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समाजशास्त्र के क्षेत्रों की विवेचना कीजिए

समाजशास्त्र के क्षेत्रों की विवेचना कीजिए

इंकल्स कहते हैं कि समाजशास्त्र परिवर्तनशील समाज का अध्ययन करता है इसलिए समाजशास्त्र के अध्ययन की ना तो कोई सीमा निर्धारित की जा सकती है और ना ही इसके अध्ययन क्षेत्र को बिल्कुल स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जा सकता है । क्षेत्र का तात्पर्य यह है कि वह विज्ञान कहां तक फैला हुआ है । अन्य शब्दों में क्षेत्र का अर्थ उन संभावित सीमाओं से है जिनके अंतर्गत किसी विषय या विज्ञान का अध्ययन किया जा सकता है । समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र के संबंध में विद्वानों के मतों को मुख्यतः दो भागों में बांटा जा सकता है :

1. - स्वरूपात्मक अथवा विशिष्टात्मक सम्प्रदाय ( Formal or Specialistic or particularistic School ) । तथा

2. - समन्वयात्मक सम्प्रदाय ( Synthetic School ) । प्रथम मत या विचारधारा के अनुसार समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है और द्वितीय विचारधारा के अनुसार समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान है । इनमें से प्रत्येक विचारधारा को हम यहां स्पष्ट करने का प्रयत्न करेंगे ।

1 . - स्वरूपात्मक सम्प्रदाय :-  इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक जर्मन समाजशास्त्री चार्ज सिमेल हैं। इस सम्प्रदाय से संबंधित अन्य विद्वानों में वीरकान्त, वान विज , मैक्स वेवर तथा टॉनीज आदि प्रमुख हैं । इस विचारधारा से संबंधित समाज शास्त्रियों की मान्यता है कि अन्य विज्ञानों जैसे राजनीति शास्त्र, भूगोल, अर्थशास्त्र, इतिहास, भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र आदि के समान समाजशास्त्र भी एक स्वतंत्र एवं विशेष विज्ञान है । जैसे प्रत्येक विज्ञान की अपनी कोई प्रमुख समस्या या सामग्री होती है जिसका अध्ययन उसी शास्त्र के अंतर्गत किया जाता है, उसी प्रकार समाजशास्त्र के अंतर्गत अध्ययन की जाने वाली भी कोई मुख्य सामग्री यह समस्या होनी चाहिए । ऐसा होने पर ही समाजशास्त्र एक विशिष्ट एवं स्वतंत्र विज्ञान बन सकेगा और इसका क्षेत्र निश्चित हो सकेगा । इसे संप्रदाय के मानने वालों का कहना है कि यदि समाजशास्त्र को संपूर्ण समाज का एक सामान्य अध्ययन बनाने का प्रयत्न किया गया तो वैज्ञानिक आधार पर ऐसा करना संभव नहीं होगा । ऐसी दशा में समाजशास्त्र एक खिचड़ी शास्त्र बन जाएगा । अतः समाजशास्त्र को एक विशिष्ट विज्ञान बनाने के लिए यह आवश्यक है कि इसके अंतर्गत सभी प्रकार के सामाजिक संबंधों का अध्ययन नहीं करके इन संबंधों के विशिष्ट स्वरूपों का अध्ययन किया जाए । सामाजिक संबंधों के स्वरूपात्मक पक्ष पर जोर देने के कारण ही इस संप्रदाय को स्वरूपात्मक संप्रदाय कहा जाता है । इस संप्रदाय या विचार से संबंधित प्रमुख विद्वानों के विचार इस प्रकार हैं :


