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हिन्दू विवाह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिये


हिन्दू विवाह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिये


सांस्कृतिक दृष्टिकोण से हिंदुओं की अपनी कुछ विशेषताएं हैं और उसका आधार अनेक रूपों में धर्म है। इसी कारण हिंदुओं की सामान्य से सामान्य क्रियाओं से भी धर्म का संबंध माना गया है। हमारे दैनिक जीवन की प्रत्येक क्रिया तथा सभी शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक चेष्टाओं को धर्म द्वारा इस प्रकार नियंत्रित किया गया है कि इससे बाहर जाने की कोई भी आशंका ना हो। धार्मिक विश्वासों को अपनाने वाले का कथन है कि इसका उद्देश्य ऐहलौकिक, स्वास्थ्य, सुख-शान्ति और दीर्घायु प्राप्त करते हुए पारलौकिक अभ्युदय तथा सुख शांति को प्राप्त करना हैं। उनके अनुसार हिंदुओं के सब वेद पुराण और धर्म शास्त्रों का सारा प्रयास मनुष्य जीवन के इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हैं । यह हिंदुओं की एक विशिष्टता है जो उनकी विवाह संस्था की विवेचना से और भी स्पष्ट हो जाती है । हिन्दुओं के मीमांसाशास्त्र से सिद्ध है कि सृष्टि के प्रारंभ से ही स्त्री धारा एवं पुरुष धारा यह दो स्वतंत्र धाराएं चली । मनु के अनुसार सृष्टि के प्रारंभ में परमात्मा ने अपने को दो भागों में विभक्त किया वे आधे में पुरूष और आधे में नारी हो गए। देविभावत में इस विषय में उल्लेख है कि स्वेच्छामय भगवान स्वेच्छा से दो रूप हो गये, वाम छग के अंग से स्त्री और दक्षिण भाग के अंग से पुरुष बने। बिना इन दोनों के सहयोग के श्रेष्ठ का कोई भी काम संपन्न नहीं हो सकता है। नारी शक्ति है। परम पुरुष परमेश्वर ही बिना अपनी शक्ति के निष्क्रिय बन जाते हैं, उनका सारा ऐश्वर्य, सौंदर्य, माधुर्य, उनकी शक्ति प्रकृति के ही कारण है, बिना शक्ति के वे कुछ भी करने में असमर्थ है । साथ ही पुरुष के बिना प्रकृति भी अधूरी है । इससे यह भी सिद्ध होता है कि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। हिंदू विवाह इसी पूरकता का परिचायक है ।

     हिंदू विवाह का अर्थ :-

कुछ धार्मिक संस्कारों के द्वारा समाज से मान्यता प्राप्त दो स्त्री पुरुष का विधिवत मिलन ही हिंदू विवाह है जिसका उद्देश्य धर्म कार्य, पुत्र प्राप्ति और रति के प्रयोजन को पूरा करना है ।

उपरोक्त परिभाषा से यह स्पष्ट है कि हिंदू विवाह एक धार्मिक संस्कार है, वैधानिक या सामाजिक समझौता नहीं। या धार्मिक संस्कार इसलिए है कि हिंदू विवाह की पूर्णतया के लिए कुछ धार्मिक कृत्य, जैसे होम, पाणिग्रहण और सप्तपदी आदि आवश्यक है। उपरोक्त परिभाषा से यह अभी स्पष्ट है कि हिंदू विवाह में धर्म का स्थान सबसे पहले रखा गया है और रति का स्थान सबसे अंत में । अर्थात हिंदू विवाह में यौन तृप्ति का प्रयोजन विशेष महत्वपूर्ण नहीं है। हिंदू विवाह के संबंध मैं एक और बात भी स्मरणीय है की एक विवाह को ही हिंदुओं में आदर्श माना गया है यद्यपि बहु पत्नी विवाह की आज्ञा भी कुछ विशेष परिस्थितियों में दी गई है। हिंदू परंपरा और धार्मिक नियमों के अनुसार एक स्त्री का वैवाहिक संबंध अनेक पुरुषों से (बहुपति विवाह) नहीं हो सकता । इसी कारण उपरोक्त परिभाषा में दो स्त्री पुरुष के विधिवत मिलन को ही आदर्श हिंदू विवाह मान लिया जाता है।

