सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए
परिवर्तन प्रकृति का एक शाश्वत एवं जटिल नियम है। मानव समाज भी उसी प्रकृति का अंश होने के कारण परिवर्तनशील है। समाज की इस परिवर्तनशील प्रकृति को स्वीकार करते हुए मैकाइवर लिखते हैं " समाज परिवर्तनशील एवं गत्यात्मक है । " बहुत समय पूर्व ग्रीक विद्वान हेरेक्लिटिस ने भी कहा था सभी वस्तुएं परिवर्तन के बहाव में हैं। उसके बाद से इस बात पर बहुत विचार किया जाता रहा कि मानव की क्रियाएं क्यों और कैसे परिवर्तित होती हैं? समाज के वे क्या विशिष्ट स्वरूप हैं जो व्यवहार में परिवर्तन को प्रेरित करते हैं? समाज में अविष्कारों के द्वारा परिवर्तन कैसे लाया जाता है एवं अविष्कार करने वालों की शारीरिक विशेषताएं क्या होती है? परिवर्तन को शीघ्र ग्रहण करने एवं ग्रहण न करने वालों की शारीरिक रचना में क्या भिन्नता होती है? क्या परिवर्तन किसी निश्चित दिशा से गुजरता है? यह दिशा रेखीय हैं या चक्रीय? परिवर्तन के संदर्भ में इस प्रकार के अनेक प्रश्न उठाए गए तथा उनका उत्तर देने का प्रयास भी किया गया। मानव परिवर्तन को समझने के प्रति जिज्ञासा पैदा हुई। उसने परिवर्तन के कारणों को ढूंढने, उसकी दिशा का पता लगाने और परिवर्तन पर नियंत्रण पाने का प्रयास किया।
परिवर्तन क्यों और कैसे होते हैं, यह प्रश्न आज भी पूरी तरह हल नहीं हो पाए हैं। अंग्रेज कवि लार्ड टेनीसन का मत है कि प्राचीन क्रम में नए क्रम को स्थान देने के लिए परिवर्तन होता है। प्रो. ग्रीन लिखते हैं सामाजिक परिवर्तन इसलिए होता है क्योंकि प्रत्येक समाज संतुलन के निरंतर दौर से गुजर रहा है। कुछ व्यक्ति एक संपूर्ण संतुलन की इच्छा रख सकते हैं तथा कुछ इसके लिए प्रयास भी करते हैं। सामाजिक परिवर्तन एक अवश्यम्भावी तथ्य है। इसकी निश्चितता को प्रकट करते हुए प्रो. डेविस कहते हैं हम स्थायित्व एवं सुरक्षा के लिए निरंतर प्रयत्नशील हो सकते हैं, समाज के स्थायित्व का भ्रम चारों और फैलाया जा सकता है,निश्चयात्मक के प्रति खोज निरंतर बनी रह सकती है, और विश्व अनंत है - इस विषय में हमारा विश्वास दृढ़ हो सकता है लेकिन यह तथ्य सदैव विद्यमान रहने वाला है कि विश्व के अन्य तत्वों की तरह समाज अपरिहार्य रूप से और बिना किसी छूट के सदैव परिवर्तित होता रहता है। सामाजिक परिवर्तन के विभिन्न पक्षों की चर्चा करने से पूर्व परिवर्तन किसे कहते हैं इसका हम यहां विवेचन करेंगे।
सामाजिक परिवर्तन का अर्थ एवं परिभाषा
सामान्यता सामाजिक परिवर्तन का तात्पर्य समाज में घटित होने वाले परिवर्तनों से है। प्रारंभ में सामाजिक वैज्ञानिकों ने उद्विकास, प्रगति एवं सामाजिक परिवर्तन में कोई भेद नहीं किया था और वे इन तीनों अवधारणाओं का प्रयोग एक ही अर्थ में करते थे। पहली बार सन् 1922 में आगबर्न ने अपनी पुस्तक Social Change में इनमें पाए जाने वाले भेद को स्पष्ट किया । उनके बाद से समाजशास्त्रीय साहित्य में इन शब्दों का काफी प्रयोग हुआ है। कुछ विद्वानों ने सामाजिक ढांचे में होने वाले परिवर्तन को सामाजिक परिवर्तन कहा है तो कुछ नहीं सामाजिक संबंधों में होने वाले परिवर्तन को। संपूर्ण समाज अथवा उसके किसी भी पक्ष में होने वाले परिवर्तन को सामाजिक परिवर्तन कहा जाता है। सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा को स्पष्टतः समझने के लिए हम विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई कुछ परिभाषा ओं का उल्लेख करेंगे :
