समाज की अवधारणा आधारों या तत्वों पर प्रकाश डालिए
मैकाइबर एवं पेज के अनुसार , समाज नीतियों एवं कार्य प्रणालियों की, अधिकार एवं पारस्परिक सहायता की, अनेक समूहों तथा विभागों की, मानव व्यवहार के नियंत्रण तथा स्वतंत्रताओं की एक व्यवस्था है । इस सदैव परिवर्तनशील, जटिल व्यवस्था को हम समाज कहते हैं । यह सामाजिक संबंधों का जाल है और यह हमेशा परिवर्तित होता रहता है । आपने समाज को सामाजिक संबंधों का जाल अवश्य कहा है लेकिन साथ ही उन आधारों अथवा महत्वपूर्ण तथ्यों का उल्लेख भी किया है जिनकी सहायता से सामाजिक संबंध एक जटिल व्यवस्था का रूप ग्रहण करते हैं, एक सामाजिक संरचना को निर्मित करते हैं । इस परिभाषा के आधार पर मैकाइबर एवं पेज ने समाज के निम्नलिखित महत्वपूर्ण आधारों या तत्त्वों पर प्रकाश डाला है ।
1. - रीतियाँ - रीतियाँ या प्रथाएँ सामाजिक प्रतिमान का एक प्रमुख प्रकार है । ये समाज के निर्माण में आधार के रूप में कार्य करती है । समाज में व्यवस्था बनाए रखने में ये महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । सामाजिक जीवन के विभिन्न पहलुओं से संबंधित अनेक रीतियाँ पाई जाती है । जैसे खान-पान रहन-सहन वेशभूषा विवाह धर्म जाति शिक्षा आदि से संबंधित रीतियाँ । ये रीतियाँ बेटी को विशेष तरीके से व्यवहार करने को प्रेरित करती है । इनके विपरीत आचरण या व्यवहार करने पर व्यक्ति को अन्य लोगों की आलोचना का पात्र बनना पड़ता है । कभी कभी रीतियों के विरुद्ध आचरण करने पर व्यक्ति को दंडित भी किया जाता है । रीतियाँ समाजीकरण की प्रक्रिया के दौरान पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती है ।
2. - कार्य प्रणालियाँ - कार्य प्रणालियों को भी समाज का एक प्रमुख आधार माना गया है । मैकाइबर एवं पेज ने सामूहिक रूप से कार्य करने की प्रणालियों को ही संस्थाओं के नाम से पुकारा है । इन्हीं के माध्यम से एक समाज विशेष के लोग अपनी आवश्यकताओं या उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं । एक समाज में व्यक्तियों की सभी क्रियाएं सामान्यतः इन कार्य प्रणालियों के अनुरूप ही होती है, इन्हीं से नियंत्रित होती है । प्रत्येक समाज की अपनी विशेष कार्य प्रणालियां होती है जो अन्य समाजों की कार्यप्रणालीओं से भिन्न होती है । उदाहरण के रूप में , हिंदुओं की विवाह से संबंधित कार्य प्रणालियां मुसलमानों या ईसाइयों की विवाह संबंधी कार्यप्रणाली से भिन्न है ।
3. - अधिकार - अधिकार को सत्ता या प्रभुत्व के नाम से भी जाना जाता है । यह भी समाज का एक प्रमुख आधार है । कोई भी ऐसा समाज दिखाई नहीं पड़ेगा जिसमें प्रभुत्व एवं आधीनता के संबंध नहीं पाए जाते हो । समाज में अनेक संगठन, समूह, समितियां आदि होते हैं जिनके कार्य संचालन और सदस्यों के व्यवहार पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों के पास अधिकार शक्ति या सत्ता का होना आवश्यक है । इसके अभाव में व्यवस्था और शांति बनाए रखना संभव नहीं है । परिवार में यह अधिकार या शक्ति कर्त्ता ( मुखिया ) के पास ,जाति में पंच के पास, गांव में मुखिया,या प्रधान के पास तथा राज्य में राजा के बाद केंद्रित रही है । स्कूल कॉलेज आर्थिक संगठन धार्मिक संघ आदि में किसी ना किसी व्यक्ति में यह अधिकार या सत्ता सदैव मौजूद रही हैं । वर्तमान समय के जटिल समाजों में अधिकार या सत्ता सदैव मौजूद रही हैं । वर्तमान समय के जटिल समाजों में का अधिकार या सत्ता कार्यपालिका एवं न्यायपालिका में केंद्रित है जो व्यवस्था बनाए रखने की दृष्टि से महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है ।
