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आदिकालीन अर्थव्यवस्था की परिभाषा तथा आर्थिक विकास के प्रमुख स्तरों की विवेचना कीजिए

आदिकालीन अर्थव्यवस्था की परिभाषा तथा आर्थिक विकास के प्रमुख स्तरों की विवेचना कीजिए

आदिकालीन अर्थव्यवस्था प्रत्यक्ष रूप से आदिम लोगों की जीविका पालन या जीवन धारण से संबंधित है । जीवन धारण के लिए आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन करना, उनका वितरण तथा उपभोग करना है उनकी आर्थिक क्रियाओं का आधार और लक्ष्य होता है । और यह क्रियाएं एक आदिम समाज के संपूर्ण पर्यावरण, विशेषकर भौगोलिक पर्यावरण के द्वारा बहुत प्रभावित होती है । इसलिए जीवन धारण या जीवित रहने के साधनों को जुटाने के लिए हातिम लोगों को कठोर परिश्रम करना पड़ता है । आर्थिक जीवन अत्यधिक संघर्षमय तथा कठिन होने के कारण आर्थिक क्षेत्र में अन्य क्षेत्रों की भांति प्रगति की गति बहुत ही धीमी है । संक्षेप में आदिकालीन अर्थव्यवस्था एक ओर प्रकृति की शक्तियों और प्राकृतिक साधनों, फल मूल, पशु पक्षी, पहाड़ और घाटी, नदियों और जंगलों आदि पर निर्भर है और दूसरी ओर परिवार से घनिष्ठ रूप से संयुक्त है । आदिकालीन मानव प्रकृति द्वारा प्रदत्त सामग्री से अपने उपकरणों का निर्माण करता है और उनकी सहायता से परिवार के सब लोग उदर पूर्ति के लिए कठोर परिश्रम करते हैं । इस परिश्रम का जो कुछ फल उन्हें प्राप्त होता है तो फिर से आर्थिक आवश्यकताओं तथा प्राकृतिक शक्तियों और साधनों के बीच केवल एक संतुलन स्थापित हो पाता है । धान को इकट्ठा करने या उत्पादन के साधनों पर एकाधिकार प्राप्त करने और उस के बल पर दूसरों पर अपनी प्रभुता स्थापित करने की बात शायद ही कोई सोचता हो । परिवार का आर्थिक स्वार्थ प्रायः सामूहिक स्वार्थ के साथ इतना अधिक घुल मिल जाता है कि दोनों को पृथक करना कठिन होता है । परिवार के सदस्यों को भूख से बचाने और उनकी रक्षा करने का उत्तरदायित्व प्रायः समुदाय को ही लेना होता है जिसके फलस्वरूप आर्थिक जीवन के इन दो पहलुओं या आधारों - परिवार तथा समुदाय - को एक दूसरे से अधिकाधिक सहयोग करना पड़ता है । ऐसी दशा में आदिकालीन अर्थव्यवस्था पनपती है, स्थिर रहती है और जीवित रहने के साधनों को जुटाकर मानव के अस्तित्व को संभव करती है ।

अर्थव्यवस्था की परिभाषा :-

सामाजिक मानव अपने अस्तित्व के लिए कुछ ना कुछ आर्थिक आवश्यकताओं को अनुभव करता है । इन आवश्यकताओं में सबसे आधारभूत आवश्यकता भोजन, वस्त्र तथा निवास है । इनमें भी सर्व प्रमुख भोजन है जिसके बिना मनुष्य का अस्तित्व संभव नहीं और मनुष्य के अस्तित्व के बिना समाज के अस्तित्व का सपना देखना भी मूर्खता है । अतः स्पष्ट है कि मानव को अपने तथा समाज के अस्तित्व को बनाए रखने हेतु अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है । यह तभी संभव है जबकि लोग कुछ न कुछ संगठित रूप में इस दिशा में क्रियाशील हो। आर्थिक क्रियाओं के इस संगठन को ही अर्थव्यवस्था कहते हैं ।

मजूमदार तथा मदान ने लिखा है कि " जीवन की दिन-प्रतिदिन की अधिकाधिक आवश्यकताओं को कम से कम परिश्रम से पूरा करने हेतु मानव संबंधी तथा मानव प्रयत्नों को नियमित व संगठित करना ही अर्थव्यवस्था है । यह एक व्यवस्थित तरीके से सीमित साधनों द्वारा असीमित साधनों की अधिकतम संतुष्टि का प्रयत्न है ।
Ruth Bunzel ने अर्थव्यवस्था को अति संक्षेप में परिभाषित करते हुए लिखा है कि " शारीरिक अस्तित्व की समस्याओं से संबंधित व्यवहार के संपूर्ण संगठन को अर्थव्यवस्था कहते हैं ।

