सामाजिक विधान :-
व्यक्ति का समाज के साथ घनिष्ठ संबंध है। उसकी आवश्यकता ओं की संतुष्टि समाज में ही संभव है। सामाजिक संरचना का निर्माण एवं पुनर्गठन इसलिए किया जाता है ताकि इन आवश्यकताओं की समुचित एवं प्रभावपूर्ण ढंग से संतुष्टि हो सके। दुर्भाग्य की बात है कि कालांतर में भारतीय सामाजिक संरचना मैं ऐसे दोष उत्पन्न हुए जिनके कारण कुछ लोग सबल तथा कुछ निर्बल हो गए और सबलो द्वारा निर्बलों का शोषण किया जाने लगा। परिणामत: यह अनुभव किया गया कि निर्बल वर्गों के हितों का संरक्षण करने हेतु राज्य द्वारा कुछ विशेष प्रयास किए जाएं ताकि निर्बलों को भी व्यक्तित्व के विकास एवं सामाजिक क्रियाकलापों में अपनी योग्यताओं एवं क्षमताओं के अनुसार भाग लेने के अवसर प्राप्त हो सके। यद्यपि ऐसे प्रयास सदैव से होते रहे हैं किंतु इस दिशा में व्यवस्थित , चेतन एवं योजनाबद्ध प्रयास स्वतंत्रता के पश्चात ही प्रारंभ किए जा सके जब राज्य एक कल्याणकारी राज्य के रूप में उभरकर सामने आया। ये प्रयास निर्बल एवं शोषण का सरलता पूर्वक शिकार बनने वाले वर्गों के हितों के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु सामाजिक विधानों के रूप में सामने आए।
1 सामाजिक विधान का अर्थ
योजना आयोग के अनुसार - प्रचलित कानूनों तथा वर्तमान आवश्यकताओं के बीच दूरी को कम करने वाले विधान को सामाजिक विधान कहा जा सकता है।
Gangrade
And Batra के अनुसार सामाजिक विधान की परिभाषा उन कानूनों के रूप में की जा सकती है जिन्हें सकारात्मक मानव संसाधन को बनाए रखने तथा सुदृढ़ बनाने एवं समूह तथा व्यक्तियों के नकारात्मक एवं सामाजिक रूप से हानिकारक व्यवहार के घटित होने को कम करने हेतु बनाया जाता है।
उरसेकर
के अनुसार सामाजिक विधान सामाजिक एवं आर्थिक न्याय संबंधी विचारों को लागू किए जाने योग्य कानूनों में रूपांतरित करने की लोगों की इच्छा की वैधानिक अभिव्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है।
सामाजिक विधान का संबंध व्यक्ति एवं समूह के कल्याण की वृद्धि तथा सामाजिक क्रियाकलापों के प्रभावपूर्ण एवं निर्बाध रूप से संचालन से है। इन विधानों का निर्माण इस प्रकार किया जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु अपेक्षित साधन एवं उपयुक्त अवसर प्राप्त हो सके तथा सामाजिक व्यवस्था के सुचारू रूप से चलने के लिए अपेक्षित विभिन्न प्रकार्य उचित रूप से संपादित किए जा सके। सामाजिक विधान नई स्थितियों के लिए वैधानिक संरचना का निर्माण करता है तथा इच्छित दिशा में सामाजिक संरचना में परिवर्तन किए जाने के अवसर प्रदान करता है। यह राष्ट्र के वर्तमान सामाजिक एवं आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति करता है और आने वाली सामाजिक समस्याओं का कुशलता से समाधान करता है।
इस प्रकार सामाजिक विधान के दो प्रमुख उद्देश्य हैं
- नियमन की
स्थिति उत्पन्न
करना तथा
सुरक्षा प्रदान
करना
- सामाजिक आवश्यकताओं
का पूर्वानुमान
करते हुए
सामाजिक व्यवस्था
में परिवर्तन
लाने का
प्रयास करन
स्वतंत्रता
से पूर्व सामाजिक विधान
