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धर्म की उत्पत्ति के सिद्धांतों और विशेषताओं को विस्तारपूर्वक लिखिए ?

धर्म की उत्पत्ति के सिद्धांतों और विशेषताओं को विस्तारपूर्वक लिखिए ?

मानव समाज में धर्म की उत्पत्ति कैसे हुई और उसका प्रारंभिक रूप क्या था इस संबंध में मानव शास्त्रियों ने अलग-अलग विचार व्यक्त किए हैं । विकासवादी लेखकों के अनुसार आधुनिक सभ्य समाज जनजातीय या आदिकालीन समाजों का ही क्रमिक विकसित रूप है, इस कारण धर्म की उत्पत्ति भी सर्वप्रथम जनजातीय समाजों में ही हुई होगी । अतः अनेक मानव शास्त्री जनजातियों के जीवन का विश्लेषण करके धर्म की उत्पत्ति और उसके प्रारंभिक रूप को ढूंढने का प्रयत्न करते हैं । यहां हम धर्म की उत्पत्ति के कुछ प्रमुख सिद्धांतों की विवेचना करेंगे ।

आ. - आत्मावाद या जीववाद :-
श्री एडवर्ड टॉयलर इस सिद्धांत के प्रवर्तक हैं । आपके अनुसार आत्मा की धारणा ही " आदिम मनुष्यों से लेकर सभ्य मनुष्यों तक के धर्म के दर्शन का आधार है । यह आत्मावाद दो वृहत विश्वासों में विभाजित है - प्रथम तो यह कि मनुष्य की आत्मा का अस्तित्व मृत्यु या शरीर के नष्ट होने के पश्चात भी बना रहता है और दूसरा यह है कि मनुष्यों की आत्माओं के अतिरिक्त शक्तिशाली देवताओं की अन्य आत्माएं भी होती है । श्री टायलर के अनुसार आत्माएं प्रेतात्माओं से लेकर शक्तिशाली देवताओं की श्रेणी तक की होती है । ये पारलौकिक आत्माएं केवल अमर ही नहीं है वरन वे इस भौतिक संसार की सब घटनाओं को तथा मनुष्य के जीवन की दिशा को भी निर्देशित व नियंत्रित करती हैं । इसीलिए लोग इन आत्माओं से डरते हैं या श्रद्धा भक्ति करते हैं, जिससे कि धर्म की उत्पत्ति होती है ।
      अतः स्पष्ट है कि श्री टायलर के अनुसार धर्म की उत्पत्ति में आत्माओं पर विश्वास ही सर्व प्रमुख है । परंतु आत्माओं पर विश्वास आदिवासियों को कैसे हुआ ? इस प्रश्न के उत्तर में श्री टायलर का कथन है कि आत्माओं पर विश्वास आदिवासियों के रोज के जीवन से संबंधित दो प्रकार के अनुभवों के कारण विशेष रूप से उत्पन्न हुआ । वो दो अनुभव ( अ ) मृत्यु और ( ब ) स्वप्न थे । एक जीवित और एक मृत व्यक्ति के बीच पाए जाने वाले भेदों को देखकर आदिम मनुष्य के मस्तिष्क में यह बात आई कि जीवित व्यक्ति के शरीर के अंदर अवश्य ही कोई ना कोई ऐसी चीज या शक्ति रहती है जिसके चले जाने पर अर्थात शरीर से निकल जाने पर शरीर क्रिया हीनं हो जाता है। उस अवस्था में मनुष्य ना बोल पाता है न खा सकता है, ना चल पाता हैं और ना ही अन्य कोई कार्य कर सकता है । पर यह चीज या शक्ति क्या है ? इसका उत्तर स्वप्न तथा अन्य अनुभवों ने दिया । मनुष्य अपनी आवाज की गूंज सुनता था, अपनी परछाई देखता था और स्वप्न में अनेक प्रकार के कार्य करता था, अपने को और दूसरे अनेक जीवित और मृत व्यक्तियों को उस सपने में देखता भी था । शरीर से संबंधित इन चीजों को ही मनुष्य ने "आत्मा" का नाम लिया जो कि उसके उपरोक्त अनुभवों के अनुसार " एक पतली निराकार मानव प्रतिमूर्ति, आकृति में कोहरा, चलचित्र या छाया की भांति है । "
      फिर भी इस संबंध में मनुष्य की एक शंका बनी ही रही और वह यह कि सोते समय भी तो मनुष्य मृत तुल्य होता है, पर सपनों में कोई चीज जैसा कि शरीर से निकालकर विभिन्न स्थानों में जाती है अनेक प्रकार का कार्य करती है और अनेक जीवित और मृत व्यक्तियों से मिलती है और अंत में एक समय अपनी इच्छा अनुसार फिर लौट आती है और मनुष्य नींद टूटने पर फिर पूर्ववत हो जाता है । अर्थात यह दूसरी शक्ति पहली शक्ति की तरह नहीं है कि शरीर से एक बार निकल जाने के बाद फिर लौट कर नहीं आती । यह स्वतंत्र शक्ति है जो अपनी इच्छा अनुसार शरीर से बाहर निकल जाती है और परछाई के रूप में दिखाई देती है, आवाज की प्रतिध्वनि करती है और सपनों में अनेक प्रकार का अनुभव करती है । संक्षेप में, सपनों के आधार पर आदिमानव दो निष्कर्षों पर आता है - प्रथम तो यह कि आत्माएं दो है - (अ ) - स्वतंत्र आत्मा जो शरीर के बाहर जाकर विभिन्न प्रकार के अनुभव करने और फिर वापस चले जाने के संबंध में स्वतंत्र है ; और ( ब ) शरीर आत्मा जो एक बार शरीर छोड़कर चले जाने के बाद फिर लौट कर नहीं आती और मनुष्य मर जाता है । दूसरा निष्कर्ष दिया था कि आत्मा अमर है क्योंकि सपनों में वह व्यक्ति दिखाई देते हैं जो बहुत पहले ही मर चुके हैं । अगर आत्मा अमर ना होती तो उन्हें फिर से देखना कैसे संभव होता ?
   टायलर के अनुसार आदिम मानव में यह विश्वास है कि यह आत्माएं मनुष्य के नियंत्रण के बाहर हैं । साथ ही, या अभी माना जाता है कि यह आत्माएं मनुष्यों से संबंध बनाए रखती हैं, मनुष्य के अच्छे बुरे कार्यों से इन आत्माओं को दुख और सुख होता है । इसके अतिरिक्त, इन आत्माओं को प्रसन्न रखने से मनुष्य को लाभ और इनके अप्रसन्न होने पर मनुष्य को नुकसान हो सकता है । इसलिए इनकी बिनती या आराधना करना आवश्यक है जिससे वे हमारा अनिष्ट ना करें । इस विश्वास को लेकर आदि मनुष्यों ने पितरों की विनती आरंभ की और यही आगे चलकर धर्म के रूप में विकसित हुई ।

