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संस्था का अर्थ एवं परिभाषा और संस्था की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए

संस्था का अर्थ एवं परिभाषा और संस्था की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए

समिति और संस्था दोनों ही एक दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बंधित हैं और दोनों को एक दूसरे के संदर्भ में ठीक प्रकार से समझा जा सकता है । समिति व्यक्तियों का समूह है जो एक या कुछ उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बनाई जाती है जबकि संस्था इन्हीं उद्देश्यों को पूरा करने हेतु नियमों एवं कार्य प्रणाली की एक व्यवस्था है । संस्था को कार्य करने का समाज द्वारा मान्यता प्राप्त एक निश्चित ढंग भी कहा जा सकता है । जिन उद्देश्यों को लेकर समिति बनाई जाती है, उन्हीं की पूर्ति के लिए अपनाई जाने वाली कार्यप्रणाली को संस्था कहा जाता है । उदाहरण के रूप में, परिवार एक समिति है जिसका मुख्य लक्ष्य यौन इच्छाओं की पूर्ति, संतानोत्पत्ति बालकों का पालन पोषण और सदस्यों की विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करना है । इन लक्ष्यों की पूर्ति के लिए विवाह नामक संस्था पाई जाती है । प्रत्येक परिवार का एक संस्थात्मक रूप पाया जाता है । सदस्यों के संबंधों को नियमित करने,प्रस्थिति के अनुरूप कार्यों का निर्धारण करने तथा विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु एक दूसरे के साथ सहयोग करने संबंधी निश्चित नियम तथा तरीके पाए जाते हैं । इन्हीं से मिलकर संस्था बनती है ।
     महाविद्यालय एक समिति और संस्था दोनों ही है । जब हम महाविद्यालय पर आचार्य, विभागाध्यक्षो,प्राध्यापकों, अन्य कर्मचारियों एवं विद्यार्थियों की दृष्टि से अर्थात मनुष्यों के समूह के रूप में विचार करते हैं तो वह एक समिति है जिसके कुछ लक्ष्य हैं । इन्हीं लक्ष्यों की पूर्ति के लिए महाविद्यालय में शिक्षण की एक पद्धति अपनानी होती है, एक टाइम टेबल बनाना होता है, कई नियम एवं आचरण संबंधी बातें निश्चित करनी पड़ती है, परीक्षा की किसी प्रणाली का सहारा लेना पड़ता है । ये सब मिलकर महाविद्यालय को एक संस्था का रूप प्रदान करते हैं ।

संस्था की परिभाषा एवं अर्थ :-

मैकाइबर एवं पेज के अनुसार - " संस्थाएं सामूहिक क्रिया की विशेषता व्यक्त करने वाली कार्यप्रणाली के स्थापित स्वरूप अथवा अवस्था को कहते हैं । इस परिभाषा से ज्ञात होता है कि संस्था सामूहिक क्रिया या जीवन का परिणाम है । यह व्यक्तियों का समूह नहीं होकर व्यक्तियों के समूह द्वारा स्थापित संगठन के द्वारा किए जाने वाले कार्य के ढंग या प्रणाली का एक स्वरूप है । संस्था किसी समिति अथवा संगठन को चलाने के लिए विधि-विधानों की एक व्यवस्था है, समूह द्वारा मान्यता प्राप्त कार्य करने की एक विशिष्ट प्रणाली है । मैकाइबर एवं पेज के अनुसार मंदिर, मस्जिद, चर्च तथा राज्य आदि का मूर्त स्वरूप समिति है जबकि इनमें से प्रत्येक से सम्बन्धित, विधि विधानों एवं कार्य प्रणालियों की व्यवस्था संस्था है । इस प्रकार समिति मूर्त हैं जबकि संस्था अमूर्त । इसी कारण हम समिति के सदस्य होते हैं न कि संस्थाओं के । हम किसी क्लब, कमेटी, संघ, राजनीतिक दल आदि के सदस्य तो हो सकते हैं । परंतु शिक्षा प्रणाली, परीक्षा प्रणाली अथवा विवाह संस्था के नहीं ।

गोल्डनर तथा गोल्डनर के अनुसार - " एक संस्था विभेदीकृत व्यवहार की समाज द्वारा निश्चित की गई एक प्रणाली है जिसकी सहायता से समाज में बराबर बनी रहने वाली समस्याओं का समाधान किया जाता है । इस परिभाषा से स्पष्ट है कि समाज द्वारा स्वीकृत व्यवहार करने की एक निश्चित प्रणाली या व्यवस्था ही संस्था है जिसकी सहायता से विभिन्न समस्याएं हल की जाती है । अनेक प्रमुख आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है ।

