समाज कार्य के आधारभूत मूल्य एवं दर्शन -
समाज कार्य एक व्यापक अवधारणा है जिसमें दूसरों की सहायता करना सम्मिलित है। समय के साथ साथ समाज कार्य में विशिष्ट व्यवसायिक मूल्यों एवं कार्य प्रणालियों का विकास होता गया जिससे समाज कार्य ने वर्तमान में एक ऐसे सशक्त व्यवसाय का स्वरूप प्राप्त कर लिया है जिसके अंतर्गत समाज के प्रत्येक व्यक्ति की भलाई इसका प्रमुख कार्य हैसमाज की उत्पत्ति के साथ ही समाज को निर्देशित व संचालित करने की भावना का विकास हुआ जिसके फलस्वरूप सामाजिक मूल्यों का उदय हुआ है जो समाज के सदस्यों के व्यवहारों को संचालित करने के साधन माने जाते हैं वास्तव में सामाजिक मूल्य सामाजिक परिस्थितियों अवधारणाओं वस्तुओं एवं क्रियाकलापों से संबंधित व्यक्तियों तथा सामाजिक समूहों के निर्णय के फलस्वरूप जन्म लेते हैं। इन्हीं मूल्यों द्वारा निर्धारित परिधि एवं दिशा में ही समाज के सदस्य अपने व्यवहार को परिसीमित रखते हुए विशेष व्यवहार करते हैं। समाज के व्यक्तिगत सदस्यों या समूहों द्वारा किया गया निर्णय जो मूल स्वरूप स्पष्ट होता है स्वयं इन्हीं व्यक्तियों और समूहों के अनुभव बौद्धिक ज्ञान तथा उनके संवेगों पर आधारित होता है। अर्थात व्यक्तियों व समूहों का जैसा बौद्धिक स्तर व संवेग तथा अनुभव होगा वह सामाजिक व्यवहार को परिसीमित करने के लिए उसी के अनुरूप निर्णय लेंगे जो एक निश्चित अवधि में सामाजिक मूल्य का रूप धारण कर लेता है। इस संदर्भ में यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि जिस व्यवहार को समाज मान्यता दें और वह समाज के लिए हितकारी व लाभप्रद तथा सर्वमान्य हो तो उसे हम सामाजिक मूल्य की संज्ञा दे सकते हैं।
समाज कुछ व्यवहारों पर अपने नियमों ( संस्थाओं ) के द्वारा नियंत्रण रखता है ताकि मनुष्य सामाजिक नियमों के अनुसार ऐसे संस्थात्मक व्यवहार करें जो समाज को संगठित रूप देने के सहायक तथा सर्वमान्य हो उन्ही व्यवहारों ,आदर्शों, नियमों, परंपराओं संस्थागत व्यवहारों की समग्र निरंतरता को ही सामाजिक मूल्य कहते हैं। इस प्रकार दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि वे व्यवहार जो समाज से स्वीकृति प्राप्त हो एवं समाज के लिए संगठनकारी व लाभकारी हो तथा उनके निष्पादन का त्याग करना पड़े और सामाजिक रूप से मान्यता प्राप्त सामाजिक नियंत्रण के अंतर्गत हो तो उन्हें हम सामाजिक मूल्य के रूप में स्वीकार कर सकते हैं। उदाहरणार्थ जैसे मनुष्य में चार प्रमुख इच्छाएं होती हैं जिन्हें पुरुषार्थ कहते हैं।
1. धर्म 2. अर्थ 3. काम तथा 4. मोक्ष
परंतु जब हम इन पुरुषार्थओं की सामाजिक परिपेक्ष में सामाजिक नियंत्रण व मान्यताओं के अनुकूल प्रतिपादन करें तो ये मूल्य स्वरूप होंगे जैसे काम वास्तव में पुरुषार्थ है मगर इसकी पूर्ति के लिए सामाजिक मान्यताओं के अनुकूल वैवाहिक बंधन स्थापित करें तो विवाह सामाजिक मूल्य है अन्यथा पुरुषार्थ को सामाजिक मूल्यों की संज्ञा नहीं दी जा सकती अतः संक्षेप में कहा जा सकता है कि समाज हितकारी कार्य शर्तें तथा आदर्श आदि सामाजिक मूल्य है।