4. - पारस्परिक सहायता - यह समाज का एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण आधार है । जब तक कुछ व्यक्ति अपने अपने उद्देश्यों या आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक दूसरे के साथ सहयोग नहीं करते तब तक समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकती । समाज के लिए सहयोगी संबंधों का होना अत्यंत आवश्यक है । सहयोग पूर्ण संबंधों के अभाव में तो एक छोटे से छोटा समूह परिवार तक भी अपने अस्तित्व को बनाए नहीं रख सकता । जिस समाज में पारस्परिक सहयोग की मात्रा जितनी अधिक होगी वह उतनी ही अधिक मात्रा में प्रगति की ओर आगे बढ़ेगा । वर्तमान में सहयोग के क्षेत्र के बढ़ जाने से समाज का आकार काफी विस्तृत हो गया है ।
5. - समूह एवं विभाग - समाज अनेक समूहों एवं विभागों ( विभाजनों ) या उप समूहों से मिलकर बना होता है । अन्य शब्दों में, हम कह सकते हैं कि प्रत्येक समाज में अनेक समूह, समितियां, संगठन आदि पाए जाते हैं जिनकी सहायता से व्यक्तियों की विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है । परिवार, क्रीडा समूह , पड़ोस , जाति गाँव, कस्बा, नगर,समुदाय, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक संगठन, स्कूल, महाविद्यालय आदि अनेक समूह एवं विभाग ही है जिनसे समाज बनता है और जो व्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति में योग देते हैं । आयु, लिंग, जाति, प्रजाति, वर्ग आदि के आधार पर समाज में अनेक विभाजन देखने को मिलते हैं । ये सभी समूह एवं विभाग आपस में एक दूसरे से संबंधित होते हैं । ये समूह जितने अधिक संगठित होंगे समाज भी उतना ही अधिक उन्नत होगा ।
6. - मानव व्यवहार के नियन्त्रण - समाज सामाजिक सम्बन्धो की एक जटिल व्यवस्था हैं । और इस व्यवस्था को ठीक से संचालित करने के लिए आवश्यक हैं कि मानव व्यवहार पर नियन्त्रण रखा जाए । व्यक्ति की आवश्यकता है असीमित है, जैसे धन वैभव सम्मान शक्ति आदि से संबंधित आवश्यकताएं । यदि व्यक्ति की इच्छाओं को नियंत्रित नहीं किया जाए और व्यक्ति को उन्हें मनमाने ढंग से पूरा करने की छूट दे दी जाए तो समाज में व्यवस्था का बना रहना संभव नहीं होगा । ऐसी दशा में व्यक्ति स्वच्छंद या मनमाने तरीके से व्यवहार करने लगेगा तथा आदर्श शून्यता या विचलन की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी और समाज भी घटित होने लगेगा । अतः मानव व्यवहार के नियंत्रण हेतु समाज में सामाजिक नियंत्रण के औपचारिक एवं अनौपचारिक साधनों को अपनाया जाना आवश्यक है । इन साधनों को काम में लिए बिना समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती । सामाजिक नियंत्रण के औपचारिक साधनों में कानून न्याय व्यवस्था पुलिस प्रशासन आदि और अनौपचारिक साधनों में जनरीतियाँ ,प्रथाएँ, संस्थायें, धर्म, नैतिकता आदि आते हैं । इन सभी साधनों से व्यक्तियों के व्यवहार को नियंत्रित करने और सामाजिक संबंधों को व्यवस्थित बनाने का प्रयत्न किया जाता है ।
7. - स्वतन्त्रता - समाज के एक आवश्यक तत्व के रूप में स्वतंत्रता का विशेष महत्व है । समाज में स्वतंत्रता का अर्थ मनमाने ढंग से कार्य, व्यवहार या आचरण करने से नहीं है । यहां इसका तात्पर्य सभी व्यक्तियों को अपने विकास हेतु उचित वातावरण प्रदान करने से है । जहां समाज में व्यक्तियों के व्यवहार को औपचारिक और अनौपचारिक साधनों द्वारा नियंत्रित किया जाता है, वहां उसे कुछ क्षेत्रों में स्वतंत्रता प्रदान करना भी आवश्यक है । स्वतंत्र वातावरण में ही व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का