समाज की प्रमुख विशेषताएं बताइए
समाज और उसकी प्रकृति को स्पष्टतः समझने के लिए यहां हम उसकी कुछ प्रमुख विशेषताओं पर विचार करेंगे जो सभी समाजों में सार्वभौमिक रूप से पाई जाती है । ये विशेषताएं निम्नलिखित हैं :1. - पारस्परिक जागरूकता - पारस्परिक जागरूकता के अभाव में ना तो सामाजिक संबंध बन सकते हैं और ना ही समाज । जब तक लोग एक दूसरे को उपस्थिति से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से परिचित नहीं होंगे तब तक उनमें जागरूकता नहीं पाई जा सकती और अंतः क्रिया भी नहीं हो सकती । इस जागरूकता के अभाव में वे ना तो एक दूसरे से प्रभावित होंगे और ना ही प्रभावित करेंगे अर्थात उनमें अंतः क्रिया नहीं होगी । अतः स्पष्ट है कि सामाजिक संबंधों के लिए पारस्परिक जागरूकता का होना आवश्यक है और इस जागरूकता के आधार पर निर्मित होने वाले सामाजिक संबंधों की जटिल व्यवस्था को ही समाज कहा गया है ।
2. - समाज अमूर्त है - समाज व्यक्तियों का समूह ना होकर और मैं पनपने वाले सामाजिक संबंधों का जाल है । सामाजिक संबंध अमूर्त है । इन्हें ना तो देखा और ना ही छुआ जा सकता है । इन्हें तो केवल महसूस किया जा सकता है । अतः सामाजिक संबंधों के आधार पर निर्मित समाज भी अमूर्त है । यह तो अमूर्त सामाजिक संबंधों की जटिल व्यवस्था है । राइटर के अनुसार समाज व्यक्तियों का समूह नहीं है । यह तो समूह के व्यक्तियों के बीच संबंधों की व्यवस्था है । रियूटर ने लिखा है कि जिस प्रकार जीवन एक वस्तु नहीं है बल्कि जीवित रहने की एक प्रक्रिया है उसी प्रकार समाज एक वस्तु नहीं है बल्कि संबंध स्थापित करने की प्रक्रिया है । स्पष्ट है कि समाज एक अमूर्त धारणा है ।
3. - समाज में समानता एवं असमानता - समाज में समानता एवं असमानता दोनों ही देखने को मिलती है । ये दोनों ही समाज के लिए आवश्यक तत्व है । दोनों का अपना-अपना महत्व है और ये एक दूसरे के पूरक हैं । न तो किसी ऐसे समाज की कल्पना की जा सकती है जिसमें पूर्णतः समानता हो और ना ही किसी ऐसे समाज की जिसमें पूर्णतः असमानता हो । प्रत्येक समाज में ये दोनों ही बातें अनिवार्यतः पाई जाती हैं । यहां हम इन पर पृथक पृथक रूप से विचार करेंगे :-
आ. - समाज में समानता - जब तक लोगों में किसी ना किसी मात्रा में समानता की भावना नहीं होगी तब तक उनका एक दूसरे से संबंधित होने या इकट्ठा रहने का प्रश्न ही नहीं उठता । ऐसी स्थिति में समाज का निर्माण भी नहीं हो सकता । जो लोग कुछ मात्रा में शरीर और मस्तिष्क की दृष्टि से समान है तथा जो एक दूसरे के निकट हैं उन्हीं में समाज पाया जाता है । गिडिंग्स ने समानता (सजातीयता) की चेतना को समाज का आधार माना है । आदिम या प्रारंभिक छोटे व सरल समाजों में समानता का आधार नातेदारी या रक्त संबंध था । अब यह आधार काफी विस्तृत हो गया है । जब राष्ट्रीयता समानता का एक मुख्य आधार है । एक विश्व का सिद्धांत प्रमुखतः संपूर्ण मानव प्रजाति की समानता पर ही आधारित है ।
