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समाजीकरण के विभिन्न सिद्धांतों की विवेचना कीजिए

समाजीकरण के विभिन्न सिद्धांतों की विवेचना कीजिए

विभिन्न विद्वानों ने अपने सिद्धांत प्रतिपादित कर यह दर्शाने का प्रयास किया है कि व्यक्ति का समाजीकरण किस प्रकार से होता है ? उसकी मानसिक स्थिति क्या होती है ? मनोवैज्ञानिकों एवं समाज शास्त्रियों ने समाजीकरण के सिद्धांत को आत्म या स्व के विकास के आधार पर समझने का प्रयत्न किया है 'आत्म ' कोई शारीरिक तत्व ना होकर एक मानसिक तथ्य है । व्यक्ति के समाजीकरण में 'आत्म ' या ' स्व' का उद्भव और विकास केंद्र बिंदु है । ' स्व ' का अर्थ गर्व या घमंड से नहीं है वरुण व्यक्ति का स्वयं के बारे में ज्ञान से है जो कि दूसरों के संपर्क एवं व्यक्ति के प्रति दूसरे लोग क्या सोचते हैं , से विकसित होता है । ' स्व' के ज्ञान के बाद ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है । वह व्यक्ति को उसके मानसिक अस्तित्व का बोध कराता है यद्यपि शारीरिक अस्तित्व पहले से ही मौजूद होता है । हम यहां आत्म के विकास एवं समाजीकरण से संबंधित कुछ सिद्धांतों का उल्लेख करेंगे ।

