धर्म का अर्थ एवं धर्म की परिभाषा बताइए ?
मानव संसार की समस्त घटनाओं या सृष्टि के रहस्यों को नहीं समझ पाता है । अपने जीवन के रोज के अनुभवों से वह यह सीखता है कि अनेक ऐसी घटनाएं है जिन पर उसका कोई वश नहीं है । स्वभावतः ही उसमें यह धारणा पनपती है कि कोई एक ऐसी भी शक्ति है जो कि दिखाई नहीं देती, परंतु वह किसी भी मनुष्य से कहीं अधिक शक्तिशाली है । यह शक्ति अलौकिक शक्ति है ; इसे डरा धमका कर या ऐसे अन्य किसी उपाय से अपने वश में नहीं किया जा सकता है । इस शक्ति को अपने पक्ष में लाने का एकमात्र उपाय इस के सम्मुख सिर झुका कर पूजा, प्रार्थना या आराधना करना है । इस अलौकिक शक्ति से संबंधित विश्वासों और क्रियाओं को ही धर्म कहते हैं ।
इसके विपरीत कुछ ऐसी शक्तियां भी है जो कि मनुष्य की अपनी शक्ति से अधिक शक्तिशाली है ; परंतु इन पर कुछ निश्चित तरीकों से अधिकार किया जा सकता है । इसीलिए मानव इस शक्ति के सामने झुकने के बजाय इस पर अपना अधिकार स्थापित करके उससे अपने उद्देश्यों की पूर्ति करवाता है । इसी को जादू कहते हैं । उपरोक्त दो प्रकार की शक्तियों को और अच्छी तरह समझने के लिए हम अब धर्म और जादू की अलग-अलग विस्तार पूर्वक विवेचना करेंगे ।
इसके विपरीत कुछ ऐसी शक्तियां भी है जो कि मनुष्य की अपनी शक्ति से अधिक शक्तिशाली है ; परंतु इन पर कुछ निश्चित तरीकों से अधिकार किया जा सकता है । इसीलिए मानव इस शक्ति के सामने झुकने के बजाय इस पर अपना अधिकार स्थापित करके उससे अपने उद्देश्यों की पूर्ति करवाता है । इसी को जादू कहते हैं । उपरोक्त दो प्रकार की शक्तियों को और अच्छी तरह समझने के लिए हम अब धर्म और जादू की अलग-अलग विस्तार पूर्वक विवेचना करेंगे ।
धर्म :- Religion -
धर्म की परिभाषा : -
धर्म में किसी न किसी प्रकार की अति मानवीय या अलौकिक या समाजोंपरि शक्ति पर विश्वास है, जिसका आधार भय, श्रद्धा, भक्ति और पवित्रता की धारणा है और जिसकी अभिव्यक्ति प्रार्थना, पूजा या आराधना है । उपरोक्त परिभाषा आदिम और आधुनिक दोनों प्रकार के समाजों में पाए जाने वाले धर्मों की एक सामान्य व्याख्या है । प्रत्येक धर्म का आधार किसी शक्ति पर विश्वास है और यह शक्ति मानव शक्ति से अवश्य ही श्रेष्ठ है । परंतु केवल विश्वास से ही धर्म संपूर्ण नहीं है । इस विश्वास का एक भावनात्मक आधार भी होता है, जैसे उस शक्ति के संबंध में भय या उसके दंड का है । साथ ही, उस शक्ति के प्रति श्रद्धा, भक्ति या प्रेम भाव भी धर्म का आवश्यक अंग है । उसे शक्ति से लाभ उठाने के लिए और उसके कोप से बचने के लिए प्रार्थना, पूजा या आराधना करने की विधियां या संस्कार भी हुआ करते हैं । इन धार्मिक क्रियाओं में अलग-अलग समाज में अलग-अलग तरह की धार्मिक सामग्रियों, धार्मिक प्रतीकों और जादू टोने, पौराणिक कथाओं आदि का समावेश होता है । उस शक्ति का , जिस पर विश्वास किया जाता है, रूप और स्वरूप भी प्रत्येक समाज में अलग-अलग होता है । कहीं तो निराकार शक्ति की आराधना की जाती है और कहीं उस शक्ति का साकार रूप ( मूर्ति या प्रतिमा ) पूजा जाता है । संक्षेप में, इस अलौकिक शक्ति से संबंधित समस्त विश्वासों, भावनाओं और क्रियाओं के सम्मिलित रूप को धर्म कहते हैं ।