मैकाइवर एवं पेज के अनुसार समाजशास्त्री होने के नाते हमारी रुचि सामाजिक संबंधों में है केवल इन सामाजिक संबंधों में होने वाले परिवर्तन को ही सामाजिक परिवर्तन कहते हैं इस प्रकार मैकाइवर एवं पर समाज को सामाजिक संबंधों का जाल कहते हैं अतः सामाजिक परिवर्तन सामाजिक संबंधों में होने वाले परिवर्तन का नाम है।
किंगसले डेविस के मत में सामाजिक परिवर्तन से हम केवल उन्हीं परिवर्तनों को समझते हैं जो सामाजिक संगठन अर्थात समाज के ढांचे और कार्यों में घटित होते हैं इस प्रकार डेविस ने सामाजिक परिवर्तनको पूर्णता संरचनात्मक प्रकार्यात्मक दृष्टि से देखा है अर्थात उनके मत में सामाजिक परिवर्तन तभी माना जाता है जब समाज की विभिन्न इकाइयों जैसे संस्थाओं समुदायों समितियों समूह आदि में परिवर्तन होता है तथा साथ ही इन परिवर्तनों से इनके प्रकर्यों में भी परिवर्तन आता है।
जेनसन के मत में सामाजिक परिवर्तन को लोगों के कार्य करने तथा विचार करने के तरीकों में होने वाले रूपांतरण के रूप में परिभाषित किया जाता है इस प्रकार जेनसन सामाजिक परिवर्तन के अंतर्गत मानव के व्यवहार एवं विचारों में होने वाले परिवर्तनों को सम्मिलित करते हैं
जानसन के अनुसार अपने मूल अर्थ में सामाजिक परिवर्तन का अर्थ सामाजिक ढांचे में परिवर्तन है जॉनसन ने कहा है कि सामाजिक मूल्यों संस्थाओं संपदा और पुरस्कारों व्यक्तियों तथा उनकी अभिवृत्तियों एवं योग्यताओं में होने वाले परिवर्तन को भी सामाजिक परिवर्तन कहा जा सकता है।
बांटो मोर के अनुसार सामाजिक परिवर्तन के अंतर्गत उन परिवर्तनों को सम्मिलित किया जाता है जो सामाजिक संरचना सामाजिक संस्थाओं अथवा उनके पारस्परिक संबंधों में घटित होते हैं।
उपर्युक्त सभी परिभाषाओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि सामाजिक परिवर्तन वह परिवर्तन सम्मिलित होते हैं जो मानवीय क्रियाओं सामाजिक प्रक्रिया व्यवहारों संस्थाओं प्रथाओं प्रकार्यों अथवा सामाजिक ढांचे आदि में होते हैं सामाजिक परिवर्तन में निम्नलिखित तथ्यों को लिया जा सकता है।
सामाजिक परिवर्तन समाज की संरचना एवं उसके प्रकार्यो में परिवर्तन को कहते हैं।
सामाजिक परिवर्तन व्यक्ति विशेष अथवा कुछ ही व्यक्तियों में आए परिवर्तन से नहीं माना जाता है बल्कि समाज के अधिकांश अथवा सभी व्यक्तियों द्वारा उसे जीवन विधि व विश्वासों में स्वीकार किए जाने पर माना जाता है।
सामाजिक परिवर्तन एक सार्वभौमिक सत्य है अर्थात प्रत्येक काल में परिवर्तन होता रहता है।
सामाजिक परिवर्तन मानव के सामाजिक संबंधों में परिवर्तन से संबंधित है।
सामाजिक परिवर्तन की विशेषताएं ( प्रकृति )
विभिन्न विद्वानों ने सामाजिक परिवर्तन की अनेक विशेषताएं बताई है जो इसकी अवधारणा को और अधिक स्पष्ट करती है यह विशेषताएं निम्नलिखित हैं
