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समाज का अर्थ एवं परिभाषाएं

समाज का अर्थ एवं परिभाषाएं

समाजशास्त्र की प्रमुख अवधारणाओं को स्पष्ट और निश्चित कर देना अनेक कारणों से अत्यंत आवश्यक है । समाजशास्त्री के रूप में हम सामाजिक घटनाओं में उसी प्रकार से रूचि लेते हैं जिस प्रकार वनस्पतिशास्त्री पेड़ पौधों में लेता है । समाजशास्त्र में प्रयुक्त शब्दावली सामान्यतः अमूर्त हैं । अतः अमूर्त वस्तुओं को समझाने के लिए हमें अपनी अवधारणाओं में स्पष्टता और अनिश्चितता लानी होगी ताकि विषय से संबंधित सभी लोग उनका समान अर्थों में प्रयोग कर सकें । 

   समाजशास्त्र में "समाज" एक अत्यंत महत्वपूर्ण एवं प्राथमिक अवधारणा है । इसे भली-भांति समझ कर ही समाजशास्त्र को ठीक से समझा जा सकता है । जब समाजशास्त्र को समाज के विज्ञान के रूप में परिभाषित किया जाता है तो ऐसी दशा में इस विज्ञान को सही रूप में समझने की दृष्टि से समाज के निश्चित अर्थ को समझना आवश्यक है । समाज न केवल व्यक्तियों के बल्कि पशु पक्षियों और कीड़े मकोड़ों तक के जीवन में एक वास्तविकता है । यह कहना पूर्णतया सही है कि जहां जीवन है वहां समाज भी है । व्यक्ति और समाज में पारस्परिक निर्भरता काफी मात्रा में पाई जाती है । जहां व्यक्ति ने एक दूसरे के साथ सामाजिक संबंध स्थापित कर समाज के निर्माण और विकास में सहायता प्रदान की, वहां समाज ने व्यक्ति का सामाजिकरण कर उसके व्यक्तित्व के विकास में योगदान दिया । व्यक्ति को संस्कृति से परिचित कराने में समाज ने सदैव महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । जहां व्यक्ति को अपने विकास के लिए समाज के सहयोग की आवश्यकता है, वहां समाज को व्यक्ति व्यक्ति के बीच पनपने वाले सामाजिक संबंधों की । एक के अभाव में दूसरे की कल्पना तक नहीं की जा सकती ।

समाज का सामान्य अर्थ :-

बोलचाल की भाषा में या साधारण अर्थ में समाज शब्द का प्रयोग व्यक्तियों के समूह के लिए किया जाता है । किसी भी संगठित या असंगठित समूह को समाज कह दिया जाता है । जैसे आर्य समाज, ब्रम्ह समाज, प्रार्थना समाज, हिंदू समाज, जैन समाज, विद्यार्थी समाज, महिला समाज आदि । यह समाज शब्द का साधारण अर्थ है जिसका प्रयोग विभिन्न लोगों ने अपने-अपने ढंग से किया है । किसी ने इसका प्रयोग व्यक्तियों के समूह के रूप में, किसी ने समिति के रूप में, तो किसी ने संस्था के रूप में किया है । इसी वजह से समाज के अर्थ में अनिश्चितता का अभाव पाया जाता है । विभिन्न समाज वैज्ञानिकों थकने समाज शब्द का अपने-अपने ढंग से अर्थ लगाया है । उदाहरण के रूप में, राजनीतिशास्त्री समाज को व्यक्तियों के समूह के रूप में देखता है । मानवशास्त्री आदिम समुदायों को ही समाज मानता है, जबकि अर्थशास्त्री आर्थिक क्रियाओं को संपन्न करने वाले व्यक्तियों के समूह को समाज कहता है ।

समाजशास्त्र में समाज का अर्थ :-

समाजशास्त्र में समाज शब्द का प्रयोग विशिष्ट अर्थ में किया गया है । यहां व्यक्ति व्यक्ति के बीच पाए जाने वाले सामाजिक संबंधों के आधार पर निर्मित व्यवस्था को समाज कहा गया है । यहां व्यक्तियों के समूह को साधारणतः समाज नहीं माना गया है, यद्यपि कुछ विद्वानों ने इस रूप में भी समाज को परिभाषित किया है । जार्ज सिमल ने समाज को उन व्यक्तियों का समूह माना है जो अंतः क्रिया द्वारा संबंधित है । राल्फ लिंटन ने समाज को ऐसे समूह के रूप में परिभाषित किया है जिसमें सम्मिलित व्यक्ति अपने को संगठित करने और एक सामाजिक इकाई के रूप में सोचने के लिए काफी लंबे समय के साथ साथ रहते और काम करते रहे हो । फेयरचाइल्ड के अनुसार समाज व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जो अपने बहुत से प्रमुख हितों ( उद्देश्यों ) जिनमें अनिवार्य रूप से स्वयं की रक्षा या भरण पोषण तथा स्वयं को स्थायित्व प्रदान करना सम्मिलित है, को पूरा करने के लिए सहयोग करते हैं । मोरिस गिन्सबर्ग के अनुसार एक समाज व्यक्तियों का वह समूह या संग्रह है, जो कुछ संबंधों या व्यवहार के कुछ ढंगों द्वारा संगठित है जो उन्हें उन अन्यों से पृथक करते हैं जो इन संबंधों में सम्मिलित नहीं है या जो व्यवहार में उनसे भिन्न है । उपर्युक्त सभी परिभाषाएं में समाज को व्यक्तियों के समूह के रूप में चित्रित किया गया है । लेकिन यह समाज शब्द का संकुचित अर्थ है । ये परिभाषाएं समाजशास्त्र नामक विज्ञान में प्रयुक्त प्रमुख अवधारणा समाज के अर्थ को तो ठीक से प्रकट नहीं कर पाती है । ये परिभाषाएं वास्तव में एक समाज के अर्थ को अवश्य स्पष्ट कर पाती है परंतु समाज के अर्थ को नहीं । चूँकि समाजशास्त्र समाज का विज्ञान है, न कि एक या किसी विशिष्ट समाज का, अतः यहां समाज नामक अवधारणा को निश्चित अर्थ में समझ लेना अत्यंत आवश्यक है ।