पिडिंगटन के अनुसार , आर्थिक व्यवस्था, जिसका कि उद्देश्य लोगों की भौतिक आवश्यकताओं की संतुष्टि करना है, उत्पादन को संगठित करने, वितरण को नियमित करने तथा समुदाय में स्वामित्व व अधिकारों और मांगों को निर्धारित करने के लिए होती है ।
    उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर आते हैं कि अर्थव्यवस्था वह व्यवस्था है जिसके अंतर्गत एक समाज या एक समूह के एक विशिष्ट प्राकृतिक पर्यावरण, प्रौद्योगिकी स्तर और सांस्कृतिक परिस्थितियों की सीमाओं के अंदर भौतिक आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए किए गए समस्त कार्यों का समावेश होता है ।
       यह परिभाषा सामान्य रूप से प्रत्येक प्रकार के समाज, चाहे वह आदिम हो या आधुनिक, की अर्थव्यवस्था की व्याख्या करती है, क्योंकि प्रत्येक समाज को ही अपनी अर्थव्यवस्था को कुछ सीमाओं के अंदर ही संगठित करना होता है और इन्हीं सीमाओं के कारण ही प्रत्येक समाज की अर्थव्यवस्था में कुछ ना कुछ भिन्नता अवश्य दिखाई देती है । यह सच है कि सभ्यता या विज्ञान की उन्नति के साथ-साथ आधुनिक समाजों में अर्थव्यवस्था की उपरोक्त सीमाएं, आज बहुत कुछ दुर्बल हो गई है, फिर भी उन से पूर्णतया छुटकारा आज भी आधुनिक समाजों तक की अर्थव्यवस्था को नहीं मिल पाया है । 
       कुछ वैज्ञानिकों का दावा है कि आज सहारा रेगिस्तान में भी एक औद्योगिक शहर की स्थापना संभव है परंतु केवल अत्यधिक खर्चे के डर से ऐसा करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया जाता । कारण कुछ भी हो पर इस विषय में भी भौगोलिक पर्यावरण द्वारा निर्धारित सीमा स्पष्ट ही है । उसी प्रकार व समाज जो कि औद्योगिकीय विषय में पिछड़ा हुआ है अपनी अर्थव्यवस्था को भी उन्नत स्तर पर नहीं ला सकता है । जहां तक आदिम समाजों का प्रश्न है तो उनके विषय में एक सत्य यह है कि आदिम मनुष्यों के आर्थिक जीवन पर भौगोलिक पर्यावरण का प्रभाव अत्यधिक होता है । उनके घर, पोशाक, औजार, व्यवस्था तथा अन्य आर्थिक क्रियाओं के स्वरूप और प्रकृति उस क्षेत्र में उपलब्ध सीमित साधनों के अनुसार ही निश्चित और नियंत्रित होती है । प्रौद्योगिकीय पिछड़ा या वैज्ञानिक ज्ञान के अभाव में उनके लिए प्राकृतिक पर्यावरण के प्रभावों से छुटकारा पाना असंभव ही है।

आर्थिक विकास के प्रमुख स्तर : -

भोजन प्राप्त करने तथा अपनी अन्य आर्थिक आवश्यकता की संतुष्टि के लिए की जाने वाली क्रियाओं के आधार पर आर्थिक संगठन के चार प्रमुख स्तर आदिम समाजों में मिलते हैं ।

अ. - शिकार करने और भोजन इकट्ठा करने का स्तर :-

यह मानव जीवन के आर्थिक पहलू का प्राथमिक व प्रारंभिक स्तर है। इस स्तर में आर्थिक संगठन न केवल अव्यवस्थित है बल्कि अस्पष्ट और अनिश्चित भी । इसका सर्वप्रथम कारण यह है कि इस स्तर में मानव भोजन का उत्पादन नहीं संकलन करता है । इस स्तर में मानव जीवन संपूर्णतया प्रकृति की गोद में पलने वाला होता है ।