सामाजिक प्रकृति - सामाजिक परिवर्तन का संबंध संपूर्ण समाज में होने वाले परिवर्तन से होता है ना कि व्यक्तिगत स्तर पर हुए परिवर्तन को सामाजिक परिवर्तन कहा जाता है अर्थात जब संपूर्ण समाज की इकाइयों जैसे जाति समूह समुदाय आदि के स्तर पर परिवर्तन आता है तभी उसे सामाजिक परिवर्तन की संज्ञा दी जाती है किसी एक इकाई में होने वाले परिवर्तन को सामाजिक परिवर्तन नहीं कह सकते।
सार्वभौमिक प्रघटना - सामाजिक परिवर्तन सर्वकालिक एवं सार्वभौमिक है विश्व का कोई ऐसा समाज नहीं है जहां परिवर्तन ना हुआ हो यज्ञ भी विभिन्न समाजों में परिवर्तन की गति एवं स्वरूप भिन्न हो सकता है क्योंकि कोई भी दो समाज एक जैसे नहीं होते हैं उनके इतिहास संस्कृति प्रकृति आदि में इतनी भी बताएं होती है कि कोई एक दूसरे का प्रतिरूप नहीं हो सकता जैसे आदिम समाज में परिवर्तन की गति अत्यधिक धीमी होती है दूसरी और पश्चिमी देशों में विशेष रूप से अमेरिका में सामाजिक परिवर्तन की गति अधिक तीव्र है परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत सत्य है अतः समाज के स्तर पर यह सभी कालों में हुआ सभी समाजों में किसी न किसी रूप में होता अवश्य है।
स्वाभाविक एवं अवश्यंभावी - परिवर्तन चूंकि प्रकृति का शाश्वत सत्य है आवश्यक रूप से होता है आता है यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया कही जा सकती है समाज भी स्वाभाविक रूप से परिवर्तित होता रहता है प्रायः मानव स्वभाव परिवर्तन का विरोधी होता है लेकिन फिर भी परिवर्तन तो होता ही है क्योंकि व्यक्ति की आवश्यकताएं इच्छाएं परिस्थितियां स्वाभाविक रूप से परिवर्तन के लिए उत्तरदाई होती है उदाहरण के लिए प्राचीन समय में मकानों की बनावट विभिन्न प्रकार की होती थी लेकिन आधुनिक समय में जबकि सभी कामों के लिए मशीनों पर निर्भर रहना पड़ता है स्वाभाविक रूप से ही मकानों के ढांचे में बदलाव आ गया है जिसका आना अवश्यंभावी था,अर्थात मानव अपनी बदलती परिस्थितियों से समायोजन करने के लिए अनिवार्य रूप से परिवर्तन को स्वीकार कर लेता है या एक स्वाभाविक घटना है।
तुलनात्मक एवं असमान गति - सामाजिक परिवर्तन सभी समाजों में पाया जाता है किंतु सभी समाजों में इसकी गति अलग-अलग होती है ग्रामीण समाज में परिवर्तन बड़ी मंद गति से आता है इसका कारण यह होता है कि वहां परिवर्तन लाने वाले कारक भिन्न प्रकार के होते हैं जबकि शहरी समाज में परिवर्तन तेज गति से आता है
इन दोनों स्थानों में आए परिवर्तन को तुलना द्वारा ही बताया जा सकता है कि किस स्थान पर कितना परिवर्तन आया।
उदाहरण के लिए आदिम समाजों की तुलना में शहरी समाज में सामाजिक परिवर्तन तीव्र गति से होता है शहरी क्षेत्र में तकनीकी विकास आदिम क्षेत्र की तुलना में तीव्र गति से हो रहा है। यहां हम दोनों समाजों में हुए सामाजिक परिवर्तन की तुलना करके ही उनकी असमान गति का अनुमान लगा पा रहे हैं। सामाजिक परिवर्तन देशकाल परिस्थितियों से भी घनिष्ठता या संबंधित है अर्थात हर देश की परिस्थितियां समान होती है आता हर देश में सामाजिक परिवर्तन भी असमान गति से होता है जिसे तुलनात्मक रूप से ही जाना जा सकता है।