क्रेच एंड क्रचफील्ड - ने सामाजिक मूल्य को परिभाषित करते हुए स्पष्ट किया है कि।
इन्होंने अच्छे तथा बुरे की परीक्षा पर विशेष बल दिया है किसी समाज के मूल्य उस समाज की संस्कृति का अंग होता है तथा संस्कृति को अधिकांश लोग स्वीकार करके उसे अपना उद्देश्य बनाते हैं।
हाल के मतानुसार - मूल्य को परिभाषित करते हुए हाल ने यह विचार प्रकट किया है कि " करना चाहिए या नहीं करना चाहिए अच्छा है या बुरा है कोई ऐसी बात जो होना चाहिए अथवा नहीं मूल्य है।
कौस ने सामाजिक मूल्य को निम्नलिखित रूप से परिभाषित किया गया है
अर्थात मूल्यों को वस्तु के मूल्य अवधारणा सिद्धांत क्रिया अथवा परिस्थिति के संदर्भ में व्यक्ति समूह अथवा समाज के बौद्धिक एवं संवेगात्मक निर्णय के रूप में देखा जा सकता है। कौस ने यह भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि व्यवहार विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न मूल्यों के प्रभाव से घटित हो सकता है। इससे ज्ञात होता है कि सामाजिक मूल्य व्यवहार को परिस्थितियों के अनुसार प्रभावित करता है। अर्थात व्यक्ति भिन्न भिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न सामाजिक मूल्यों से प्रभावित होकर व्यवहार करता है।
कोसने समाज कार्य के मूल्यों को निम्नलिखित 10 वर्गों में विभाजित करके स्पष्ट करने का प्रयास किया है
1 मनुष्य की योग्यता एवं उसकी गरिमा।
2 संपूर्ण मानवीय विभव उपलब्ध बनाने की मानवीय प्रकृति संबंधी क्षमता
3 मतभेदों के संदर्भ में सहनशीलता
4 स्वतंत्रता
5 मनुष्य एवं प्रकृति के कारण होने वाले खतरों से अपने अस्तित्व की सुरक्षा
6 मौलिक मानवीय आवश्यकताओं की संतुष्टि
7 आत्म निर्देशन
8 आज निर्णय आत्मक मनोवृति
9 रचनात्मक सामाजिक सहयोग
10 कार्य की महत्ता तथा खाली समय का रचनात्मक उपयोग
इस प्रकार यह कहना उचित होगा कि समाज कार्य के प्राथमिक मूल्यों में विश्वास रखना प्रत्येक सामाजिक कार्यकर्ता के लिए अनिवार्य है । बिना इसके व्यवसा यिक अह्म का विकास तथा व्यवसाय के उद्देश्य की पूर्ति संभव नहीं है।
जानसन के अनुसार मूल्यों को सांस्कृतिक या केवल व्यक्ति धारणा या मानक के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसके द्वारा वस्तुओं की एक दूसरे के संदर्भ में तुलना की जाती है उन्हें स्वीकृत अथवा अस्वीकृत किया जाता है उन्हें सापेक्ष रूप से आपेक्षित या अनपेक्षित, बुद्धिमत्ता पूर्ण या मूर्खतापूर्ण,अधिक या कम सही माना जाता है ।
कोनोपका ने भी प्राथमिक व द्वितीयक मूल्यों में अंतर माना है उनके मतानुसार प्राथमिक मूल्य दो हैं
1 प्रत्येक व्यक्ति को उचित सम्मान एवं अपनी योग्यताओं एवं क्षमताओं के संपूर्ण विकास का अधिकार
2 व्यक्तियों में परस्पर निर्भरता तथा एक दूसरे के प्रति उनकी योग्यता अनुसार उत्तरदायित्व