मानव जंगलों में अपना जीवन बिताता है और उदर पूर्ति करके किसी प्रकार जीवित रहना ही उसके लिए पर्याप्त होता है । उदर पूर्ति के लिए आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन करने का कोई भी ज्ञान मानव को नहीं होता, इसलिए उधर पूर्ति शिकार करके और फल, कंदमूल और शहद इकट्ठा करके की जाती है । परंतु जीवित रहने के ये साधन अत्यधिक कठिन ता से प्राप्त होते हैं । पशुओं का शिकार करने, मछली पकड़ने या कंद मूल, फल, आदि के संकलन के लिए लोगों को एक स्थान से दूसरे स्थान को भटकना पड़ता है क्योंकि शिकार और फल मूल का एक स्थान से सदैव प्राप्त होना असंभव है । फलतः सामाजिक और आर्थिक जीवन अत्यधिक अनिश्चित, अस्थिर व घुमन्तू होता हैं । पूर्णतया भौगोलिक तथा प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर रहते हुए इन लोगों को एक स्थान से दूसरे स्थान को घूम घूम कर जीवित रहने के लिए भोजन को इकट्ठा करना पड़ता है । अगर भौगोलिक परिस्थितियां अनुकूल है तो उन्हें भोजन सरलता से मिल जाता है पर यदि प्रतिकूल है तो आदिम मानव के सामने कोई दूसरा रास्ता भी नहीं होता है इसके सिवा की प्रकृति जितना भी देती है या जिस रूप में देती है उतना और उसी रूप में जीवन यापन के साधनों को प्राप्त करें । चूंकि ऐसे समाजों में जीवित रहने के ये साधन अत्यधिक सीमित मात्रा में उपलब्ध तथा कथित नेता से प्राप्त होते हैं इस कारण यहां जीवित रहने के लिए संघर्ष भी उग्र और भयंकर होता है । इन समाजों में दुर्बल ओ तथा कमजोर के लिए जीवित रहना प्रायः असंभव सा होता है । इन सब कारणों से जनसंख्या भी अत्यधिक सीमित होती है ऐसे समाजों में आर्थिक जीवन की एक एक इकाई का आकार बहुत छोटा होता है और उनके सदस्य संख्या 40 से लेकर 70 के बीच तक होती है । ये सदस्य प्रायः आपस में रक्त संबंधी होते हैं यद्यपि रहते अलग-अलग परिवार में ही है। आर्थिक जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए अर्थात जीवित रहने के लिए प्रकृति से मोर्चा लेने के लिए इनके लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि वे सब आर्थिक क्रियाओं के विषय में सहयोग करें । इसे सहयोगी व्यवस्था में परिवार के ही नहीं, समुदाय के स्त्री-पुरुष, बच्चे आदि हाथ बटाते हैं । स्त्री पुरुष के भेद के आधार पर आर्थिक श्रम विभाजन होता है । युवा तथा वयस्क पुरुषों के दल घर से बाहर जंगलों में शिकार करने व मछली पकड़ने जाते हैं , जबकि स्त्रियों के समूह जंगलों के कंदमूल, फल, शहद इकट्ठा करते हैं और भोजन पकाते तथा बच्चों की देखभाल करते हैं । भोजन इकट्ठा करने का यह तरीका व स्थान ऋतु परिवर्तन के साथ साथ परिवर्तित होता रहता है क्योंकि प्रत्येक ऋतु में एक ही स्थान में फल मूल आदि प्राप्त नहीं होता है । 
     इस कारण इन लोगों को प्रायः प्रत्येक ऋतु में ही स्थान बदलना पड़ता है । सामुदायिक आधार पर जो कुछ भी खाद्य सामग्री इकट्ठी होती है उसे प्रत्येक परिवार को उसकी आवश्यकता के अनुसार बांट दिया जाता है । परंतु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि व्यक्तिगत या पारिवारिक आधार पर कोई आर्थिक क्रिया होती ही नहीं है । दैनिक जीवन की अधिकतर आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति व्यक्तिगत प्रयत्नों के द्वारा ही होती है । परंतु जो कुछ भी खाद्य सामग्री इकट्ठी होती है उसमें से कुछ भी भाग सामूहिक आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद विनिमय के लिए शेष नहीं रहता । साथ ही व्यक्तिगत संपत्ति की धारणा बिल्कुल ही नहीं मिलती है । फल मूल , शहद आदि इकट्ठा करने शिकार करने तथा मछली पकड़ने के क्षेत्र व्यक्ति अथवा परिवार की संपत्ति नहीं बल्कि सामूहिक संपत्ति समझे जाते हैं और उस पर सभी परिवारों का समान अधिकार होता है । 
      आर्थिक क्रियाओं का क्षेत्र अत्यधिक सीमित होने के कारण ना तो विशेषीकरण और ना ही श्रम विभाजन की आवश्यकता होती है । व्यक्तिगत या निजी संपत्ति की धारणा ना होने के कारण धन और संपत्ति के आधार पर वर्ग भेद या वर्ग व्यवस्था का अस्तित्व नहीं मिलता है । इस स्तर के आर्थिक संगठन भारत के कादर और चेंचू, लंका के वेद्दु, ऑस्ट्रेलिया के अधिकांश आदिवासी,फिलीपाइन और मलाया प्रायद्वीपों के पिग्मी समूह, अंडमान द्वीप के आदिवासी तथा अफ्रीका के वुशमेन आदि के आदिम समाजों में पाए जाते हैं ।
           शिकार करने तथा भोजन इकट्ठा करने के स्तर पर कुछ समाज ऐसे भी हैं जिनमें सामूहिक आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद संकलित भोजन का कुछ भाग विनिमय के लिए शेष रहता है । उदाहरणार्थः उत्तर पश्चिम कैलिफोर्निया के तटीय भाग में रहने वाली इण्डियन जनजातियों से अलास्का ताकत की कुछ जनजातियों में इस प्रकार की अर्थव्यवस्था मिलती है । यह लोग जो कुछ भी खाद्य सामग्री का इकट्ठी करते हैं उसमें से अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए पर्याप्त मात्रा में रख लेने के पश्चात जो कुछ बच जाता है उसे आसपास के जनजातीय समूहों को दे देते हैं और उसके बदले में कुछ दूसरी चीज प्राप्त कर लेते हैं । इस प्रकार का विनिमय कार्य समुदाय के मुखिया के द्वारा होता है जो अपनी देखरेख में आसपास के गांव में खाद्य सामग्री ले जाकर व्यापार करता है । इस कार्य के लिए समुदाय उसे संकलित खाद्य का कुछ विशेष भाग देता है । इस दृष्टिकोण से इन समाजों में आर्थिक क्षेत्र में कुछ विशेषीकरण और श्रम विभाजन देखने को मिलता हैं ।
        शिकार करने और फल फूल इकट्ठा करने के इस स्तर में भी लोगों को कुछ ना कुछ यंत्रों तथा उपकरणों की आवश्यकता होती है । इन यंत्रों तथा उपकरणों को लोग स्वयं ही बना लेते हैं अर्थात इनके निर्माण के लिए कोई विशेष व्यक्ति या समिति नहीं होती है । इन यंत्रों और उपकरणों में सबसे अधिक प्रयोग में आने वाली 4 चीजें हैं । धनुष बाण, भाला, जाल और फंदा । इनका प्रयोग विशेष रूप से पशुओं का शिकार करने और मछली पकड़ने में होता है । परंतु इन चारों चीजों की बनावट में अत्यधिक भिन्नता संसार के विविध जनजातीय समाजों में देखने को मिलती है ।
      आज कोई भी आदिम समाज ऐसा नहीं है जो कि केवल मात्र कंदमूल फल आदि को इकट्ठा करके ही जीविका पालन करता हो । सभी जनजातियों के पास मछली पकड़ने तथा पशुओं का शिकार करने के लिए पर्याप्त यंत्र तथा उपकरण होते हैं । शिकार करने तथा फल फूल इकट्ठा करने वाले समाजों का आर्थिक संगठन अत्यधिक अस्थिर तथा अनिश्चित होता है ।