ब. - समाज में असमानता - समाज में समानता के साथ साथ भिन्नता भी पाई जाती है । मैकाइबर एवं पेज के अनुसार यदि सभी लोग पूर्णतः समान होते तो उनके सामाजिक संबंध चीटियों या मधुमक्खियों के जैसे काफी सीमित होते । ऐसी दशा में उनमें आपसी लेन-देन या पारस्परिक आदान-प्रदान बहुत कम होता । वे एक दूसरे को बहुत कम सहायता दे पाते । लिंग भेद असमानता का एक उदाहरण है और इसी भेद के कारण प्रजनान या संतानोत्पत्ति संभव हो पाई । समाज में असमानताओं के पाए जाने के कारण ही प्रत्येक एक दूसरे से कुछ लेता और बदले में कुछ देता है । यह बात परिवार, मित्र मंडली, समूह, समिति, समुदाय सभी में पाई जाती है । सभी प्रकार के सामाजिक संबंधों में असमानता की महत्वपूर्ण भूमिका देखने को मिलती है । समाज में कई प्रकार के विभेद या असमानताएं पाई जाती है, जैसे लिंग भेद, शारीरिक बनावट संबंधी भेद, स्वभाव या प्रकृति संबंधी भेद, रूचि, योग्यता या क्षमता संबंधी भेद, वर्तमान में असमानताओं के बढ़ने का एक प्रमुख कारण विशेषीकरण की प्रक्रिया हैं । विभिन्न प्रकार के विभेद या असमानताएं समाज में सामाजिक श्रम विभाजन के रूप में अपने को प्रकट करती है । श्रम विभाजन के कारण समाज प्रगति के पथ पर आगे बढ़ता है क्योंकि प्रत्येक को अपनी रूचि एवं क्षमता के अनुसार कार्य करने का अवसर मिलता है ।
स. - समाज में असमानता समानता के अधीन है - समाज में श्रम विभाजन पहले सहयोग है और फिर विभाजन । इसका तात्पर्य ही है कि समान उद्देश्यों की पूर्ति के लिए लोग एक दूसरे के साथ सहयोग करते हैं परंतु उद्देश्यों को प्रभावपूर्ण ढंग से प्राप्त करने के लिए वे आपस में कार्यों को बांट लेते हैं । समान आवश्यकताओं के कारण ही असमान कार्यों को पूरा करने के लिए लोग इकट्ठे होकर एक दूसरे के साथ सहयोग करते हैं । उदाहरण के रूप में कुछ व्यापारी लाभ कमाने के उद्देश्य से साझेदारी के संबंधों में बंध जाते हैं और मिलकर व्यापार करते हैं । इनमें से प्रत्येक, उद्देश्य की सफलता के लिए व्यापार से संबंधित विभिन्न कार्य अपनी योग्यता और शक्ति के अनुसार आपस में बांट लेते हैं । यही बात परिवार के क्षेत्र में देखने को मिलती है । स्नेह तथा घर की सामान्य इच्छा ही परिवारों की स्थापना का प्रमुख आधार है । लेकिन यहां हमें यह बात ध्यान में रखनी है कि यद्यपि समाज में समानता और असमानता दोनों ही महत्वपूर्ण है परंतु समानता प्राथमिक या प्रमुख है और असमानता द्वितीयक या गौण ।
4. - समाज में सहयोग या संघर्ष - समाज में दो प्रकार की शक्तियां देखने को मिलती है : प्रथम , वे शक्तियां जो मनुष्य को एकता के सूत्र में बांधती है , और द्वितीय, वे शक्तियां जो मनुष्य को एक दूसरे से पृथक करती हैं । सहयोग प्रथम और संघर्ष द्वितीय के अंतर्गत आता है । ये दोनों तत्व या विशेषताएं समाज के लिए अत्यंत आवश्यक है । प्रत्येक समाज में सहयोग और संघर्ष सार्वभौमिक प्रक्रिया के रूप में पाए जाते हैं । कहने का तात्पर्य है कि सरल या आदिम समाज से लेकर आधुनिक जटिल समाज तक में सहयोग और संघर्ष चलता रहता है । मनुष्य और समूहों को अपने विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक दूसरे के साथ सहयोग करना पड़ता है । लेकिन जहां वे सहयोग से ऐसा नहीं कर पाते, वहां संघर्ष का सहारा भी लेते हैं । यहां हम इन दोनों पर पृथक पृथक रूप से विचार करेंगे :