आधुनिक मानव शास्त्र के प्रवर्तक श्री एडवर्ड टायलर ने ही शायद सर्वप्रथम सबसे कम शब्दों में धर्म की सबसे विस्तृत परिभाषा प्रस्तुत की थी । आपके अनुसार " धर्म आध्यात्मिक शक्ति पर विश्वास है ।"
सर जेम्स फ्रेजर के अनुसार धर्म की प्रकृति और भी निश्चित है । आपने लिखा है, " धर्म से मैं मनुष्य से श्रेष्ठ उन शक्तियों की संतुष्टि या आराधना समझता हूं जिनके संबंध में यह विश्वास किया जाता है कि वे प्रकृति और मानव जीवन को मार्ग दिखलाती और नियंत्रित करती है ।" इस परिभाषा से स्पष्ट है कि श्री फ्रेजर ने धर्म के तीन प्रमुख पहलुओं पर बल दिया है । प्रथम तो यह कि धर्म का संबंध एक ऐसी शक्ति से होता है जो कि मानव शक्ति से श्रेष्ठ है । दूसरी बात यह है कि यह वह शक्ति है जो की प्रकृति तथा मानव जीवन को निर्देशित अथवा नियंत्रित करती है । और तीसरी बात यह है कि यह शक्ति मनुष्य शक्ति से श्रेष्ठ है और क्योंकि वह प्रकृति तथा मानव जीवन को निर्धारित तथा नियंत्रित करने वाली है इस कारण भलाई इसी में है कि उसे खुश रखा जाए चाहे वह खुश रहने का तरीका आराधना हो, या पूजा हो या और कुछ । धर्म के अंतर्गत ये तीनों तत्व सम्मिलित है ।
कुछ विद्वानों ने अपनी परिभाषा में मानसिक या मनोवैज्ञानिक पक्ष पर अधिक बल दिया है । उदाहरणार्थः, श्री हानिगशीम ( Honigsheim ) के अनुसार "प्रत्येक मनोवृति जो कि इस विश्वास पर आधारित या इस विश्वास से संबंधित है कि अलौकिक शक्तियों का अस्तित्व है और उनसे संबंध स्थापित करना संभव व महत्वपूर्ण है, धर्म कहलाती है ।" इस परिभाषा में हानिगशीम ने चार बातों पर बल दिया है । पहली बात तो यह है कि प्रत्येक धर्म का आधार विश्वास है । अविश्वास के क्षेत्र में धर्म का प्रवेश नहीं हो सकता है अर्थात जहां अविश्वास है वहां से धर्म भी दूर है क्योंकि धर्म तो मनुष्य के विश्वास पर ही टिका हुआ है । दूसरी बात यह है कि धर्म इस विश्वास से संबंधित मानव की मनोवृति है । यह दोनों ही मनोवैज्ञानिक तत्व है । धर्म की यह विशेषता संभवतः इस ओर संकेत करती है कि धर्म कोई बाहरी घटना नहीं है, धर्म तो एक आंतरिक अनुभूति है, इसका स्थान तो मनुष्य के हृदय में है । तीसरी बात यह है कि मनुष्यों में इस बात का भी विश्वास होना चाहिए कि अलौकिक शक्तियों का अस्तित्व है और मनुष्यों के लिए यह संभव है कि वे इन शक्तियों से अपना संबंध स्थापित करें । यह धर्म की एक बहुत ही रोचक विशेषता है । धर्म में शक्तियां अलौकिक है, फिर भी वे अपनी ही है और क्योंकि अपनी है इसी कारण उनसे संबंध स्थापित करना संभव है । भक्तों के भगवान अर्थात भगवान भक्तों के ( मतलब जो उन पर विश्वास करता है उनके ) ही आत्मजन होते हैं, इस कथन में धर्म की उपरोक्त तीसरी विशेषता ही झलकती है । और चौथी बात यह है कि अलौकिक शक्ति से केवल संबंध स्थापित ही नहीं हो सकता है बल्कि ये संबंध मनुष्यों के लिए महत्वपूर्ण है ।