व्यक्ति अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अन्य व्यक्तियों के साथ अंतः क्रिया करते और सामाजिक संबंध स्थापित करते हैं । ये लोग विभिन्न प्रकार के संबंधों के आधार पर एक दूसरे के साथ व्यवहार करते हैं, कुछ क्रियाएं और प्रतिक्रियाएं करते हैं । यह सब कुछ निश्चित नियमों के आधार पर ही होता है । इनमें कुछ पारस्परिक अपेक्षाएं सम्मिलित है । इन सब से मिलकर भरने वाले व्यवस्था को ही समाज कहा गया है । मैकाइबर और पेज ने समाज को सामाजिक संबंधों के जाल या ताने-बाने के रूप में परिभाषित किया है । आपने संबंधों की इस समय परिवर्तित होती रहने वाली जटिल व्यवस्था को समाज माना है । समाज नामक अवधारणा में सामाजिक संबंधों की प्रधानता के कारण इन्हें (सामाजिक संबंधों ) समझ लेना भी आवश्यक है ।

सामाजिक संबंध :- सामाजिक और भौतिक संबंधों के बीच एक प्रमुख अंतर पाया जाता है और वह है पारस्परिक जागरूकता । सामाजिक संबंधों का प्रमुख आधार पारस्परिक जागरूकता है । भौतिक संबंधों में इस प्रकार की जागरूकता नहीं पाई जाती । इसे हम एक उदाहरण के द्वारा भली-भांति समझ सकते हैं । एक टेबुल पर टेबुल लैम्प , किताबें, डायरी,पेन,पेंसिल आदि रखे हुए हैं । इन सब का टेबुल के साथ एक संबंध अवश्य है । इसी प्रकार आग और धुएं का तथा सूर्य और पृथ्वी का संबंध है । परंतु यह संबंध सामाजिक संबंध नहीं है क्योंकि इसमें मानसिक दशा का अभाव है । इसका तात्पर्य है कि टेबुल कि उस पर रखी वस्तुओं की उपस्थिति से अपरिचित है और किताब पेन पेंसिल आदि टेबुल की उपस्थिति से । इसी प्रकार पृथ्वी सूर्य की और आग धुएं की उपस्थिति के प्रति जागरूक नहीं है । इन सब में पारस्परिक जागरूकता का अभाव पाया जाता है अन्य शब्दों में यह संबंध पारस्परिक जागरूकता पर आधारित नहीं है । इस बार आप पर एक जागरूकता के बिना कोई भी संबंध सामाजिक संबंध नहीं हो सकता और सामाजिक संबंध के बिना समाज नहीं हो सकता । जहां सामाजिक प्राणी (व्यक्ति) पारस्परिक रूप से जागरूक रहते हुए और एक दूसरे की अपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुए व्यवहार करते हैं वही समाज पाया जाता है ।

सामाजिक संबंध कई प्रकार के होते हैं जैसे पति और पत्नी का, माता और पुत्र का, भाई और बहन का, मित्र और मित्र का, अध्यापक और शिष्य का, ग्राहक और दुकानदार का, नौकर और मालिक का, मतदाता और प्रत्याशी का । साथ ही कुछ सामाजिक संबंध आरती प्रकार के कुछ राजनीतिक प्रकार के कुछ धार्मिक और कुछ वैयक्तिक प्रकार के होते हैं । कुछ संबंध प्रत्यक्ष तो कुछ अप्रत्यक्ष, कुछ वैयक्तिक तो कुछ अवैयक्तिक, कुछ मित्रता पूर्ण तो कुछ शत्रुता पूर्ण होते हैं । ये विभिन्न प्रकार के संबंध पारस्परिक जागरूकता के कारण ही सामाजिक संबंधों की श्रेणी में आते हैं । यद्यपि सामाजिक संबंध शत्रुता पूर्णिया संघर्षपूर्ण भी होते हैं । परंतु अधिकांश सामाजिक संबंधों में सामुदायिकता या एक साथ संबंधित होने या सामान्य जीवन में भागीदार होने का तत्व पाया जाता है । सहयोगी संबंधों के आधार पर ही सामाजिक व्यवस्थाएं पनपती हैं एवं समाज बनते हैं । अतः हम कह सकते हैं कि समाजशास्त्र में जिन संबंधों को प्रधानता दी जाती है और जिन्हें सामाजिक माना जाता है, में दो तत्व अवश्य रूप से पाए जाते हैं ।

