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समाज कार्य के प्रमुख प्रारूपों एवं सिद्धांतों का वर्णन कीजिए

समाज कार्य के प्रमुख प्रारूपों एवं सिद्धांतों का वर्णन कीजिए


समाज कार्य व्यवसाय के अंतर्गत समस्याओं का वैज्ञानिक ढंग से समाधान किया जाता है अतः इसमें व्यक्ति के व्यवहारों को समझने के लिए तथा सामाजिक समस्याओं का वैज्ञानिक निदान करने के लिए विशिष्ट प्रारूपों एवं सिद्धांतों का उपयोग किया जाता है एक व्यवसाई कार्यकर्ता से यह अपेक्षा की जाती है कि वह इन प्रारूपों एवं सिद्धांतों का समुचित शिक्षण एवं प्रशिक्षण प्राप्त करके व्यक्ति की समस्याओं को समझने एवं उन्हें कम करने में उनकी सहायता करें

समाज कार्य के प्रारूप -
समाज कार्य में उपचार की प्रक्रिया के विकास में धीरे-धीरे अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन होता गया है इन सिद्धांतों का आधार विभिन्न समाज वैज्ञानिकों के विचार हैं जो समय-समय पर सामने आते रहते हैं मनोविज्ञान मनोरोग विज्ञान समाजशास्त्र के सिद्धांतों से प्रभावित होकर समाज कार्य के अभ्यास कर्ताओं ने अपने क्षेत्रीय अनुभव और अनुसंधान कार्य के प्रयोग के बाद इन सिद्धांतों को विकसित किया है इन सिद्धांतों के विकास में उस समय की प्रचलित विचारधाराओं का प्रभाव भी देखने को मिलता है विभिन्न विचारों के आपसी मतभेद भी इन सिद्धांतों के विकास में अपनी भूमिका निभाते आए हैं वैयक्तिक समाज कार्य में उपचार के सभी उपागम या दृष्टिकोण या शैलियां समय-समय पर प्रतिपादित इन्हीं सिद्धांतों पर आधारित है।

यह उपागम, प्रारूप, शैलियां निम्नलिखित हैं-

मनोविश्लेषणात्मक प्रारूप- मनोविश्लेषणात्मक प्रारूप फ्रायड के व्यक्तित्व के सिद्धांत पर आधारित है । फ्रायडमैं अपने विचारों का प्रतिपादन करते हुए बताया है कि व्यक्तित्व के विकास में किसी प्रकार व्यक्तित्व के विभिन्न अंग या भाग में आपस के संघर्ष करते हैं । इड , ईगो और सुपर ईगो को व्यक्तित्व की एक स्थिर संरचना के रूप में देखा गया है । फ्रायड का मत है कि संघर्ष का उपचार तभी हो सकता है जब व्यक्ति के अचेतन मन को प्रकट किया जाए और संघर्ष के सभी पक्षों को चेतन मन के स्तर पर सामने लाया जाए । फ्रायड का मत है कि दमन ही व्यक्तित्व संबंधी समस्याओं की सबसे बड़ी घटना है इसलिए मनोचिकित्सक या मौलिक चिकित्सा संबंधी कार्य इन्हीं दमित भावनाओं आवश्यकताओं समस्याओं से भुगतना है। फ्रायड ने  इस प्रकार के प्रतिपादन में यौन मूल प्रवृत्ति को केंद्रीय स्थान दिया है