1. - कूले का सिद्धान्त (Cooley's Theory) :- अमेरिकन समाजशास्त्री कूले ने अपनी पुस्तक ' Human Nature and the Social Order ' में अपने समाजीकरण संबंधी सिद्धांत को प्रस्तुत किया है । उनका सिद्धांत ' आत्म दर्पण दर्शन सिद्धांत ( Looking-Glass Self Theory ) के नाम से जाना जाता है कूले ने अपने सिद्धांत का प्रतिपादन व्यक्ति और समाज के संबंधों को स्पष्ट करने के संदर्भ में किया । उनका मत है कि व्यक्ति और समाज को एक दूसरे से पृथक करके उनके बारे में वैज्ञानिक विवेचना नहीं किया जा सकता । समाज के संपर्क में आने पर ही व्यक्ति के ' आत्म ' का विकास होता है । समाज व्यक्ति के लिए दर्पण का कार्य करता है , हुआ उसमें अपनी छवि देखता है और समाज के लोग उसके बारे में क्या कहते हैं, इसी आधार पर वह अपने बारे में अपनी धारणा बनाता है । जिस प्रकार से हम आईना देखकर यह ज्ञात करते हैं कि हम अमुक पोशाक पहनने पर कैसे लगते हैं , बाल ठीक से संवारे हुए हैं या नही , मेकअप कैसा लग रहा है आदि । इसी प्रकार से बालक भी समाज रूपी आईने में अपने आपको देखता है । समाज के लोग उसके बारे में क्या कहते हैं इसी आधार पर वह अपने बारे में राय बनाता है । इसी राय के आधार पर ही उसमें ही हीनता या श्रेष्ठता के भाव पैदा होते हैं । उदाहरण के लिए, जब परिवार के लोग, मित्र या अन्य लोग उसके बारे में यह कहते हैं कि वह बुद्धिमान है, लंबा है, शक्तिशाली है, आकर्षक है या गन्दा ,मूर्ख, कमजोर, लड़ाकू, क्रोधीला है तो व्यक्ति भी अपने बारे में वैसा ही सोचने लगता है । इस प्रकार अपने बारे में दूसरों की प्रक्रिया से ही व्यक्ति के 'स्व ' का निर्माण होता है । इसलिए ही कूले इसे ' आत्म दर्पण ' दर्शन कहते हैं । हारटन तथा हण्ट का मत है कि कूले ने ' Looking Glass Self ' शब्द थेकरे (Thackery) की वेनिटी फेयर (Vanty Fair) नामक कृति से लिया है। थेकरे कहते हैं संसार एक दर्पण है जो प्रत्येक व्यक्ति को उसका स्वयं का चेहरा परिवर्तित करता है । आप भौहें चढ़ाइये तो इसमें आप चिड़चिडे दिखाई देंगे, आप इसकी और तथा इसके साथ हंसी है तो यह आपका खुश मिजाज व कृपालु साथी होगा ।
          कूले ने आत्म दर्पण दर्शन प्रक्रिया के तीन चरणों का उल्लेख किया है - 1.- व्यक्ति या सोचता है कि दूसरे उसके बारे में क्या सोचते हैं, 2.- दूसरों के निर्णय के आधार पर वह स्वयं अपने बारे में क्या सोचता है, 3.- मैं अपने बारे में सोच कर अपने को कैसा मानता हूं अर्थात गर्व अनुभव करता हूं या ग्लानि । इन तीनों बातों को स्पष्ट करने के लिए हारटन तथा हण्ट ने एक उदाहरण दिया है - मान लीजिए आप एक कमरे में प्रवेश करते हैं जहां कुछ व्यक्ति एक समूह में परस्पर बातें कर रहे हैं । आपकी आते ही वे बहाना बनाकर वहां से चले जाते हैं और ऐसा कई बार होता है तो आपको अपने बारे में हीनता की भावना महसूस होगी । इसके विपरीत आपके कमरे में प्रवेश करने पर सभी व्यक्ति आप को घेर लेते हैं और आपसे चर्चा करना चाहते हैं तो आपको गर्व महसूस होगा । इस प्रकार दूसरे व्यक्ति हमारे प्रति जिस प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं , हम अपने बारे में वैसे ही धारणा बनाते हैं । इसे हम एक अन्य उदाहरण द्वारा भी स्पष्ट कर सकते हैं । हम किसी स्त्री को बार-बार यह कहे कि तुम बहुत सुंदर हो तो वह अपने को सुंदर महसूस करने लगेगी और वैसा ही आचरण करने लगेगी । इसी प्रकार से यदि हम किसी स्त्री को बार-बार यह कहे कि तुम कुरूप हो तो उसमें वैसे ही विचार घर कर जाएंगे । इस प्रकार दूसरों के द्वारा व्यक्त प्रतिक्रिया के आधार पर ही व्यक्ति अपने को सुंदर असुंदर , मिलनसार झगड़ालू, मूर्ख बुद्धिमान, तथा हीन पुआ श्रेष्ठ समझने लगता है । बचपन में व्यक्ति अपने बारे में जिस प्रकार की धारणा ग्रहण कर लेता है वह जीवन भर बनी रहती है और बाद में बहुत प्रयत्न से ही परिवर्तित होती है ।
               किंतु कई बार ऐसा भी होता है कि दूसरे हमारे बारे में जो राय बनाते हैं । उसे जिस रूप में हम सोचते हैं उसमें तथा वास्तव में दूसरों द्वारा हमारे प्रति बनाई गई धारणा में अंतर होता है । कई बार हम दूसरों द्वारा हमारे बारे में बनाई गई राय को गलत समझ लेते हैं । अक्सर हम अपने बारे में दूसरों की वैसी धारणा बना लेते हैं जो समूह के प्रति हमारे मन में होती है । अतः कभी-कभी ' स्व ' निर्माण गलत धारणा पर भी आधारित होता है । उदाहरण के लिए, हमारा अपने मित्रों के प्रति अधिक स्नेह होता है, हमारे मित्र कभी हमारी प्रशंसा करते हैं तो हम यह सोचने लगते हैं कि हम प्रशंसनीय हैं जबकि वास्तविकता यह होती है कि हमारे मित्र हमें इतना योग्य नहीं समझते । इस प्रकार हमारे द्वारा अपने बारे में मित्रों की प्रशंसा के आधार पर बनाई गई धारणा त्रुटिपूर्ण है ।
       इस प्रकार कूले के अनुसार व्यक्ति का दूसरों से संपर्क होने से ही ' स्व' का निर्माण होता है जोकि सामाजिकरण का प्रमुख आधार है । ' स्व ' के निर्माण के आधार पर ही व्यक्ति अपना मूल्यांकन करता है, अपने को हीन या श्रेष्ठ समझता है और समाजीकरण की दिशा तय करता है । व्यक्ति समाज का ही प्रतिबिम्ब हैं । दूसरे व्यक्तियों के विचारों एवं निर्णयों के आधार पर ही वह अपने विचारों , मनोभावों एवं आदतों को बनाता है, अपना समाजीकरण करता है । स्टीवर्ट एवं ग्लिन ने कूले के ' आत्म दर्पण दर्शन ' सिद्धांत को चित्र द्वारा इस प्रकार प्रकट किया है

