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सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ एवं परिभाषा

सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ एवं परिभाषा

आदिकाल से ही मानव समाज में असमानता व्याप्त रही है । ऐसा समाज जहां उसके सदस्यों में वास्तविक रूप में समानता हो और स्तरीकरण का अभाव हो , एक कोरी कल्पना है । मानव समाज के इतिहास में ऐसी स्थिति कभी नहीं रही । समनर की मान्यता है कि इतिहास में कभी भी ऐसा समय नहीं रहा है जिसमें वर्ग घृणा उपस्थित ना रही हो । अनेक मानव शास्त्रियों ने आदम समाजों में समानता का उल्लेख किया है किंतु उनमें भी आज के समाज की भांति सामाजिक विषमता के आधार पर समाज में उच्चता और निम्नता का भेद अवश्य रहा है । जैसा कि गिटलर कहते हैं, असमानता सभी संस्कृतियों की विशेषता है, यद्यपि एक समूह से दूसरे समूह में एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति में असमानता के विस्तार एवं प्रकार में अंतर पाया जाता है । हम प्रत्येक समाज में दो प्रकार का विभेदीकरण देख सकते हैं - व्यक्तिगत एवं सामाजिक । दो व्यक्तियों के बीच रंग, रूप, नाक, नक्श, लंबाई चौड़ाई, आयु एवं लिंग के आधार पर पाया जाने वाला अंतर व्यक्तिगत विभेदीकरण है । जबकि कार्य, धर्म, संस्कृति, रुचि, आर्थिक स्थिति, राजनीतिक सप्ताह एवं पद के आधार पर पाए जाने वाले अंतर को सामाजिक विभेदीकरण कहते हैं ।जब  सामाजिक विभेदीकरण में उच्चता एवं निम्नता के भाव जुड़ जाते हैं तो वह सामाजिक स्तरीकरण को जन्म देता है । स्तरीकरण के लिए प्राणी शास्त्रीय एवं सांस्कृतिक विशेषताएं उत्तरदाई है । मानव की सभ्यता एवं समाज के विकास के साथ-साथ सामाजिक असमानता बढ़ती गई और मानव समाज उच्च और निम्न इस तरह में विभाजित हो गया । समाज में व्याप्त उच्चता और निम्नता की स्थिति को ही हम सामाजिक स्तरीकरण कहते हैं । अन्य शब्दों में स्तरीकरण समाज के समूहों एवं सदस्यों के विभिन्न स्तरों में बटने की प्रक्रिया है । सामाजिक स्तरीकरण के द्वारा समाज में कार्य विभाजन करके सामाजिक एकता एवं संगठन को बनाए रखा जाता है और योग्य तथा बुद्धिमान व्यक्तियों को प्रोत्साहन दिया जाता है । प्रत्येक समाज में स्तरीकरण के लिए प्रदत्त और अर्जित दोनों ही आधार पाए जाते हैं ।
सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ एवं परिभाषा :-
सामाजिक स्तरीकरण समाज को उच्च एवं निम्न वर्गों में विभाजित करने और स्तर निर्माण करने की एक व्यवस्था है । स्तरीकरण शब्द समाजशास्त्र में भूगर्भ शास्त्र से लिया गया है । भूगर्भ शास्त्र में मिट्टी व चट्टानों को विभिन्न स्तरों में बांटा जाता है । समाज में भी उसी प्रकार की अनेक सामाजिक परतें पाई जाती है । प्रत्येक समाज अपनी जनसंख्या को आय, व्यवसाय, संपत्ति, जाति, धर्म, शिक्षा, प्रजाति एवं पदों के आधार पर निम्न एवं उच्च श्रेणियों में विभाजित करता है । प्रत्येक विभाजन एक परत के समान है और ये सभी परते जब उच्चता एवं निम्नता के क्रम में रखी जाती है तो सामाजिक स्तरीकरण के नाम से जानी जाती है । विभिन्न विद्वानों ने सामाजिक स्तरीकरण को इस प्रकार परिभाषित किया है :

जिसबर्ट के अनुसार, सामाजिक स्तरीकरण समाज का और स्थाई समूहों और श्रेणियों में विभाजन है जो कि आपस में श्रेष्ठता एवं अधीनता के संबंधों द्वारा सम्बद्ध होते हैं । "

रेमण्ड मूरे के अनुसार, स्तरीकरण उच्चतर एवं निम्नतर सामाजिक इकाइयों में समाज का क्षैतिज विभाजन है । "

सदरलैण्ड एवं वुडवर्ड के शब्दों में , स्तरीकरण केवल अंतः क्रिया अथवा विभेदीकरण की ही एक प्रक्रिया है जिसमें कुछ व्यक्तियों को दूसरे व्यक्तियों की तुलना में उच्च स्थिति प्राप्त होती है ।

टालकॉट पारसन्स के अनुसार , किसी समाज व्यवस्था में व्यक्तियों का ऊँचे और नीचे क्रम विन्यास मैं विभाजन ही स्तरीकरण है । "