अहम मनोविज्ञान प्रारूप - इस सिद्धांत के प्रतिपादन में सेवार्थी की अहम शक्ति के समर्थन पर या अहम को दृढ़ बनाने पर बल दिया जाता है  अहम मनोविज्ञान मैं मनोविश्लेषण सिद्धांत की जटिलता विद्यमान है पर यह लिविडो सिद्धांत के विरुद्ध नहीं है । इस सिद्धांत में अहम की तुलना में इ ड , सुपर ईगो एवं बाहरी वास्तविकता ओं को स्थान दिया गया है अहम परिणामों के विषय में सोचता है उन संभावनाओं की प्रत्याशा करता है जो अभी घटित नहीं हुई होती है । और उनका समाधान निकाल लेता है इसी कारण समाज के अभ्यास में आ हम मनोविज्ञान सिद्धांत के अनुसार सेवार्थी के अहम को दृढ़ बनाने का प्रयास किया जाता है यही अहम व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व की आंतरिक आवश्यकताओं और बाहरी वास्तविकता ओं के बीच संतुलन बनाए रखने में सहायता देता है आहम के आपसी संतुलन को बनाए रखना ही समाज कार्य का मुख्य उद्देश्य होता है ।
      इस प्रारूप के अनुसार कार्यकर्ता का कार्य सेवार्थी की समस्या संघर्ष के क्षेत्रों और इनकी गति को समझना है लेकिन वास्तव में उसे और सेवार्थी दोनों का कार्य समस्या का समाधान करके सेवार्थी के अहम को संघर्ष से मुक्त करना है उपचार की दृष्टि से सेवार्थी के अहम बाल व्यवस्थित भागो और उसके व्यक्तित्व की कमजोरियों एवं कमियों को समझना महत्वपूर्ण माना जाता है

    मन सामाजिक चिकित्सा प्रारूप - इस प्रारूप में प्रत्यक्ष कार्य के साथ-साथ अप्रत्यक्ष कार्य पर भी बल दिया गया है मन सामाजिक सिद्धांत में सेवार्थी के संपूर्ण मूल्यांकन और निदान पर बल दिया जाता है और इसी कारण इसे निदानात्मक शैली का सिद्धांत कहा जाता है । हौलिस का मत है कि मनसामाजिक सिद्धांत वास्तव में सामाजिक वैयक्तिक सेवा कार्य की सामाजिक व्यवस्था सिद्धांत उपागम का ही रूप है
टर्नरका मत है कि सेवार्थी की मन सामाजिक चिकित्सा में न केवल सेवार्थी उसके परिवार या समूह का अध्ययन आवश्यक है उसकी चिकित्सा के लिए समुदायों के साथ भी प्रत्यक्ष रूप से कार्य करना पड़ता है
वार्टलेट का कहना है कि सेवार्थी की समस्या के समाधान में केवल सेवार्थी ही नहीं परिवारों समूहों और समुदायों के साथ भी कार्य करने की आवश्यकता पड़ती है।


प्रकार्यात्मक प्रारूप- इस प्रारूप का प्रतिपादन ऑटो रैंक ने किया था । उन्होंने बतलाया है कि प्रत्येक व्यक्ति में व्यक्ति करण और स्वायत्तता की एक जन्मजात सहज इच्छा होती है और व्यक्ति की समस्या का समाधान इसी व्यक्ति करण की इच्छा का निर्मोचन करके ही किया जा सकता है । इस प्रारूप के चार प्रमुख अंग हैं - मिलन पृथक्करण प्रक्षेपण और पहचान कार्यकर्ता के साथ क्रिया प्रतिक्रिया करता हुआ सेवार्थी संबंधों का रचनात्मक प्रयोग करना सीख जाता है इस प्रारूप के प्रयोग में व्यक्ति के अपने स्वयं के विषय में निर्णय पर अधिक बल दिया जाता है कार्यकर्ता सेवार्थी द्वारा लिए गए निर्णय के लिए उत्तरदायित्व ग्रहण नहीं करता है सेवार्थी आत्म निर्णय के सिद्धांत का प्रयोग करके इस प्रकार्यात्मक प्रारूप में एक ऊंचा स्तर रखता है क्योंकि समाज कार्य के अभ्यास में उपचार के लिए सेवार्थी की आत्म निर्धारण क्षमता का विकास करके उसकी कार्यात्मकता में वृद्धि की जाती है ।