2.- मीड का सिद्धांत :- मीड एक दार्शनिक एवं समाज मनोवैज्ञानिक थे । उन्होंने समाजीकरण संबंधी अपने विचार ' Mind Self and Society ' नामक अपनी कृति में प्रकट किए हैं । एक दार्शनिक के रूप में वे यह जानना चाहते थे कि व्यक्ति और समाज में से पहले कौन आया ? मूल रूप से कूले एवं मीड के विचारों में कुछ समानता है किंतु आत्म के विकास में कूले व्यक्ति व समाज के पारस्परिक संबंधों पर अधिक बल देते हैं, जबकि मीड व्यक्ति की तुलना में समाज को अधिक महत्व देते हैं ।

      मीड यह मानते हैं कि व्यक्ति ही समाज का निर्माता है जिसमें दिमाग और ' स्व ' होता है । ' स्व ' मौलिक रूप से एक सामाजिक संरचना है और यह सामाजिक अनुभवों के कारण ही पैदा होता है । ' स्व' के जन्म के बाद ही व्यक्ति सामाजिक अनुभव करता है । मीड ने उस प्रक्रिया का भी उल्लेख किया है जिसके द्वारा ' स्व' का विकास होता है और वह किताब दूसरों के विचारों को ग्रहण करता है । मीड समाजीकरण में आत्म चेतना को आधार मानते हैं जिसका निर्माण सामाजिक अंतः क्रिया के कारण होता है ।मीड ने व्यक्ति के दो स्वरूपों का उल्लेख किया है - एक जैविकीय व्यक्ति तथा दूसरा सामाजिक रूप से आत्म चेतन व्यक्ति । जन्म के समय बच्चा एक जैविकीय व्यक्ति होता है जिसमें बुद्धि का अभाव होता है, अतः वह आंतरिक प्रेरणाओ से प्रेरित होकर ही क्रियाएं करता है । धीरे-धीरे परिवार एवं अन्य समूहों के संपर्क के कारण बच्चे को यह समझ पैदा होने लगती है कि उससे लोग किस प्रकार का व्यवहार करने की अपेक्षा करते हैं और उसके व्यवहारों का क्या अर्थ लगाया जाता है । इस प्रकार बच्चे का ' स्व' दूसरे लोगों के व्यवहार से प्रभावित होने लगता है । इसे ही वह 'सामान्यीकृत अन्य' कहता है । सामान्यीकृत अन्य' का अर्थ है किसी व्यक्ति की स्वयं के बारे में यह धारणा जो दूसरे लोग उसके बारे में रखते हैं । अन्य शब्दों में दूसरे व्यक्ति उसके बारे में जो निर्णय लेते हैं और उससे जो अपेक्षाएं करते हैं और उसका यह आन्तरीकरण करता है , उसे ही सामान्यीकृत अन्य' कहते हैं ।

      व्यक्ति में ' आत्म चेतना ' का विकास किस प्रकार से होता है इसे स्पष्ट करने के लिए मीड ने 'मैं'(I) तथा 'मुझे' (Me) शब्दों का प्रयोग किया है । इसलिए इस सिद्धांत को 'मैं' और 'मुझे' का सिद्धांत भी कहते हैं । ' मैं' का अर्थ व्यक्ति द्वारा दूसरों के प्रति किए जाने वाले व्यवहार से है तथा 'मुझे' का अर्थ है व्यक्ति द्वारा किए गए व्यवहार पर दूसरों की प्रक्रिया जिसे व्यक्ति आंतरीकृत करता है । 'मैं' और 'मुझे' में अन्तःक्रिया के कारण ही 'स्व' का विकास होता है । प्रारंभ में यह दोनों धारणाएं एक दूसरे से अलग होती हैं किंतु परिवार एवं समाज के संपर्क के कारण उनमें समानता स्थापित होने लगती है और वे एक ही चीज के दो पहलू हो जाते हैं ।