वील्स तथा हॉइजर ने ऐसे समाजों की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया है -

1. - भोजन इकट्ठा करने वाले समाजों में जनसंख्या का घनत्व साधारणतया बहुत कम होता है । इस नियम का उल्लंघन केवल कुछ ऐसे समाजों में होता है जो कि अत्यधिक अनुकूल भौगोलिक पर्यावरण में रहते हैं जैसे कि उत्तरी पैसिफ़िक तट या अमेरिका के बड़े मैदान में रहने वाले जनजातीय समाज ।

2. - इस प्रकार के समाज प्रायः अन्य समाजों से पृथक रहकर जीवन व्यतीत करते हैं और अक्सर स्थान परिवर्तित करते रहते हैं । इनका आर्थिक संगठन खानाबदोशी होता है ।

3. - इस प्रकार का समाज आत्मनिर्भर परिवारों का संकलन होता है । ये परिवार आपस में रक्त संबंधी होते हैं ।

4. - ऐसे समाज आज सुदूर प्रदेशों में या गहन जंगलों के भीतर पाए जाते हैं इसलिए इनके सांस्कृतिक प्रतिमान पर दूसरे समाजों का प्रभाव ना के बराबर है जिसके फलस्वरूप इनकी संस्कृतियों की मूल विशेषताएं आज भी उसी रूप में या बहुत कम परिवर्तित अवस्था में पाई जाती है ।

ब . - पशुपालन या चारागाह का स्तर :-

उपरोक्त स्थिति से पशुपालन के स्तर में आदिम समाजों ने तब कदम रखा जब मानव ने यह अनुभव किया कि पशुओं को मारने के बजाय अगर उन्हें पाला जाए तो उनसे जीवित रहने के अधिक साधन प्राप्त हो सकेंगे क्योंकि उन पशुओं से उनके बच्चे भी प्राप्त होंगे और साथ ही दूध भी प्राप्त होगा । इससे से मानव का आर्थिक जीवन प्रथम स्तर की तुलना में अधिक निश्चित और स्थिर हुआ क्योंकि पशुओं को लेकर रोज स्थान परिवर्तन करना कष्टदायक होता है । इसलिए एक ही स्थान पर जब तक उन पालतू पशुओं के खाने पीने की चीजें अर्थात चारागाह मिल जाते हैं तब तक स्थान परिवर्तन की कोई विशेष आवश्यकता नहीं होती । परंतु घास आदि समाप्त हो जाने पर दूसरी चारागाह की खोज में वे दूसरी जगह चले जाते हैं ।
     संसार में शायद ही कोई ऐसा समाज है जहां कि पशुपालन का काम नहीं होता है । प्रत्येक समाज किसी न किसी रूप में पशुओं को पालता है । प्रारंभिक स्तर में इन पशुओं को मारकर उनके मांस को खाने के काम में, खाल को पहनने के काम में और हड्डियों को नाना प्रकार के आभूषण तथा अस्त्र बनाने के काम में लाया जाता है । टुण्ड्रा प्रदेश बारहों महीने बर्फ से ढका रहता है फिर भी प्रकृति ने वहां के लोगों को समूर वाले जानवर , जैसे सफेद भालू ,भेड़िया,लोमड़ी, खरगोश, मस्कबैल, रेनडियर आदि प्रदान किये हैं । वहां के लोग इन पशुओं की खाल के वस्त्र पहनते हैं । वे समूर के दस्ताने और लंबे जूते जिनमें भीतर समूर लगी होती है , पहनते हैं । उसी प्रकार संसार में ऐसे अनेक आदिम समाज हैं जिनमें की पशुओं को पालने का एक प्रमुख उद्देश्य उनके दूध को या दूध से बनी अन्य चीजों को भोजन के एक उत्तम साधन के रूप में प्राप्त करना होता है । साथ ही ऐसे भी जनजातीय समाज हैं जिनमें लोग कृषि के काम में पशुओं को व्यवहार में लाने के लिए उन्हें पालते हैं ।