उपरोक्त विवेचना के आधार पर आत्मावाद की निम्नलिखित विशेषताएं उल्लेखनीय है -

1. - आत्मावाद का मूलाधार आत्माओं के अस्तित्व में विश्वास है । यह "वाद" यह विश्वास करता है कि मनुष्यों की आत्माओं के अलावा दूसरी प्रकार की आत्माएं भी है जिनमें प्रेत आत्माओं से लेकर शक्तिशाली देवताओं की श्रेणी तक की सभी आत्माएं सम्मिलित हैं । इस प्रकार आत्मावाद में आत्मा एक नहीं अनेक है दूसरे शब्दों में आत्मावाद अनेक आत्माओं पर विश्वास है ।

2. - इन आत्माओं की अवधारणा का जन्म आदिम मनुष्यों के रोज के जीवन में होने वाले अनुभवों के कारण हुआ । इन अनुभवों में मृत्यु और स्वप्न सर्वप्रमुख थे । इनके अतिरिक्त आवाज का गूंजना, परछाई आदि को देखना इस प्रक्रिया में सहायक सिद्ध हुए ।

3. - इन अनुभवों के आधार पर आत्माओं को दो मुख्य श्रेणियों में बांटा गया - स्वतन्त्र आत्मा , जिसका की अस्तित्व शरीर नष्ट हो जाने के बाद समाप्त हो जाता है और दूसरी शरीर आत्मा जो कि मनुष्य की मृत्यु या शरीर नष्ट हो जाने के बाद भी जीवित रहती है । आत्मावाद का संबंध इन अमर आत्माओं से ही है ।

4. - ये आत्माएं इस भौतिक संसार की सब घटनाओं को तथा मनुष्यों के वर्तमान तथा पारलौकिक जीवन को प्रभावित या नियंत्रित करती हैं । आत्मावाद में यह विश्वास उल्लेखनीय है । यदि किसी समाज में मनुष्यों में यह विश्वास नहीं है तो ऐसे समाज में आत्मावाद का जन्म नहीं हो सकता ।

5. - उपरोक्त विश्वास अपने आप, अनिवार्य और सक्रिय रूप से मनुष्य को इस बात के लिए प्रेरित करता है कि वह उन प्रभावशाली आत्माओं को प्रसन्न करने के लिए उनकी आराधना, प्रार्थना या पूजा करें । आत्माओं की पूजा ही धर्म का प्रारंभिक रूप है ।

समालोचना - सर्वश्री लैंग, मैरेट, वून्ट, जेवन्स आदि विद्वानों ने श्री टायलर के सिद्धांत की जो समालोचना की है उसमें से निम्नलिखित उल्लेखनीय है -

1. - श्री टायलर के सिद्धांत की सर्वप्रमुख दुर्बलता यह है कि आपने आदिम मनुष्य को अत्यधिक तर्क युक्त दार्शनिक के रूप में मान लिया है । आत्मावाद के सिद्धांत को देखने से पता लगता है कि संपूर्ण सिद्धांत को बहुत सिलसिलेवार प्रस्तुत किया गया है । इतने सिलसिलेवार से आदिम मनुष्य तो क्या आधुनिक मनुष्य भी सोच नहीं सकता । इसलिए हम कह सकते हैं कि इतने क्रमबद्ध रूप से आत्मा की धारणा को विकसित करना आदिम मनुष्य के लिए संभव नहीं था जैसा कि श्री टायलर ने सोचा है ।

2. - श्री टायलर के सिद्धांत से यह पता चलता है कि आदिम समाजों से धर्म का स्वरूप आत्माओं पर विश्वास और उनकी पूजा या आराधना है । दूसरे शब्दों में, श्री टायलर मैं अपने सिद्धांत के माध्यम से यह विचार प्रस्तुत किया है कि जनजातियों में ऊँचे देवताओं की धारणा नहीं होती । श्री एंड्रयू लैंग के अनुसार श्री टायलर का यह विचार गलत है । उन्होंने लिखा है कि आस्ट्रेलिया के आदिवासियों में नैतिक दृष्टि से विशुद्ध सृष्टिकर्त्ता या ईश्वर की धारणा पाई जाती है । श्री श्मिट (schmidt) ने भी श्री लैंग के विचारों का जोरदार समर्थन करते हुए कहा कि कुछ नीग्रिटो जनजातियों में, अमेरिका के कैलिफोर्निया की जनजातियों में और

फ़्यूजी जनजातियों में परमेश्वर की धारणा पाई जाती है । इन तथ्यों के आधार पर श्री टायलर के इस मत से सहमत होना उचित नहीं होगा की जनजातियों के धर्म में अर्थात प्रारंभिक रूप के धर्म से केवल आत्मा की धारणाओं और ऊंचे देवताओं की धारणा का विकास बाद में हुआ ।

3. -
मैरेट का कथन है कि श्री टायलर ने अपने सिद्धांत में केवल आत्मा पर विश्वास का ही उल्लेख किया है परंतु जनजातियों की जीवन का गहन अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि जनजातीय लोग दूसरी ऐसी शक्तियों में भी विश्वास करते हैं, जो कि आत्मा की शक्ति से भिन्न है । इसलिए केवल आत्मा की धारणा को ही जनजातीय धर्म का आधार मानना उचित न होगा, क्योंकि जनजातियों में अन्य धारणाएं भी महत्वपूर्ण है । इसी के आधार पर श्री मैरेट ने अपने जीवित सत्तावाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया ।

4. - श्री टायलर ने धर्म को अति सरल रूप में प्रस्तुत किया है और इसलिए उसकी उत्पत्ति को भी सरल ही मान लिया है । परंतु धर्म इतनी सरल संस्था नहीं है जितना कि श्री टायलर ने सोचा है । धर्म की उत्पत्ति परछाई, स्वप्न, प्रतिध्वनि आदि कुछ सीमित अनुभवों के आधार पर हुई है यह सोचना गलत है ।