आगबर्न तथा निमकॉफ के अनुसार - " कुछ आधारभूत मानवीय आवश्यकताओं की संतुष्टि हेतु संगठित एवं स्थापित प्रणालियां सामाजिक संस्थाएं हैं । मनुष्य की कुछ मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु निर्मित विधि-विधानों एवं प्रणालियों की व्यवस्था ही सामाजिक संस्था है ।

बोगार्डस के अनुसार - " एक सामाजिक संस्था समाज की ऐसी संरचना है जिसे मुख्यतः सुस्थापित प्रणालियों के द्वारा लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए संगठित किया गया हो । स्पष्ट है कि संस्थाओं का संबंध प्रमुखतः लोगों की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति से है। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु निश्चित कार्य प्रणालियां विकसित की जाती है जिन्हें संस्थाओं के नाम से पुकारते हैं ।

गिलिन और गिलिन ने लिखा है, " सामाजिक संस्था कुछ सांस्कृतिक विशेषताओं को प्रकट करने वाले वे नियम है जिनमें काफी स्थायित्व होता है और जिनका कार्य सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना होता है ।

मोरिस गिन्सबर्ग के अनुसार - " ये (संस्थाएं) व्यक्तियों या समूहों के बीच संबंधों को निर्देशित करने वाली मान्य तथा स्थापित कार्य प्रणालियों के रूप में परिभाषित की जा सकती है । अपने व्यक्तियों या समूहों के संबंधों को संचालित करने वाली मान्य कार्य प्रणालियों को ही संस्थाओं का नाम दिया है । संस्थाएं समुदाय में ही विकसित होती है और समुदाय में ही बनी रहती है । मैकाइबर एवं पेज और मोरिस गिन्सबर्ग दोनों ने ही विधि विधानों ,कार्य प्रणालियों एवं नियमों के स्थापित स्वरूप को संस्था माना है ।

प्रो. डेविस के अनुसार - " एक संस्था को किसी एक या अधिक प्रकार्यों के चारो ओर निर्मित अन्तर्सम्बन्धित जनरीतियों (लोकाचारों) ,रूढ़ियों और कानूनों के समुच्चय (Set) के रूप में परिभाषित किया जा सकता हैं ।

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि सामाजिक संस्थाएं मनुष्यों की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन के रूप में विकसित नियमों,विधि विधानों एवं कार्य प्रणालियों का वह संगठित रूप है जो समाज द्वारा मान्य है ।

संस्था की विशेषताएं -

गिलिन एवं गिलिन नामक विद्वानों ने संस्था के निम्नांकित विशेषताओं का उल्लेख किया है :

1. - सम्पूर्ण सांस्कृतिक व्यवस्था में संस्था का एक इकाई के रूप में कार्य - हैमिल्टन ने संस्था को सामाजिक रीति-रिवाजों का एक गुच्छा कहा है । जब जनरीतियाँ, प्रथाएँ और रूढ़ियाँ अधिक विकसित हो जाती हैं, तब इन्हें समाज स्वीकृति प्रदान कर देता है और इनसे संबंधित कई नियम बन जाते हैं तो ये ही कालान्तर में संस्था का रूप ग्रहण कर लेते हैं । प्रत्येक सांस्कृतिक व्यवस्था में अनेक संस्थाएं पाई जाती हैं जिनके माध्यम से मनुष्य की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है । प्रत्येक संस्था सांस्कृतिक व्यवस्था की एक मौलिक इकाई के रूप में कार्य करती है ।

2. - अधिक स्थायित्व - संस्थाओं का विकास एक लम्बी अवधि के बाद होता है और वह भी उस समय जब कार्य के विशिष्ट तरीके अपनी उपयोगिता प्रमाणित कर देते हैं । इसी कारण संस्थाएं काफी लंबे समय तक चलती है, इनका शीघ्रता से विनाश नहीं होता । उदाहरण के रूप में सैकड़ों वर्षो से चली आ रही जाति व्यवस्था का अस्तित्व भारतीय समाज में आज भी बना हुआ है । इसी प्रकार विवाह की संस्था आज विश्व के प्रायः प्रत्येक समाज में देखने को मिलती है ।

3. - एक या अनेक सुस्पष्ट उद्देश्य - प्रत्येक संस्था के एक या कुछ निश्चित उद्देश्य होते हैं । ये उद्देश्य प्रमुख मानवीय आवश्यकताओं से संबंधित होते हैं । उदाहरण के रूप में, विवाह की संस्था के कुछ सुस्पष्ट उद्देश्य है, यद्यपि विभिन्न समाजों में इनमें कुछ अंतर अवश्य पाए जाते हैं ।