फोर्ड ने पशुओं की 6 उपयोगिताओं का उल्लेख किया है -

1. - पशुओं के मांस को भोजन के रूप में इस्तेमाल करना ।
2. - खालो का प्रयोग करना ।
3. - उनके बाल या उनका प्रयोग करना ।
4. - दूध और दूध से बनने वाली वस्तुओं का उपयोग करना ।
5. - बोझा ढोने और गाड़ी खींचने का काम और ।
6. - सवारी का काम ।

परंतु कौन सा समाज किन पशुओं को पालेगा यह बहुत कुछ उस समाज की स्थानीय परिस्थितियों पर निर्भर करता है । दूसरे शब्दों में विभिन्न समाजों में पालतू पशुओं में काफी भिन्नता पाई जाती है । कुत्ता मनुष्य का बहुत पुराना साथी है । इनसे अधिकांश समाज पहरेदारी का काम लेते हैं । परंतु कुछ ऐसे आदिम समाज भी हैं जिनमें कुत्तों के मांस को खाया भी जाता है । संसार में कुछ आदिम समाज ऐसे भी हैं जो कि अपनी जीविका पालन हेतु संपूर्ण रूप से पशुपालन पर ही निर्भर रहते हैं । परंतु ऐसे समाजों की संख्या बहुत अधिक नहीं है ।
       चूँकि पशुओं को पालने के लिए सर्वप्रथम आवश्यकता इस बात की है कि उनके खाने के लिए घास पात उपलब्ध हो पशुओं को पालने वाले समूह उन्हें प्रदेशों में अधिक पाए जाते हैं जहां की चारागाह या घास पात पर्याप्त मात्रा में मिल सकता है । इसलिए ऐसे समूह एक ही स्थान पर कितने दिन रहेंगे यह सम्पूर्णतया इस बात पर निर्भर करता है कि उस स्थान पर उनके पशुओं के खाने के लिए घास कब तक मिलति रहेंगी । रेगिस्तानी प्रदेशों में भी कुछ ऐसे समझ पाए जाते हैं जो कि अपनी जीविका के लिए संपूर्णतया पशुओं पर निर्भर रहते हैं । उत्तरी अरब की वेडोउइन जनजाति इसी प्रकार की है । इसकी जीविकोपार्जन का सबसे महत्वपूर्ण साधन ऊंट है । इस जनजाति के लोग अपने होंठों को लेकर चारागाह की खोज में एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूम फिर कर जीवन बिताते हैं । बर्फीले प्रदेशों की जनजातियां भी पशु पालती है। एस्कीमो जनजाति रेनडियर आदि पशुओं का पालन करती है । उसी प्रकार अन्य जनजातीय समूहों में कुत्ता, गाय, बैल, भैंस, बकरी, भेड़, घोड़ा आदि जानवरों को पालते हैं ।
      इस स्तर में आर्थिक क्रियाओं के संबंध में प्राकृतिक पर्यावरण पर निर्भरता प्रायः प्रथम स्तर जैसी ही बनी रही । इसीलिए ऋतु परिवर्तन के साथ-साथ लोगों को चारागाहों की खोज में एक जगह से दूसरी जगह जाना पड़ता है । फिर भी आर्थिक जीवन उतना अस्थिर और अनिश्चित नहीं होता है जितना की प्रथम स्तर में । पशुओं में कोई रोग महामारी के रूप में फैल जाने पर तथा एकाएक अधिक संख्या में पशुओं के मर जाने पर बहुधा पशुपालक समूहों को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता है और भूखों मरने की नौबत आ जाती है । परंतु पशुओं के रोगों की चिकित्सा करने का कुछ न कुछ ज्ञान उन लोगों को अवश्य ही होता है । वे पशुओं का इलाज जड़ी बूटी और झाड़-फूंक की सहायता से करते हैं । इस विषय में संपूर्ण समुदाय प्रत्येक परिवार की मदद करने के लिए सदैव तैयार रहता है । कुछ समाजों में तो इन पशुओं पर पूरे समूह का अधिकार होता है ।