1. - जार्ज सिमेल के विचार
- जार्ज सिमेल समाजशास्त्र को एक विशेष विज्ञान बनाना चाहते थे । आपने समाजशास्त्र को सामाजिक संबंधों के स्वरूपों का अध्ययन माना है । आप की मान्यता है कि यदि अन्य विज्ञानों के समान समाजशास्त्र भी सामाजिक संबंधों की अंतर्वस्तु का अध्ययन करने लगा तो यह एक विशिष्ट ज्ञान नहीं बन सकेगा । अतः समाजशास्त्र को सामाजिक संबंधों के स्वरूपों का अध्ययन करना चाहिए । आपके अनुसार सभी भौतिक एवं अभौतिक वस्तुओं का अपना एक स्वरूप ( Form ) और एक अंतर्वस्तु ( Content ) होती है जो एक दूसरे से भिन्न होते हैं । स्वरूप और अंतर्वस्तु का एक दूसरे पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । उदाहरण के रूप में तीन एक - से स्वरूप वाली बोतलों में से एक में पानी, दूसरी में दूध और तीसरी में शराब भरा जा सकता है । पानी, दूध और शराब का बोतलों के स्वरूप पर और इनके स्वरूप का बोतलों की अंतर्वस्तु ( पानी,दूध,शराब ) पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा । बोतल की विशेष आकृति या बनावट उसका स्वरूप है और उसमें भरा हुआ पानी,दूध या शराब उसकी अंतर्वस्तु है । इसी प्रकार सामाजिक संबंधों के स्वरूप और अंतर्वस्तु में भी अंतर पाया जाता है और ये भी एक दूसरे को प्रभावित नहीं करते । अनुकरण (Imitation) , सहयोग (Co-operation), प्रतिस्पर्धा (Competition), प्रभुत्व ( Domination), अधीनता (Subordination), श्रम-विभाजन ( Division of Labour) आदि सामाजिक संबंधों के प्रमुख स्वरूप हैं समाजशास्त्र सामाजिक संबंधों के इन्हीं स्वरूपों का अध्ययन करने वाला विज्ञान है । सामाजिक संबंधों के यह स्वरूप जब विभिन्न अन्तरवस्तुओं जैसे आर्थिक संघ, धार्मिक संघ, राजनैतिक दल आदि में पाए जाते हैं तो इनका अध्ययन समाजशास्त्र के अंतर्गत नहीं किया जा सकता । इनका अध्ययन अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र तथा राजनीतिशास्त्र के अंतर्गत किया जाता है ।अतः समाजशास्त्र को तो केवल सामाजिक संबंधों के स्वरूपों का ही अध्ययन करना चाहिए न कि अंतरवस्तुओं का । सिमेल के अनुसार अन्य सामाजिक विज्ञानों में सामाजिक संबंधों की अंतर्वस्तु का अध्ययन किया जाता है और एक विशेष विज्ञान के रूप में समाजशास्त्र में सामाजिक संबंधों के स्वरूपों का ।

2. - वीर कान्त के विचार, वीर कान्त वीर समाजशास्त्र को एक विशेष विज्ञान बनाने के समर्थक थे । आपने बताया है कि यदि समाजशास्त्र को अस्पष्टता एवं अनिश्चितता के आरोपों से बचना है तो उसे किसी मूर्त समाज का ऐतिहासिक दृष्टि से अध्ययन नहीं करना चाहिए । समाजशास्त्र को तो एक विशिष्ट विज्ञान के रूप में मानसिक संबंधों के स्वरूपों का अध्ययन करना चाहिए जो व्यक्तियों को एक दूसरे से अथवा समूह से बांधते हैं । समाजशास्त्र इस पर विचार नहीं करता कि पिता और पुत्र में अथवा माता और पुत्री में क्या संबंध है ? वह तो यश, सम्मान, प्रेम, लज्जा, स्नेह, समर्पण, घृणा, सहयोग, संघर्ष आदि भावनात्मक या मानसिक पहलुओं का अध्ययन करता है । इन्हीं के आधार पर विभिन्न सामाजिक संबंध बनते हैं और इन्हीं सामाजिक संबंधों से समाज का निर्माण होता है । अतः समाजशास्त्र को इन्हीं मानसिक अथवा भावनात्मक तत्वों या संबंधों के स्वरूपों तक अपने को सीमित रखना चाहिए । स्वयं वीर कान्त ने लिखा है, " समाजशास्त्र उन मानसिक संबंधों के अंतिम स्वरूपों का अध्ययन है जो कि मनुष्यों को एक दूसरे से बांधते हैं ।