     समाज के संपर्क के कारण बच्चा जो कुछ सीखता है उसे वह पुनः गुड़ियों के खेल के दौरान प्रकट करता है । चोर, डाकू, व पुलिसमैन तथा माता-पिता व भाई बहनों की भूमिका हुआ खेल के दौरान प्रकट करता है । आपस में ही बच्चे मम्मी पापा या चोर पुलिस बनकर वैसा ही व्यवहार प्रकट करते हैं जैसा उन्होंने वास्तव में उन दोनों को व्यवहार करते देखकर सीखा है । अनुकरण, संकेत, एवं भाषा के माध्यम से बच्चा दूसरों के व्यवहारों को ग्रहण करता है और उसमें विभिन्न प्रकार की भूमिकाएं निभाने की क्षमता पैदा हो जाती है । इसी स्थिति को मीड ' आत्म का विकास' कहते हैं । मीड के इस सिद्धांत को हम संक्षेप में इस प्रकार प्रकट कर सकते हैं - 1.- समाजीकरण का अर्थ व्यक्ति के आत्म के समुचित विकास से है, 2.- 'आत्म' का विकास दूसरे लोगों के सामान्यीकृत व्यवहार' को अपने व्यवहार में समावेश करने से होता है, 3.- 'आत्म' के विकास के बाद व्यक्ति जैविकीय प्राणी से ' सामाजिक रूप ' देहात में चेतन के रूप में बदल जाता है , 4.- व्यक्ति का समाजीकरण उसी मात्रा में होता है जिस मात्रा में उसके सामाजिक व्यवहार उसके जैविकीय एवं संवेगात्मक व्यक्तित्व के प्रभाव को कम कर दे , 5.- स्वयं में तथा अन्य व्यक्तियों में भेद करने की चेतना पैदा होना ही आत्म का विकास हैं, और इसी आधार पर वह दूसरों के प्रति अपने व्यवहार को निश्चित करता है । तरह-तरह की आदतें सीखता है अर्थात् अपना समाजीकरण करता है ।

कूले व मीड के सिद्धान्तों में अन्तर :-

कूले व मीड के सिद्धांतों में पर्याप्त समानता होते हुए भी निम्नांकित अंतर है ।
1.- कूले 'आत्म' के विकास में व्यक्ति एवं समाज को समान रूप से महत्वपूर्ण मानते हैं क्योंकि जब तक व्यक्ति दूसरों के विचारों एवं दृष्टिकोण ओं के प्रति जागरूक ना हो तब तक उसके विचारों का कोई मूल्य नहीं है । दूसरी ओर मीड समाज को इस रूप में अधिक महत्व देता है कि समाज के सामान्यीकृत व्यवहार प्रत्येक व्यक्ति की आत्म चेतना को प्रभावित करते हैं ।

2.- कूले ने 'आत्म ' के विकास के चरणों का उल्लेख नहीं किया है जबकि मीड ने 'मैं' और 'मुझे' में भेद कर के विकास के चरणों को बताया है । पहले 'मैं' और फिर 'मुझे' की धारणा का विकास होता है ।

3.- कूले ' आत्म' को एक धारणा मानते हैं जिसके बारे में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कह सकते जबकि मीड 'आत्म' को स्वयं के बारे में चेतना मानते हैं ।

4.- मीड के अनुसार 'आत्म ' का निर्माण बहुत से व्यक्तियों के व्यवहारों अर्थात ' सामान्यीकृत व्यवहारों ' से होता है किंतु कूले के अनुसार व्यक्ति किसी एक या दो व्यक्तियों से भी अपने आत्म का निर्माण कर सकता है ।