4. - सांस्कृतिक उपकरण - प्रत्येक संस्था से संबंधित कुछ अभौतिक तथा भौतिक उपकरण होते हैं जो संस्था के उद्देश्यों की दृष्टि से उपयोगी होते हैं । उदाहरण के रूप में भवन,फर्नीचर, औजार, मशीन आदि संस्था के भौतिक और विचार,आदर्श मूल्य तथा कार्य प्रणाली आदि अभौतिक उपकरण हैं । हिंदू समाज में होम वेदी , मण्डप, कलश, धूप,नैवेद्य, चावल, जप तथा मन्त्र आदि विवाह संस्था से सम्बंधित भौतिक एवं अभौतिक तत्त्व हैं ।

5. - प्रतीक - प्रत्येक संस्था का अपना एक प्रतीक होता है जो कि भौतिक अथवा अभौतिक हो सकता है । उदाहरण के रूप में, 'क्रास' चर्च का और ' ॐ ' आर्य समाज का प्रतीक हैं । हिंदुओं में मंगल कलश विवाह संस्था का प्रतीक है । इन प्रतीकों के माध्यम से पहचानी जाती हैं ।

6. - परम्परा - प्रत्येक संस्था की कुछ लिखित या अलिखित परम्पराएँ होती है जिनके द्वारा व्यक्तियों के व्यवहार पर नियंत्रण रखा जाता है । ये परम्पराएँ लोगों के व्यवहारों में अनुरूपता या समानता लाने में भी योग देती है, परम्पराओं के अंतर्गत प्रथाएं, जनरीतियाँ, नियम तथा धार्मिक संस्कार आदि आते हैं ।

संस्था की कुछ अन्य विशेषताएं या आवश्यक तत्व :-


1. - एक विचार - संस्था के लिए प्रथम आवश्यक तत्व एक विचार का किसी मनुष्य के मस्तिष्क में आना है । किसी आवश्यकता की पूर्ति के साधन के रूप में यह विचार उत्पन्न हो सकता है । धीरे-धीरे यही विचार विभिन्न स्तरों से गुजर कर एक संस्था का रूप ग्रहण कर लेता है ।

2. - विशिष्ट उद्देश्य - प्रत्येक संस्था की उत्पत्ति का आधार कोई न कोई आवश्यकता होती है जिसके अभाव में इसका विकास संभव नहीं है । तात्पर्य यह है कि उद्देश्य के कारण ही प्रत्येक प्रकार की संस्था का विकास होता है ।

3. - संरचना - प्रत्येक संस्था की अपनी एक संरचना होती है जो कि अन्य समाजों में उसी प्रकार की संस्था की संरचना से भिन्नता लिए हुए होती है । उदाहरण के रूप में, विवाह की संस्था सभी समाजों में पाई जाती है परंतु विभिन्न समाजों में इसकी संरचना में अंतर हो सकता है । संरचना में नियम, विधि विधान तथा कार्य प्रणाली आदि आते हैं ।

4. - अभिमति एवं अधिकार - संस्था का एक आवश्यक तत्व समूह या समाज की स्वीकृति ( अभिमति ) है और इसी स्वीकृति के आधार पर संस्था इनका कुछ अधिकार या सत्ता प्राप्त होती है । इसी सत्ता के कारण संस्था मनुष्यों के व्यवहारों को नियंत्रित कर पाती है और उन्हें निश्चित प्रकार से व्यवहार करने का निर्देश देती है ।

5. - स्थायित्व - संस्थाएं साधारणतः स्थायी होती है क्योंकि इनका विकास मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन के रूप में होता है और ये आवश्यकताएं काफी लम्बे समय तक बनी रहती है । परंतु स्थायित्व का यह तात्पर्य नहीं है कि संस्थाएं कभी परिवर्तित होती ही नहीं । जैसे ही मनुष्य की आवश्यकताओं में परिवर्तन आता है उसके साथ ही साथ संस्थाओं का रूप भी बदल जाता है ।

6. - प्रतीक - प्रत्येक संस्था का अपना एक प्रतीक होता है जो भौतिक या अभौतिक हो सकता है । प्रतीक पर पहले भी प्रकाश डाला जा चुका है ।

7. - विरासत - प्रत्येक संस्था का विकास काफी लंबी अवधि के बाद होता है । संस्था समाज या समूह द्वारा स्वीकृति एक कार्य प्रणाली के रूप में होती है । चूँकि संस्था मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति का एक साधन है और ये अवधारणाएं बनी रहती हैं, अतः संस्था पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती है ।

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