प्रारंभ में सामाजिक न्याय व्यवस्था का कार्य समाज में फैली धार्मिक कुरीतियों को रोकना था। 1929 में बंगाल में सती प्रथा को रोकने के लिए कानून बनाया गया। इसी कानून को बाद में मद्रास एवं मुंबई में भी लागू किया गया। 1843 में भारतीय दास प्रथा कानून पारित हुआ जिसके अंतर्गत दास होने के नाते क्रय विक्रय पर निषेध लगा दिया गया। जब भारतीय दंड विधान लागू किया गया तो दास के रूप में किसी व्यक्ति को बेचना अथवा खरीदना एवं इससे संबंधित व्यापार करना वर्जित कर दिया गया और इसके लिए कठोर दंड की व्यवस्था की गई। कुछ ही दिनों बाद जाति असमर्थता निर्मूलन कानून के अंतर्गत यह व्यवस्था की गई कि यदि व्यक्ति अपना धर्म अथवा जाति परिवर्तित करता है तो उसके संपत्ति अधिकार पहले जैसे ही बने रहेंगे तथा उसे अपनी संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा। 1856 में हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम तथा 1870 में नारी बाल हत्या कानून बनाए गए। 1872 में विशिष्ट विवाह अधिनियम बना जो 1929 में संशोधित किया गया।
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में अनेक सामाजिक विधान बनाए गए। बाल विवाह प्रतिरोध अधिनियम 1929 में, हिंदू आय लाभ अधिनियम 1930 में, हिंदू महिला संपत्ति अधिकार अधिनियम 1937 में, एवं विवाहित हिंदू महिला पृथक निर्वाह अधिनियम तथा हिंदू विवाह असमर्थता निवारण अधिनियम 1946 में पारित किए गए। बाल विवाह प्रतिरोध अधिनियम द्वारा बालकों के लिए विवाह की आयु 18 वर्ष तथा बालिकाओं के लिए 15 वर्ष निर्धारित की गई। आय लाभ अधिनियम द्वारा अविभाजित हिंदू परिवार के किसी सदस्य की आय अथवा किसी की अलग से अर्जित की गई संपत्ति में से प्राप्त सभी लाभ परिवार के निश्चित किए गए। संपत्ति अधिकार अधिनियम द्वारा विधवा को पति की संपत्ति में से पुत्र को मिलने वाले भाग के समान ही भाग निर्धारित किया गया परंतु इस बात पर रोक लगा दी गई कि वह अपने जीवन काल में ना तो इसे बेंच सकती है और ना ही किसी को दे सकती है। विवाहित हिंदू महिला पृथक निर्वाह अधिनियम द्वारा विवाहित महिला को पृथक आवास एवं निर्वाह की मांग करने का अधिकार प्राप्त हुआ। हिंदू विवाह असमर्थता निवारण अधिनियम द्वारा एक ही गोत्र अथवा उसी जाति के दूसरे अलग-अलग उप वर्गों में होने वाले विवाह को मान्यता प्रदान की गई।
बाल कल्याण हेतु शिशुक्षु (Apprentices) अधिनियम 1850, अभिभावक एवं रक्षक अधिनियम 1890, बाल श्रम बंधक अधिनियम 1933, तथा बालक व्यापार अधिनियम 1938 में पारित किए गए। 1938 में आपराधिक प्रक्रिया संहिता के अधीन भगेडू पन की रोकथाम के लिए प्रावधान किया गया। लड़कियों को शोषण से बचाने के लिए भारतीय दंड संहिता में व्यवस्था की गई जिसके द्वारा 18 वर्ष से कम आयु की किसी लड़की का अवैधानिक रूप से अथवा अनैतिक उद्देश्य से विक्रय, क्रय या किसी अन्य प्रकार से अपने अधिकार में रखना एक अपराध माना गया। सतीत्व की रक्षा तथा बलात्कार रक्षा के लिए भी प्रबंध किए गए।
श्रमिकों के कल्याण हेतु 1855 में प्राणघातक दुर्घटना अधिनियम, 1881 में भारतीय कारखाना अधिनियम, 1923 में कर्मकार क्षतिपूर्ति अधिनियम, 1926 मैं भारतीय श्रमिक संघ अधिनियम, 1929 मैं व्यापार विवाद अधिनियम, 1933 में बाल ( श्रम बंधक ) अधिनियम, 1938 मैं मालिक देयता अधिनियम, 1946 में औधोगिक सेवायोजन ( स्थाई अध्यादेश ) अधिनियम पारित किए गए।
भारतीय
संविधान
के अधीन सामाजिक प्रावधान
भारतीय संविधान की वर्तमान प्रस्तावना में यह कहा गया है :
"
हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण संप्रभुता संपन्न समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा इनके सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था एवं उपासना की स्वतंत्रता, स्थिति और अवसर की समानता, और इन सभी को प्रोत्साहन करने हेतु व्यक्ति की महत्ता एवं राष्ट्र की एकता एवं अखंडता का आश्वासन देने वाले भ्रतृत्व को
बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर…….. इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित एवं अपने आप को समर्पित करते हैं " ।
संविधान की प्रस्तावना से यह स्पष्ट है कि हम प्रत्येक नागरिक को न्याय, स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व का आश्वासन प्रदान करते हुए संप्रभुता पूर्ण, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष एवं प्रजातांत्रिक गणराज्य का निर्माण करना चाहते हैं।
भारतीय संविधान के भाग 3 में मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है। इसके अनुच्छेद 14 में विधि के समक्ष समानता, अनुच्छेद 15 में धर्म, प्रजाति, जाति, लिंग अथवा जन्म स्थल के आधार पर भेदभाव के निषेध, अनुच्छेद 16 में सार्वजनिक सेवा के मामले में अवसर की समानता, अनुच्छेद 18 में पदवियों का उन्मूलन, अनुच्छेद 19 में भाषण की स्वतंत्रता इत्यादि से संबंधित कुछ अधिकारों के संरक्षण, अनुच्छेद 20 में जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संरक्षण, अनुच्छेद 22 में कुछ मामलों में कैद एवं हिरासत के विरुद्ध संरक्षण, अनुच्छेद 23 में मानवीय व्यापार एवं बर्बस श्रम में निषेध, अनुच्छेद 24 में कारखानों में बच्चों के सेवायोजन इत्यादि के निषेध, अनुच्छेद 25 में आत्मानुभूति एवं स्वतंत्र व्यवसाय, कार्य एवं धर्म के प्रचार की स्वतंत्रता, अनुच्छेद 26 में धार्मिक मामलों का प्रबंध करने की स्वतंत्रता, अनुच्छेद 27 में किसी विशिष्ट धर्म के प्रोत्साहन हेतु करों का भुगतान करने की स्वतंत्रता, अनुच्छेद 28 में कुछ विशेष शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक उपदेश अथवा धार्मिक उपासना में उपस्थिति से स्वतंत्रता, अनुच्छेद 29 में अल्पसंख्यकों के शिक्षा संस्थाओं को स्थापित करने और प्रशासन करने के अधिकार तथा अनुच्छेद 32 में मौलिक अधिकारों के कार्यान्वयन हेतु उपायों का प्रावधान किया गया।
संविधान के भाग 4 में राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों के अधीन अनुच्छेद 38 में लोगों के कल्याण के प्रोत्साहन हेतु एक सामाजिक व्यवस्था के राज्य द्वारा स्थापित किए जाने, अनुच्छेद 29 में राज्य द्वारा नीति के कुछ सिद्धांतों के अपनाए जाने, अनुच्छेद 29 ए में समान न्याय एवं निशुल्क कानूनी सहायता, अनुच्छेद 41 में कार्य, शिक्षा तथा कुछ परिस्थितियों में जन सहायता के अधिकार, अनुच्छेद 42 में न्याय पूर्ण एवं मानवीय कार्य की शर्तों एवं मातृत्व सहायता हेतु प्रावधान, अनुच्छेद 43 में श्रमिकों के लिए जीवन निर्वाह मजदूरी इत्यादि, अनुच्छेद 43 ए में उद्योगों के प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता, अनुच्छेद 44 में नागरिकों के लिए एक नागरिक संहिता, अनुच्छेद 45 में बच्चों के लिए स्वतंत्र एवं अनिवार्य शिक्षा हेतु प्रावधान, अनुच्छेद 46 में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों एवं अन्य निर्बल वर्गों की शैक्षिक एवं आर्थिक अभिरुचियों के प्रोत्साहन, अनुच्छेद 47 में जीवन के स्तर एवं पोषण के स्तर को उन्नत करने तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य को सुधारने हेतु राज्य के कर्तव्य, अनुच्छेद 43 ए में पर्यावरण के संरक्षण एवं सुधार तथा वनों एवं वन्य जीवो के संरक्षण तथा अनुच्छेद 51 मैं अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा के प्रोत्साहन का उल्लेख किया गया है।