व्यवहार आशोधन प्रारूप - व्यवहार आशोधन सिद्धांत का प्रतिपादन मनोवैज्ञानिक पावलोव, थार्नडाइक एवं स्किनर द्वारा किए गए अनुसंधान कार्यों के कारण हुआ इसके अनुसार सीखे हुए व्यवहार में प्रत्यक्ष रूप से परिवर्तन लाने के लिए कई विधियां प्रयोग की जाती हैं यह विधियां सकारात्मक पुर्नवलन व्यवस्थित विसुग्राहीकरण प्रतिरूपण और दूसरी विधियां ।

  स्टुअर्ट ने व्यवहार  आशोधन चिकित्सक का वर्गीकरण किया है अभिज्ञत सूचनार्थी चिकित्सक और क्रियात्मक चिकित्सक सूचनार्थी चिकित्सक में सेवार्थी की भावनाओं और विचारों में अशोधन का प्रयास करने के बाद उसके व्यवहार और सामाजिक अनुभावों में आशोधन का प्रयास किया जाता हैं ।
         क्रियात्मक चिकित्सा में सेवार्थी की भावनाओं और विचारों का अनुमान लगाए बिना ही प्रत्यक्ष रूप से व्यवहार में परिवर्तन लाने का प्रयास किया जाता है। इसमें सेवार्थी के पर्यावरण व्यक्तियों के व्यवहार में आशोधन किया जाता है जिससे वह लोग सेवार्थी से भिन्न प्रकार का व्यवहार करें जो सेवार्थी के लिए लाभदायक हो ।

संज्ञानात्मक प्रारूप -  इस प्रारूप के अनुसार व्यक्तियों के सोचने की क्षमता जो एक चेतन प्रक्रिया है उसके संवेगों,प्रेरणाओं, और व्यवहारों को निर्धारित करती है इस संबंध में तीन आधारों का उल्लेख करते हैं -
1 जब व्यक्ति के प्रत्यक्षीकरण में परिवर्तन आता हो तो उसके संवेगों प्रेरकों एवं लक्ष्योंऔर व्यवहार में परिवर्तन आ जाता है ।
2 जब उस व्यक्ति के लक्षण एवं प्रेरकों में परिवर्तन आता है तो इसके फलस्वरूप उसके व्यवहार में परिवर्तन आ जाता है ।
3 नए क्रियाकलापों और नए प्रकार के व्यवहार की सहायता से प्रत्यक्षीकरण को बदला जा सकता है इस दृष्टिकोण का अर्थ है कि प्रत्यक्षीकरण प्रेरकों एवं लक्ष्यों और व्यवहार में परस्पर संबंध होता है यदि कार्यकर्ता के विचार में सेवार्थी के लक्ष्य समाज के लक्ष्यों की लाए मैं अपने आप का पुनः स्थापन करने में सहायता प्रदान करता है । वह उसे ऐसे नए अनुभव प्राप्त करने में या नए व्यवहार करने का सुझाव देता है जिससे सेवार्थी स्वयं निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त कर सके ।


सामाजिक भूमिका का प्रारूप - सामाजिक भूमिका की अवधारणा व्यक्ति और समाज की अवधारणा के मध्य एक कड़ी के रूप में कार्य करती है । प्रत्येक व्यक्ति की अपनी एक सामाजिक प्रस्थिति या  प्रस्थितियां होती हैं । जिनके अनुसार ही वह कुछ भूमिका या भूमिकाएं निभाता है । व्यक्ति की भूमिका को दूसरे व्यक्ति, जिनके संदर्भ में भूमिका निभाई जा रही हैं, कि प्रत्याशा के संबंध में ही समझा जा सकता है । व्यक्ति द्वारा भूमिका का निर्वाह उसकी प्रेरणा क्षमताओं पर निर्भर होने के साथ-साथ कुछ विशेष परिस्थितियों से भी प्रभावित होता है यह वर्तमान तथा भूतकालीन बाहरी प्रभावों से भी प्रभावित हो सकता है । परंतु इस प्रारूप की जो प्रमुख विशेषता यह है कि वास्तविक जीवन का वह व्यवहार जिसका एक कार्यकर्ता अध्ययन करता है सामाजिक दृष्टिकोण या मानदंडों से निर्धारित होता है । व्यवहार की सभी प्रकार की बताएं केवल वर्तमान या भूत कालीन बाहरी प्रभावों से ही प्रभावित नहीं होती है । फ्रीड लेंडर के अनुसार प्राथमिक समूह व्यक्ति का व्यक्ति करण करते हैं अपनी संस्कृति के विश्वासों एवं मूल्यों और समुदाय की व्याख्या करते हुए व्यक्ति की समस्या के समाधान में मध्यस्थता करते हैं तो प्राथमिक समूह इस सामाजिक भूमिका की व्याख्या में और इसके आशोधन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है सामाजिक वैयक्तिक सेवा कार्य के अभ्यास में सामाजिक संस्थाओं के संगठन को समझने में यह सामाजिक भूमिका की अवधारणा हमारी सहायता करता है