     हिंदू विवाह एक धार्मिक संस्कार है :-

प्रोफेसर के एम कपाड़िया ने लिखा है कि हिंदू विवाह एक धार्मिक संस्कार है। इस बात को निम्नलिखित रुप में समझाया जा सकता है :- 
 1. हिंदू विवाह एक धार्मिक संस्कार इस रूप में है कि इस विवाह पद्धति के अंतर्गत कुछ ऐसे धार्मिक नियम, तरीके या धार्मिक कृत्य होते हैं जिनका संपादित किया जाना विवाह की पूर्णतया के लिए आवश्यक है। इन धार्मिक कृत्यों में होम , पाणिग्रहण और सप्तपदी प्रमुख हैं। अग्नि में मंत्र पाठ के साथ लाजाओ आत्मा लाई होम किया जाता है। स्मरण रहे कि होम अग्नि में दिया जाता है और अग्नि को भगवान या देवता माना जाता है। अतः हिंदू विवाह एक धार्मिक संस्कार हैं। उसी प्रकार पाणिग्रहण और कृत्य के अंतर्गत कन्या के पिता या अन्य संरक्षक हाथ में जल लेकर वेद मंत्र उच्चारण करते हुए लड़के को दान देने का संकल्प करते हैं और फिर अपनी कन्या का दान मंत्रों का उच्चारण करते हुए ही करते हैं। वर भी अग्नि तथा भगवान को साक्षी मानकर वर वधू के हाथ को अपने हाथ में लेकर पानी ग्रहण करता है और छः मंत्रो से वे दोनों कुछ प्रतिज्ञाएं करते हैं। वेद मंत्र पवित्र हैं और विवाह में इन्हीं मंत्रों को महत्वपूर्ण स्थान देना ही इस बात का प्रमाण है कि हिंदू विवाह एक धार्मिक संस्कार है। पाणिग्रहण के पश्चात वर वधू दोनों गांठ बांधकर अग्नि के पास उत्तर पूर्व की दिशा में सात कदम एक साथ चलते हैं जिसे सप्तपदी कहते हैं। ये समस्त कृत्य ब्राह्मण के द्वारा पवित्र अग्नि की साक्षी में वेद मंत्रों के साथ किए जाते हैं। यह विवाह पूर्णतया के लिए आवश्यक है, क्योंकि यह सब कृत्य या इनमें से कोई भी एक यदि उचित रूप में किया हो तो कानून की दृष्टि से वह विवाह वैद्य नहीं माना जाता है।

 2. - डॉ कपाड़िया के अनुसार हिन्दू विवाह एक दूसरे अर्थ में भी धार्मिक संस्कार है। अपने जीवन में हिंदू पुरुष अनेक संस्कारों को संपादित करता हुआ आगे बढ़ता है। यह गर्भाधान संस्कार से आरंभ होता है और शरीर के दाह संस्कार में समाप्त होता है। हिंदू जीवन में इन संस्कारों का महत्व इसी बात से पता चलता है कि पहले पहल कानूनी दृष्टिकोण से उस बालक का दाह संस्कार हो सकता था जिसकी आयु के दो वर्ष पूरे हो गए हो,पर बाद में कानून द्वारा ऐसा विधान हो गया कि यह संस्कार केवल ऐसे ही बालक का हो सकता है जिसका मुंडन संस्कार हो चुका हो। उसी प्रकार द्विजवर्णो के लिए यज्ञोपवीत एक ऐसा संस्कार है जो उनके दूसरे जन्म का घोतक है। अतः स्पष्ट है कि अपने जीवन की पूर्णतया के लिए हिंदू पुरुष को एकाधिक संस्कार करने पड़ते हैं। परंतु हिंदू स्त्रियों के लिए इस प्रकार के विविध संस्कारों की व्यवस्था या निर्देश नहीं है, उनके लिए केवल एक संस्कार करने का निर्देश है और वह है विवाह संस्कार, जिसके द्वारा वह गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करती है जोकि धार्मिक सामाजिक दृष्टिकोण से स्त्री को पूर्णतया प्रदान करता है। अतः इस रूप में भी हिंदू विवाह एक धार्मिक संस्कार हैं।