संविधान के भाग IV ए में मौलिक कर्तव्यों का प्रावधान किया गया है।
संविधान के भाग 16 कुछ वर्गों से संबंधित विशिष्ट प्रावधान के अधीन अनुच्छेद 330 में लोकसभा में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए सीटों का आरक्षण, अनुच्छेद 331 में लोकसभा में आंग्ल भारतीय समुदाय का प्रतिनिधित्व, अनुच्छेद 332 में राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए सीटों के आरक्षण, अनुच्छेद 333 में राज्यों की विधानसभाओं में आंग्ल भारतीय समुदाय के लिए प्रतिनिधित्व, अनुच्छेद 335 मैं अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के सेवाओं एवं पदों पर अधिकार पूर्ण मांग, अनुच्छेद 336 में कुछ सेवाओं में आंग्ल भारतीय समुदाय के लिए विशिष्ट प्रावधान, अनुच्छेद 338 में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों इत्यादि के लिए विशिष्ट अधिकारी, अनुच्छेद 339 में अनुसूचित क्षेत्रों अनुसूचित जनजातियों के कल्याण के प्रशासन पर केंद्र के नियंत्रण, अनुच्छेद 340 में पिछड़े वर्गों की दशाओं की जांच करने हेतु आयोग की नियुक्ति, अनुच्छेद 341 में अनुसूचित जातियों और अनुच्छेद 342 में अनुसूचित जनजातियों का उल्लेख किया गया है।
सामाजिक विधानों को निम्नलिखित 6 श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है।
- धार्मिक एवं
दातव्य न्यासों
से संबंधित
विधान।
- निराश्रित व्यक्तियों
से संबंधित
विधान जिसके
अंतर्गत अकिंचन
कोढियों से
संबंधित विधान
को सम्मिलित
किया जा
रहा हैं।
- बाधितों से
संबंधित विधान
जिसके अंतर्गत
विशेष रूप
से सामाजिक
तथा आर्थिक
रूप से
बाधित व्यक्तियों
के लिए
विधान विशेष
रूप से
अनुसूचित जातियों
से संबंधित
विधान तथा
शारीरिक एवं
आर्थिक रूप
से बाधित
व्यक्तियों से
संबंधित विधान
विशेष रूप
से बच्चों
से संबंधित
विधान को
सम्मिलित किया
जा रहा
है।
- शोषण का
सरलता पूर्वक
शिकार बनने
वाले व्यक्तियों
से संबंधित
विधान जिसके
अंतर्गत महिलाओं,
श्रमिकों एवं
युवकों से
संबंधित विधान
को सम्मिलित
किया जा
रहा है।
- बिजली तो
व्यवहार वाले
व्यक्तियों से
संबंधित विधान
जिसके अंतर्गत
बाल आवारापन,
बाल अपराध,
सफेदपोश अपराध,
वेश्यावृत्ति, भिक्षावृत्ति,
मद्यपान एवं
मादक द्रव्य
व्यसन, धूत
क्रीड़ा से
संबंधित विधान
को सम्मिलित
किया जा
रहा है।
- असामान्य व्यवहार
प्रदर्शित करने
वाले व्यक्तियों
से संबंधित
विधान जिसके
अंतर्गत मानसिक
रूप से
विक्षिप्त व्यक्तियों
से संबंधित
विधान को
सम्मिलित किया
जा रहा
है।
धार्मिक
एवं दातव्य न्यासों से संबंधित विधान
1890
में दातव्य धर्मदाय अधिनियम पास किया गया जिसके अधीन सरकार द्वारा नियुक्त दातव्य धर्मदायो के कोषाध्यक्ष में सार्वजनिक न्यासों के विहितिकरण एवं प्रशासन का दायित्व सौंपा गया। 1920 में धार्मिक एवं दातव्य न्यास अधिनियम पारित किया गया जिसके अधीन दातव्य एवं धार्मिक धर्मदायों के लिए बनाए गए न्यासों के संबंध में सूचना प्राप्त करने की सुविधाओं का प्रावधान किया गया।