समाज कार्य के सिद्धांत -

समाज कार्य एक व्यवसायिक सेवा है इसमें समाज कार्य में शिक्षित एवं प्रशिक्षित व्यक्ति के द्वारा जरूरतमंद या समस्या ग्रस्त व्यक्तियों की सहायता के लिए कार्य किया जाता है । सामाजिक कार्यकर्ता के द्वारा अभ्यास के दौरान बेहतर सेवा प्रदान करने का प्रयास किया जाता है साथ ही यह भी ध्यान में रखा जाता है कि सेवा प्रदान करने की विधियों में एकरूपता भी बनी रहे । इसके लिए यह आवश्यक है कि वैज्ञानिक ज्ञान पर आधारित सार्वभौमिक सिद्धांतों का पालन किया जाए समाज कार्य व्यवसाय के कुछ आधारभूत सिद्धांत है जिनका पालन कार्यकर्ताओं के द्वारा किया जाता है यह सिद्धांत निम्नलिखित हैं -

1 स्वीकृति का सिद्धांत - स्वीकृति का अर्थ है कि सेवार्थी से उसकी वर्तमान स्थिति के अनुसार ही व्यवहार किया जाए और उसकी परिस्थिति के अनुसार ही उसके विषय में कोई विचार बनाया जाए यह सिद्धांत सेवार्थी को एक मनुष्य के रूप में स्वीकार करते हुए उसको महत्व प्रदान करता है इस सिद्धांत के अनुसार सामाजिक कार्यकर्ता और सेवार्थी दोनों एक दूसरे को परस्पर स्वीकृति प्रदान करनी चाहिए कार्यकर्ता द्वारा सेवार्थी की शक्तियों और कमजोरियों सकारात्मक और नकारात्मक मनोवृतियों और भावनाओं सृजनात्मक एवं ध्वंसकारी मनोवृति और व्यवहार के अनुसार ही उससे व्यवहार करना चाहिए सेवार्थी को भी कार्यकर्ता को इसलिए स्वीकृति प्रदान करनी चाहिए क्योंकि कार्यकर्ता ही वह व्यक्ति है जो उसको उसकी समस्या से बाहर निकालने में उसकी सहायता कर रहा है स्वीकृति का अर्थ मात्र यही नहीं होता है कि कार्यकर्ता सेवार्थी को केवल उन्हीं वस्तुओं की स्वीकृति प्रदान करें जो नैतिक रूप से सही हो बल्कि कर्ता को सेवार्थी की नैतिक या अनैतिक किसी भी स्थिति का ध्यान रखें बिना उसे उसकी समस्या के समाधान में सहायता करनी चाहिए क्योंकि सेवार्थी को जब इस बात का एहसास नहीं होगा कि सामाजिक कार्यकर्ता उसकी समस्या का समाधान करने में सक्षम है और वह उसकी सहायता करने के लिए प्रतिबद्ध है तब तक उसे कार्यकर्ता तथा उसकी योग्यता पर पूर्ण विश्वास नहीं होगा और वह कार्यकर्ता को संबंधों की स्थापना में पूर्ण सहयोग प्रदान नहीं करेगा ।सेवार्थी द्वारा कार्यकर्ता की कार्यक्षमता पर किसी भी प्रकार का संदेह है सहायता प्रक्रिया को बाधित कर सकता है । उसी प्रकार कार्यकर्ता द्वारा भी सेवार्थी को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में स्वीकार करना चाहिए जो एक समस्या से ग्रसित होकर उसके पास सहायता के लिए आया है ।
                  जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे से अलग होते हैं उसी प्रकार समस्या समान होने के बावजूद भी उनके कारणों में भिन्नता पाई जाती है वहीं एक ही समस्या का प्रभाव अलग-अलग व्यक्तियों पर भिन्न-भिन्न रूप से पड़ता है वहीं प्रत्येक व्यक्ति का समस्या के प्रति प्रत्युत्तर भी अलग अलग होता है इसलिए एक व्यवसाय के रूप में कार्यकर्ता द्वारा सेवार्थी की विशिष्टता तथा क्षमता का सम्मान करना चाहिए और उसके लिए एक विशिष्ट समाधान प्रक्रिया को अपनाना चाहिए ।