   3. - हिंदू विवाह एक धार्मिक संस्कार है क्योंकि हिंदू विवाह को एक पवित्र तथा ईश्वर द्वारा निश्चित बंधन माना जाता है। क्योंकि वह ईश्वर द्वारा निर्धारित पवित्र बंधन है, इसलिए यह अटल है। विवाह करने वाले वर या वधू कोई भी अपनी इच्छा से इस बंधन को तोड़ नहीं सकते और पत्नी तो अपने पति से मृत्यु के बाद भी बँधी हुई मानी जाती है। हिंदू विवाह में अंतर्निहित यह भावना है कि विवाह ईश्वरीय आदेशानुसार अविच्छेद्य हैं, यह इस बात का प्रमाण है कि हिंदू विवाह एक धार्मिक संस्कार है।

  4. - हिंदू विवाह एक धार्मिक संस्कार है, इस बात का एक और प्रमाण यह है कि इस विवाह का सबसे प्रथम उद्देश्य धार्मिक कर्तव्यों का पालन करना है । इन धार्मिक कर्तव्य में यज्ञ सबसे महत्वपूर्ण है। यज्ञ पत्नी के बिना संपादित नहीं किया जा सकता । यज्ञ में साथ में बैठने वाली स्त्री को ही पत्नी कहा जाता है। हिंदू विवाह एक धार्मिक संस्कार है। इसे दर्शाने के लिए ही हिंदू पत्नी को धर्मपत्नी या सहधर्मिणी कहा जाता है । विवाह के द्वारा ही पुत्र प्राप्ति होती है और उससे पितृ यज्ञ पूरा होता है। लड़का पितरों को तर्पण तथा पिंड दान देकर पितृ यज्ञ को संपादित करता है। इस दृष्टिकोण से भी हिंदू विवाह धार्मिक संस्कार है ।


       हिंदू विवाह के उद्देश्य या आदर्श :-

धर्मा शास्त्री के अनुसार प्रत्येक माता-पिता या दूसरे अभिभावक का यह कर्तव्य है कि वह लड़के लड़कियों का विवाह उचित समय पर करें। प्रत्येक हिंदू के लिए विवाह करना है क्योंकि इसके बिना कुछ धार्मिक तथा सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति संभव नहीं है। धर्म शास्त्रों के मत में हिंदू विवाह और परिवार के द्वारा निम्नलिखित तीन उद्देश्यों या आदर्शों की पूर्ति होती है -


1. धार्मिक कर्तव्यों का पालन :- हिंदू विवाह का सबसे प्रमुख आदर्श या उद्देश्य धार्मिक कर्तव्यों को निभाना है। प्रत्येक पुरुष के जीवन में कुछ धार्मिक कर्तव्यों को निभाने के लिए पत्नी की आवश्यकता होती है और इसीलिए विवाह न केवल आवश्यक है बल्कि अनिवार्य भी । वैदिक युग में यज्ञ अनिवार्य थे, प्रत्येक व्यक्ति स्नातक होकर यज्ञ की अग्नि अपने घर में प्रज्वलित यज्ञ का महत्व पारिवारिक तथा धार्मिक दोनों ही दृष्टिकोण से अत्याधिक था। परंतु पत्नी के बिना या धार्मिक कर्तव्य पूरा नहीं किया जा सकता था, यज्ञ में बैठने वाली स्त्री को ही पत्नी कहा जाता था। इसी कारण श्री रामचंद्र जी को स्वर्ण प्रतिमा बनानी पड़ी थी । याज्ञवल्क्य एक पत्नी के मरने पर यज्ञ कार्य के लिए तुरंत दूसरी स्त्री से विवाह करने का आदेश देते हैं । कालिदास ने बताया है कि कामदेव पर विजय पाने वाले शिवजी के सामने जब सप्तर्षि और अरुन्धती आये , उस समय अरुन्धती को देखकर उन्हें विवाह करने की इच्छा उत्पन्न हुई क्योंकि धर्म सम्बन्धी क्रियाओं का मूल पतिव्रता स्त्री है। पुरुष के जीवन में पत्नी की इस धार्मिक महत्ता के कारण ही स्त्री को धर्म पत्नी के नाम से संबोधित किया जाता है। माता बनने के लिए स्त्रियों की, और पिता भरने के लिए पुरुषों की सृष्टि की गई है, इस कारण वेदों का आदेश है कि धार्मिक क्रियाएं पुरुष को अपनी पत्नी के साथ ही मिलकर करनी चाहिए। ये मनु के वचन है और इनका महत्व हिंदू विवाह में अत्याधिक है ।