5. - श्री टायलर के कुछ आलोचकों के अनुसार धर्म एक सामाजिक घटना है । इस कारण इसकी उत्पत्ति में सामाजिक कारण अवश्य ही महत्वपूर्ण है । परन्तु श्री टायलर ने धर्म के ' सामाजिक उपादानों " की सर्वथा अवहेलना की है ।

श्री टायलर के सिद्धान्त में उपरोक्त कमियां होने पर भी यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि श्री टायलर ही प्रथम विद्वान थे जिन्होंने धर्म की एक स्पष्ट परिभाषा और धर्म की उत्पत्ति का एक स्पष्ट कारण प्रस्तुत किया, जिसके कारण बाद में मानव शास्त्रियों को इस प्रश्न पर विचार करने के लिए एक सीधा रास्ता मिल गया ।

ब . - जीवित सत्तावाद व मानावाद :- जीवित सत्तावाद या जीविवाद के प्रमुख समर्थकों में प्रीयस (preuss) और मैक्समूलर (Max Muller ) उल्लेखनीय है । इनके अनुसार प्रत्येक पदार्थ में चाहे वह चेतन हो या जड़,एक जीवित सत्ता हैं । वह सत्ता अलौकिक हैं और इसे प्रसन्न रखना लाभदायक सिद्ध होता हैं । इन विद्वानों के अनुसार इसी अलौकिक सत्ता या शक्ति की आराधना ही सबसे प्रारंभिक धर्म था ।

श्री कॉडरिंगटन के मेलानेशिया की जनजातियों के सम्बन्ध में अनुसंधानों के आधार पर हाल ही में श्री मैरेट ने जीवित सत्ता वाद के सिद्धांत को एक नए रूप में प्रस्तुत किया है । मानावाद कहते है । इसके अनुसार धर्म की उत्पत्ति "आत्मा" की धारणा से नहीं, "माना " की धारणा से हुई है । ( मेलानेशिया की जनजातियों में " माना " की अवधारणा की दो प्रमुख विशेषताएं हैं उसके आधार पर श्री कॉडरिंगटन ने " माना " को इस प्रकार परिभाषित किया है ; " माना " एक शक्ति है जो कि भावती किया शारीरिक शक्ति से सर्वथा भिन्न है ; यह भले और बुरे सभी रूपों में कार्य करती है और इस पर आधिपत्य या नियंत्रण पाना अत्यंत लाभदायक है । या एक शक्ति या प्रभाव तो अवश्य है, पर शारीरिक शक्ति नहीं हैं, और एक अर्थ में यह अलौकिक है, किंतु यह शारीरिक शक्ति या अन्य किसी प्रकार की शक्ति या क्षमता में, जिसका कि एक मनुष्य अधिकारी है, अपने को प्रकट करती है । यह अलौकिक इस अर्थ में है कि क्या सब चीजों पर प्रभाव डालने के लिए जिस रूप में कार्य करती है, वह मनुष्य की साधारण शक्ति से परे है और प्रकृति की धारणा प्रक्रियाओं के बाहर है ।

उपरोक्त परिभाषा के आधार पर हम " माना " की निम्नलिखित प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कर सकते हैं -

1. - " माना " शारीरिक शक्ति नहीं है । यह शारीरिक शक्ति से सर्वथा भिन्न है । यह एक अलौकिक शक्ति है और वह इस अर्थ में किया प्रत्येक वस्तु को प्रभावित करने वाले ऐसे कार्यों को करती है जो साधारण मनुष्यों की शक्ति से और प्रकृति की सामान्य प्रक्रियाओं से परे हैं ।

2. - " माना " अलौकिक शक्ति होते हुए भी शारीरिक शक्ति या अन्य प्रकार की शक्तियों में प्रगट होती है। अर्थात " माना " की सत्य की क्रियाशीलता का आधार शारीरिक शक्ति या वे अन्य प्रकार की शक्तियां हैं जिन्हें मनुष्य पाना चाहता है ।

3. - " माना " की शक्ति का कोई शारीरिक रूप नहीं है । इसलिए एक व्यक्ति को अशरीरी कहा जाता हैं । चूँकि यह शक्ति अलौकिक तथा अशरीरी हैं, इस कारण इसका ज्ञान इंद्रियों द्वारा नहीं किया जा सकता ।

4. - यह हो सकता है कि " माना " की शक्ति किसी चीज में कम और किसी में अधिक हो, पर होगी यह सब में ।

5. - " माना " का प्रभाव अच्छा और बुरा दोनों तरीकों का हो सकता है । दूसरे शब्दों में इस शक्ति से हमें हानि व लाभ दोनों ही हो सकते हैं ।

6. - " माना " की एक और प्रमुख विशेषता यह है कि यह बिजली की करेण्ट या शक्ति की तरह होती है जो व्यक्तियों और चीजों को प्रभावित कर सकती है और जो एक से दूसरे में आ और जा सकती है । कोई आशातीत सफलता " माना " के कारण और असफलता इसके अभाव के कारण होती है ।

मेलानेशिया की जनजातियों में यह विश्वास है कि किसी काम में भी उन्हें तब तक सफलता नहीं मिल सकती जब तक की " माना " सहायक ना हो । युद्ध में योद्धाओं को विजय " माना " के कारण मिलती है, शिकार में शिकारियों की सफलता का कारण भी " माना " हैं और जाल में आकर मछलियों का हंसना भी उसी " माना " की शक्ति की एक अभिव्यक्ति है ।

उपरोक्त आधार पर मैरेट ने यह निष्कर्ष निकाला कि आदिकालीन समाज के लोग विश्व की सभी जड़ और चेतन वस्तुओं में " माना " के आधार पर एक अवैयक्तिक या अशरीरी, उत्प्राकृतिक , अलौकिक तथा दैवीय जीवित सत्ता पर विश्वास करते थे । इस सत्ता या शक्ति का प्रभाव अच्छा और बुरा दोनों प्रकार का होता है और इसका ज्ञान इंद्रियों द्वारा नहीं किया जा सका । इसी कारण आदिकालीन समाज के लोग इस शक्ति को ही सब कुछ मानकर इसके सम्मुख नतमस्तक हुए और अपने जीवन में अधिकाधिक सफलता पाने और शक्ति व बुरे प्रभावों से बचने के लिए उस सत्ता या शक्ति की आराधना करने लगे। यही धर्म का प्रारंभिक रूप था ।