स. - कृषि स्तर :- इस स्तर का प्रारंभ तब होता है जब मानव को बीज बोने और पौधे उगाने की कला आ गई । फलों का बाग लगाने या खेती करने की क्षमता ने आर्थिक जीवन को पहले से अधिक स्थिर बनाया । यद्यपि जनजातियों के लिए बगीचा लगाकर फल उत्पन्न करना अथवा खेती द्वारा अनाज प्राप्त करना भी प्राकृतिक दशाओं पर अत्यधिक निर्भर और इस कारण अनिश्चित है, फिर भी उतना अनिश्चित नहीं जितना की शिकार करना । संक्षेप में इस स्तर में शिकार करने व फल फूल इकट्ठा करने तथा पशुपालन की स्थिति से भोजन अधिक नियमित रूप से प्राप्त होने लगा । साथ ही, फलों का बाग लगाना या खेती करना एक ऐसी आर्थिक क्रिया है जो कि स्वाभाविक ही मनुष्य को जमीन से बांध देती है । इसका आशय यह है कि इस स्तर में मनुष्यों को एक ही स्थान पर घर बनाकर स्थाई रूप से आर्थिक क्रियाओं को करने का अवसर प्राप्त हुआ । भोजन की पूर्ति बड़ी और उसके साथ-साथ जनसंख्या भी । इससे आर्थिक अंतः क्रियाओं का क्षेत्र भी विस्तृत हुआ और विभिन्न समाजों के बीच आर्थिक सम्बन्ध पनपा ।

डा. दुबे के अनुसार, भोजन देने वाले वृक्षों का आरोपण मानव ने संभवतः सबसे पहले इथियोपिया से उत्तर भारत की पर्वतीय घाटियों में , दक्षिण पूर्व एशिया में और मेक्सिको से चिली तक की उच्च भूमि में किया । पौधों को लगाने के काम में जिन औजारों या उपकरणों को काम में लाया जाता है उनमें कुदाल सबसे प्रमुख और प्राचीन है क्योंकि कालांतर में आविष्कृत फावड़ा इस कार्य के लिए अधिक उपयोगी प्रमाणित नहीं हुए । साथ ही प्रत्येक देश की भौगोलिक परिस्थितियां प्रत्येक प्रकार के फल के पेड़ पौधों को उगाने के लिए अनुकूल न होने के कारण प्रत्येक देश में अलग-अलग तरह के फल व बाग लगाए जाते हैं । इसके अतिरिक्त उन स्थानों में जहां की भूमि अत्याधिक उपजाऊ है पल के बाद अधिक लगाए जाते हैं क्योंकि खाद्य अन्य उर्वरक को व्यवहार में लाने के संबंध में आदिम समाजों के लोगों को कोई भी ज्ञान नहीं होता है । इसलिए जैसे ही एक भूमि खंड की उर्वरता दो - चार साल की फसल के बाद समाप्त हो जाती है वैसे ही उन्हें वह स्थान को भी बदलना पड़ता है । केला , नारियल और नाना प्रकार के कंद मूल आदि का बगीचा सबसे पहले मनुष्य ने लगाया था, फिर धीरे-धीरे अन्य प्रकार के फल और भोजन देने वाले वृक्षों को लगाया जाने लगा ।
      अनाजों को उत्पन्न करने के लिए कृषि का काम सर्वप्रथम कब और कहां प्रारंभ हुआ यह निश्चित रूप से बताना कठिन है फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि कृषि का प्रारंभ तब हुआ होगा जबकि मनुष्य को बीज बोने और पौधा उगाने की कला का ज्ञान हुआ था । यह ज्ञान सर्वप्रथम स्त्रियों को ही हुआ था क्योंकि पुरुष दल तो जंगल में शिकार करने या मछली पकड़ने के लिए एक जगह से दूसरी जगह भटकता फिरता था । जबकि स्त्रियां घर पर अर्थात एक जगह पर ही रहकर फल-फूल आदि इकट्ठा करती थी । इसलिए स्त्रियों की निगाहों में यह पढ़ना संभव था कि एक गुठली या बीज से फिर पौधा उग सकता है । यही कारण है कि आदिम समाजों में कृषि कार्य में स्त्रियां विशेष निपुण होती है और इस कार्य में उनका योगदान महत्वपूर्ण होता है ।
     पहले यह विश्वास किया जाता था कि कृषि का काम सर्वप्रथम मिस्र में प्रारंभ किया गया था । परंतु अब इससे कोई सहमत नही है । आज के उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कृषि का काम संसार के एकाधिक भागों में एक साथ प्रारंभ किया गया था । पर हां, कुछ विशेष भौगोलिक क्षेत्रों में विशेष प्रकार के अनाज को विशेष रूप से उत्पन्न किया जाता है जो कि उस क्षेत्र में पाई जाने वाली भौगोलिक परिस्थिति जलवायु,वर्षा, आदि से संबंधित है चूँकि एक क्षेत्र विशेष में एक विशिष्ट प्रकार की जलवायु, वर्षा आदि उपलब्ध है और चूँकि इन्हें परिवर्तित करने या इन पर नियंत्रण पाने की कोई कला आदिम लोगों को नहीं आती है, इस कारण उस भौगोलिक परिस्थिति में जो अनाज सरलता से उगाया जा सकता है उन्हीं की खेती उस क्षेत्र में की जाती है । पुरानी दुनिया को इस प्रकार के पांच विशिष्ट क्षेत्रों में बांटा जा सकता है जो निम्नलिखित है -

