नातेदारी व्यवस्था संगोत्रता एवं आवास के नियम
अंग्रेजी भाषा के kinshil शब्द की हिंदी संगोत्राता ,बंधुत्व,नातेदारी एवं स्वजनता की गई हैं। नातेदारी एवं विवाह जीवन के आधारभूत तथ्य हैं। यौन इच्छा विवाह को जन्म देती है और विवाह परिवार एवं नातेदारी को। सृष्टि के प्रारंभ से ही जिन बातों ने व्यक्तियों को एकता के सूत्र में बांधने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है और मैं आर्थिक हित और सम्मान सुरक्षा महत्वपूर्ण है। सामूहिक सुरक्षा की भावना ने ही कई छोटे-मोटे संघों के निर्माण की प्रेरणा दी जो परिवार से लेकर राष्ट्र तक है। समान भाषा धर्म जाति एवं राष्ट्र के लोगों के बीच व्यक्ति अपने को अधिक सुरक्षित महसूस करता है लेकिन इनसे भी अधिक सुरक्षित वह अपने को नातेदारों में पाता है। जिनके साथ उसके सामाजिक नैतिक आर्थिक हित जुड़े हुए हैं। यह राष्ट्रीयता धर्म प्रदेश सभी बदल सकता है परंतु नातेदार नहीं, इसमें रक्त का संबंध है। अतः जंगली और असभ्य जनजातियों से लेकर सभ्य समाजों तक इसे पुष्ट एवं विश्वसनीय माना जाता है।
उपर्युक्त संदर्भ में हम कह सकते हैं कि नातेदारी का प्रत्येक समाज में बहुत महत्व है। संगमन, गर्भावस्था, पितृत्त्व , समाजीकरण ,सहोदरता आदि जीवन के मूलभूत तथ्यों के साथ मानव व्यवहार का अध्ययन ही नातेदारी का अध्ययन है। मनुष्य समाज में जन्म के बाद से ही अनेक लोगों से संबंधित हो जाता है। इन संबंधों में रक्त एवं विवाह के आधार पर बने संबंध अधिक स्थाई एवं घनिष्ठ होते हैं। संबंधों का निर्माण मानव द्वारा की जाने वाली सामाजिक अंतः क्रिया का ही परिणाम है। जिन विशिष्ट सामाजिक संबंधों द्वारा मनुष्य बंधे होते हैं और जो संबंध समाज द्वारा स्वीकृत होते हैं उन्हें हम नातेदारी के अंतर्गत सम्मिलित करते हैं। यहां हम नातेदारी की परिभाषा एवं व्याख्या प्रस्तुत करेंगेसंगोत्रता नातेदारी का अर्थ एवं परिभाषा
चार्ल्स विनिक ने संगोत्रता नातेदारी को परिभाषित करते हुए लिखा है नातेदारी व्यवस्था में समाज द्वारा मान्यता प्राप्त वे संबंध आ सकते हैं जो की अनुमानित और वास्तविक वंशावली संबंधों पर आधारित हो।
रैडक्लिक ब्राउन के अनुसार नातेदारी सामाजिक उद्देश्यों के लिए स्वीकृति वंश संबंध है जो कि सामाजिक संबंधों के परम्परात्मक संबंधों का आधार है।
डॉ रिवर्स के अनुसार नातेदारी बंधुत्व की मेरी परिभाषा उस संबंध से है जो वंशावलियों के माध्यम से निर्धारित तथा वर्णित की जा सकती है।
लूसी मेयर के अनुसार बंधुत्व में सामाजिक संबंधों को जैविक शब्दो मे व्यक्त किया है।
रॉबिन फॉक्स के अनुसार नातेदारी की अत्यंत सरल परिभाषा यह है कि नातेदारी केवल मात्र स्वजन अर्थात वास्तविक ख्यात अथवा कल्पित समरक्तता वाले व्यक्तियों के मध्य संबंध है।