कोनोपका ने लिंडमैन के विचारों की व्याख्या करते हुए लिखा है कि समाज कार्य तथ्यों में मूल्यों के प्रवेश की अवधारणा में विश्वास रखता है
हर्ट बट विष्णु ने समाज कार्य के मूल्यों को सविस्तार प्रस्तुत किया है संक्षेप में उन मूल्यों की रूपरेखा इस प्रकार है
1 प्रत्येक व्यक्ति अपने अस्तित्व के कारण मूल्यवान है
2 मानवीय क्लेश अवांछनीय है और इसका विरोध करना चाहिए या जहां तक संभव हो उसे कम करने का प्रयास करना चाहिए
3 समस्त मानव व्यवहार मनुष्य के जैविक की अस्तित्व और उसके पर्यावरण के बीच परस्पर संबंध क्रिया का परिणाम है
सामाजिक कार्यकर्ता मूल्यों का प्रयोग उपचार व शिक्षा के संबंध में निम्नलिखित प्रकार से कर सकता है
1 मूल्यों के विकास में सेवार्थी की सहायता करना
2 सेवार्थी की सहायता इस प्रकार करना कि वह अपने मूल्यों को पूर्णरूपेण समझ सके
3 सेवार्थी की सहायता करना ताकि वह अपने मूल्यों के मध्य संघर्ष को समाप्त कर सके
4 सेवार्थी की सहायता करना ताकि वह अपने और समाज के अन्य व्यक्तियों या समूह के मूल्यों के संघर्ष और अंतर को समझ सके
5 वह आपने और दूसरे के मूल्यों के संघर्ष के विनाशकारी परिणाम को दूर कर सके
6 वह अधिक रचनात्मक सामाजिक तथा वैयक्तिक मूल्यों का पता लगाएं और उन्हें ग्रहण करें
7 वह अपने मूल्यों के अनुसार व्यवहार कर सकें और अपने मूल्यों के प्रयोग में लचीलापन उत्पन्न कर सकें
8 विभिन्न मूल्यों में से वह उचित मूल्यों का चुनाव कर सके
संयुक्त राष्ट्र ने समाज कार्य के निम्नलिखित दार्शनिक एवं नैतिक मूल्यों व मान्यताओं का उल्लेख किया है
1 किसी व्यक्ति की सामाजिक पृष्ठभूमि तथा व्यवहार को ध्यान में रखें बिना उसके महत्त्व मूल्य या योग्यता को मान्यता प्रदान करना तथा मानव प्रतिष्ठा एवं आत्म सम्मान को प्रोत्साहित करना
2 व्यक्तियों वर्गों एवं समुदाय के विभिन्न मतों का आदर करने के साथ ही जनकल्याण के साथ उनका सामंजस्य स्थापित करना
3 आत्म सम्मान एवं उत्तरदायित्व पूरा करने की योग्यता बढ़ाने की दृष्टि से स्वावलंबन को प्रोत्साहित करना
4 व्यक्तियों वर्ग अथवा समुदायों की विशेष परिस्थितियों में संतोष मैं जीवन निर्वाह करने हेतु समुचित अवसरों में वृद्धि करना
5 समाज कार्य के ज्ञान एवं दर्शन को मानवीय इच्छाओं और आवश्यकताओं के संबंध में उपलब्ध हैं , के अनुरूप अपने व्यवसाय उत्तरदायित्व को स्वीकार करना ताकि प्रत्येक व्यक्ति को अपने पर्यावरण एवं कार्य क्षमता का सदुपयोग करने का पूर्ण अवसर प्राप्त हो
6 व्यवसायिक संबंधों की गोपनीयता को बनाए रखना
7 सेवार्थ यो व्यक्ति समूह समुदाय को अधिक आत्मनिर्भर बनाने में सहायता देने के लिए इन संबंधों का उपयोग करना
8 यथासंभव विष्यात्मक्ता एवं उत्तरदायित्व के साथ व्यवसायिक संबंधों का उपयोग करना
डोरोथी ली ने बहुत ही सरल तथा स्पष्ट रूप से सामाजिक मूल्य को निम्नांकित शब्दों में परिभाषित किया है।