                 प्रारंभ में कर्ता और सेवार्थी दोनों एक दूसरे से अपरिचित होते हैं इस कारण सेवार्थी अपनी समस्या के सभी पक्षों को स्पष्ट ढंग से व्यक्त करने में संकोच एवं असमर्थता का अनुभव करता है सेवार्थी के वाह्य रूप और पृष्ठभूमि पर विचार किए बिना कार्यकर्ता को उसे स्वीकार करना चाहिए उदाहरण के लिए घरेलू हिंसा में सम्मिलित किसी व्यक्ति को मात्र इसलिए स्वीकृति देने से इंकार नहीं करना चाहिए कि वह नैतिक रूप से ठीक नहीं है सेवार्थी की दोष या अक्षमता की रोकथाम के लिए पारस्परिक एवं स्नेह पूर्ण ढंग से स्वीकृति प्रदान की जानी चाहिए ।

2 संचार का सिद्धांत - संचार का सिद्धांत एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण है प्रथम मुलाकात के साथ ही कर्ता और सेवार्थी में बातचीत और विचार विमर्श की एक प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है । वह आपस में विचारों का आदान-प्रदान भी करते हैं । इससे उनमें संचार प्रारंभ हो जाता है। संचार लिखित आलिखित या मौखिक और सांकेतिक रूप में भी हो सकता है। यह कार्य तभी उचित रूप से हो सकता है जब सेवार्थी और कार्यकर्ता ऐसी भाषा और प्रतीकों का प्रयोग करें जो एक दूसरे को आसानी से समझ में आ जाए।खाता कार्यकर्ता को भी उसी भाषा और बोली का प्रयोग करना चाहिए जो कि सेवार्थी द्वारा किया जा रहा है जिससे कार्यकर्ता जो संप्रेषित कर रहा है वह सेवार्थी तक सही ढंग से पहुंचे कार्यकर्ता अपनी बातचीत और कार्यों के माध्यम से सेवार्थी की भलाई के लिए कार्य करता है। एक सुस्पष्ट एवं प्रभावी संचार के कारण ही कार्यकर्ता और सेवार्थी दोनों एक दूसरे की स्थिति को सही ढंग से समझ सकते हैं और सेवार्थी भी सेवा की उपयोगिता एवं प्रभाव कारिता को समझ पाता है।
                  संबंधों में घनिष्ठता के लिए यह आवश्यक है कि दोनों के बीच परस्पर स्नेह और सौहार्द पर आधारित संचार स्थापित हो किंतु सदैव ऐसा नहीं हो पाता क्योंकि समाज कार्य संबंधों में संचार तनावपूर्ण होता है इसका कारण कार्यकर्ता और सेवार्थी का कदाचित अलग-अलग पृष्ठभूमि का होना भी हो सकता है वही सेवार्थी भी समस्या ग्रस्त होने के कारण एक भिन्न मानसिक स्थिति में हो सकता है वह पर्यावरण जिसमें वह संचार ग्रहण करता है वह समय-समय पर परिवर्तित हो सकता है जिसके कारण त्रुटिपूर्ण संचार की आशंका बढ़ जाती है। इसलिए कार्यकर्ता को यह निरीक्षण करने का पूरा प्रयास करना चाहिए कि उसके और सेवार्थी के बीच उपयुक्त संचार संभव हो सके। कार्यकर्ता को भी प्रभावी संचार के माध्यम से सेवार्थी के मानसिक कष्टों को कम करने का प्रयास करना चाहिए उसे अपने मनोभावो को प्रकट करते समय पर्याप्त सावधानी बरतनी चाहिए।