अनेक विद्वानों ने मानावाद के सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया है । दुर्खीम ने इस सिद्धांत की जो आलोचना की है वह निम्नवत है ।

1. - "मानावाद" की सर्वप्रथम दुर्बलता यह है कि इस सिद्धांत में इस बात की स्पष्ट व्याख्या नहीं मिलती की " माना " की अवधारणा का जन्म कैसे हुआ । एवं अशरीरी या अलौकिक शक्ति की धारणा को पनपने के लिए किसी ना किसी आधार की आवश्यकता होती है । इस शक्ति के बारे में केवल कल्पना की सहायता से सब कुछ सोच सके, इतनी उच्च कोटि का दार्शनिक आदिमानव कदापि न था और ना ही होना संभव था । परंतु मैरेट ,

कॉडरिंगटन आदि विद्वानों ने अपने सिद्धांत में आदिम मनुष्यों को उसी रूप में प्रस्तुत करने या मान लेने की गलती की है ।

2. - धर्म एक सामाजिक तथ्य है और सामाजिक तथ्य व्यक्ति के मस्तिष्क में नहीं वरन मस्तिष्क के बाहर वास्तविक सामाजिक परिस्थिति में निवास करता है । इस कारण धर्म की उत्पत्ति का कारण समाज में न ढूंढ कर व्यक्ति के मस्तिष्क में ढूंढने का प्रयत्न करना उचित नहीं होगा ।

3. - मानावाद का एक बहुत बड़ा दोष यह भी है कि यह धार्मिक जीवन के केवल कुछ भागों पर ही प्रकाश डालता है । अगर हम आदिमानव के धर्म तथा जादू से संबंधित विश्वासों का गहन अध्ययन करें तो यह स्पष्ट होगा कि उन विश्वासों की संख्या इतनी अधिक है कि उन सबको " माना " के आधार पर नहीं समझा जा सकता ।

4. - दुर्खीम का यह भी कहना है किसी भी धर्म में एक विशेष बात यह होती है कि उसमें पवित्र और अपवित्र वस्तुओं में एक स्पष्ट भेद माना जाता है । धर्म का सम्बन्ध " पवित्र " से होता है परंतु मानावाद मैं इस धारणा का कोई भी आभास नहीं होता ।

5. - मानावाद का सिद्धांत अस्पष्ट इस अर्थ में भी है कि इसमें अशरीरी तथा अलौकिक शक्ति को स्पष्ट रूप से परिभाषित करने का कोई भी प्रयास नहीं किया गया है । फलतः धार्मिक सामाजिक घटना होते हुए भी वास्तविक संसार से बहुत दूर हो गया है जो कि उसे इतना अस्पष्ट कर देता है जितना कि वास्तव में ना तो वह कभी था और ना ही आज है । दुर्खीम का दावा है कि इस सिद्धांत में यह कमी कदापि न पनपती अगर इस के प्रतिपादक सामाजिक कारको की पूर्णतया अवहेलना न करते ।

मानावाद और आत्मावाद में अंतर :- मानावाद और आत्मावाद के संबंध में उपरोक्त विवेचना के आधार पर हम इन दोनों में निम्नलिखित अंतर पाते हैं ।

1. - मानावाद एकत्ववादी और आत्मावाद बहुत्ववादी हैं - आत्मावाद का अर्थ आत्माओं में विश्वास है । ये आत्माएं अनेक है हैं, क्योंकि ये पूर्वज, भूत प्रेत,राक्षस, पिशाच किसी की भी आत्मा हो सकती है और अलौकिक शक्ति, जिस पर की विश्वास किया जाता है,का प्रकट रूप इन्हीं में से कुछ भी हो सकता है । ये आत्माएं पशु पक्षी,चट्टान किसी में भी निवास कर सकती है । अतः स्पष्ट है कि आत्मावाद में अलौकिक सत्य की धारणा कोई एक निश्चित रूप प्रकट नहीं करती, क्योंकि आत्माएं भी एक नहीं अनेक होती हैं । इस अर्थ में आत्मावाद बहुत्ववादी हैं । इसके विपरीत माना वाद का संबंध अनेक आत्माओं से नहीं,वरन एक अशरीरी, उत्प्राकृतिक तथा अलौकिक शक्ति या सत्ता से है जो कि सभी जड़ और चेतन वस्तुओं में छाई हुई है । आत्माएं अनेक होती हैं इनके अनेक रूप हैं परंतु जीवित सत्ता अनेक नहीं, अनेक वस्तुओं में एक है । इस प्रकार मानावाद का जीवितसत्तावाद एकत्ववादी हैं ।

2. - मानावाद अवैयक्तिक या अशरीरी शक्ति पर विश्वास हैं, आत्मावाद वैयक्तिक शक्ति पर :- आत्मावाद में आत्मा किसी पूर्वज, भूत प्रेत विशेष की होती है और प्रत्येक आत्मा का संबंध एक विशेष व्यक्ति से ही होता है । इस अर्थ में आत्मावाद वैयक्तिक शक्ति पर विश्वास हैं । इसके विपरीत मानावाद एक अशरीरी और अवैयक्तिक शक्ति पर विश्वास करता है, जिसका संबंध किसी भी व्यक्ति विशेष से नहीं है । यह शक्ति प्रत्येक में एक ही है, यद्यपि इस शक्ति की मात्रा किसी चीज में कम और किसी में अधिक होती है ।

3. - आत्मावाद सीमित है,मानावाद व्यापक है :- आत्मावाद का क्षेत्र अधिक व्यापक नहीं है क्योंकि इसमें वैयक्तिक आत्मा की अवधारणा पर विशेष बल दिया जाता है । आत्मा का दर्शन प्रत्येक चीज में नहीं होता । परंतु मानावाद में " माना " सर्वव्यापक और सृष्टि की समस्त वस्तुओं में पाया जाता है । आत्मा का क्षेत्र सीमित और " माना का सर्वव्यापी हैं ।

