हिंदू विवाह के परम्परागत स्वरूप का वर्णन कीजिए
विभिन्न स्मृति कारों ने हिंदू विवाह के भेदों की अलग-अलग संस्थाओं का उल्लेख किया है। उदाहरणार्थ वशिष्ठ केवल छह प्रकार के विवाह मानते हैं जबकि मनु ने हिंदू विवाहों के आठ प्रकारों का उल्लेख किया है। सामान्य रूप से मनु द्वारा उल्लिखित निम्नलिखित विवाह के आठ प्रकारों को अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है।
ब्रह्म विवाह :- वर कन्या दोनों यथा विधि ब्रह्मचर्य से पूर्ण विद्वान धार्मिक और सुशील हो उनका परस्पर प्रसन्नता से विवाह होना ब्रह्म विवाह कहलाता है इस प्रकार विवाह में कन्या के माता-पिता अपनी खुशी से एक विद्वान और योग्य वर को अपनी कन्या के लिए चुनते हैं उसे अपने घर पर आमंत्रित करते हैं और कन्या को वस्त्र अलंकार आदि से सुसज्जित करके उस वर को दान करते हैं ।
दैव विवाह :- इस प्रकार के विवाह में कन्या के पिता एक यज्ञ की व्यवस्था करते हैं और वह शुद्धता अलंकार से सुसज्जित कन्या का दान उस व्यक्ति को किया जाता है जो उस यज्ञ को उचित ढंग से पूरा करता है। संक्षेप में विस्तृत यज्ञ करने में कुशल पुरोहित को
अलंकार युक्त कन्या देना ही दैव विवाह है । इस विवाह का प्रचलन प्राचीन काल में आधी था, क्योंकि उस समय यज्ञ का बहुत महत्व था। परंतु आज ना तो यज्ञों का इतना महत्व है और ना ही दैव विवाह का प्रचलन।
आर्ष विवाह:- आर्ष विवाह का संबंध ऋषि शब्द से है। बौद्धिक तथा आध्यात्मिक शक्ति व चरित्र के लिए ऋषि यों का आदर किया जाता था और उनमें ऐसे बुद्धिमान सन्तति की उत्पत्ति की आशा की जाती थी जो कि परिवार तथा समाज के गौरव व गर्व की वस्तु होगी। इसीलिए ऐसे रिसीव से अपनी कन्या का विवाह कर देने को सभी माता पिता अत्यधिक इच्छुक रहते थे। परन्तु चूँकि ऋषि लोग प्रायः विवाह के संबंध में उदासीन हुआ करते थे इसलिए विवाह करने को इच्छुक ऋषि को अपने भावी ससुर को एक गाय अथवा एक बैल अथवा इनके दो जोड़े देने पड़ते थे ताकि यह प्रमाणित हो जाए कि ऋषि ने अब विवाह बंधन को स्वीकार कर लिया है। उसे कन्या मूल्य न समझना चाहिए। इस प्रकार की भेंट लेकर कन्या के माता-पिता कन्या को ऋषि की पत्नी के रूप में सौंप देते हैं। और उन दोनों को इसके पश्चात पवित्र गृहस्थ धर्म निर्वाह करने का अवसर प्रदान करते हैं।
प्रजापत्य विवाह :- वर और वधू को वैवाहिक जीवन के संबंध में उपदेश देकर और तुम दोनों मिलकर गृहस्थ धर्म का पालन करना और तुम दोनों का जीवन सुखी एवं समृद्धिशाली हो " यह कह कर विधिवत वर की पूजा करके कन्या का दान ही प्रजापत्य विवाह है। सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि वर और वधू दोनों का विवाह धर्म की वृद्धि के लिए हो या कामना ही प्रजापत्य का आधार है । इस प्रकार ब्रह्म और प्रजापत विवाह में कोई विशेष अंतर नहीं है । कुछ विद्वानों के मतानुसार प्रारंभ में प्रजापत्य था ही नहीं। सम्भवतः विवाह के आठ प्रकार बनाने के लिए इसका प्रचलन बाद में हुआ है।