जटिल प्रघटना - दो समाजों में हुए परिवर्तनों की तुलना के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक परिवर्तन हुआ है किंतु कितना या किस स्तर का इस की माप तोल संभव नहीं होती उदाहरण के लिए आज के विचार मूल्य परंपराएं रीति रिवाज प्राचीन समय से भिन्नता लिए हुए हैं लेकिन कितना अंतर है इसको मापा नहीं जा सकता क्योंकि परिवर्तन गुणात्मक रूप से होता है अतः सामाजिक परिवर्तन की विशेषता यह है कि यह एक जटिल तथ्य है सरलता से इसका रूप नहीं समझा जा सकता।
भविष्यवाणी असंभव - परिवर्तन होता तो अवश्य है लेकिन यह किस दिशा में होगा किस रूप में होगा किस स्थान पर होगा आज स्पष्ट नहीं होता उदाहरण के लिए तकनीकी विकास का प्रभाव संपूर्ण देश पर पड़ा है रहन-सहन भोजन व्यवस्था आवागमन भौतिक सुख-सुविधा आदि अनेक क्षेत्र इससे प्रभावित है लेकिन व्यक्तियों के विचार विश्वास मूल्य किस सीमा तक इससे प्रभावित हैं और होंगे इसकी भविष्यवाणी असंभव नहीं तो दुष्कर कार्य अवश्य है। औद्योगिकरण और नगरीकरण ने संयुक्त परिवार विवाह जाती प्रथा आदि अनेक क्षेत्रों को प्रभावित किया है जिसके संपूर्ण प्रभाव के विषय में निश्चित भविष्यवाणी नहीं की जा सकती केवल पूर्वानुमान लगाया जा सकता है।
सामाजिक परिवर्तन के प्रकार
सामाजिक परिवर्तन समाज में आने वाले विभिन्नता को विभिन्न कालों में व्यक्त करता है लेकिन परिवर्तन विभिन्न समाजों में किस दिशा में किस नियम के अंतर्गत अथवा किस सिद्धांत के आधार पर हो रहा है यह स्पष्ट नहीं हो पाता मैकाइवर एवं पेज हरबर्ट स्पेंसर हाबहाउस एवं सोरोकिन आदि समाजविदो ने सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाओं का विवेचन किया है इन्होंने अनेक समाजशास्त्री अवधारणाओं का उल्लेख किया है जिनमें प्रक्रिया आंदोलन वृद्धि विकास उद्विकास अनुकूलन क्रांति प्रगति आदि प्रमुख हैं। इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं
सामाजिक परिवर्तन के प्रकार
- प्रक्रिया
- उद्विकास
- प्रगति
- विकास
- अनुकूलन
- क्रांति
- वृद्धि
प्रक्रिया
पथरिया से तात्पर्य परिवर्तन की निरंतरता से है प्रक्रिया प्रत्यक्ष और परोक्ष उत्थान और पतन किसी भी और हो सकती है यह तो परिवर्तन का एक निश्चित क्रम होता है जिसके द्वारा एक अवस्था दूसरी में बदल जाती है मैकाइवर ने प्रक्रिया को वर्तमान शक्तियों की क्रियाशीलता द्वारा एक निश्चित रूप में निरंतर परिवर्तन कहा है उदाहरण जब हम कहते हैं कि आज समाज आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में है तो हमारा आशय है कि प्राचीन मूल्यों परंपराओं बाद निरंतर परिवर्तित हो रही है और प्राचीन मूल्य परंपराएं आधुनिकीकरण में विलीन हो रही है।
उद्विकास
उद्विकास का संप्रत्यय सर्वप्रथम डार्विन ने दिया था उन्होंने कहा कि किसी वस्तु का सरलता से जटिलता की ओर जाना उद्विकास है सरलता से जटिलता की ओर जाने की यह प्रक्रिया कुछ निश्चित दरों में होती है उद्विकास के रूप में सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या सर्वप्रथम हरबर्ट स्पेंसर ने की जिसमें उन्होंने डार्विन के सिद्धांत को समाज पर लागू किया उनके मत में उद्विकास किसी तत्व का समन्वय हुआ उसमें संबंध वह गति है जिसके दौरान वह तत्व एक निश्चित असंबद्ध भिन्नता में बदलता है।स्पेंसर ने सामाजिक उद्विकास के चार स्तरों जंगली अवस्था पशु चारण अवस्था कृषि अवस्था और औद्योगिक अवस्था की चर्चा की है मैकाइवर एवं पेज के मत में उद्विकास परिवर्तन की एक दशा है जिसमें बदलते हुए पदार्थ की अनेक दशाएं प्रकट होती है जिससे उस पदार्थ की वास्तविकता का पता चलता है अर्थात मैकाइवर के अनुसार जिसका उद्विकास होता है ऐसी प्रत्येक वस्तु में पहले से ही उद्विकास की संभावनाएं विद्यमान रहती है जो आगे जाकर अभिव्यक्त होती हैं।