3. - वान विज के विचार, वान विज भी सिमेल के समान समाजशास्त्र को एक विशेष विज्ञान बनाने के पक्ष में थे । आपने लिखा है कि समाजशास्त्र एक विशिष्ट सामाजिक विज्ञान है जो कि मानवीय संबंधों के स्वरूपों का अध्ययन है और यही उसका विशिष्ट क्षेत्र है । आपने सामाजिक संबंधों के 650 स्वरूपों का उल्लेख करते हुए बताया है कि समाजशास्त्र के इन्हीं स्वरूपों के अध्ययन में अपने आप को लगाना चाहिए ।

4. - मैक्स वेवर के विचार, मैक्स वेवर समाजशास्त्र को एक विशिष्ट विज्ञान मानते हैं । आपके अनुसार समाजशास्त्र सामाजिक क्रियाओं का अध्ययन है । सामाजिक क्रियाओं को आपने उन व्यवहारों के रूप में स्पष्ट किया है जो कि अर्थ पूर्ण है और साथ ही जो अन्य व्यक्तियों के व्यवहारों से प्रभावित होते हैं । मैक्स वेवर की मान्यता है कि सामाजिक क्रियाओं का आधार व्यवहार है । अतः समाजशास्त्र का कार्य सामाजिक व्यवहार को समझना और उसकी व्याख्या करना है । आपके अनुसार सामाजिक क्रियाओं को विस्तृत व्याख्या एवं विश्लेषण से ही समाजशास्त्र में अनुभव और तर्क पर आधारित नियमों का निर्माण किया जा सकता है । आपने बताया है कि यदि समाजशास्त्र के अंतर्गत सभी प्रकार के सामाजिक संबंधों का अध्ययन किया जाएगा, तो इसका क्षेत्र अस्पष्ट और असीमित हो जाएगा । अतः यह आवश्यक है कि सामाजिक संबंधों का अध्ययन निश्चित सीमा में ही किया जाए । इस दृष्टि से मैक्स वेवर मानते हैं कि समाजशास्त्र में सामाजिक क्रिया का ही अध्ययन किया जाना चाहिए ।

        स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के अन्य समर्थकों में टॉनीज,बोगल, रॉस,पार्क एवं बर्गेस आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । इस संप्रदाय से संबंधित सभी विद्वान समाजशास्त्र के क्षेत्र को सामाजिक संबंधों के स्वरूपों के अध्ययन तक सीमित मानते हैं । उपर्युक्त सभी विद्वानों का समाजशास्त्र को अन्य सामाजिक विज्ञानों से स्वतंत्र एक विशिष्ट विज्ञान बनाने का प्रयत्न रहा है ।

स्वरूपात्मक सम्प्रदाय की आलोचना :-

स्वरूपात्मक सम्प्रदाय पर अनिश्चितता और अस्पष्टता का आरोप है । इस संप्रदाय के समर्थकों के संबंध में फिचर का कहना है कि इन्हें समाजशास्त्री नहीं कह कर सामाजिक दार्शनिक कहना ठीक होगा क्योंकि इन्होंने सामाजिक जीवन की व्यवहारी प्रकृति को समझने का प्रयत्न नहीं किया । किस संप्रदाय की प्रमुख कमियां निम्नलिखित हैं :-

1. स्वरूपात्मक संप्रदाय से संबंधित विद्वानों का यह कहना गलत है कि सामाजिक संबंधों के स्वरूपों का अध्ययन किसी अन्य विज्ञान के द्वारा नहीं किया जाता, अतः समाजशास्त्र को एक नवीन विज्ञान के रूप में इनका अध्ययन करना चाहिए । ऐसा कहना निराधार है । सामाजिक संबंधों के बहुत से स्वरूप जैसे प्रभुत्व, सत्ता, शक्ति, स्वामित्व, आज्ञा पालन, दासता, संघर्ष आदि का अध्ययन कानून शास्त्र में काफी व्यवस्थित रूप से किया जाता है । सोरोकिन ने लिखा है, स्वरूपों का अध्ययन अन्य विज्ञानों द्वारा भी किया जाता है अतः समाजशास्त्र के लिए मानवीय संबंधों के स्वरूपों के विज्ञान के रूप में कोई स्थान नहीं है।