स . - प्रकृतिवाद :- श्री मैक्समूलर का प्रकृतिवाद भी जीवित सत्ता वाद का ही एक रूप है । आदिकालीन मानव का जीवन प्रकृति की गोद में ही पलता है । प्रकृति की विभिन्न चीजों से उसे लाभ व हानि दोनों ही होते है । उदाहरणार्थः, सूर्य से उसे धूप मिलती है जोकि ठंड से उसकी रक्षा करती थी अर्थात ठण्ड में उसे आराम पहुँचाती थी । दूसरी ओर आंधी उसकी झोपड़ी को उड़ा कर ले जाती थी; बिजली गिर कर उसके पेड़ और घर को जला देती थी । ऐसी अवस्था में प्रकृति के विभिन्न रूपों को देखकर आदि काल में मानव के मन में श्रद्धा, भय,आतंक, आश्चर्य आदि होना स्वाभाविक ही था । इन मानसिक भावनाओं के कारण यह प्रकृति से ऐसा डरने लगा या उसे इतनी श्रद्धा करने लगा जैसे किसी जानवर वस्तु से डरता या श्रद्धा करता था ।

प्रकृति की विभिन्न चीजों को देखकर उसके मन में यह भावना उत्पन्न हुई कि वे भी कोई जानदार चीजें हैं और साथ ही अधिक शक्तिशाली । उदाहरण के लिए, आदिमानव ने यह देखा कि जिस झोपड़ी को उसने बहुत दिनों के परिश्रम से बड़ी मुश्किल से बनाया था उसे आंधी ने एक मिनट में उड़ा कर फेंक दिया । इस दृश्य को देखकर उसके दिल में या भावना उत्पन्न होनी स्वाभाविक ही थी कि कोई ऐसी शक्ति है जो कि दिखाई तो नहीं देती पर है मनुष्य से कहीं अधिक शक्तिशाली । इसीलिए उसके प्रति उन लोगों के दिल में श्रद्धा, भक्ति, भय आदि उत्पन्न हुए । इसी के आधार पर संस्कृत और भाषा शास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान मैक्समूलर ने यह निष्कर्ष निकाला कि धर्म की उत्पत्ति का प्रथम चरण प्रकृति के विभिन्न पदार्थों जैसे सूर्य, चंद्रमा, अग्नि, वायु, और यहां तक कि कुछ पेड़ पौधे आदि की आराधना थी । मिस्र में तथा अन्यत्र हुई खुदाइयों से इस विचार की पुष्टि मिली । मिस्र मैं सबसे बड़ा देवता ' रा ' अर्थात सूर्य था । यह कहा जाता है कि प्रकृति के विभिन्न पदार्थों को सजीव समझना और उनके प्रति श्रद्धा, प्रेम या भय की भावना का जन्म दोषपूर्ण भाषा के कारण हुआ । प्रायः कहा जाता है कि सूर्य उदय और अस्त होता है, आंधी आ रही है इत्यादि । परंतु वास्तव में सूर्य ना तो उदय ही होता है और ना ही अस्त होता है । पर कुछ भी हो, आदिमानव प्रकृति की इस असीम विशालता के सम्मुख नतमस्तक होता है और धर्म की प्रथम नीव पड़ती है ।

इस सिद्धांत की जो समालोचना आधुनिक मानव शास्त्री करते हैं उनमें से तीन उल्लेखनीय है -

1. - प्रकृति की पूजा से धर्म की उत्पत्ति की व्याख्या बहुत ही संकुचित विश्लेषण प्रतीत होती है । केवल प्रकृति की पूजा से ही धर्म की उत्पत्ति कैसे संभव है, इसे मैक्स मूलर उचित ढंग से नहीं समझा पाए हैं ।

2. - दोषपूर्ण भाषा के आधार पर प्रकृति के पदार्थों को सजीव समझने की बात भी कुछ स्पष्ट प्रतीत नहीं होती ।

3. - धर्म एक सामाजिक संस्था है, परंतु मैक्स मूलर के सिद्धांत में धर्म की उत्पत्ति में सामाजिक कारकों को कोई भी स्थान प्राप्त नहीं है । इस सिद्धांत की या एक बहुत बड़ी दुर्बलता है ।

द . - फ्रेजर के अनुसार, सर्वप्रथम आदिम मनुष्यों ने जादू टोने के द्वारा प्रकृति पर नियंत्रण करके अपने उद्देश्यों की पूर्ति करने का प्रयत्न किया और असफल होने पर यह मान लिया कि संसार में उनसे भी कोई अधिक शक्तिशाली है जो उनके प्रयत्नों को व्यर्थ करता है, अतः उस शक्ति पर जादू टोने के द्वारा शासन करना कदापि संभव नहीं है । इस धारणा के फल स्वरुप ही वह उस शक्ति पर शासन करने की इच्छा त्याग कर उसकी आराधना करने लगता है और इसी से धर्म की उत्पत्ति होती है । संक्षेप में फ्रेजर के अनुसार धर्म की प्राथमिक अवस्था जादू टोना है और जादू टोने से निराश होकर ही लोगों ने धर्म की अर्थात किसी अलौकिक व महान शक्ति की शरण ली थी । इस प्रकार धर्म प्रकृति के द्वारा पराजित मनोवृति का ही परिणाम है ।

फ्रेजर के सिद्धांत की सबसे प्रमुख दुर्बलता यह है कि इन्होंने सामाजिक विकास में एक ऐसी स्थिति की भी कल्पना की है जब केवल जादू टोने का ही राज्य था । वास्तव में ऐसी किसी स्थिति के पक्ष में कोई भरोसे योग्य प्रमाण नहीं मिलता है ।

द . - धर्म का सामाजिक सिद्धांत :- दुर्खीम ने अपनी पुस्तक ' The Elementary Forms of Religious Life ' में धर्म की प्रकृति, उत्पत्ति के कारण, प्रभाव आदि के विषय में अत्यधिक विस्तृत तथा सूक्ष्म व्याख्या प्रस्तुत की है । अपने धर्म संबंधी सिद्धांत के द्वारा आपने यह प्रमाणित करने का प्रयत्न किया है कि धर्म संपूर्ण रूप से एक सामाजिक तथ्य या सामाजिक घटना है और वह इस अर्थ में कि नैतिक रूप से सामूहिक चेतना का प्रतीक ही धर्म है । इस सम्बन्ध में , जैसा कि हम आगे चलकर देखेंगे, दुर्खीम का अंतिम निष्कर्ष यह है कि " समाज ही वास्तविक देवता है ।"

