संस्थाओं के अतिरिक्त व्यक्ति के किसी अजनबी के संपर्क में आने पर भी उससे एक विशिष्ट प्रकार से व्यवहार करने की अपेक्षा की जाती है । भारत में व्यक्ति जातीय समूह से भी कई बातें सीखता है । जाति के अनुसार ही उसे खानपान , छुआछूत, विवाह आदि के नियमों का पालन करना होता है । प्रत्येक जाति की अपनी संस्कृति होती है जिसे व्यक्ति को सीखना आवश्यक है । इस प्रकार हम देखते हैं कि व्यक्ति ज्यों ज्यों बड़ा होता जाता है , उसका सामाजिक दायरा बढ़ता जाता है और अनेक संस्थाओं के माध्यम से उसका समाजीकरण होता जाता है ।

          व्यक्ति का समाजीकरण करने में अनेक कारकों का योगदान होता है । प्रो. डेविस का मत है कि व्यक्ति दो विभिन्न प्रकार के संचरण की उपज है - आनुवांशिक तथा सामाजिक । माता पिता के वाहकाणुओ (Genes), गुणसूत्र (Chromosoms) एवं प्रजनन की क्रिया द्वारा व्यक्ति को शरीर एवं शारीरिक क्षमताएं प्राप्त होती है । जीव विज्ञान की एक शाखा आनुवंशिकी मानव के इस जैविक विरासत का अध्ययन करती है । दूसरी ओर सामाजिक सांस्कृतिक सीखता था प्रतीकात्मक संवहन द्वारा व्यक्ति को सामाजिक विशेषताएं प्राप्त होती है । यह कार्य विभिन्न प्राथमिक व द्वितीयक संस्थाओं द्वारा किया जाता है । जैविकीय विशेषताएं ही व्यक्ति की सामाजिक सांस्कृतिक पर्यावरण अनुकूलन क्षमता को तय करती है । व्यक्ति के आनुवांशिक एवं सामाजिक संचरण को प्रकट कर सकते हैं
































































































































































































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