        हिंदू जीवन के धार्मिक कर्तव्य को ही यज्ञ कहा गया है जो संख्या में पांच है - ब्रह्म यज्ञ, देव यज्ञ, भूत यज्ञ, पितृ यज्ञ और नृयज्ञ या अतिथियज्ञ । इनके विषय में विस्तृत विवेचना हम आश्रम व्यवस्था के अंतर्गत कर चुके हैं, यहां पर केवल इतना ही बता देना आवश्यक होगा कि इन यज्ञों को सु संपन्न करने के लिए पत्नी की अर्थात विवाह की आवश्यकता होती है। उदाहरणार्थ, पितृयज्ञ को ही लीजिए । पितृयज्ञ तभी पूरा होता है जब पितरों को तर्पण या पिंड दान देकर पित्र ऋण से उऋण हुआ जाए। यह काम पुत्रों के द्वारा ही हो सकता है और उसके लिए पुत्र को जन्म देना आवश्यक है जिसके लिए विवाह ही समाज द्वारा मान्य उचित साधन है । उसी प्रकार अतिथि यज्ञ को पूरा करने के लिए अतिथि सत्कार करना पड़ता है। इसके लिए पत्नी ही परम सहायक सिद्ध हो सकती है। आता हिंदू विवाह का उद्देश्य धार्मिक कर्तव्यों का पालन है।


2. पुत्र प्राप्ति :- हिंदू विवाह का दूसरा उद्देश्य पुत्र प्राप्ति है। ऋग्वेद में पुत्रों की आकांक्षा को अनेक स्थानों पर बड़ी तीव्रता से अभिव्यक्त किया गया है। प्राचीन काल में जब स्नातक विद्या प्राप्त करके गुरुकुल से विदा होने लगता था, तो उसको अन्य बातों के साथ गुरु यह भी आदेश देते थे कि ' प्रजाजंतु मा व्यवच्छेत्सी: अर्थात प्रजाजंतु, संतानोत्पादन के क्रम को मत काटो, जिस प्रकार तुम्हारे पूर्वज संताप छोड़ गए हैं वैसे तुम भी छोड़ जाओ। पत्नी और संतान के बिना पुरुष, और पति और संतान के बिना स्त्री अपूर्ण है । शतपथ ब्राह्मण के एकवचन में कहा गया है कि पत्नी निश्चय पूर्वक पति का आधा हिस्सा है जब तक वह पत्नी नहीं प्राप्त करता उस समय तक वह संतान नहीं उत्पन्न करता और अपूर्ण रहता है, जब स्त्री को प्राप्त करता है (प्रजा) संतान पैदा करता है तभी वह पूर्ण होता है। विवाह के मंत्रों में वर वधू से कहता है कि मैं उत्तम संतान को प्राप्त करने के लिए तुमसे विवाह कर रहा हूं। पुरोहित तथा अन्य गुरुजन भी अपने आशीर्वाद में इसी इच्छा को प्रकट करते हैं।
          हिंदुओं में पुत्र संतान भी तीव्र आकांक्षा इस कारण है कि इसके द्वारा पित्र ऋण से उऋण होना तथा प्रजातंत्र की रक्षा करना संभव है। आत्म संरक्षण की सहज भावना से प्रेरित होकर वह प्रजा की आकांक्षा रखता है। पुत्र द्वारा अपने वंश का विस्तार करता है और अमर बनता है। दिलीप ने नन्दिनी से अनन्त कीर्ति वाला वंशकर्ता पुत्र की मांग की थी । कालिदास ने कहा है कि शुद्ध वंश से उत्पन्न हुई संतति इस लोक और परलोक में सुख देने वाली होती है। भभूति ने इन्हें आनंद की ग्रंथि कहा है। शास्त्रकारों ने संभवतः सामाजिक हित को दृष्टि में रखकर पुत्र प्राप्ति को एक धार्मिक कर्तव्य बताया। सामान्य नियमों और व्यवस्थाओं से टिका हुआ है। वे सब धर्म है । संतानोत्पादन समाज की स्थिति और विस्तार का मुख्य सेतु है । अतः यह एक महान धर्म है। इसका पालन ना करने वाला पापी होता है। महाभारत में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जो पुरुष संतान उत्पत्ति नहीं करता वह अधार्मिक होता है । संतान को जन्म देना इतना बड़ा धर्म है कि इसकी तुलना में अग्निहोत्र, तीनों वेद बिल्कुल नगण्य हैं। संतान ही तीनों वेद हैं और सदा बने रहने वाला देवता है । दुष्कर संसार सागर को पुत्र की नौका से पार किया जा सकता है। स्वर्ग में बने रहने के लिए तथा नर्क से बचने के लिए पुत्र आवश्यक है। शास्त्रकार पुत्र की महिमा का बखान करके ही संतुष्ट नहीं हुए, उन्होंने समाज में इस विश्वास को प्रचलित किया कि पुत्र प्राप्ति ऋण है इसे ना चुकाने पर पुत्र के अभाव में पिता-पुत नामक नरक में जाता है और उसके पिता पिंडदान के अभाव में भूखे प्यासे मरते हैं। मनु ने कहा है ऋणों को छोड़ कर मन को मोक्ष में लगाना चाहिए।