अपने धर्म के सामाजिक सिद्धांत को प्रस्तुत करते हुए दुर्खीम ने धर्म संबंधी अब तक के सभी सिद्धांतों का खंडन किया है । उनका कहना है कि इन सिद्धांतों में धर्म की उत्पत्ति के संबंध में बताए गए कारण केवल अपर्याप्त ही नहीं, बल्कि अवैज्ञानिक भी हैं । इसे प्रमाणित करने के लिए दुर्खीम ने एडवर्ड टायलर, मैक्स मूलर, फ्रेजर आदि विद्वानों के मतों का इस आधार पर खंडन किया कि इन विद्वानों ने धर्म की उत्पत्ति में सामाजिक कार्य को की पूर्णतया अवहेलना की है । दुर्खीम ने लिखा है कि आदिमानव के लिए प्राकृतिक और अलौकिक घटनाओं में अंतर करना संभव नहीं , ना तो उन्हें प्राकृतिक चीजों और घटनाओं के संबंध में उचित ज्ञान है और ना ही वे अलौकिक घटनाओं को ठीक से समझते हैं । साथ ही, धर्म एक इतनी सरल घटना नहीं है किस की उत्पत्ति परछाई, स्वप्न, प्रतिध्वनि, मृत्यु आदि कुछ सीमित तथा व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर संभव है । प्रत्येक धर्म का तो कोई वास्तविक आधार होता है और वह आधार दुर्खीम के अनुसार स्वयं समाज है । स्वर्ग का साम्राज्य एक महिमान्वित समाज हैं " ( The Kingdom of heaven is a glorified society )

दुर्खीम के अनुसार, सामूहिक जीवन की समस्त वस्तुओं या घटनाओं को चाहे हुए सरल हो या जटिल, वास्तविक हो या आदर्शात्मक - दो प्रमुख भागों में बांटा जा सकता है - ( अ ) साधरण और ( ब ) पवित्र । समस्त धर्मों का संबंध पवित्र पक्ष से होता है । परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि सभी पवित्र वस्तुएं ईश्वरीय या ईश्वर होती हैं , यद्यपि समस्त ईश्वरीय या आध्यात्मिक घटनाएं तथा वस्तुएं पवित्र अवश्य ही होती है । यह पवित्र वस्तुएं समाज की प्रतीक या सामूहिक चेतना की प्रतिनिधि है । इसी कारण व्यक्ति इनके अधीन और इनसे प्रभावित रहता है ।
     समाज के सदस्य ने पवित्र समझते हैं, उन्हें अपवित्र या साधारण से सदा दूर रखने का प्रयत्न करते हैं और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अनेक विश्वासों, आचरणों, संस्कारों और उत्सवों को जन्म देते हैं । धर्म इन्हीं प्रयत्नों का परिणाम है । चूँकि इन प्रयत्नों से संबंधित विश्वासों,आचरणों, संस्कारों आदि के पीछे समस्त समाज की अभिमत और दबाव होता है, इस कारण समाज की एक सामूहिक सत्ता के सामने मनुष्य को नतमस्तक होना पड़ता है । यहीं से धर्म की नींव पड़ती हैं ।
      अपने इस सिद्धांत की पुष्टि में दुर्खीम में ऑस्ट्रेलिया की अरुण्टा जनजाति का विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत किया है। दुर्खीम का कहना है कि इन जनजातीय लोगों के जीवन का अध्ययन करने पर धार्मिक अनुभव की उत्पत्ति के संबंध में हमें स्पष्ट धारणा हो सकती है और वह धारणा यह कि धार्मिक अनुभव एक प्रकार की सामूहिक उत्तेजना के कारण है । त्योहारों तथा उत्सवों पर जब गोत्र के सभी लोग एक साथ एकत्र होते हैं तो प्रत्येक सदस्य को ऐसा अनुभव होता था कि समूह की शक्ति उसकी वैयक्तिक शक्ति से कहीं अधिक उच्च और महान है । ऐसे ही अनुभव करने के स्पष्ट कारण भी हैं । इन त्योहारों तथा उत्सवों का अस्तित्व ही अनेक लोगों की उपस्थिति पर आधारित होता है । समान भावों, विचारों व रुचियों वाले अनेक व्यक्तियों के वैयक्तिक भावों , विचारों व रुचियों के सम्मिलन और संगठन से एक नवीन चेतना या उत्तेजना का निर्माण होता है । यही सामूहिक शक्ति होती है जिसके सम्मुख प्रत्येक व्यक्ति को अनिवार्य रूप से झुकना पड़ता है । साथ ही, इन त्योहारों तथा उत्सवों के अवसरों पर एकत्रित भीड़ में एक प्रकार का मानसिक उल्लास प्रदर्शित होता है । यह उल्लास संभवतः मानव की सामाजिक मूल प्रवृत्ति के कारण है । ऐसे अवसरों में एक ही समय पर अनेक व्यक्ति एकत्रित रहते हैं और व्यक्ति के विचार व संवेग सभी उपस्थित व्यक्तियों के विचारों व संवेगों के अनुकूल होते हैं । उस अनुकूलता व अनुरूपता का आभास ही व्यक्ति को प्रफुल्लित व उत्तेजित कर देता है । फलतः व्यक्ति की अपनी शक्ति गौण हो जाती है और समूह की शक्ति को प्रधानता मिलती है । व्यक्ति समूह की इस शक्ति के सामने झुकता है और उसकी शक्ति से प्रभावित होकर उसके मन में समूह के प्रति भय, श्रद्धा और भक्ति की भावना पनपती है । वह समूह को साधारण से श्रेष्ठ या महान समझने लगता है । वस्तुतः यह समूह है या समाज ही धार्मिक पूजा का प्रतीक हो जाता है ।
     उपर्युक्त तर्क दुर्खीम के शब्दों में इस प्रकार हैं - यह बात बड़ी    सरलता से समझी जा सकती है कि जब व्यक्ति अपनी उत्तेजना की अवस्था में होता है तो क्यों वह अपने अस्तित्व को भी भूल जाता है । चूँकि उस समय वह अपने को किसी बाहरी शक्ति के अधीन तथा उसके द्वारा संचालित अनुभव करता है जो उसे इस प्रकार से सोचने और कार्य करने को बाध्य करती है जैसा कि शायद हुआ सामान्य परिस्थितियों में ना करता, तब स्वभावतः उसके मन में यह धारणा घर कर लेती है कि अब उसका अपना कोई पृथक अस्तित्व नहीं है । उसे ऐसा लगता है जैसे कि वह एक नया प्राणी बन गया हो । इसी प्रकार उसके सब साथी भी अपने को बदले हुए पाते हैं । संपूर्ण परिस्थिति इस प्रकार की होती है कि प्रत्येक व्यक्ति को ऐसा अनुभव होने लगता है कि वह एक नई दुनिया में आ गया है , यह दुनिया उस दुनिया से बिल्कुल भिन्न है जिसमें कि वह साधारणतयः रहता है, और वह अपने को असाधारण प्रभावशाली शक्तियों से भरपूर एक ऐसे वातावरण में पाता है जो कि उसे अपने अधिकार में रखता और रूपान्तरित करता रहता हैं । जब इस प्रकार के अनुभव प्रतिदिन और प्रति सप्ताह होते रहते हैं, तब यह कैसे संभव हो सकता है कि व्यक्ति को यह विश्वास ना हो जाएगी वास्तव में दो असमान तथा परस्पर अतुलनीय दुनिया का अलग अलग अस्तित्व है ? एक दुनिया तो हुआ है जिसमें कि उसका दिन प्रतिदिन का जीवन नीरस रूप में लुढ़कते चलता है, लेकिन एक दूसरी दुनिया भी है जिसमें वह उस समय तक प्रवेश नहीं कर सकता जब तक उसका संबंध ऐसी असाधारण शक्तियों से स्थापित ना हो जाए, जो उसे अपने को भुला दे । पहली साधारण दुनिया है और दूसरी पवित्र 
         फिर भी इस संबंध में एक शंका रह जाती है और वह यह कि पवित्रता की धारणा के पनपने का वास्तविक आधार क्या है ? इसके उत्तर में दुर्खीम का कथन है कि टोटम वाद के आधार पर ही पवित्र और साधारण वस्तुओं में भेद करने की भावना का जन्म हुआ । अतः टोटम वाद ही समस्त धर्मों का प्राथमिक स्तर या रूप है । ऐसा टोटम वाद की प्रकृति से ही संभव हुआ, क्योंकि टोटम वाद नैतिक कर्तव्यों और मौलिक विश्वासों की वह समष्टि हैं जिसके द्वारा समाज और पशु पौधे या अन्य प्राकृतिक वस्तुओं के बीच एक पवित्र और मौलिक संबंध स्थापित हो जाता है । इस टोटम वाद की निम्नलिखित विशेषताएं उल्लेखनीय है -