1. - दक्षिण पश्चिम एशिया ( अर्थात उत्तर पश्चिम भारत, अफगानिस्तान , ईरान ट्रासककेशिया और पूर्वी व मध्य आनाटोलिया ) नरम गेंहू, राई, मटर, मसूर की दाल आदि का घर हैं । इन क्षेत्रों की जलवायु इन अनाजों के उत्पन्न होने के अनुकूल है ।
2. - भूमध्य सागरीय क्षेत्र में जैतून,अंजीर आदि की उपज पहले आरंभ हुई थी ।
3. - इथियोपिया गेंहू, जौ तथा बड़े आकार के मटर का घर है ।
4. - चीन तथा आसपास के क्षेत्र सोयाबीन, बाजरा आदि के स्थान हैं।
5. - मध्य तथा दक्षिणी भारत म्यांमार इंडोचीन चावल, गन्ना तथा कपास का घर है ।
      आदिम समाजों में खेती करने के तरीके बहुत अविकसित हैं । इसका प्रमुख कारण खेती के लिए आवश्यक और यारों या उपकरणों की कमी खाद, उर्वरक के विषय में ज्ञान का अभाव तथा बीजों को बोने का सही तरीका मालूम ना होना है । अनेक जनजातियां अति आदिम ढंग से खेती करती है जिसे की स्थानांतरित खेती कहते हैं । इस प्रकार की खेती में जंगल के पेड़ों को काटकर उन्हें एक स्थान पर एकत्रित करके जला दिया जाता है और फिर राख को पूरे स्थान पर जहां खेती करनी हो फैला दी जाती है और इसमें बीज बो दिए जाते हैं । जब एक या दो वर्ष के बाद उस स्थान की भूमि की उर्वरा शक्ति समाप्त हो जाती है तो स्थान परिवर्तन करके दूसरे स्थान पर इसी प्रकार से खेती की जाती है । इस कारण इसे स्थानांतरित खेती कहते हैं । इस प्रकार की खेती से केवल कुछ मोटा अनाज जैसे जौ, बाजरा, मटर, चना, आदि ही उत्पन्न हो पाता है । 
     कुल उत्पादन भी बहुत कम होता है और जो कुछ अनाज पैदा होता है उसका कोई भी भाग सामूहिक आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद विनिमय के लिए शेष नहीं रहता । इन समाजों में प्राया खेती का काम सामूहिक आधार पर होता है ऐसी स्थिति में खेत किसी विशेष परिवार का ना होकर पूरे समूह का होता है और उस पर उस समूह के प्रत्येक परिवार के सभी सक्षम व्यक्ति काम करते हैं और जो कुछ भी उपज होती है उसे मुखिया प्रत्येक परिवार को उनकी आवश्यकता के अनुसार बांट देता है । जिन समाजों में यह व्यवस्था नहीं है वहां भी फसल काटने या एकत्रित करने के लिए कभी-कभी संगठित दल सामूहिक रूप से काम करते हैं । घर के युवा सदस्य भी ऐसे कामों में हाथ बंटाने आ जाते हैं ।
      अनेक ऐसे जनजातीय समाज भी है जहां की स्थाई तरीके से एक ही जमीन पर खेती होती है और वे अपने खेत का स्थान नहीं बदलते । इन समाजों में खेती करने का तरीका थोड़ा सा उन्नत है और इसीलिए कुछ अधिक अनाज उत्पन्न हो जाता है । फलतः सामूहिक आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद भी उत्पन्न अनाज का कुछ भाग विनिमय के लिए शेष रह जाता है । इसे वे आसपास के समुदाय में जाकर विनिमय के माध्यम से दूसरों को देखकर उसके बदले में अपनी आवश्यकता की वस्तुओं को ले आते हैं ।
       सरल कृषि व्यवस्था पालिनेशिया, मेलानेशिया, मलय एशिया, भारत आदि देशों के जनजातीय समाजों में पाई जाती है । संपूर्ण अर्थव्यवस्था पारिवारिक या सामूहिक आधार पर आयोजित होती है, यद्यपि स्त्री पुरुष के भेद के आधार पर किसी ना किसी प्रकार का आर्थिक श्रम विभाजन अवश्य ही मिलता है । वेतन देकर बाहरी श्रमिकों को काम पर लगाने की प्रथा नहीं पाई जाती ।

द . - औद्योगिक स्तर :- कोई भी आदिम समाज पूर्णतया औद्योगिक स्तर तक नहीं पहुंच पाया है । आदिम समाज तो क्या कोई भी समाज केवल उद्योग पर ही निर्भर है यह सोचना गलत है । उद्योग के साथ-साथ कृषि कार्य भी प्रायः समस्त प्रगतिशील देशों में ही होता है । आदिम समाजों में सामान्य उद्योग या दस्तकारी देखने को मिलती है और वह भी खेती आदि के साथ साथ । प्रायः देखा जाता है कि अनेक जनजातीय समाजों में वहां के लोगों की आर्थिक क्रियाओं में पशुपालन और खेती के साथ टोकरी बनाना,सूत कातना तथा बुनना, रस्सी चटाई आदि बनाना, दरी बनाना, कपड़े बुनना, लोहे के औजार बनाना, मिट्टी और धातुओं के बर्तन बनाना आदि भी सम्मिलित है ।