1. - पारस्परिक जागरूकता तथा ।

2. - सामान्य जीवन में भागीदार होने की भावना ।


सामाजिक संबंध में पाया जाता है जब व्यक्ति या समूह पारस्परिक अपेक्षाएं रखते हैं जो दूसरों के व्यवहार से संबंधित होती है ताकि वे सापेक्ष रूप से निश्चित तरीकों से कार्य कर सकें । अन्य शब्दों में सामाजिक संबंध का आधार अंतः क्रिया के प्रतिमान से है । उदाहरण के रूप में पति और पत्नी का, पुत्र और माता का, अध्यापक और शिष्य का, स्वामी और सेवक का, अधिकारी और कर्मचारी का तथा डॉक्टर और मरीज का एक दूसरे के प्रति सामान्यतः एक निश्चित प्रकार का व्यवहार होता है जो पारस्परिक अपेक्षाओं या मानवीय अन्तः क्रिया के प्रतिमान पर आधारित होता है । संबंधों के ये सभी प्रकार सामाजिक संबंधों के अंतर्गत ही आते हैं । इस प्रकार के हजारों या असंख्य संबंधों में व्यक्ति बंधे होते हैं और एक दूसरे की अपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुए व्यवहार करते हैं । परिणाम स्वरूप सामाजिक संबंधों के आधार पर जटिल व्यवस्था निर्मित होती है जिसे "समाज" का नाम दिया गया है । एक व्यक्ति के परिवारजनों, नाते रिश्तेदारों, पड़ोसियों, मित्रों और विभिन्न समूहों, समितियों, संगठनों, समुदाय आदि के साथ सैकड़ों प्रकार के संबंध पाए जाते हैं जिनमें बंद कर वह प्रत्येक के साथ संबंध के प्रकार के आधार पर और साथ ही कुछ प्रतिमानो एवं सामाजिक मूल्यों को ध्यान में रखता हुआ निश्चित प्रकार का व्यवहार करता है । जब सैकड़ों हजारों और यहां तक कि लाखों-करोड़ों व्यक्ति अपने चारों और असंख्य व्यक्तियों एवं अनेक समूहों से संबंधित रहते हुए कुछ नियमों को ध्यान में रखते हुए पारस्परिक अपेक्षाओं के अनुसार व्यवहार करता है तो इससे जो जटिल व्यवस्था निर्मित होती है उसे समाज कहते हैं । यह सदा बदलती रहने वाली जटिल और अमूर्त व्यवस्था है । सामाजिक संबंधों को देखा या छुआ नहीं जा सकता । इस कारण यह संबंध अमूर्त है और इनसे बनने वाली व्यवस्था "समाज" भी अमूर्त है ।

समाजशास्त्र में सामाजिक संबंध केंद्रीय अध्ययन वस्तु है । जब असंख्य सामाजिक संबंधों का जाल अनेक रीतियों एवं सामाजिक मूल्यों द्वारा व्यवस्था में बदल जाता है तो उसे समाज कहते हैं ।

मैकाइबर के शब्दों में , हमका सकते हैं कि समाज सामाजिक संबंधों का जाल है ।

पारसन्स के अनुसार, समाज को उन मानवीय संबंधों की संपूर्ण जटिलता के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो साधन साध्य संबंधों के रूप में क्रिया करने से उत्पन्न हुए हो, चाहे वे यथार्थ हो या प्रतीकात्मक । पारसन्स की इस परिभाषा में क्रिया को विशेष महत्व दिया गया है और किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए साधन के रूप में किए गए कार्य को ही क्रिया कहा गया है । ऐसी क्रिया के परिणाम स्वरुप उत्पन्न संबंधों को ही समाज संबंध और इन सामाजिक या मानवीय संबंधों से बनने वाली संपूर्ण जटिलता या व्यवस्था को समाज कहा गया है ।

गिडिंग्स के अनुसार, समाज स्वयं संघ है, संगठन है, औपचारिक संबंधों का योग है इसमें सहयोग देने वाले व्यक्ति एक दूसरे के साथ जुड़े हुए या संबद्ध है । इस परिभाषा में समाज के लिए सहयोगी संबंधों को आवश्यक माना गया है जो व्यक्तियों को एक दूसरे के साथ जोड़ते हैं ।

रियूटर के अनुसार, समाज एक अमूर्त धारणा है जो एक समूह के सदस्यों के बीच पाए जाने वाले पारस्परिक संबंधों की जटिलता (संपूर्णता) का बोध कराती है । इस परिभाषा के अनुसार व्यक्तियों के मध्य पनपने वाले संबंधों की संपूर्ण व्यवस्था को समाज माना गया है जो कि अमूर्त है ।

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