उद्विकास उस स्थिति को कह सकते हैं जब परिवर्तन एक निश्चित दिशा में निरंतर हो तथा रचना एवं गुणों में भी परिवर्तन हो उद्विकास में किसी वस्तु के आंतरिक गुणों में परिवर्तन होता है।
प्रगति
उद्विकास का अर्थ परिवर्तन से ही लिया जाता है लेकिन उद्विकास से जो परिवर्तन होते हैं वह सदैव समाज का विकास ही करें यह आवश्यक नहीं है इसके विपरीत प्रगति भी परिवर्तनों से ही संबंधित है प्रगति में हुए परिवर्तन लिए जाते हैं जो समाज के विकास के लिए होते हैं अर्थात प्रगति ऐसे परिवर्तन से संबंधित है जो समाज के उद्देश्य एवं लक्ष्य के अनुरूप हो प्रगति समाज की अच्छाई की ओर होने वाले परिवर्तन को कहा जाता है यह प्रायः नियोजित होती है जिसे कोई समाज अपने लिए अच्छा समझते हैं वहीं उसके लिए प्रगति होती है प्रायः प्रगति का संबंध सामाजिक मूल्यों व आदर्शों से होता है समाज इन आदर्शों को अपने लिए उचित मानता है उसी दिशा में होने वाले परिवर्तन प्रगति कहलाती है यह प्रायः नैतिकता से सम्बद्ध होती है। यह हो सकता है कि एक समाज की नहीं मूल्यों व आदर्शों को अच्छा मानता है वह उसके लिए प्रगति हो सकती है जबकि वहीं मूल्य आदर्श दूसरे समाज के लिए अवनति हो सकते हैं जिन्हें वह सामान अच्छा नहीं मानता इस प्रकार प्रगति सापेक्षिक होती है प्रगति का संप्रत्यय भिन्न-भिन्न होता है ।प्रगति का माप संभव है प्रगति को सभी समाजों पर सार्वभौमिक रूप से लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि प्रगति मूल्य आदर्श हुआ नैतिकता से संबंधित है जो प्रत्येक समाज के लिए भिन्न भिन्न हो सकती है। आग बर्न एवं निमकाफ ने प्रगति के विषय में लिखा है प्रगति का अर्थ अच्छाई के लिए परिवर्तन से है और इसलिए प्रगति में मूल्य निर्णय होता है अतः प्रगति इच्छित परिवर्तन है।
विकास
विकास से तात्पर्य किसी वस्तु में होने वाले परिवर्तन से है जो श्रेष्ठता की ओर होता है बालक भी जब शिशु से युवावस्था को प्राप्त करता है तो उसमें शारीरिक मानसिक भावनात्मक सामाजिक नैतिक सभी प्रकार का परिवर्तन होता है तभी वह समायोजित व्यक्तित्व को प्राप्त करता है इसी प्रकार कोई समाज भी जब आर्थिक सामाजिक नैतिक सभी रूप में परिवर्तित होता है तभी उसको विकसित समाज कहा जाएगा इस प्रकार विकास इस प्रकार के परिवर्तन का सूचक है जो श्रेष्ठता की ओर अग्रसर होता है भारत की तुलना में पश्चिमी समाज इसके विकसित माने जाते हैं क्योंकि वह आर्थिक तकनीकी शिक्षा आदि के सभी क्षेत्रों में परिवर्तित हो गए हैं विकास समाज की प्रगति के लिए आवश्यक है विकास के लिए जानबूझकर प्रयास किए जाते हैं।
अनुकूलन