1. - टोटम के साथ एक गोत्र के सदस्य अपना कई प्रकार का गूढ़ , अलौकिक तथा पवित्र संबंध मानते हैं ।

2. - टोटम के साथ इस अलौकिक तथा पवित्र संबंध के आधार पर ही यह विश्वास किया जाता है की टोटल उस शक्ति का अधिकारी है जो उस समूह की रक्षा करती है, सदस्यों को चेतावनी देती है और भविष्यवाणी करती है ।

3. - टोटम के प्रति विशेष भय, श्रद्धा, भक्ति और आदर की भावना होती है । टोटम को मारना, खाना या किसी प्रकार से चोट पहुंचाना निषिद्ध होता है और उसकी मृत्यु पर शोक प्रकट किया जाता है । टोटम, उसकी खाल और उससे संबंधित अन्य वस्तुओं को बहुत पवित्र माना जाता है । टोटम की खाल को विशेष विशेष अवसरों पर धारण किया जाता है, टोटम के चित्र बनवा कर रखे जाते हैं और शरीर पर उसके चित्र की गुदाई भी प्रायः सभी लोग करवाते हैं । टोटल संबंधी निषादों का उल्लंघन करने वालों की समाज द्वारा निंदा की जाती है और दूसरी ओर इससे संबंधित कुछ विशिष्ट नैतिक कर्तव्यों को प्रोत्साहित किया जाता है ।