आ. - सहयोग - प्रत्येक कार्य या उद्देश्य में सफलता का आधार सहयोग ही है । पारिवारिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक आदि विभिन्न क्षेत्रों में हर समय सहयोग देखने को मिलता है । सहयोग के अभाव में ना तो कोई परिवार और ना ही कोई राजनीतिक दल अपने इच्छित लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है । चुनावों में कई राजनीतिक दलों की हार का एक प्रमुख कारण उनके सदस्यों में सहयोग का अभाव है । किसी भी कार्य में सफलता सहयोग पर ही निर्भर करती है । सहयोग के दो प्रकार हैं : 1. - प्रत्यक्ष सहयोग तथा 2. - अप्रत्यक्ष सहयोग । प्रत्येक सहयोग सहयोग का वह प्रकार है जहां समान उद्देश्य की पूर्ति के लिए कुछ लोग आमने-सामने के संबंधों में बंद कर समाज कार्य करते हैं । खेल के मैदान में खिलाड़ियों द्वारा एक दूसरे का सहयोग करना, परिवार में एक दूसरे की आवश्यकताओं की पूर्ति में योगदान देना प्रत्यक्ष सहयोग का उदाहरण ही है । अप्रत्यक्ष सहयोग सहयोग का वह प्रकार है जहां समान उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कुछ लोग असमान कार्य करते हैं । यहां उद्देश्य तो सामान होता है परंतु कार्य भिन्न भिन्न होते हैं । श्रम विभाजन अप्रत्यक्ष सहयोग का ही उदाहरण है ।
ब - संघर्ष - समाज में सहयोग के साथ साथ संघर्ष भी देखने को मिलता है । संघर्ष का प्रमुख कारण कुछ शारीरिक या वैयक्तिक भिन्नताएं , सांस्कृतिक भिन्नताएँ, विरोधी स्वार्थ या स्वार्थो का टकराना एवं तीव्र गति से होने वाले सामाजिक परिवर्तन है । व्यक्ति व्यक्ति के बीच रुचि, स्वभाव, चरित्र ,व्यक्तित्व ,रहन सहन, वेशभूषा तथा आचार विचार संबंधी भेदभाव पाए जाते हैं । इसी प्रकार लोग अलग-अलग धर्मों, संप्रदायों या मत मतान्तरों से संबंधित होते हैं ।
एक समाज और दूसरे समाज की संस्कृति में अंतर पाया जाता है । साथ ही लोगों या समूहों के एक दूसरे के विपरीत स्वार्थ भी होते हैं, अर्थात कई बार उनके स्वार्थ आपस में टकराते हैं । सामाजिक परिवर्तन की तेज गति के कारण भी व्यक्ति और समूह कई बार बदलती हुई नवीन परिस्थितियों के साथ सामान्य से अनुकूलन नहीं कर पाते । यह विभिन्न प्रकार की भिन्नताएं, स्वार्थ एवं सामाजिक परिवर्तन संघर्ष के लिए मुख्य रूप से उत्तरदाई है । मानव समाज में सहयोग के सामान संघर्ष भी मानव सभ्यता के विकास के प्रत्येक स्तर पर देखने को मिलता है ।
संघर्ष के दो प्रकार हैं : 1. - प्रत्यक्ष संघर्ष तथा । 2. - अप्रत्यक्ष संघर्ष
5. - समाज अन्योन्याश्रितता पर आधारित - अन्योन्याश्रितता समाज की एक अत्यंत महत्वपूर्ण विशेषता है । यह अन्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अन्योन्याश्रितता समाज की उत्पत्ति और विकास में एक आधारभूत तत्व है । वास्तव में यह मानव जीवन, सभ्यता एवं संस्कृति तथा उन्नति का प्रमुख आधार है । समाज सामाजिक संबंधों की जटिल व्यवस्था है और विभिन्न प्रकार के सामाजिक संबंध एक-दूसरे पर निर्भर है । मनुष्य को अपनी प्राणीशास्त्रीय या शारीरिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए दूसरे के साथ सामाजिक संबंध स्थापित करना और उन पर निर्भर रहना पड़ता है । आदिम से आदिम और छोटे एवं सरल से सरल प्रकार के समाजों में भी व्यक्ति को यौन संतुष्टि, शिकार एवं जीवन रक्षा के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ा है । आधुनिक जटिल समाजों में तो श्रम विभाजन के बढ़ने से मनुष्यों और साथ ही समाज के विभिन्न अंगों की एक दूसरे पर निर्भरता और अधिक बढ़ गई है । समाज के प्रारंभिक रूप परिवार में विभिन्न सदस्यों की अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पारस्परिक निर्भरता स्पष्टतः दिखाई पड़ती है । आज तो जीवन के सभी क्षेत्रों में पारस्परिक निर्भरता या अन्योन्याश्रितता पाई जाती है । इसका प्रमुख कारण मनुष्य का अपने में अपूर्ण होना या उसकी शक्ति का सीमित होना है । अतः यह कहा जा सकता है कि समाज अन्योन्याश्रितता पर आधारित है ।