निराश्रित
व्यक्तियों
से संबंधित विधान
1898 के कोढ़ी अधिनियम के अधीन अकिंचान कोढ़ियों के अलग रखे जाने तथा उनके चिकित्सकीय उपचार का प्रावधान किया गया है।
बाधितों
से संबंधित विधान
नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम 1976 के अधीन अनुसूचित जाति के व्यक्तियों के लिए नागरिक अधिकारों के संरक्षण की व्यवस्था की गई है। बच्चों की अभिरुचियों के प्रोत्साहन के लिए भारतीय दंड संहिता 1860, ( धारा
82,83,315,316,317,318,361,363,363ए, तथा 369 ) आपराधिक प्रक्रिया संहिता 1973 ( धारा
27,98,125,160,198,320,360,361,437, तथा 448 ), अपराधी परिवीक्षा अधिनियम 1958 , किशोर न्याय अधिनियम 1986, भारतीय व्यापार पोत अधिनियम 1923 ( धारा 23), बाल श्रम बंधक अधिनियम 1933, बाल सेवायोजन अधिनियम 1938, कारखाना अधिनियम 1948
शोषण का सरलता पूर्वक शिकार बनने वाले व्यक्तियों से संबंधित विधान -
महिलाओं के हितों के संरक्षण हेतु भारतीय दंड संहिता 1860 ( धारा 312,313,314,354ए,366ए और 366 बी , 372,373,375,376,377, तथा 507 ) आपराधिक प्रक्रिया संहिता 1973 ( धारा 18,125,126,127,128 तथा 160 )
विचलित
व्यवहार
प्रदर्शित
करने वाले व्यक्तियों से संबंधित विधान -
बाल आवारापन से संबंधित प्रावधान किशोर न्याय अधिनियम 1986 के अंतर्गत किए गए हैं। आवारापन संबंधी प्रावधान आपराधिक प्रक्रिया संहिता 1973 के अध्याय 8 में किए गए हैं। बाल अपराध की समस्या पर नियंत्रण तथा बाल अपराधियों के सुधार हेतु बोस्ट्रल विद्यालय अधिनियम, अपराधी परिवीक्षा अधिनियम, किशोर न्याय अधिनियम अलग से पारित किए गए हैं। इसके अतिरिक्त भारतीय दंड संहिता तथा आपराधिक प्रक्रिया संहिता के अधीन भी प्रावधान किए गए हैं। अपराध की समस्या से निपटने के लिए भारतीय दंड संहिता तथा आपराधिक प्रक्रिया संहिता के अधीन किए गए सामान्य प्रावधानों के अतिरिक्त अन्य विविध क्षेत्रों के संदर्भ में बनाए गए विशिष्ट अधिनियम के अधीन प्रावधान किए गए हैं।
असामान्य
व्यवहार
प्रदर्शित
करने वाले व्यक्तियों से संबंधित विधान -
मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम 1987 के अंतर्गत मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्तियों के उपचार का प्रावधान किया गया है। भारतवर्ष में उपरोक्त लिखित विभिन्न सामाजिक विधान ओं का मूल्यांकनात्मक अध्ययन करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि विभिन्न धर्मों एवं जातियों के विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों के हितों का संरक्षण एवं संवर्धन करने के लिए अलग-अलग विधान बनाए गए हैं। इन विधान ओं की संख्या इतनी अधिक है कि इन्हें संपूर्णता में लागू करते हुए किसी एक श्रेणी विशेष की अभिरुचियों का संरक्षण एवं संवर्धन कर पाना अत्यंत कठिन कार्य है। यह दुर्भाग्य की बात है कि भारत में भी विभिन्न धर्मों एवं जातियों के व्यक्तियों के लिए एकरूपता पूर्ण नागरिक विधान नहीं बन सका है, और इसी का यह परिणाम है कि आज संप्रदायवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद की समस्याएं अपने विकराल रूप से हमारे सामने विद्यमान हैं और राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया है।
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