उपरोक्त परिभाषा ओं के विश्लेषण से स्पष्ट है कि हम नातेदारी में उन व्यक्तियों को सम्मिलित करते हैं जिनसे हमारा संबंध वंशावली के आधार पर होता है और वंशावली संबंध परिवार से पैदा होते हैं एवं परिवार पर ही निर्भर है ऐसे संबंधों को समाज की स्वीकृति आवश्यक है कभी-कभी प्राणी शास्त्रीय रूप से संबंध ना होने पर भी यदि उन संबंधों को समाज ने स्वीकार कर लिया है तो वे नातेदार माने जाते हैं। उदाहरण के लिए गोद लिया हुआ पुत्र पिता का असली पुत्र नहीं है परंतु उनके संबंधों को समाज ने स्वीकार कर लिया है अतः वे एक दूसरे के नातेदार माने जाते हैं। भारत में प्राचीन समय में विवाह के पूर्व ही किसी लड़की के होने वाला पुत्र या विवाह के बाद पति की स्वीकृति से दूसरे द्वारा उत्पन्न पुत्र ,जिसे क्षेत्रज कहते थे, भी नातेदारी में सम्मिलित था।
बहुपति विवाह ई टोडा जनजाति में बच्चे का प्राणी शास्त्रीय पिता कोई भी भाई हो सकता हैं परन्तु सामाजिक रूप से वही भाई पिता माना जायेगा जिसने ' परसुतपिमी ' संस्कार किया हो । यही बात हम देवर एवं साली विवाह में भी देख सकते हैं। देवर विवाह में एक पुरुष को अपने भाई की विधवा स्त्री से विवाह करने की स्वीकृति होती हैं। ऐसे विवाह से उत्पन्न संताने मृत भाई की ही मानी जाती हैं। साली विवाह में एक व्यक्ति को अपनी मृत पत्नी की बहन से विवाह करने की आज्ञा होती हैं और ऐसी बहन को अपनी मृत बहन का पद प्राप्त हो जाता हैं। अतः सामाजिक उद्देश्य के लिए रक्त या प्राणी शास्त्रीय संबंध नातेदारी में जरूरी नहीं है इसका कारण यह है कि नातेदारी एक सामाजिक तथ्य है जिसमें समाज की स्वीकृति महत्वपूर्ण है संबंधों की सामाजिक स्वीकृति के नियम भिन्न भिन्न समाजों व स्थानों पर भिन्न-भिन्न है। इसका कोई सर्वमान्य तरीका नहीं है। नातेदारों में हम रक्त संबंधियों एवं विवाह संबंधियों दोनों को सम्मिलित करते हैं रक्त संबंधों को हम नातेदारी की आंतरिक व्याख्या कह सकते हैं तो विवाह संबंधों को इसकी बाहरी व्यवस्था।
नातेदारी के भेद
सामाजिक संबंधों में से सार्वभौमिक और आधारभूत संबंध वे है जो प्रजनन पर आधारित होते हैं। प्रजनन की कामना दो प्रकार के संबंधों को जन्म देती है : माता-पिता एवं संतानों के बीच तथा भाई-बहनों के बीच बनने वाले संबंध इन्हे हम समरक्ताता के संबंध कहते हैं। पति पत्नी के मध्य बनने वाले एवं इन दोनों के पक्षों के बीच बनने वाले संबंध ,जिन्हें हम विवाह कहते हैं।
दोनों प्रकार के संबंधों का हम यहां संक्षेप में उल्लेख करेंगे
रक्त संबंधी नातेदारी
विवाह संबंधी नातेदारी
रक्त सम्बन्धी नातेदारी :- प्रजनन के आधार पर उत्पन्न होने वाले सामाजिक संबंधों में से एक प्रकार वह हैं जो रक्त या समरक्तता के आधार पर बनता है, जैसे माता पिता एवं संतानों के बीच का सम्बन्ध। संता ने माता-पिता से Genes ग्रहण करती हैं और ऐसी मान्यता है कि उनमें समान रक्त पाया जाता है । इसी प्रकार से भाई बहनों में भी रक्त सम्बंध होते हैं।