4. - टोटम के प्रति भय, भक्ति और आदर की जो भावना होती है वह इस बात पर निर्भर नहीं होती कि कौन सी वस्तु टोटम है या वह कैसी है, क्योंकि टोटल तो प्रायः अहानिकरक पशु या पौधा होता हैं । दुर्खीम के अनुसार टोटम सामुदायिक प्रतिनिधित्व का प्रतीक है और टोटम की उत्पत्ति उसी सामुदायिक रूप में समाज के प्रति अपने श्रद्धा भाव के कारण हुई है । यही श्रद्धा भाव पवित्रता की भावना को जन्म देता है और टोटल समूह के समस्त सदस्यों को एक नैतिक बंधन में बांधता है । यही कारण है कि टोटम समूह के सभी सदस्य अपने को एक दूसरे का भाई बहन मानते हैं और वे आपस में कभी विवाह नहीं करते ।
     टोटम वाद की उपरोक्त विशेषताओं का उल्लेख करते हुए दुर्खीम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि किसी भी धर्म की उत्पत्ति में उक्त सभी तत्वों का होना परम आवश्यक है । इस कारण यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि टोटम वाद सब धर्मों का प्राथमिक रूप है क्योंकि टोटल एक समूह के नैतिक जीवन के सामूहिक प्रतिनिधित्व का प्रतीक है । इस प्रकार धर्म का मूल स्रोत तो स्वयं समाज है । और भी स्पष्ट शब्दों में दुर्खीम के अनुसार ईश्वर समाज की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है ।
    अतः स्पष्ट है कि धर्म का संबंध किसी व्यक्ति से नहीं, बल्कि उसके सामूहिक जीवन से है । यहीं पर धर्म और जादू में अंतर स्पष्ट हो जाता है । जादू में भी धर्म की भांति अनेक विश्वास, संस्कार आदि होते हैं फिर भी मूल रूप से जादू वैयक्तिक होता हैं । जादू का संबंध व्यक्ति विशेष से होता है । इस कारण जादू उस पर विश्वास करने वालों को एक समूह में संयुक्त नहीं कर पाता है । इसके विपरीत धर्म का संबंध किसी व्यक्ति विशेष से नहीं होता है । इसका आधार तो स्वयं समाज है । इसी कारण धर्म इस पर विश्वास करने वालों को एक नैतिक समुदाय में संयुक्त करता है । दुर्खीम का मत है कि धर्म की कोई भी परिभाषा धर्म की इस विशेषता के आधार पर होनी चाहिए । इसी कारण दुर्खीम के अनुसार धर्म की परिभाषा इस प्रकार है - " धर्म पवित्र वस्तुओं से संबंधित विश्वासों और आचरणों की वह समग्र व्यवस्था है जो इन पर विश्वास करने वालों को एक नैतिक समुदाय में संयुक्त करती है ।"
         उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि दुर्खीम का धर्म संबंधी सामाजिक सिद्धांत पवित्र और साधारण के बीच अंतर पर आधारित है और इन दोनों में भेद करने की भावना का जन्म टोटम वाद के आधार पर हुआ ।
       इस प्रकार धर्म की उत्पत्ति का प्रमुख स्रोत टोटम या अंतिम रूप में समाज है क्योंकि टोटम समाज का ही सामूहिक प्रतिनिधि या प्रतीक है । टोटम के प्रति जो भय और आदर का रहस्यमय मनोभाव होता है और टोटम के साथ एक गोत्र के सदस्यों का जो गूढ़ और अलौकिक संबंध माना जाता है उसी के आधार पर पवित्रता की भावना पनपती है जिसके फलस्वरूप उस समूह के सभी सदस्यों में एक भाईचारे की भावना जागृत होती है और वे एक नैतिक समुदाय में संयुक्त हो जाते हैं । यहीं से धर्म की नीवं पड़ती है क्योंकि टोटम के आधार पर संयुक्त नैतिक समूह जिस शक्ति का अधिकारी होता है उसकी तुलना में व्यक्ति अपनी वैयक्तिक शक्ति को कुछ समझने लगता है और उसी के सामने से झुका देता है ।
           दुर्खीम ने अपने सिद्धांत का सामान्य निष्कर्ष निम्न शब्दों में दिया है - " धार्मिक प्रतिनिधित्व सामूहिक प्रतिनिधित्व है जो कि सामूहिक वास्तविकताओं को व्यक्त करते हैं , धार्मिक कृत्य प्रिया करने का वह तरीका है जोकि समवेत समूहों में पनपता हैं और जो इन समूहों में पाई जाने वाली कुछ मानसिक अवस्थाओं को उत्तेजित, व्यवस्थित तथा पुनर्जीवित करता है । धार्मिक जीवन समग्र सामूहिक जीवन की Concentrated अभिव्यक्ति है । समाज का विचार ही धर्म की आत्मा है । समाज की अवहेलना करना या उससे पृथक रहना तो दूर , धर्म समाज की ही प्रतिमा है, धर्म समाज के समस्त पक्षों के यहां तक की सबसे अशिष्ट तथा सबसे गुणात्मक पक्षों को भी प्रतिविम्बित करता है ।

अलेक्जेंडर गोल्डनवीजर तथा अन्य विद्वानों ने दुर्खीम के उपयोग के सिद्धांत की जो समालोचना की है वह संक्षेप में निम्नलिखित है -

1. - दुर्खीम का यह कथन की टोटम वाद धर्म का सर्व प्रमुख तथा सर्वप्रथम आधार है, गलत है । विभिन्न जनजातीय समाजों का अध्ययन इस बात की पुष्टि नहीं करता है । आदिवासी समाजों में धर्म और टोटम अपने-अपने पृथक अस्तित्व रखते हैं । टोटामवाद में एक गांव के सदस्य टोटम को अपना मूल पुरुष या सामान्य पुरुष मानते हैं और उसे मानने वाले सभी व्यक्ति आपस में शादी विवाह नहीं करते हैं । ये दोनों ही विशेषताएं टोटम वाद में अनिवार्य हैं, परंतु धर्म में इन दोनों का ही अभाव होता है । अगर धर्म का आधार टोटम वाद ही होता तो आप तक ये दोनों घुल मिलकर एक हो गए होते ।

सुलझाने के लिए, या इनका सामना सफलतापूर्वक करने के लिए मानव जो प्रयत्न करता है, धर्म उन्हीं प्रयत्नों का परिणाम है । चूँकि ये सब की समस्याएं हैं, इस कारण इनसे संबंधित क्रियाओं में सब लोग दिलचस्पी लेते हैं । सार्वजनिक दिलचस्पी या सारे समूह के भाग लेने के कारण धार्मिक नियमों के पीछे सारे समाज का बल होता है ।

नैडेल ने लिखा है कि मैलिनोवस्की के मत में " यह ठीक है कि धर्म समूह के मूल्यों और मान्यताओं की रक्षा करता है, पर बिना व्यक्ति की अभिव्यक्ति हो और विचारों से धर्म नहीं चल सकता । इस प्रकार धर्म सामाजिक और वैयक्तिक या मानसिक दोनों आधारों पर उत्पन्न होता है ।

उपरोक्त सिद्धांत की जो समालोचनाएँ की जाती है, उनमें सबसे प्रमुख यह है कि मैलिनोवस्की ने धर्म के प्रकार्यात्मक पक्ष पर इतना अधिक बल दिया है कि धर्म का वास्तविक आधार अत्यधिक अस्पष्ट और दुर्बल हो गया है । साथ ही, आपने केवल ट्रोब्रियांड द्वीप के निवासियों का अध्ययन करके जो निष्कर्ष निकाला है वह सभी समाजों पर कैसे लागू किया जा सकता है, इसे मैलिनोवस्की ने सोचा ही नहीं हैं । अतः आप का निष्कर्ष अत्यंत सीमित तथ्यों पर आधारित होने के कारण पूर्णतया वैज्ञानिक नहीं कहा जा सकता ।

उक्त विवेचना से स्पष्ट है कि प्रत्येक विद्वान ने अपने निजी तरीके से धर्म की उत्पत्ति की व्याख्या की है । पर उनमें से किसी भी सिद्धांत को ना तो संपूर्ण असत्य और ना ही धर्म की उत्पत्ति का अंतिम कारण मानना चाहिए क्योंकि प्रत्येक समाज की सामाजिक व प्राकृतिक और साथ ही सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में अंतर होने के कारण धर्म की उत्पत्ति भी अलग-अलग समाज में अलग-अलग कारणों से हुई है, बहुधा एकाधिक कारणों का योग रहा है ।

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