2. इस संप्रदाय के समर्थकों ने स्वरूप तथा अंतर्वस्तु में भेद किया है और इन्हें एक दूसरे से प्रथक माना है । लेकिन सामाजिक संबंधों के स्वरूप तथा अंतर्वस्तु को एक दूसरे से पृथक करना संभव नहीं है । इस संबंध में सोरोकिन ने लिखा है हम एक गिलास को शराब, जल या शक्कर से बिना उसके स्वरूप को परिवर्तित किए हुए भर सकते हैं, परंतु मैं एक सामाजिक संस्था के विषय में कल्पना भी नहीं कर सकता कि उसका स्वरूप उसके सदस्यों के बदल जाने के बाद भी परिवर्तित नहीं होगा । स्पष्ट है कि जब सामाजिक संबंधों के क्षेत्र में स्वरूप और अंतर्वस्तु को एक दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता है तो समाजशास्त्र के अंतर्गत केवल सामाजिक संबंधों के स्वरूपों का अध्ययन करना भी संभव नहीं है ।

3. इस संप्रदाय के समर्थक समाज शास्त्र को अन्य सभी सामाजिक विज्ञानों से पृथक एवं स्वतंत्र और परिशुद्ध विज्ञान बनाना चाहते हैं । परंतु ऐसा होना संभव नहीं है । इसका कारण यह है कि विभिन्न सामाजिक विज्ञानों में पारस्परिक निर्भरता पाई जाती है । सभी सामाजिक विज्ञान थोड़ी बहुत मात्रा में एक दूसरे से कुछ ग्रहण करते हैं । सोरोकिन ने इस संबंध में लिखा है शायद ही ऐसा कोई विज्ञान हो जो अन्य विज्ञानों से किसी ना किसी रूप में संबंध ना रखता हो ।

4. इस संप्रदाय के समर्थक समाजशास्त्र को एक नवीन विज्ञान मानते हुए इसके अध्ययन क्षेत्र को सीमित रखने पर जोर देते हैं । उनके अनुसार समाजशास्त्र का अध्ययन क्षेत्र सामाजिक संबंधों के कुछ विशिष्ट स्वरूपों तक ही सीमित है । परंतु उनकी इस प्रकार की मान्यता ठीक नहीं है । यदि इस संप्रदाय की मान्यता के अनुसार समाजशास्त्र में केवल सामाजिक संबंधों के स्वरूपों का अध्ययन किया जाए तो सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्ष समाजशास्त्र के अंतर्गत नहीं आएंगे । ऐसी दशा में इसका क्षेत्र बहुत ही सीमित हो जाएगा जो कि विषय के विकास की दृष्टि से उचित नहीं है ।

5. समाजशास्त्र समग्र रूप में समाज का विज्ञान है आज यह प्रमाणित हो चुका है कि सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्ष एक-दूसरे के साथ घनिष्ठ रूप से संबंधित हैं । यदि सामाजिक जीवन के किसी एक भाग या पक्ष में कोई परिवर्तन आता है तो उसका प्रभाव अन्य भागों या पक्षों पर भी पड़ता है । अतः इस संप्रदाय के समर्थकों के अनुसार समाजशास्त्र के अंतर्गत केवल सामाजिक संबंधों के स्वरूपों के अध्ययन पर जोर देना सामाजिक जीवन के अन्य पक्षों की अवहेलना करना है जो कि किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है ।