एक व्यक्ति के माता पिता ,भाई बहन ,दादा दादी ,मामा ,नाना नानी ,चाचा ,बुआ, आदि रक्त सम्बन्धी ही है। लेकिन रक्त सम्बन्धियो के बीच सदा ही प्राणी शास्त्रीय संबंध होना आवश्यक नहीं है। उनके बीच काल्पनिक सम्बन्ध भी हों सकते हैं। इन संबंधों को यदि समाज स्वीकृति दे देता हैं तो वे वास्तविक संबंधों कि तरह ही माने जाते हैं । अतः रक्त संबंधों में जैविक तथ्य इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि सामाजिक मान्यता का तथ्य।
दूसरे शब्दों में रक्त संबंध केवल प्राणी शास्त्रीय के आधार पर ही नहीं अपितु समाजशास्त्रीय आधार पर भी स्थापित हो सकता है। उदाहरणार्थ , जिन समाजों में बहुपति विवाह प्रथा का प्रचलन है वहां प्राणी शास्त्री आधारों पर यह निश्चित करना असंभव है कि कौन सा बच्चा किस पति का है। इसलिए वहां पर प्राणी शास्त्रीय पितृत्व को गौण मानकर समाजशास्त्रीय पितृत्व को अधिक मान्यता दी जाती है।
नीलागिरी की बहुपति विवाह टोडा जनजाति में सामाजिक पितृत्व का एक विशेष संस्कार ' पुरसुतपिमी ' द्वारा निश्चित किया जाता है। जो व्यक्ति गर्भवती स्त्री को उसके प्रसव के पांचवे महीने में धनुष बाण भेट करता हैं, वहीं उस स्त्री की होने वहीं सभी संतानों का पिता तब तक कहलाता रहता हैं जब तक दूसरा कोई पति उसी प्रकार का संस्कार न करे । उसी प्रकार हिन्दू तथा अन्य प्रायः सभी समाजों में बच्चों को गोद लेने की प्रथा है। गोद लिए हुए, बच्चों के साथ माता पुत्र या पुत्री ,पिता पुत्र या पुत्री आदि का सम्बन्ध स्थापित हो जाता हैं जो कि वास्तविक रक्त सम्बन्ध नहीं बल्कि अनुमानित रक्त सम्बन्ध पर आधारित होता है।
समाजों में हमें इसके अनेक उदाहरण देखने को मिलेंगे। मलेशिया के ट्रोब्रियांडा द्वीप निवासियों में वास्तविक पिता कभी कभी अज्ञात होता है लेकिन परंपरानुसार सन्तान का पिता वहीं माना जाता हैं जो उस लड़की से विवाह करता है। गोद लेने वाली प्रथा इसका सार्वभौमिक उदाहरण है। जिस व्यक्ति को गोद लिया जाता है उसके प्रति सभी जगह ऐसा व्यवहार किया जाता है जैसे वह जैविक रूप से उत्पन्न संतान हो। यदि वास्तविक रक्त संबंध ही ऐसे संबंधों का आधार होता है तो हम कई संबंधियों को एक ही नाम से क्यों पुकारते हैं ? जैसे पिता की आयु और माता की आयु के लोगो को पिता या माता शब्दों द्वारा सम्बोधित क्यों करते हैं ? कुछ लोग जय विकीय संबंधों की तुलना में संबंधियों द्वारा निभाए गए अधिकार एवं कर्त्तव्यों को अधिक महत्व देते हैं।
विवाह सम्बन्धी नातेदारी
प्रजनन पर आधारित नातेदारी में संबंधों में विवाह संबंध ही है जो विषम लिंगियों के बीच समाज की स्वीकृति के परिणाम स्वरूप की स्थापित होता है। केवल पति पत्नी ही विवाह संबंधी नहीं है वरन उन दोनों के परिवारों के अनेक संबंधी भी परस्पर विवाह संबंधी होते हैं जैसे सास, ससुर, ननद , भौजाई जीजा, साली, साला, संबंधी साढू,फूफा,भाभी,बहू आदि । इन संबंधों को दो व्यक्तियों के संदर्भ में ही प्रकट किया जाता है। जैसे सास बहू,ससुर बहु,पति पत्नी ,जीजा साली ,देवर भाभी, ननद भौजाई, साला बहनोई , मामी भानजा,भतीजा फूफा आदि। इन सभी संबंधियों के बीच सम्बंध का आधार रक्त न होकर विवाह है।