आसुर विवाह :- असुर विवाह में विवाह के लिए इच्छुक व्यक्ति को कन्या के पिता या अभिभावक को कन्या मूल्य चुकाना पड़ता है। इसके अनुसार कन्या का कुछ मूल्य पहले ही निश्चित हो जाता है और उसे चुकाए बिना विवाह नहीं हो सकता। इस मूल्य की कोई सीमा नहीं होती। प्रायः यह कन्या के गुण और परिवार के आधार पर निश्चित होता है। ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि आर्ष विवाह औश्र आसुरी विवाह एक समान है क्योंकि दोनों में ही वर पक्ष कन्या पक्ष को कुछ न कुछ वस्त्र या धन देता हैं। परंतु वास्तव में ऐसी बात नहीं है। सच यह है कि दोनों ही प्रकार के विवाह में वर पक्ष कुछ वस्तु या धन देता है, पर इस देने के उद्देश्य तथा आधार में भारी अंतर है। आर्ष विवाह मैं जो गाय और बैल दिया जाता है वह कन्या मूल्य नहीं है बल्कि केवल इस बात का प्रमाण है कि ऋषि विवाह करने को इच्छुक है और जो कुछ वह अपने भावी ससुर को दे रहे हैं वह ऋषि कृतज्ञता का प्रतीक है, परंतु आसुर विवाह में जो कुछ भी दिया जाता है वह वास्तव में कन्या मूल्य ही होता है और उसे चुकाए बिना विवाह नहीं हो सकता। साथ ही वह कन्या मूल्य आर्ष विवाह की तरह निश्चित भी नहीं होता और यह कन्या के गुण और परिवार के आधार पर ज्यादा या कम हो सकता है। परंतु आर्ष विवाह में कन्या के माता-पिता को निश्चित रूप में एक गाय और बैल अथवा दो जोड़े गाया बैल मिलते हैं। इन मौलिक भिन्नताओं के कारण ही इन दोनों विवाहों के दो भिन्न नाम है और विवाह के दो भिन्न प्रकार स्वीकार किए गए हैं। उच्च जाति के हिंदुओं में आसुर विवाह बहुत ही खराब समझा जाता है। निम्न जाति के लोगों में और जनजातियों में इसका विशेष प्रचलन है।
गन्धर्व विवाह :- यह विवाह कन्या और वर के परस्पर प्रेम के फलस्वरुप और उनकी इच्छा के अनुसार होता है तथा वे बिना अपने माता-पिता की अनुमति के ही एक दूसरे को पति और पत्नी के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। इस प्रकार के विवाह में शरीर संयोग विधिवत विवाह होने के पूर्व ही हो सकता है परंतु उचित विधियों को कर लेने के बाद ही ऐसे विवाह को समाज की स्वीकृति प्राप्त होती है। सत्यार्थ प्रकाश मैं लिखा है कि अनियम असमय इसी कारण से दोनों की इच्छा पूर्वक वर कन्या का परस्पर संयोग होना गन्धर्व विवाह हैं। कामसूत्र में इस प्रकार के विवाह को आदर्श विवाह माना गया है।
राक्षस विवाह :- लड़ाई करके छीन झपट कर या कपट से कन्या से विवाह कर लेना राक्षस विवाह है। यह विवाह उस समय अधिक होता था जब युद्ध का महत्व अधिक था और स्त्रियों को युद्ध में विजय पाकर प्राप्त करना गौरवपूर्ण माना जाता था। इस प्रकार स्त्रियों को युद्ध का पुरस्कार माना जाता था और उसको प्राप्त करने के लिए कन्या पक्ष के लोगों पर आक्रमण किया जाता था और शक्ति के द्वारा कन्या को जबरदस्ती उठा ले जाकर विवाह किया जाता था। चूंकि युद्ध में प्रत्यक्ष संपर्क क्षत्रियों का था इस कारण इस प्रकार का विवाह विशेष रूप से क्षत्रियों के लिए था इसलिए इसे क्षात्र विवाह भी कहते हैं।
पैचास विवाह :- जब निद्रित,शराब आदि पी हुई या अन्य प्रकार के उन्मत्त स्त्री के साथ किसी ना किसी प्रकार की जबरदस्ती या धोखा देकर यौन संबंध स्थापित कर लिया जाता है तो उसे पिचास विवाह कहते हैं। विवाह संस्कार पूरा कर लेने के बाद इस प्रकार के स्त्री - पुरुष्ज्ञ को भी समाज वर वधू के रूप में स्वीकार कर लेता है जिससे कि पुरूष की कामवासना के शिकार होने के फल स्वरूप उस लड़की का जीवन नष्ट ना हो जाए ।