3 वैयक्तिकरण का सिद्धांत - व्यतिकरणका अर्थ है प्रत्येक सेवार्थी के विशिष्ट एवं अद्वितीय गुणों को ज्ञात करना और समझना और सिद्धांतों एवं प्रणालियों के भिन्न प्रयोग द्वाराप्रत्येक सेवार्थी की अलग-अलग एवं विशिष्ट ढंग से सहायता करना जिससे वह उच्चतर समायोजन प्राप्त कर सकें। व्यतिकरण का सिद्धांत मानव गरिमा पर आधारित है प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमताओं और स्थितियों के आधार पर विशिष्ट है और उसकी तुलना किसी अन्य के साथ नहीं की जा सकती। व्यतिकरण का आधार इस बात की स्वीकृत पर है किप्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व का विकास अपनी रूचि के अनुसार करने का अधिकार है। या सेवार्थी का अधिकार है कि उसकी समस्या को विशिष्ट समस्या समझा जाए और उसी के अनुरूप उसको सहायता प्राप्त होनी चाहिए इस सिद्धांत के अंतर्गत कार्यकर्ता यह स्वीकार करता है कि यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति में कुछ ऐसी विशेषताएं होती हैं जो दूसरों से मिलती है फिर भी व्यक्ति की कुछ अद्वितीय विशेषताएं होती हैं जो दूसरों में नहीं पाई जाती