श्री मैलिनोवस्की (Malinowaski) :- धर्म के समाजशास्त्रीय तथा मनोवैज्ञानिक दोनों ही पहलुओं को एक सा महत्वपूर्ण मानते हैं । इसी आधार पर आपके अनुसार " धार्मिक रिया का एक तरीका है और साथ ही विश्वासों की एक व्यवस्था भी ; और धर्म एक समाजशास्त्रीय घटना के साथ-साथ एक व्यक्तिगत अनुभव भी है । इस कथन से धर्म की चार प्रमुख विशेषताएं स्पष्ट है । पहली विशेषता यह है कि धर्म विश्वासों की एक व्यवस्था है । यह विश्वास किसी अलौकिक शक्ति, आत्मा, परमात्मा या और किसी पर हो सकता है । ये विश्वासों की एक व्यवस्था इस अर्थ में है कि उस अलौकिक शक्ति पर कुछ परंपरा स्वीकृति तरीकों से विश्वास करती है या उसके विषय में चिंता करते हैं । उदाहरणार्थः , एक समाज अपने धर्म के अंतर्गत निराकार शक्ति पर विश्वास करता है, तो वह समाज उस निराकार शक्ति के बारे में जो कुछ सोचेगा या जिस ढंग से सोचेगा वह उस समाज के ढंग से भिन्न होगा, जहां साकार शक्ति पर विश्वास किया जाता है । धर्म की दूसरी विशेषता यह है कि प्रत्येक धर्म में विश्वासों से संबंधित कुछ क्रियाएं या कर्म होते हैं । अर्थात धार्मिक विश्वास उस शक्ति के प्रति मनुष्य को निष्क्रिय या उदासीन रहने नहीं देता । उसे काम करना पड़ता है और इस कर्म की अभिव्यक्ति प्रार्थना, पूजा-पाठ या आराधना के रूप में होती है । धर्म की तीसरी विशेषता यह है कि धार्मिक सामाजिक घटना है । एक ही समाज में प्रत्येक व्यक्ति का अलग-अलग धर्म है, ऐसा देखा नहीं गया । धर्म की चौथ की विशेषता यह है कि धर्म को मानना या न मानना स्वयं व्यक्ति के ऊपर निर्भर करता है और यह बात उसके व्यक्तिगत अनुभवों द्वारा प्रभावित होती है । हो सकता है कि एक हिंदू के जीवन में कुछ ऐसे अनुभव हो जिसके कारण वह हिंदू धर्म को त्याग कर इस्लाम को अपना ले । धर्म की यह विशेषता अनुभव द्वारा प्राप्त व्यक्ति की अपनी मानसिक स्थितियों पर बल देती है ।
ऐसे तो धर्म की असंख्य परिभाषाएं विभिन्न विद्वानों ने प्रस्तुत की है फिर भी धर्म का सामान्य स्वरूप उपरोक्त परिभाषाओं व विवेचना से काफी स्पष्ट हो जाता है ।
सर जेम्स फ्रेजर के अनुसार धर्म की प्रकृति और भी निश्चित है । आपने लिखा है, " धर्म से मैं मनुष्य से श्रेष्ठ उन शक्तियों की संतुष्टि या आराधना समझता हूं जिनके संबंध में यह विश्वास किया जाता है कि वे प्रकृति और मानव जीवन को मार्ग दिखलाती और नियंत्रित करती है ।" इस परिभाषा से स्पष्ट है कि श्री फ्रेजर ने धर्म के तीन प्रमुख पहलुओं पर बल दिया है । प्रथम तो यह कि धर्म का संबंध एक ऐसी शक्ति से होता है जो कि मानव शक्ति से श्रेष्ठ है । दूसरी बात यह है कि यह वह शक्ति है जो की प्रकृति तथा मानव जीवन को निर्देशित अथवा नियंत्रित करती है । और तीसरी बात यह है कि यह शक्ति मनुष्य शक्ति से श्रेष्ठ है और क्योंकि वह प्रकृति तथा मानव जीवन को निर्धारित तथा नियंत्रित करने वाली है इस कारण भलाई इसी में है कि उसे खुश रखा जाए चाहे वह खुश रहने का तरीका आराधना हो, या पूजा हो या और कुछ । धर्म के अंतर्गत ये तीनों तत्व सम्मिलित है ।
कुछ विद्वानों ने अपनी परिभाषा में मानसिक या मनोवैज्ञानिक पक्ष पर अधिक बल दिया है । उदाहरणार्थः, श्री हानिगशीम ( Honigsheim ) के अनुसार "प्रत्येक मनोवृति जो कि इस विश्वास पर आधारित या इस विश्वास से संबंधित है कि अलौकिक शक्तियों का अस्तित्व है और उनसे संबंध स्थापित करना संभव व महत्वपूर्ण है, धर्म कहलाती है ।" इस परिभाषा में हानिगशीम ने चार बातों पर बल दिया है । पहली बात तो यह है कि प्रत्येक धर्म का आधार विश्वास है । अविश्वास के क्षेत्र में धर्म का प्रवेश नहीं हो सकता है अर्थात जहां अविश्वास है वहां से