3. रति :- समाज द्वारा मान्यता प्राप्त तरीके से घर बसाना और यौन संबंधी कामनाओं को चतिरतार्थ करना न केवल हिंदुओं के विवाह का ही अपितु सभी समाजों के प्रायः सभी विवाहों का उद्देश्य हुआ करता है। यौन सुख की प्राप्ति हिंदू विवाह का एक सामान्य उद्देश्य माना जाता है। उपनिषदों में रति या संभोग को सबसे बड़ा आनंद कहा गया है। बृहस्पति उपनिषद में यह उल्लेख है कि " जैसे कोई अपनी प्रिय पत्नी से मिलता हुआ बाहर के जगत में कुछ भी नहीं जानता और ना आंतरिक जगत को जानता है, उसी प्रकार प्राज्ञ आत्मा से जुड़ा हुआ पुरुष ना बाहर की किसी वस्तु को जानता है ना ही अंदर की किसी वस्तु को। हिंदू धर्म शास्त्र कारों ने जहां एक ओर इसे मानव जीवन के लिए आवश्यक माना है वहां दूसरी और एक नियंत्रण भी लगाया कि पत्नी के अलावा अन्य किसी भी स्त्री से संभोग नहीं होना चाहिए। इसीलिए श्री कृष्ण ने गीता में धर्म अनुकूल काम बताया है । वैसे भी प्राचीन आर्यों के जीवन में धर्म,अर्थ ,काम, और मोक्ष नामक चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति आवश्यक समझी जाती थी । फिर भी हिंदू विवाह के उद्देश्य में इसे तीसरा स्थान दिया जाता है।

धर्म शास्त्रों में उल्लिखित हिंदू विवाह के उपरोक्त तीन उद्देश्यों के अतिरिक्त कुछ दूसरे सामान्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं -

4. परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन :- विवाह के द्वारा अपने परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना हिंदू विवाह का चौथा प्रमुख उद्देश्य है। बूढ़े माता-पिता के प्रति उनकी सेवा करने का जो उत्तरदायित्व हिंदू समाज संतानों पर लादता है, उसे पूरा करने के लिए भी विवाह आवश्यक है। पारिवारिक समस्या, प्रथा, धर्म आदि की निरंतरता को बनाए रखने के लिए भी विवाह आवश्यक है।

5. समाज के प्रति कर्तव्यों का पालन :- समाज के प्रति कर्तव्यों का पालन भी विवाह के द्वारा ही हो सकता है। समाज की निरंतरता को बनाए रखने के लिए विवाह करना परम आवश्यक है क्योंकि विवाह के द्वारा उत्पन्न संतान मृत व्यक्तियों की खाली जगह भरती है।

6. व्यक्तित्व का विकास :-
विवाह स्त्री पुरुष के विकास के लिए भी परम आवश्यक है। मनु के अनुसार वह पूर्ण पुरुष है जिसके पत्नी और बच्चे हो, वह पुरुष वास्तव में आधा है जो एक पत्नी पर विजय नहीं पाता और वह तब तक संपूर्ण पुरुष नहीं है जब तक एक संतान को उत्पन्न नहीं करता है । इस प्रकार स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं और एक दूसरे के व्यक्तित्व के विकास में सहायक है।

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