समुचित विकास कर समाज की प्रगति में योगदान दे सकता है । बहुत अधिक नियंत्रण व्यक्ति के विकास में बाधा उत्पन्न करते हैं, उसकी विवेक और चिंतन शक्ति को कुंठित करते हैं । हमें यह भी ध्यान में रखना है कि जहां स्वतंत्रता व्यक्ति को इच्छानुसार कार्य करने का शुअवसर देती है , वहां साथ ही यह भी आवश्यक है कि वह भी दूसरों को स्वतंत्रता पूर्वक कार्य करने का अवसर दें उनके मार्ग में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न ना करें ।
इस प्रकार मैकाइवर और पेज ने समाज के उपर्युक्त 7 आवश्यक आधार या तत्व बताए हैं । आपने समाज को सामाजिक संबंधों की एक जटिल व्यवस्था माना है और साथ ही यह भी स्पष्ट किया है कि यह सभी सामाजिक संबंध है आपस में जुड़े हुए हैं । सामाजिक संबंधों के जाल से निर्मित यह जटिल व्यवस्था निरंतर बदलती रहती है इसमें हर समय कुछ ना कुछ परिवर्तन होते ही रहते हैं । मैकाइवर और पेज की उपर्युक्त की परिभाषा काफी विस्तृत है जो समाज की अमूर्त प्रकृति को व्यक्त करती है ।
मैकाइवर और पेज की उपर्युक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि समाज सामाजिक संबंधों की जटिल व्यवस्था है और इसके 7 आधार हैं । परंतु साथ ही समाज के लिए निम्नलिखित तीन बातों का होना भी आवश्यक है जो इस प्रकार है :
1. - व्यक्तियों की बहुलता :- समाज विभिन्न व्यक्तियों के बीच पाए जाने वाले सामाजिक संबंधों से बनता है । यद्यपि समाज व्यक्तियों का समूह तो नहीं हैं परंतु यह भी सत्य है कि व्यक्तियों के अभाव में सामाजिक संबंधों की कल्पना भी नहीं की जा सकती । अतः समाज के लिए प्रथम आवश्यकता के रूप में काफी मात्रा में व्यक्तियों का होना अनिवार्य है ।
2. - सामाजिक संबंध - व्यक्तियों के बीच पनपने वाले सामाजिक संबंधों के संगठित रूप को ही समाज माना गया है । सामाजिक संबंध ही समाज का प्रमुख आधार है । इन संबंधों के अभाव में व्यक्तियों की किसी भीड़ या झुंड मात्र को समाज नहीं कहा जा सकता ।
3. - सामाजिक अंतः क्रिया - केवल व्यक्तियों के होने और उनमें सामाजिक संबंधों के पनपने मात्र से समाज का निर्माण नहीं हो जाता । यहां उन व्यक्तियों में सामाजिक अन्तः क्रिया का होना भी आवश्यक है । इसका तात्पर्य है कि उन्हें न केवल एक दूसरे की जानकारी होनी चाहिए, न केवल उनमें पारस्परिक जागरूकता ही होनी चाहिए बल्कि उनके द्वारा एक दूसरे को प्रभावित भी किया जाना चाहिए । एक दूसरे की अपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुए क्रिया प्रतिक्रिया भी होनी चाहिए ।
यहां हमें यह भी ध्यान में रखना है कि समाज को चाहे व्यक्तियों के ऐसे समूह के रूप में परिभाषित किया जाए जिसमें मनुष्य संपूर्ण सामान्य जीवन व्यतीत कर सके या सामाजिक संबंधों के जाल के रूप में परिभाषित किया जाए, उसका ( समाज का ) अपना जीवन का एक तरीका होता है जिसे संस्कृत कहते हैं ।
समाज की विभिन्न परिभाषाओं पर ध्यान देने पर ऐसा ज्ञात होता है कि इसके अर्थ के संबंध में समाजशास्त्रियों में मतभेद हैं । कुछ समाज को व्यक्तियों के समूह के रूप में , कुछ सामाजिक संबंधों के जाल के रूप में और कुछ संस्थाओं की व्यवस्था के रूप में जो व्यवहार को निर्देशित करती है और सामाजिक जीवन के लिए ढांचा प्रस्तुत करती है देखते हैं । समाज की सभी परिभाषा ओं पर गहराई से विचार करने पर हम पाते हैं कि सभी समाज शास्त्री समाज के लिए सामाजिक संबंधों को आवश्यक मानते हैं और वे ऐसे संबंधों की जटिल व्यवस्था को ही समाज कहते हैं ।
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