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समाजशास्त्र की उत्पत्ति एवं विकास बाटोमोर के अनुसार समाजशास्त्र एक आधुनिक विज्ञान है जो एक शताब्दी से अधिक पुराना नहीं है । वास्तव में अन्य सामाजिक विज्ञानों की तुलना में समाजशास्त्र एक नवीन विज्ञान है । एक विशिष्ट एवं पृथक विज्ञान के रूप में समाजशास्त्र की उत्पत्ति का श्रेय फ्रांस के दार्शनिक आगस्त काम्टे को है जिन्होंने सन 1838 में समाज के इस नवीन विज्ञान को समाजशास्त्र नाम दिया । तब से समाजशास्त्र का निरंतर विकास होता जा रहा है । लेकिन यहां यह प्रश्न उठता है कि क्या आगस्त काम्टे के पहले समाज का व्यवस्थित अध्ययन किसी के द्वारा भी नहीं किया गया । इस प्रश्न के उत्तर के रूप में यह कहा जा सकता है कि आगस्त काम्टे के पूर्व भी अनेक विद्वानों ने समाज का व्यवस्थित अध्ययन करने का प्रयत्न किया लेकिन एक स्वतंत्र विज्ञान के रूप में समाजशास्त्र अस्तित्व में नहीं आ सका । समाज के अध्ययन की परंपरा उतनी ही प्राचीन है जितना मानव का सामाजिक जीवन । मनुष्य में प्रारंभ से ही अपने चारों ओर के पर्यावरण को समझने की जिज्ञासा रही है । उसे समय-समय पर विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सामना भी करना पड़ा है । इन समस

समाज की प्रमुख विशेषताएं बताइए

समाज की प्रमुख विशेषताएं बताइए समाज और उसकी प्रकृति को स्पष्टतः समझने के लिए यहां हम उसकी कुछ प्रमुख विशेषताओं पर विचार करेंगे जो सभी समाजों में सार्वभौमिक रूप से पाई जाती है । ये विशेषताएं निम्नलिखित हैं : 1. - पारस्परिक जागरूकता - पारस्परिक जागरूकता के अभाव में ना तो सामाजिक संबंध बन सकते हैं और ना ही समाज । जब तक लोग एक दूसरे को उपस्थिति से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से परिचित नहीं होंगे तब तक उनमें जागरूकता नहीं पाई जा सकती और अंतः क्रिया भी नहीं हो सकती । इस जागरूकता के अभाव में वे ना तो एक दूसरे से प्रभावित होंगे और ना ही प्रभावित करेंगे अर्थात उनमें अंतः क्रिया नहीं होगी । अतः स्पष्ट है कि सामाजिक संबंधों के लिए पारस्परिक जागरूकता का होना आवश्यक है और इस जागरूकता के आधार पर निर्मित होने वाले सामाजिक संबंधों की जटिल व्यवस्था को ही समाज कहा गया है । 2. - समाज अमूर्त है - समाज व्यक्तियों का समूह ना होकर और मैं पनपने वाले सामाजिक संबंधों का जाल है । सामाजिक संबंध अमूर्त है । इन्हें ना तो देखा और ना ही छुआ जा सकता है । इन्हें तो केवल महसूस किया जा सकता है । अतः सामाजिक संबंधों

सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए

सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए परिवर्तन प्रकृति का एक शाश्वत एवं जटिल नियम है। मानव समाज भी उसी प्रकृति का अंश होने के कारण परिवर्तनशील है। समाज की इस परिवर्तनशील प्रकृति को स्वीकार करते हुए मैकाइवर लिखते हैं " समाज परिवर्तनशील एवं गत्यात्मक है । " बहुत समय पूर्व ग्रीक विद्वान हेरेक्लिटिस ने भी कहा था सभी वस्तुएं परिवर्तन के बहाव में हैं। उसके बाद से इस बात पर बहुत विचार किया जाता रहा कि मानव की क्रियाएं क्यों और कैसे परिवर्तित होती हैं? समाज के वे क्या विशिष्ट स्वरूप हैं जो व्यवहार में परिवर्तन को प्रेरित करते हैं? समाज में अविष्कारों के द्वारा परिवर्तन कैसे लाया जाता है एवं अविष्कार करने वालों की शारीरिक विशेषताएं क्या होती है? परिवर्तन को शीघ्र ग्रहण करने एवं ग्रहण न करने वालों की शारीरिक रचना में क्या भिन्नता होती है? क्या परिवर्तन किसी निश्चित दिशा से गुजरता है? यह दिशा रेखीय हैं या चक्रीय? परिवर्तन के संदर्भ में इस प्रकार के अनेक प्रश्न उठाए गए तथा उनका उत्तर देने का प्रयास भी किया गया। मानव परिवर्तन को समझने के प्रति जिज्ञासा पैदा हुई। उसने परिवर्तन के