5.- कूले की अपेक्षा मीड का सिद्धांत अधिक स्पष्ट एवं व्यवस्थित है ।

3.- फ्रायड का सिद्धान्त :- फ्रायड नामक मनोवैज्ञानिक ने समाजीकरण के अपने सिद्धांत को मानसिक क्रियाओं के आधार पर समझाया है । वे यह मानते हैं कि मानव का समस्त व्यवहार लिबिडो ,अर्थात काम- प्रवृत्तियों से तय होता हैं । फ्रायड ने 'समाजीकृत आत्म' की अवधारणा को चुनौती दी और कहा कि 'स्व' एवं समाज में कोई तालमेल नहीं है । वह यह मानते हैं कि मानव व्यवहार का तार्किक पक्ष उसी प्रकार से है जिस प्रकार किसी समुद्र में हिमखंड का बाहरी भाग होता है । जिस प्रकार हिमखंड का अधिकांश भाग पानी में रहता है उसी प्रकार मानव व्यवहार का अधिकांश भाग अदृश्य व अचेतन शक्तियों द्वारा संचालित होता है । फ्रायड ने 'स्व' को 'इड' (ID) , अहम (Ego) और पराअहम (Superego) नामक तीन भागों में बांटा । 'इड' (ID) मानव की मूल प्रवृत्तियां, प्रेरणाओं , असमाजीकृत इच्छाओं एवं स्वार्थो का योग हैं । इड के सामने नैतिक अनैतिक, अच्छे बुरे का कोई प्रश्न नहीं होता है । यह पाशविक प्रवृत्ति के निकट है जो किसी न किसी प्रकार संतुष्ट चाहता है । अहम (Ego) स्व का चेतन एवं तार्किक पक्ष है जो व्यक्ति को सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल व्यवहार करने का निर्देश देता है और 'इड' पर नियंत्रण रखता है । ' अहम ' भी ' इड ' के समान नैतिक अनैतिक, प्रेम व घृणा को अधिक महत्व तो नहीं देता फिर भी यह अधिक व्यावहारिक है क्योंकि यह ' इड ' को परिस्थितियों के अनुकूल होने पर ही अपनी इच्छा की पूर्ति की स्वीकृति देता है । पराअहम (Super Ego) सामाजिक मूल्यों एवं आदर्शों का सहयोग है जिसे व्यक्ति ने आत्मसात कर रखा है । और जो उसकी अंतरात्मा का निर्माण करते हैं ।
    हम यहां एक उदाहरण द्वारा फ्रायड की 'इड' , 'अहम' , एवं 'पराअहम' की अवधारणा को स्पष्ट करेंगे । मान लीजिए कि एक व्यक्ति बहुत भूखा है और उसे मिठाई खाने की इच्छा है । यह भूख 'इड' कहलाती है । 'अहम' कहेगा कि यदि मिठाई खानी है और भूख शांत करनी है तो मेहनत करो, पैसा कमाओ या अगर परिस्थिति अनुकूल हो तो चोरी कर लो , चुपके से उठा कर खा लो । इस प्रकार 'अहम' व 'इड' सामाजिक परिस्थितियों में सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न करता है । किंतु 'पराअहम' व्यक्ति को कहेगा की चोरी करना पाप है । अनैतिक हैं, सामाजिक मूल्यों के विपरीत है । अतः ऐसा मत करो । इस प्रकार 'पराअहम' विवेक और सामाजिक मूल्यों को प्रकट करता है । यह व्यक्ति के समाजीकरण का प्रमुख आधार है । इड, अहम और पराअहम को हम एक अन्य उदाहरण द्वारा भी समझ सकते हैं । ' इड ' एक घोड़े के समान हैं जो किसी भी दिशा में भागना चाहता है । 'अहम ' घोड़े पर बैठे सवार की तरह है जो उसे दिशा बताता है । 'पराअहम' सड़क पर खड़े ट्रैफिक इंस्पेक्टर की तरह है जो सवार के त्रुटि करने पर उसे भी सही दिशा बताता है । इस प्रकार पराअहम ' इड' तथा 'अहम' दोनों पर नियंत्रण रखता है और उन्हें समाज के मूल्यों के अनुरूप आचरण करने का निर्देश देता है । फ्रायड का मत है कि इड और परा- अहम में सदैव संघर्ष पाया जाता है क्योंकि समाज यौन इच्छाओं और आक्रामक भावनाओं पर प्रतिबंध लगाता है । सामान्यतः इड उस संघर्ष में हार जाता है किंतु कभी-कभी वह पराअहम की अवहेलना भी कर देता है और व्यक्ति समाज विरोधी कार्य कर बैठता है । इस प्रकार फ्रायड स्व और समाज को एक दूसरे के पूरक न मानकर परस्पर विरोधी मानता है । फ्रॉयड के अनुसार , 'इड' व पराअहम ' के पारस्परिक संघर्ष की प्रक्रिया से ही व्यक्ति का समाजीकरण होता है । बचपन में व्यक्ति जब सामाजिक व्यवहार से परिचित नहीं होता है तो ' इड ' से प्रभावित होकर व्यवहार करता है । दूसरे लोगों के संपर्क में आने पर उसे इस बात का ज्ञान होता है कि अपनी आवश्यकता किस प्रकार पूरी की जानी चाहिए यहीं अहम के विकास की स्थिति है । अन्य व्यक्ति के संपर्क से ही वह सामाजिक मूल्यों एवं आदर्शों से परिचित होता है, वह यह जानने लगता है कि समाज किस प्रकार के व्यवहार को स्वीकार व अस्वीकार करता है, नैतिक व अनैतिक समझता है । वह 'इड' और 'अहम' की बात को ठुकरा कर जितना पराअहम के
अनुसार आचरण करता है, उतना ही उसका समाजीकरण सफल माना जाता है ।
     जहां कूले एवं मीड के सिद्धांत परस्पर पूरक हैं, वहीं फ्रायड का सिद्धांत उन दोनों का विरोधी है । वह दोनों 'आत्म' को सामाजिक अंतः क्रिया का परिणाम मानते हैं किंतु फ्रायड इसे मानसिक क्रियाओं का परिणाम मानते हैं ।