आगबर्न एवं निमकॉफ के अनुसार , वह प्रक्रिया जिसके द्वारा व्यक्तियों एवं समूहों को थोड़े बहुत स्थाई प्रास्थितियों के उच्चता और निम्नता के क्रम में श्रेणीबद्ध किया जाता है स्तरीकरण के नाम से जानी जाती है ।
उपर्युक्त परिभाषा ओ से स्पष्ट है कि सामाजिक स्तरीकरण द्वारा समाज विभिन्न उच्च एवं निम्न समूहों में विभाजित एवं व्यवस्थित होता है तथा ये समूह परस्पर एक दूसरे से जुड़े होते हैं और सामाजिक एकता को बनाए रखते हुए समाज में स्थिरता कायम रखते हैं ।

सामाजिक स्तरीकरण एवं विभेदीकरण

सामाजिक स्तरीकरण को अधिक स्पष्टतः समझने के लिए विभेदीकरण की अवधारणा को समझ लेना भी आवश्यक है ।सामाजिक विभेदीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्तियों और समूहों को कुछ मूर्त आधारों पर विभाजित किया जाता है । उदाहरणार्थः , यदि आयु, लिंग, बुद्धि, व्यक्तित्व, धर्म, प्रजाति, शिक्षा, भाषा एवं संपत्ति आदि के आधार पर व्यक्तियों को अनेक वर्गों में विभाजित कर दिया जाए तो इस प्रक्रिया को हम सामाजिक विभेदीकरण कहेंगे । सामाजिक विभेदीकरण भी समाज में आदि काल से चला आ रहा है, प्राचीन समय से ही आयु, लिंग एवं रंग के आधार पर व्यक्तियों में भेद किया जाता रहा है । सामाजिक विभेदीकरण का अर्थ स्पष्ट करते हुए लम्ले लिखते हैं, विभेदीकरण से हमारा अर्थ उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा व्यक्ति भिन्नताओं का पोषण करते हैं, जिन्हें एक साथ रखने पर आरकेस्ट्रा के विभिन्न बादको की तरह एक पूर्णतया समन्वययुक्त संपूर्ण की रचना होती है ।

न्यूमेयर के अनुसार सामाजिक विभेदीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें अनेक जैविकीय , वंशानुगत और शारीरिक विशेषताओं जैसे आयु, लिंग प्रजाति, सपिण्डता , व्यक्तिगत व्यवसाय, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, सामाजिक स्थिति, सामाजिक उपलब्धियों, समूह की रचना और सामाजिक संबंधों के आधार पर अनेक व्यक्तियों और समूहों में सामाजिक विभिन्नता उत्पन्न हो जाती है । इस प्रकार सामाजिक भिन्नताएं विभेदीकरण की प्रक्रिया का आधार भी है और उपज भी । इन परी भाषाओं से स्पष्ट है कि व्यक्ति एवं समूहों में पाई जाने वाली विभिन्नताएं समाज में विभेदीकरण उत्पन्न करती है । सामाजिक विभेदीकरण को और अधिक स्पष्ट करने के लिए हम उसकी विशेषताओं का यहां उल्लेख करेंगे :

1. - विभेदीकरण एक तटस्थ अवधारणा है, उससे श्रेष्ठता एवं निम्नता के भाव प्रकट नहीं होते । उदाहरण के लिए हम लोगों को उनके लिंग के आधार पर स्त्री व पुरुषों में तथा आयु के आधार पर बालक, युवा और वृद्ध में विभाजित करते हैं तो यह विभेदीकरण कहलायेगा । इससे यह स्पष्ट नहीं होता है कि स्त्री व पुरुष, बालक, युवा एवं वृद्ध में कौन श्रेष्ठ हैं और कौन निम्न ।

2. - सामाजिक विभेदीकरण एक जागरूक प्रक्रिया है । इसका अर्थ है समाज का प्रत्येक व्यक्ति विभेदीकरण के प्रति जागरूक है । हर व्यक्ति यह जानता है कि वह लिंग, आयु, रंग एवं अन्य आधारों पर दूसरों से भिन्नता रखता है ।

3. - सामाजिक विभेदीकरण का निर्धारण बाह्म एवं स्पष्ट कारकों द्वारा किया जाता है । उदाहरण के रूप में लिंग, आयु, प्रजाति, सामाजिक प्रतिष्ठा एवं आर्थिक प्रगति के आधार पर हम व्यक्तियों में परस्पर भेद कर सकते हैं । यह आधार ही विभेदीकरण को विकसित करते हैं ।

4. - सामाजिक विभेदीकरण अवैयक्तिक हैं इसका संबंध राजस्थान समूह एवं समाज को भिन्नता के आधार पर विभाजित करने से है, उनमें विरोध या संघर्ष पैदा करने से नहीं ।

5. - विभेदीकरण एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है । यह आदिकाल से सभी समाजों में व्याप्त रही है ।

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