विभिन्न स्मृति कारों ने हिंदू विवाह के भेदों की अलग-अलग संस्थाओं का उल्लेख किया है। उदाहरणार्थ वशिष्ठ केवल छह प्रकार के विवाह मानते हैं जबकि मनु ने हिंदू विवाहों के आठ प्रकारों का उल्लेख किया है। सामान्य रूप से मनु द्वारा उल्लिखित निम्नलिखित विवाह के आठ प्रकारों को अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है।
ब्रह्म विवाह :- वर कन्या दोनों यथा विधि ब्रह्मचर्य से पूर्ण विद्वान धार्मिक और सुशील हो उनका परस्पर प्रसन्नता से विवाह होना ब्रह्म विवाह कहलाता है इस प्रकार विवाह में कन्या के माता-पिता अपनी खुशी से एक विद्वान और योग्य वर को अपनी कन्या के लिए चुनते हैं उसे अपने घर पर आमंत्रित करते हैं और कन्या को वस्त्र अलंकार आदि से सुसज्जित करके उस वर को दान करते हैं ।
दैव विवाह :- इस प्रकार के विवाह में कन्या के पिता एक यज्ञ की व्यवस्था करते हैं और वह शुद्धता अलंकार से सुसज्जित कन्या का दान उस व्यक्ति को किया जाता है जो उस यज्ञ को उचित ढंग से पूरा करता है। संक्षेप में विस्तृत यज्ञ करने में कुशल पुरोहित को
अलंकार युक्त कन्या देना ही दैव विवाह है । इस विवाह का प्रचलन प्राचीन काल में आधी था, क्योंकि उस समय यज्ञ का बहुत महत्व था। परंतु आज ना तो यज्ञों का इतना महत्व है और ना ही दैव विवाह का प्रचलन।
आर्ष विवाह:- आर्ष विवाह का संबंध ऋषि शब्द से है। बौद्धिक तथा आध्यात्मिक शक्ति व चरित्र के लिए ऋषि यों का आदर किया जाता था और उनमें ऐसे बुद्धिमान सन्तति की उत्पत्ति की आशा की जाती थी जो कि परिवार तथा समाज के गौरव व गर्व की वस्तु होगी। इसीलिए ऐसे रिसीव से अपनी कन्या का विवाह कर देने को सभी माता पिता अत्यधिक इच्छुक रहते थे। परन्तु चूँकि ऋषि लोग प्रायः विवाह के संबंध में उदासीन हुआ करते थे इसलिए विवाह करने को इच्छुक ऋषि को अपने भावी ससुर को एक गाय अथवा एक बैल अथवा इनके दो जोड़े देने पड़ते थे ताकि यह प्रमाणित हो जाए कि ऋषि ने अब विवाह बंधन को स्वीकार कर लिया है। उसे कन्या मूल्य न समझना चाहिए। इस प्रकार की भेंट लेकर कन्या के माता-पिता कन्या को ऋषि की पत्नी के रूप में सौंप देते हैं। और उन दोनों को इसके पश्चात पवित्र गृहस्थ धर्म निर्वाह करने का अवसर प्रदान करते हैं।
प्रजापत्य विवाह :- वर और वधू को वैवाहिक जीवन के संबंध में उपदेश देकर और तुम दोनों मिलकर गृहस्थ धर्म का पालन करना और तुम दोनों का जीवन सुखी एवं समृद्धिशाली हो " यह कह कर विधिवत वर की पूजा करके कन्या का दान ही प्रजापत्य विवाह है। सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि वर और वधू दोनों का विवाह धर्म की वृद्धि के लिए हो या कामना ही प्रजापत्य का आधार है । इस प्रकार ब्रह्म और प्रजापत विवाह में कोई विशेष अंतर नहीं है । कुछ विद्वानों के मतानुसार प्रारंभ में प्रजापत्य था ही नहीं। सम्भवतः विवाह के आठ प्रकार बनाने के लिए इसका प्रचलन बाद में हुआ है।