धर्म भी दूर है क्योंकि धर्म तो मनुष्य के विश्वास पर ही टिका हुआ है । दूसरी बात यह है कि धर्म इस विश्वास से संबंधित मानव की मनोवृति है । यह दोनों ही मनोवैज्ञानिक तत्व है । धर्म की यह विशेषता संभवतः इस ओर संकेत करती है कि धर्म कोई बाहरी घटना नहीं है, धर्म तो एक आंतरिक अनुभूति है, इसका स्थान तो मनुष्य के हृदय में है । तीसरी बात यह है कि मनुष्यों में इस बात का भी विश्वास होना चाहिए कि अलौकिक शक्तियों का अस्तित्व है और मनुष्यों के लिए यह संभव है कि वे इन शक्तियों से अपना संबंध स्थापित करें । यह धर्म की एक बहुत ही रोचक विशेषता है । धर्म में शक्तियां अलौकिक है, फिर भी वे अपनी ही है और क्योंकि अपनी है इसी कारण उनसे संबंध स्थापित करना संभव है । भक्तों के भगवान अर्थात भगवान भक्तों के ( मतलब जो उन पर विश्वास करता है उनके ) ही आत्मजन होते हैं, इस कथन में धर्म की उपरोक्त तीसरी विशेषता ही झलकती है । और चौथी बात यह है कि अलौकिक शक्ति से केवल संबंध स्थापित ही नहीं हो सकता है बल्कि ये संबंध मनुष्यों के लिए महत्वपूर्ण है ।
श्री मैलिनोवस्की (Malinowaski) :- धर्म के समाजशास्त्रीय तथा मनोवैज्ञानिक दोनों ही पहलुओं को एक सा महत्वपूर्ण मानते हैं । इसी आधार पर आपके अनुसार " धार्मिक रिया का एक तरीका है और साथ ही विश्वासों की एक व्यवस्था भी ; और धर्म एक समाजशास्त्रीय घटना के साथ-साथ एक व्यक्तिगत अनुभव भी है । इस कथन से धर्म की चार प्रमुख विशेषताएं स्पष्ट है । पहली विशेषता यह है कि धर्म विश्वासों की एक व्यवस्था है । यह विश्वास किसी अलौकिक शक्ति, आत्मा, परमात्मा या और किसी पर हो सकता है । ये विश्वासों की एक व्यवस्था इस अर्थ में है कि उस अलौकिक शक्ति पर कुछ परंपरा स्वीकृति तरीकों से विश्वास करती है या उसके विषय में चिंता करते हैं । उदाहरणार्थः , एक समाज अपने धर्म के अंतर्गत निराकार शक्ति पर विश्वास करता है, तो वह समाज उस निराकार शक्ति के बारे में जो कुछ सोचेगा या जिस ढंग से सोचेगा वह उस समाज के ढंग से भिन्न होगा, जहां साकार शक्ति पर विश्वास किया जाता है । धर्म की दूसरी विशेषता यह है कि प्रत्येक धर्म में विश्वासों से संबंधित कुछ क्रियाएं या कर्म होते हैं । अर्थात धार्मिक विश्वास उस शक्ति के प्रति मनुष्य को निष्क्रिय या उदासीन रहने नहीं देता । उसे काम करना पड़ता है और इस कर्म की अभिव्यक्ति प्रार्थना, पूजा-पाठ या आराधना के रूप में होती है । धर्म की तीसरी विशेषता यह है कि धार्मिक सामाजिक घटना है । एक ही समाज में प्रत्येक व्यक्ति का अलग-अलग धर्म है, ऐसा देखा नहीं गया । धर्म की चौथ की विशेषता यह है कि धर्म को मानना या न मानना स्वयं व्यक्ति के ऊपर निर्भर करता है और यह बात उसके व्यक्तिगत अनुभवों द्वारा प्रभावित होती है । हो सकता है कि एक हिंदू के जीवन में कुछ ऐसे अनुभव हो जिसके कारण वह हिंदू धर्म को त्याग कर इस्लाम को अपना ले । धर्म की यह विशेषता अनुभव द्वारा प्राप्त व्यक्ति की अपनी मानसिक स्थितियों पर बल देती है ।
ऐसे तो धर्म की असंख्य परिभाषाएं विभिन्न विद्वानों ने प्रस्तुत की है फिर भी धर्म का सामान्य स्वरूप उपरोक्त परिभाषाओं व विवेचना से काफी स्पष्ट हो जाता है ।
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