6 . इसे संप्रदाय के समर्थकों ने समाजीकरण के स्वरूपों और सामाजिक संबंधों के स्वरूपों में कोई अंतर नहीं किया है तथा दोनों को एक दूसरे का पर्यायवाची मान लिया है जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है। सामाजिक संबंधों के स्वरूपों में केवल समाजीकरण के ही नहीं बल्कि असमाजीकरण के स्वरूप भी मौजूद हैं ।

स्पष्ट है कि इस संप्रदाय की मान्यताएं सही नहीं है । इसके समर्थक समाज शास्त्र के अध्ययन क्षेत्र को ठीक से स्पष्ट करने में असमर्थ रहे हैं ।

2. समन्वयात्मक सम्प्रदाय (Synthetic School )


इस संप्रदाय के प्रमुख समर्थकों में सोरोकिन,दुर्खीम, हाबहाउस तथा गिन्सबर्ग आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है जो समाजशास्त्र को एक विशिष्ट विज्ञान बनाने के बजाय एक सामान्य विज्ञान बनाने के पक्ष में है । इन विद्वानों के अनुसार, समाज के संबंध में संपूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिए समाजशास्त्र के क्षेत्र को केवल सामाजिक संबंधों के स्वरूपों तक सीमित नहीं रखा जा सकता । इसे तो संपूर्ण समाज का सामान्य अध्ययन करना है और इस संबंध में इस संप्रदाय के समर्थकों ने दो तर्क दिए हैं : -

1. समाज की प्रकृति जीवधारी शरीर के समान है देश के विभिन्न अंग एक दूसरे के साथ घनिष्ठ रूप से संबंधित हैं और एक अंग में होने वाला कोई भी परिवर्तन दूसरे अंग को प्रभावित किए बिना नहीं रह सकता है । अतः समाज को समझने के लिए उसकी विभिन्न इकाइयों या अंगों के पारस्परिक संबंध को समझना अत्यंत आवश्यक है । यह कार्य उसी समय हो सकता है जब समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान बनाया जाए और इसके क्षेत्र को काफी व्यापक रखा जाए ।

2. समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान बनाने के पक्ष में एक अन्य तर्क यह दिया गया है कि प्रत्येक सामाजिक विज्ञान के द्वारा समाज के किसी एक भाग्य पक्ष का ही अध्ययन किया जाता है । उदाहरण के रूप में राजनीति शास्त्र द्वारा समाज के एक पक्ष - राजनीतिक जीवन का ही अध्ययन किया जाता है । इसी प्रकार अर्थशास्त्र के द्वारा आर्थिक जीवन का अध्ययन किया जाता है । ऐसा कोई भी सामाजिक विज्ञान नहीं है जो सामाजिक जीवन के सभी पक्षों का यह संपूर्ण समाज का समग्र रूप में अध्ययन करता हो । अतः समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान के रूप में यह कार्य करना है । ऐसा होने पर ही समाज की वास्तविक प्रकृति को समझा जा सकता है । इसके अभाव में समाज के संबंध में हमारा ज्ञान अति संकुचित और एकाकी हो जाएगा । वास्तव में समाजशास्त्र को लोगों को सामाजिक जीवन की सामान्य अवस्थाओं से परिचित कराने की दृष्टि से महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है और यह उसी समय संभव है जब इसके क्षेत्र को एक सामान्य विज्ञान के रूप में विस्तृत किया जाए ।
एक संप्रदाय के दृष्टिकोण को ठीक से समझने के उद्देश्य से इस के कुछ प्रमुख समर्थकों के विचार यहां दिए जा रहे हैं :

1. हाबहाउस के विचार , इंग्लैण्ड के समाजशास्त्री हाबहाउस समन्वयात्मक सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थक है । आपके अनुसार समाजशास्त्र को अन्य सभी सामाजिक विज्ञानों के प्रमुख सिद्धांतों एवं सार तत्वों के बीच पाए जाने वाले सामान्य तत्वों का पता लगाना और उनका सामान्यीकरण करना है । समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान के रूप में विभिन्न सामाजिक विज्ञानों के बीच समन्वय स्थापित करना है ।