4.- दुर्खीम का सिद्धान्त :- दुर्खीम ने समाजीकरण संबंधी अपने विचार अपनी कृति ' Sociology and philosophy ' में प्रकट किए हैं । आपने समाजीकरण संबंधी अपने विचारों को सामूहिक प्रतिनिधित्व तथा सामूहिक चेतना के आधार पर प्रकट किया है । अतः इन दोनों अवधारणाओं को समझे बिना दुर्खीम के समाजीकरण के सिद्धांत को नहीं समझा जा सकता ।

       दुर्खीम के अनुसार प्रत्येक समाज में कुछ विचार, धारणाएं एवं भावनाएं ऐसी होती हैं जी ने समाज के सभी सदस्य स्वीकार करते हैं । क्योंकि ये सभी द्वारा मान्य होते हैं , इसलिए ये सारे समूह का प्रतिनिधित्व करते हैं । प्रारंभ में इनका संबंध व्यक्तिगत चेतना से होता है किंतु सभी लोगों की पारस्परिक अंतः क्रिया के कारण सामूहिक चेतना का निर्माण होता है जो सामूहिक प्रतिनिधानों को जन्म देती है । सामाजिक परंपराएं,धर्म, रीतिरिवाज, प्रथाएँ, मूल्य एवं आदर्श सामूहिक प्रतिनिधान के उदाहरण है । इन सभी का निर्माण किसी व्यक्ति विशेष द्वारा नहीं होता वरन समूह अथवा समाज के सभी या अधिकांश लोगो द्वारा होता है । अतः समूह के सभी लोग इनका पालन करते हैं, मानते हैं एवं उनके अनुसार आचरण करते हैं । सामूहिक प्रतिनिधानों का पालन करना व्यक्ति अपना दायित्व समझते हैं । इनके पीछे नैतिकता का दबाव होता है । समाज इन्हें मानने के लिए व्यक्तियों को बाध्य करता है । इनकी अवहेलना करने पर सामूहिक प्रतिक्रिया होती है, दण्ड की व्यवस्था की जाती है । इस प्रकार समाज के रीति-रिवाजों, प्रथाओं, कानूनों, संस्थाओं, धर्म एवं आदर्शों आदि को सामूहिक जीवन के घोतक होने के कारण ही 'सामूहिक प्रतिनिधान ' कहां गया है ।

     व्यक्ति इन सामाजिक प्रतिनिधानों को सीखता है, आत्मसात करता है और उनके अनुरूप आचरण करता है इससे उसका समाजीकरण होता है । अन्य शब्दों में व्यक्ति द्वारा सामाजिक प्रतिनिधानों का आन्तरीकरण करना ही समाजीकरण है । व्यक्ति ज्यों ज्यों सामाजिक प्रतिनिधानों को आत्मसात करता जाता है त्यों त्यों उसका समाजीकरण होता जाता है ।

     सामूहिक विचारों एवं धारणाओं को व्यक्ति किस प्रकार मानता और उनके अनुसार आचरण करता है, इसे हम एक उदाहरण द्वारा इस प्रकार स्पष्ट कर सकते हैं । व्यक्ति जब भीड़ में होता है तो वैसा ही व्यवहार करने लगता है जैसा दूसरे व्यक्ति कर रहे होते हैं । यदि भीड़ तोड़ फोड़ ,हिंसा व अनैतिकता पर उतारू है तो उसमें सम्मिलित सभी व्यक्ति वैसा ही करने लगते हैं । भीड़ में व्यक्ति की व्यक्तिगत इच्छा दब जाती है और उस पर सामूहिक इच्छा हावी हो जाती है । यही स्थिति समाज में भी होती है। समाज की प्रथाएं, रीति रिवाज, आदर्श और मूल्य जो कि सामाजिक प्रतिनिधान हैं व्यक्ति को पूरी तरह से प्रभावित करते हैं और उसे अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं का दमन कर के भी उन्हें मानने को बाध्य करते हैं । इनके अनुरूप आचरण करने के अतिरिक्त उसके सामने कोई अन्य विकल्प नहीं होता । सामाजिक प्रतिनिधानों का दबाव उसमें सामाजिक गुणों का विकास करता है, उसे समाज के अनुरूप बनाकर उसका समाजीकरण करता है ।


















































































































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