अनुकूलन भी परिवर्तन की एक प्रक्रिया है जिसमें एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से अथवा परिस्थिति से अपना समायोजन करने का प्रयत्न करता है। अनुकूलन की प्रक्रिया में दो बातें विशेष हैं। व्यक्ति अपने को परिस्थिति के अनुसार बना ले अथवा परिस्थितियों को अपनी आवश्यकता के अनुरूप बना ले।समाज के स्तर पर भी अनुकूलन होता है अनुकूलन के लिए समायोजन अभियोजन सात्मीकरण तथा एकीकरण आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है जो बताते हैं कि अनुकूलन किस सीमा तक होता है इस प्रकार अनुकूलन भी परिवर्तन का ही प्रकार है ।
क्रांति
जब समाज में शोषण अत्याचार तनाव व असंतोष आदि बढ़ जाता है तो राजनैतिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाती है और सामाजिक नैतिक मूल्यों में भी गिरावट आ जाती है समाज में तीव्रता से परिवर्तन आ जाता है ऐसी स्थिति क्रांति कहलाती है क्रांति प्रायर आर्थिक व राजनीतिक क्षेत्रों में तीव्रता से आती है।
हापर ने क्रांति की अवधारणा को इस प्रकार व्यक्त किया है सामाजिक क्रांति वह तीव्र परिवर्तन है जिसमें व्यक्तियों को एक दूसरे से संबंधित रखने वाले राजनैतिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाती है सरकार कार्यशील सत्ता के रूप में नहीं रह पाती इस स्थिति में समाज की मौलिक एकता समाप्त हो जाती है और एवं सामाजिक व नैतिक मूल्य समाप्त होने लगते हैं यदि क्रांति में अधिक तीव्रता आती है तो सभी प्रमुख संस्थाएं काफी परिवर्तित हो जाती है इस प्रकार राज्य धर्म परिवार व शिक्षा अपने मूल रूप से काफी बदल जाते हैं।
जब किसी समाज में असंतोष, शोषण, तनाव, अत्याचार आदि में वृद्धि होती है तो क्रांति जन्म लेती है। फ्रांस, रूस, चीन, क्यूबा आदि देशों में होने वाली क्रांति इसी बात की घोतक है। सामाजिक क्रांति दो प्रकार से हो सकती है हिंसात्मक एवं अहिंसात्मक तरीकों से। सेना व शक्ति के माध्यम से होने वाला परिवर्तन जिसमें खून बहाया जाता है। हिंसात्मक क्रांति कहलाती है। ऐसी क्रांति रूस और चीन में हुई थी। भारत में शांतिपूर्ण तरीकों से किए जाने वाले परिवर्तन अथवा औद्योगिक क्रांति अहिंसात्मक क्रांति के उदाहरण हैं। कुछ विद्वान क्रांति को विघटन की श्रेणी में रखते हैं जबकि कुछ इसे परिवर्तन का सशक्त माध्यम समझते हैं।
सामाजिक परिवर्तन के अन्य सिद्धांत
उपरोक्त सिद्धांतों के अतिरिक्त के सामाजिक परिवर्तन के कुछ अन्य सिद्धांत भी हैं जिनका हम यहां संक्षेप में उल्लेख करेंगे। माल्थस में सामाजिक परिवर्तन के लिए जनसंख्या वृद्धि का सिद्धांत प्रस्तुत किया। उनका मत है कि मानव समाज में खाद्य पदार्थों के उत्पादन की तुलना में जनसंख्या वृद्धि तीव्र गति से होती है। जनसंख्या वृद्धि ज्यामितिक प्रकार से अर्थात 1,2,4,8,16,32,64, के क्रम में होती है। इसकी तुलना में खाद्य सामग्री की वृद्धि अंकगणितीय प्रकार से अर्थात 1,2,3,4,5,6,7 के क्रम में होती है। फलस्वरूप एक समय ऐसा आता है जब जनसंख्या के लिए खाद्य पदार्थों का अभाव होता है। यदि बढ़ती जनसंख्या पर रोक नहीं लगाई जाती है तो किसी देश की जनसंख्या 25 वर्षों में दुगनी हो जाती है। जब जनसंख्या बढ़ती है या घटती है तो समाज में परिवर्तन घटित होते हैं।