नातेदारी की श्रेणियां
हमारे जितने भी नातेदार हैं उन सब से हम समान रूप से संपर्क निकटता एवं घनिष्ठता नहीं रखते हैं।कुछ हमारे अधिक निकट है तो कुछ दूर । इस निकटता, घनिष्ठता एवं संपर्क के आधार पर हम नातेदारों को विभिन्न श्रेणियों में बांट सकते हैं। जैसे - प्राथमिक,द्वितीयक ,तृतीयक ,चतुर्थ एवं पंचम आदि।
मरडॉक ने नातेदारी की श्रेणियों का गहन अध्ययन किया है।
प्राथमिक सम्बन्धी वे व्यक्ति है जिनसे हमारा सीधा संबंध है या जिनके संबंध को प्रकट करने के लिए कोई और संबंधी बीच में नहीं है। एक परिवार में आठ प्रकार के प्राथमिक संबंधी हो सकते हैं जिनमें सात रक्त से संबंधित एवं एक विवाह से संबंधित होता है। पिता पुत्र, पिता पुत्री, माता पुत्र, माता पुत्री,भाई भाई, भाई बहन,बहन बहन,ये सभी रक्त सम्बन्धी हैं। पति पत्नी का प्राथमिक सम्बन्ध विवाह पर आधारित हैं।
द्वितीयक सम्बन्धी वे है जो उपर्युक्त प्राथमिक संबंधियों के प्राथमिक संबंधी है। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति का दादा उसका द्वितीयक सम्बन्धी हैं।क्योंकि दादा से पोते का सम्बन्ध पिता के द्वारा हैं और पिता तथा पिता के पिता ( दादा ) आपस में प्राथमिक संबंधी है। यह रक्त संबंधी द्वितीयक रिश्तेदार है।रक्त सम्बन्धी द्वितीयक रिश्तेदार है।रक्त सम्बन्धी द्वितीयक रिश्तेदारों के और उदाहरण हैं - चाचा भतीजा, मामा नाना, नानी आदि।विवाह द्वारा बने नातेदारों में भी द्वितीयक संबंधियों में हम सास ससुर, साला बहनोई, साली ,देवर भाभी, आदि को गिन सकते हैं। मरडॉक ने 33 प्रकार के द्वितीयक संबंधों का उल्लेख किया है।
तृतीयक सम्बन्धी वे है जो हमारे द्वितीयक सम्बन्धियो के प्राथमिक सम्बन्धी हैं या हमारे प्राथमिक सम्बन्धियो के द्वितीयक सम्बन्धी हैं।
पितामह हमारे तृतीयक सम्बन्धी हैं क्योंकि हमारे पिता प्राथमिक सम्बन्धी है और पिता के पिता द्वितीयक सम्बन्धी है ,अतः दादा के पिता हमारे तृतीयक सम्बन्धी होंगे । इसी तरह से साले का लड़का हमारा तृतीयक सम्बन्धी होगा क्योंकि साल हमारा द्वितीयक सम्बन्धी और उसका पुत्र तृतीयक होगा।
मरडॉक ने कुल 151 प्रकार के तृतीयक सम्बन्धियो का उल्लेख किया है। इस प्रकार संबंधों की यह श्रृंखला हुम् चतुर्थ पंचम षष्टम और आगे भी ले जा सकते हैं।
सम्बन्ध संज्ञाएँ -
मजूमदार एवं मदान के शब्दों में , सम्बन्ध (संगोत्र) सूचक शब्द ऐसी संज्ञाएँ होती हैं जिनका प्रयोग विभिन्न प्रकार के संबंधों के उल्लेख के लिए किया जाता हैं।
मरडॉक ने कुल 151 प्रकार के तृतीयक सम्बन्धियो का उल्लेख किया है। इस प्रकार संबंधों की यह श्रृंखला हुम् चतुर्थ पंचम षष्टम और आगे भी ले जा सकते हैं।
सम्बन्ध संज्ञाएँ -
मजूमदार एवं मदान के शब्दों में , सम्बन्ध (संगोत्र) सूचक शब्द ऐसी संज्ञाएँ होती हैं जिनका प्रयोग विभिन्न प्रकार के संबंधों के उल्लेख के लिए किया जाता हैं।
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