आसुर विवाह :- असुर विवाह में विवाह के लिए इच्छुक व्यक्ति को कन्या के पिता या अभिभावक को कन्या मूल्य चुकाना पड़ता है। इसके अनुसार कन्या का कुछ मूल्य पहले ही निश्चित हो जाता है और उसे चुकाए बिना विवाह नहीं हो सकता। इस मूल्य की कोई सीमा नहीं होती। प्रायः यह कन्या के गुण और परिवार के आधार पर निश्चित होता है। ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि आर्ष विवाह औश्र आसुरी विवाह एक समान है क्योंकि दोनों में ही वर पक्ष कन्या पक्ष को कुछ न कुछ वस्त्र या धन देता हैं। परंतु वास्तव में ऐसी बात नहीं है। सच यह है कि दोनों ही प्रकार के विवाह में वर पक्ष कुछ वस्तु या धन देता है, पर इस देने के उद्देश्य तथा आधार में भारी अंतर है। आर्ष विवाह मैं जो गाय और बैल दिया जाता है वह कन्या मूल्य नहीं है बल्कि केवल इस बात का प्रमाण है कि ऋषि विवाह करने को इच्छुक है और जो कुछ वह अपने भावी ससुर को दे रहे हैं वह ऋषि कृतज्ञता का प्रतीक है, परंतु आसुर विवाह में जो कुछ भी दिया जाता है वह वास्तव में कन्या मूल्य ही होता है और उसे चुकाए बिना विवाह नहीं हो सकता। साथ ही वह कन्या मूल्य आर्ष विवाह की तरह निश्चित भी नहीं होता और यह कन्या के गुण और परिवार के आधार पर ज्यादा या कम हो सकता है। परंतु आर्ष विवाह में कन्या के माता-पिता को निश्चित रूप में एक गाय और बैल अथवा दो जोड़े गाया बैल मिलते हैं। इन मौलिक भिन्नताओं के कारण ही इन दोनों विवाहों के दो भिन्न नाम है और विवाह के दो भिन्न प्रकार स्वीकार किए गए हैं। उच्च जाति के हिंदुओं में आसुर विवाह बहुत ही खराब समझा जाता है। निम्न जाति के लोगों में और जनजातियों में इसका विशेष प्रचलन है।
गन्धर्व विवाह :- यह विवाह कन्या और वर के परस्पर प्रेम के फलस्वरुप और उनकी इच्छा के अनुसार होता है तथा वे बिना अपने माता-पिता की अनुमति के ही एक दूसरे को पति और पत्नी के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। इस प्रकार के विवाह में शरीर संयोग विधिवत विवाह होने के पूर्व ही हो सकता है परंतु उचित विधियों को कर लेने के बाद ही ऐसे विवाह को समाज की स्वीकृति प्राप्त होती है। सत्यार्थ प्रकाश मैं लिखा है कि अनियम असमय इसी कारण से दोनों की इच्छा पूर्वक वर कन्या का परस्पर संयोग होना गन्धर्व विवाह हैं। कामसूत्र में इस प्रकार के विवाह को आदर्श विवाह माना गया है।
राक्षस विवाह :- लड़ाई करके छीन झपट कर या कपट से कन्या से विवाह कर लेना राक्षस विवाह है। यह विवाह उस समय अधिक होता था जब युद्ध का महत्व अधिक था और स्त्रियों को युद्ध में विजय पाकर प्राप्त करना गौरवपूर्ण माना जाता था। इस प्रकार स्त्रियों को युद्ध का पुरस्कार माना जाता था और उसको प्राप्त करने के लिए कन्या पक्ष के लोगों पर आक्रमण किया जाता था और शक्ति के द्वारा कन्या को जबरदस्ती उठा ले जाकर विवाह किया जाता था। चूंकि युद्ध में प्रत्यक्ष संपर्क क्षत्रियों का था इस कारण इस प्रकार का विवाह विशेष रूप से क्षत्रियों के लिए था इसलिए इसे क्षात्र विवाह भी कहते हैं।
पैचास विवाह :- जब निद्रित,शराब आदि पी हुई या अन्य प्रकार के उन्मत्त स्त्री के साथ किसी ना किसी प्रकार की जबरदस्ती या धोखा देकर यौन संबंध स्थापित कर लिया जाता है तो उसे पिचास विवाह कहते हैं। विवाह संस्कार पूरा कर लेने के बाद इस प्रकार के स्त्री - पुरुष्ज्ञ को भी समाज वर वधू के रूप में स्वीकार कर लेता है जिससे कि पुरूष की कामवासना के शिकार होने के फल स्वरूप उस लड़की का जीवन नष्ट ना हो जाए ।
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