डोरोथी ली के शब्दों में - मानवीय मूल्यों एवं मूल्य अथवा मूल्यों की पद्धति से मेरा तात्पर्य उन आधारों से है जिन आधारों पर व्यक्ति एक आचरण की अपेक्षा दूसरे आचरण का चयन करता है , अच्छे या बुरे , उचित अनुचित का निर्णय करता है उनके बारे में हम व्यवहार में उनकी अभिव्यक्ति के माध्यम से समझ सकते हैं।
इस प्रकार स्पष्ट है कि मूल्य मनुष्य के व्यवहार के निर्माण तथा निर्धारण में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं साथ ही मूल सामाजिक नियंत्रण का एक महत्वपूर्ण साधन भी है।
डोरोथी ली के कथन के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि मानवीय मूल्य को उस नियंत्रण अथवा परिसीमन शक्ति के संदर्भ में समझा जा सकता है जिनके आधार पर व्यक्ति समाज में रहकर अपने व्यवहारों को सामाजिक स्वीकृति एवं मान्यता की परिधि में अच्छे व बुरे को समझते हुए करता है। अर्थात मूल्य व सामाजिक शक्ति व नियंत्रण है जिससे नियंत्रित होकर व्यक्ति समाज में ऐसा व्यवहार करता है जो सामाजिक परिस्थितियों आकांक्षाओं के अनुकूल होते हैं और व्यक्ति को समाज में अपनी भूमिका व उत्तरदायित्व को समुचित रूप से निष्पादित करके समायोजित होने में सहायता प्रदान करती है। इन्हीं मूल्यों के माध्यम से व्यक्ति समूह एवं समुदाय अपने व्यवहार पर नियंत्रण रखते हैं ।
समाज कार्य व्यक्तियों से संबंधित एक व्यवसायिक प्रक्रिया है जो मानव समानता में विश्वास करता है जिसके लिए उसको कुछ विशिष्ट विश्वासों पर आधारित रहकर सहायता कार्य की प्रक्रिया निष्पादित करना होता है। समाज कार्य को अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए एक दर्शन की आवश्यकता होती है। परंतु मानवीय जीवन संबंधी मतभेदों के कारण समाज कार्य के दर्शन के निश्चयन में भी विभिन्न मतभेद पाए जाते हैं। मुख्य रूप से मानवीय जीवन से संबंधित मतभेद जीवन के वास्तविक अर्थ, परस्पर मानवीय संबंधों की प्रकृति व स्वरूप, सामाजिक व्यवस्था व पद्धति आर्थिक पद्धति स्वास्थ्य मानवीय जीवन के लिए इन दशाओं का स्वरूप आदि के कारण समाज कार्य संबंधी दर्शन के बारे में भी मतभेद हैं इसी कारण समाज कार्य का कोई सर्वमान्य दर्शन सृजित नहीं किया जा सका है । यहां यह विवेचना कर देना उचित प्रतीत होता है कि जिस प्रकार आज तक व्यवसायिक समाज कार्य की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं दी जा सकी है जो प्रत्येक देश समाज युग और परिस्थितियों में उचित व सामान कहने योग्य हो उसी तरह समाज कार्य का दर्शन भी हर समाज व युग में संस्कृतियां भिन्न-भिन्न होती है और दर्शन में इन्हीं संस्कृतियों की छाप होती है अर्थात जिस समाज की जैसी संस्कृति व जीवन संबंधी वास्तविकताएं होंगी उसी के अनुरूप दर्शन का सृजन होता है। कुछ भी हो समाज कार्य दर्शन के एक ऐसे आधारभूतसार को निश्चित करने कीआवश्यकता है जो विभिन्न समाजों एवं देशों की आर्थिक सामाजिक व सांस्कृतिक दशाओं में विभिन्नता होते हुए भी विश्वव्यापी मान्यता की विशेषता रखता हो।
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