समाजशास्त्र यह कार्य निम्नलिखित प्रकार से कर सकता है :

1. सभी सामाजिक विज्ञानों की प्रमुख धारणाओं के सामान्य स्वरूप (तत्वों) की जानकारी प्राप्त करके ।

2. समाज को स्थाई रखने तथा बदलने वाले कारकों को ज्ञात करके ।

3. सामाजिक विकास की प्रवृत्ति एवं दशाओं का पता लगाकर ।

यहां सब कुछ उसी समय संभव है जब समाजशास्त्र को एक सामान्य सामाजिक विज्ञान के रूप में मान्यता दी जाए ।

2. दुर्खीम के विचार , फ्रेंच समाजशास्त्रीय दुर्खीम ने भीसमन्वयात्मक विचारधारा का समर्थन किया है आपने बताया कि एक सामान्य समाजशास्त्र का निर्माण करना संभव है जो विशिष्ट विज्ञानों के विशेष क्षेत्रों के नियमों पर आधारित अधिक सामान्य नियमों से मिलकर बना है । ये ही सामूहिक रूप में सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों का प्रतिनिधित्व करते हैं । इन्हीं के अध्ययन से समाज को ठीक से समझा जा सकता है । दुर्खीम ने लिखा है, हमारा विश्वास है कि समाज शास्त्रियों को विशिष्ट विज्ञानों, जैसे कानून का इतिहास, प्रथाएं एवं धर्म, सामाजिक अंकशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि में किए गए अन्वेषणों से नियमित रूप से परिचित रहने की बहुत अधिक आवश्यकता है क्योंकि इन में उपलब्ध सामग्रियों से ही समाजशास्त्र का निर्माण होना चाहिए । यद्यपि दुर्खीम समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान बनाने के पक्षधर हैं परंतु आपने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि पहले समाजशास्त्र को एक विशिष्ट विज्ञान बनाना है ताकि यह अन्य सामाजिक विज्ञानों के समान अपने स्वतंत्र नियमों का विकास कर सकें । इसके बाद इसे एक सामान्य विज्ञान के रूप से अन्य सामाजिक विज्ञानों के साथ समन्वय स्थापित करना है । अतः आपने समाजशास्त्र में सर्वप्रथम उन सामाजिक तथ्य के अध्ययन पर जोर दिया जिनसे सामाजिक प्रतिनिधान का निर्माण होता है । आपके अनुसार समाजशास्त्र सामूहिक प्रतिनिधानों का विज्ञान है । सामुहिक प्रतिनिधानों सेतु खीम का तात्पर्य प्रत्येक समूह या समाज में पाए जाने वाले विचारों, भावनाओं एवं धारणाओं के एक कुलक (Set) से है जिन पर व्यक्ति अचेतन रूप से अपने विचारों, मनोवृत्तियों एवं व्यवहार के लिए निर्भर करता है । इन्हें समाज के अधिकतर लोग अपना लेते हैं । दुर्खीम के अनुसार ये विचार, भावनाएं एवं धारणाएं ही एक सामूहिक व्यक्ति का रूप ग्रहण कर लेते हैं । इसी को आपने सामूहिक प्रतिनिधान नाम दिया । ये सामूहिक रूप में सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों का प्रतिनिधित्व करते हैं । इन्हीं के अध्ययन से मानव को ठीक से समझा जा सकता है । सामूहिक प्रतिनिधान की दो विशेषताएं बताई गई है :