6. - समाज सदैव परिवर्तनशील एवं जटिल व्यवस्था है - समाज की एक अन्य महत्वपूर्ण विशेषता इसकी सदैव परिवर्तनशील प्रकृति है । सामाजिक परिवर्तन एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है । विभिन्न कारणों से सामाजिक संबंधों में परिवर्तन आता रहता है व्यक्तियों की प्रस्थितियां एवं भूमिकायें बदलती रहती है, पारस्परिक अपेक्षाओं में सभी समय के साथ-साथ बदलाव आता रहता है । इन सब के परिणाम स्वरूप समाज बदलता है समाज की सामाजिक संरचना में परिवर्तन आता है । कोई भी समाज आज ठीक वैसा समाज नहीं है जैसा वह एक हज़ार वर्ष पहले था या एक हज़ार वर्ष पश्चात होगा । भारत का वैदिककाल समाज आधुनिक समय के जटिल औद्योगिक समाज से काफी भिन्न था । स्पष्ट हैं कि समाज सदैव परिवर्तनशील है ।
साथ ही समाज एक जटिल व्यवस्था है जो अनेक प्रकार से सामाजिक संबंधों से निर्मित या जुड़ी हुई है । एक ही व्यक्ति सैकड़ों व्यक्तियों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संबंधित होता है । सामान्य के आधार पर ही उसकी प्रस्थिति एवं भूमिका निर्धारित होती है । साथ ही व्यक्ति अन्य व्यक्तियों की अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर व्यवहार करता है । जब एक व्यक्ति अनेक प्रकार के सामाजिक संबंधों में बाधा होता है और निश्चित तरीके से एक दूसरे के साथ संबंधों एवं अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर व्यवहार करता है तो लाखों-करोड़ों व्यक्तियों के सामाजिक संबंधों उनकी प्रस्थितियों एवं भूमिका और पारस्परिक अपेक्षाओं के आधार पर निर्मित होने वाले व्यवस्था निश्चित रूप से जटिल होगी इसमें किसी प्रकार का कोई संदेह नहीं है । अतः समाज न केवल सदैव परिवर्तनशील है बल्कि साथ ही सामाजिक संबंधों की एक जटिल व्यवस्था है ।
7. - समाज मनुष्यों तक ही सीमित नहीं है - समाज केवल मनुष्यों तक ही सीमित ना होकर पशुओं में भी पाए जाते हैं । मैकाइबर एवं पेज ने ठीक ही कहा है कि जहां कहीं जीवन है वही समाज है । इसका तात्पर्य यही है कि सभी जीव धारियों के अपने अपने समाज होते हैं । चीटियों या मधुमक्खियों के भी समाज होते हैं इनमें एवं अनेक अन्य पशु पक्षियों में सामाजिक जीवन की अनेक विशेषताएं देखने को मिलती है । इतना अवश्य है कि जीवन के निम्नतम स्तर वाले जीव धारियों में सामाजिक जागरूकता बहुत ही कम और सामाजिक संपर्क बहुत ही अल्पकालीन होता है । जहां सामाजिक या पारस्परिक जागरूकता का अभाव है, वहां भारत की कल्पना भी नहीं की जा सकती । उच्च स्तर के पशुओं जैसे हाथी, गाय तथा नर वानरों के निश्चित समाज होते हैं । इनके जीवन में पारस्परिकता और सहयोग के तत्व पाए जाते हैं । समाजशास्त्र के अंतर्गत हम तो समाज का अध्ययन न करके मानव समाज का अध्ययन करते हैं । इसका कारण यह है कि अन्य पशुओं की तुलना में मानव विकास के उच्चतम स्तर पर है और वही अपनी योग्यता क्षमता गुणों एवं शारीरिक विशेषताओं के कारण संस्कृति का निर्माता है । उसका अपना समाज सामाजिक संगठन और सामाजिक व्यवस्था है । अतः हम मानव समाज के अध्ययन तक ही अपने को सीमित रखते हैं ।
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