सैडलर ने भी जनसंख्या संबंधी सिद्धांत का समर्थन किया और जनसंख्या वृद्धि का संबंध मानव की सुख समृद्धि एवं पारस्परिक संबंधों से जुड़ा है। वे यह मानते हैं कि मानव के विकास के साथ-साथ उसकी संतानोत्पत्ति की छमता में कमी आई है और सुख समृद्धि में वृद्धि हुई है। ये सभी बातें सामाजिक परिवर्तन के लिए भी उत्तरदाई हैं।
थामस ने धर्म को ही सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदाई माना। उनका मत है कि जब यूरोप में रोमन कैथोलिक धर्म था तो एक दूसरे प्रकार का समाज था किंतु जब प्रोटेस्टेंट धर्म आया तो आधुनिक पूंजीवादी समाज की नींव पड़ी। उन्होंने विश्व के 6 महान धर्मों ( हिंदू ईसाई इस्लाम चीनी आदि ) का अध्ययन करके बताया कि केवल प्रोटेस्टेंट धर्म में ही वे बातें मौजूद थी जो आधुनिक पूंजीवाद को जन्म दे सकती थी। प्रत्येक घर में आचरण के नियम पाए जाते हैं जो लोगों के विचारों एवं व्यवहारों को तय करते हैं। आता है जब धार में बदलता है तो समाज में भी परिवर्तन आता है। धर्म को वे परिवर्तन लाने वाला ' चल '( Variable) मानते हैं। प्रोटेस्टेंट धर्म की आर्थिक आचार संहिता में कुछ तत्व इस प्रकार के बताए गए हैं। ईमानदारी सबसे अच्छी नीति है, एक पैसा बचाना एक पैसा कमाना है, समय ही धन है, पैसा पैसे को पैदा करता है, जल्दी सोना और जल्दी जागना मनुष्य को स्वस्थ, अमीर और बुद्धिमान बनाता है, कार्य ही पूजा है इत्यादि। इन सभी आचार्य नियमों ने प्रोटेस्टेंट मतावलंबियों के जीवन एवं व्यवहार को प्रभावित किया और आधुनिक पूंजीवाद को जन्म दिया जिससे कि समाज व्यवस्था ही बदल गई। वेबर के सिद्धांत की भी कुछ कमियां है। वे यह स्पष्ट नहीं कर सके कि स्वयं धर्म परिवर्तन क्यों आता है।
आगबर्न ने अपनी पुस्तक Social change में 1922 मैं सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक विलंबना नामक सिद्धांत का प्रतिपादन किया। उन्होंने संस्कृति को दो भागों में बांटा भौतिक एवं अभौतिक संस्कृति। भौतिक संस्कृति के अंतर्गत हम हजारों भौतिक वस्तुओं जैसे वायुयान, रेल, पंखा, घड़ी, बर्तन, फर्नीचर, वस्त्र, पुस्तकें आदि को ले सकते हैं। अभौतिक संस्कृति में धर्म कला दर्शन ज्ञान विज्ञान विश्वास साहित्य आदि को ले सकते हैं। आगबर्न की मान्यता है कि पिछले कुछ वर्षों में दोनों ही संस्कृतियों में बहुत विकास हुआ है। उनका मत है कि अभौतिक संस्कृत की तुलना में भौतिक संस्कृति तीव्र गति से बदलती है। इस कारण भौतिक संस्कृति आगे बढ़ जाती है और अभौतिक संस्कृति उस से पिछड़ जाती है। भौतिक संस्कृति का आगे बढ़ जाना तथा अभौतिक संस्कृति का पीछे रह जाना ही सांस्कृतिक पिछड़न या सांस्कृतिक विलम्बना कहलाता है। यह तथा संस्कृति से असंतुलन की दशा है। इस असंतुलन को समाप्त करने के लिए सामान्य से तथा अनुकूलन का प्रयत्न किया जाता है इस दौरान समाज में भी परिवर्तन होते हैं इसी प्रकार से जब इन दो संस्कृतियों में असंतुलन पैदा होता है तो समाज पर भी इसका प्रभाव पड़ता है उसमें भी परिवर्तन आते हैं आगबर्न के इस सिद्धांत की चक्रीय व्याख्या सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारको के अंतर्गत की गई हैं।
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