( क ) - ये सारे समाज में फैले होते हैं तथा व्यक्ति की शक्ति से ऊपर होते हैं ।

( ख ) - ये समाज के सभी लोगों को अनिवार्य रूप से प्रभावित करते हैं ।

3. - सोरोकिन के विचार :- आप भी समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान बनाने के पक्षधर हैं । आपने लिखा है मान लीजिए यदि सामाजिक घटनाओं को वर्गीकृत कर दिया जाए और प्रत्येक वर्ग का अध्ययन एक विशेष सामाजिक विज्ञान करें तो इन विशेष सामाजिक विज्ञानों के अतिरिक्त एक ऐसे विज्ञान की आवश्यकता होगी जो सामान्य एवं विभिन्न विज्ञानों के संबंधों का अध्ययन करें । कोई भी सामाजिक विज्ञान पूर्णतः स्वतंत्र नहीं है । प्रत्येक को किसी न किसी रूप में आने पर निर्भर रहना पड़ता है । इसका कारण यह है कि प्रत्येक विज्ञान द्वारा समाज जीवन के एक पक्ष या एक विशिष्ट प्रकार की घटनाओं का अध्ययन ही किया जाता है जबकि विभिन्न घटनाएं पारस्परिक रूप से एक दूसरे को प्रभावित करती है । अतः एक ऐसे सामान्य विज्ञान की आवश्यकता है जो विभिन्न सामाजिक विज्ञानों के निष्कर्षों में समन्वय स्थापित कर सके ताकि समाज को समग्र रूप से समझा जा सके । समाजशास्त्र का कार्य विभिन्न सामाजिक विज्ञानों के पारस्परिक संबंधों या उनके सामान्य तत्त्वों का अध्ययन करना है ।

स्पष्ट है कि हम चाहे किसी भी प्रकार के संबंध - आर्थिक , राजनीतिक या धार्मिक स्थापित करें अथवा कोई भी क्रिया करें, और में कुछ सामान्य तत्व अवश्य होते हैं । इन्हीं सामान्य तत्त्वों या अंतर संबंधों का अध्ययन समाजशास्त्र में किया जाता है ।

मैकाइवर व पेज के अनुसार , समाजशास्त्री होने के नाते हमारी रुचि सामाजिक संबंधों में है, इस कारण नहीं कि वे संबंध आर्थिक , राजनीतिक अथवा धार्मिक है, बल्कि इस कारण कि वे साथ ही सामाजिक भी होते हैं ।

सोरोकिन के अनुसार , समाजशास्त्र का अध्ययन क्षेत्र सामान्य होना चाहिए और इसे सामाजिक जीवन के प्रत्येक पहलू का अध्ययन करना चाहिए ।

उपर्युक्त विद्वानों के अतिरिक्त वार्ड , मोतवानी , गिन्सबर्ग , आदि में भी समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान बनाने की आवश्यकता पर जोर दिया है ।

समन्वयात्मक संप्रदाय की आलोचना :- इस संप्रदाय के विरुद्ध कुछ प्रमुख आरोपी इस प्रकार हैं :

1. यदि समाजशास्त्र में सभी प्रकार के सामाजिक तथ्यों एवं प्रघटनाओं का अध्ययन किया जाएगा तो यह अन्य सामाजिक विज्ञानों की एक खिचड़ी मात्र या एक हरफनमौला विज्ञान बन जाएगा।

2. यदि समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान होगा तो इसका अपना कोई स्वतंत्र क्षेत्र नहीं होगा । ऐसी दशा में इसे अन्य विज्ञानों पर आश्रित रहना पड़ेगा ।

3. - यदि समाजशास्त्र में सभी प्रकार के सामाजिक तथ्य एवं घटनाओं का अध्ययन किया जाने लगा तो ऐसी स्थिति में या किसी भी तथ्य प्रघटना का पूर्णता के साथ अध्ययन नहीं कर पाएगा ।

4. - यदि समाजशास्त्र विभिन्न सामाजिक विज्ञानों का योग या संकलन मात्र होगा तो इसकी अपनी कोई निश्चित पद्धति विकसित नहीं हो पाएगी ।









































































































Comments

  1. Sociology is my optional subject for UPSC exams. My trainers at a Top IAS academy in Chennai insists that I read anything that I could find on the subject to gain expert knowledge. This is a vital piece of information, and I loved reading it. Hope to read more such informative articles.

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    1. Thank you. I will try my best to provide more useful content

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