4 गोपनीयता का सिद्धांत - गोपनीयता का सिद्धांत समाज कार्य में करता और सेवार्थी के बीच संबंधों की स्थापना एवं घनिष्ठता में अत्यंत सहायक होता है सेवार्थी की अधिकांश समस्याएं व्यक्तिगत होती हैं जिन्हें वह गोपनीय रखना चाहता है अतः वह कार्यकर्ता से इस बात का आश्वासन चाहता है किवह अपनी समस्या से संबंधित जो भी तथ्य प्रकट करें उसे पूर्ण रूप से गोपनीय रखा जाए साथ ही सेवार्थी के विषय में कार्यकर्ता को जो कुछ भी ज्ञात हो उसे भी गोपनीय रखा जाना चाहिए।यह कार्यकर्ता का नैतिक और व्यवसायिक कर्तव्य है गोपनीयता का आश्वासन प्रायः मनो सामाजिक समस्याओं का निराकरण करते समय देना पड़ता है अतः कार्यकर्ता के लिए यह आवश्यक है कि वह समस्या से संबंधित आंतरिक रहस्य और उन गोपनीय बातों का भी ज्ञान प्राप्त करें जिन्हें सेवार्थी भय और लज्जा या किसी अन्य कारणवश दूसरों के समझ प्रकट नहीं करता।
            कार्यकर्ता के समक्ष प्राया ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न होती रहती है जब उसके द्वारा गोपनीयता पूर्णतया संभव नहीं हो पाती है अतः कार्यकर्ता को सेवार्थी के समक्ष उन सभी परिस्थितियों को स्पष्ट कर देना आवश्यक हो जाता है कि उसकी समस्या से संबंधित तथ्यों एवं सूचनाओं को समस्या के समाधान की दृष्टि से अन्य विशेषज्ञों के साथ साझा करना पड़ सकता है इसके लिए सेवार्थी की सहमति आवश्यक है।
           यदि सेवार्थी गोपनीयता के प्रति आश्वासत नहीं होगा तो वह अपनी समस्याओं को पूर्ण रूप से व्यक्त करने में संकोच का अनुभव करेगा इस बात के लिए कार्यकर्ता सेवार्थी में इस बात का विश्वास उत्पन्न करता है कि उन दोनों के बीच वार्तालाप के दौरान होने वाले तथ्यों के आदान-प्रदान को किसी अन्य के समक्ष प्रकट नहीं किया जाएगा एक व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत सूचनाओं को तब तक प्रकट नहीं करेगा जब तक उसे कार्यकर्ता के ऊपर विश्वास न हो और यह विश्वास गोपनीयता के आश्वासन से उत्पन्न होता है।सेवार्थी को यह विश्वास होना आवश्यक है कि कार्यकर्ता के समक्ष वह जो भी सूचनाएं प्रकट कर रहा है वह उसका किसी भी स्तर पर दुरुपयोग नहीं करेगा तथा उसकी प्रतिष्ठा को हानि नहीं पहुंचाएगा समाज कार्य में जब तक समस्त सूचनाएं सेवार्थी उपलब्ध नहीं करवाएगा तब तक उसकी सही ढंग से सहायता कर पाना कार्यकर्ता के लिए संभव नहीं हो पाता है इस सिद्धांत का पालन करते समय कार्यकर्ता को कुछ मूल्य संबंधी सुविधाओं का भी सामना करना पड़ता है क्योंकि कार्यकर्ता संस्था का एक कर्मचारी होता है इसलिए उसे सेवार्थी की सहायता प्रक्रिया के दौरान अन्य कार्यकर्ताओं अथवा संस्था के कर्मचारियों से सेवार्थी की समस्या को लेकर सूचनाएं साझा करनी पड़ती है जिससे सेवार्थी को दिया गया गोपनीयता का आश्वासन प्रभावित होता है

5 आत्म निर्णय का सिद्धांत - समाज कार्य में आप निर्णय का सिद्धांत इसे लोकतांत्रिक स्वरूप प्रदान करता है इस सिद्धांत को समाज कार्य के मूल सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया जाता है यह सिद्धांत सेवार्थी के हाथ निर्णय के अधिकार पर बल देता है प्रत्येक व्यक्ति को अपने लिए सर्वोत्तम का चयन करने का अधिकार है और इसके लिए वह अपनी इच्छा अनुसार अपनी समस्या के समाधान करना चाहता है।इसमें कार्यकर्ता सेवार्थी को समस्या समाधान के प्रत्येक चरण में आत्म निर्णय का अधिकार देता है तथा कभी भी अपने निर्णय को उसके ऊपर आरोपित नहीं करता है वह सेवार्थी की निर्णय लेने की शक्ति को मजबूत करता रहता है जिससे वह अपने विषय में उचित निर्णय ले सके इस सिद्धांत की एक मान्यता यह भी है कि व्यक्ति अपने हितों का सर्वोच्च निर्णायक होता है वही अपने विषय में सर्वश्रेष्ठ निर्णय ले सकता है अतः उसे आप में निर्णय का पूरा अधिकार है किंतु सामाजिक कार्यकर्ताओं को सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार उनमें निर्णय लेने की क्षमता एवं अंतर्दृष्टि के विकास अर्थात उसके लिए क्या अच्छा है और उसको क्या स्वीकार्य हैं । के संबंध में निर्णय लेने में सहायता करनी चाहिए और उसका मार्गदर्शन करना चाहिए इससे सेवार्थी के आत्मसम्मान एवं आत्मविश्वास में वृद्धि होती है

6  अनिर्णयात्मक मनोवृत्ति का सिद्धान्त - इस सिद्धांत की मान्यता के अनुसार कार्यकर्ता के द्वारा सेवार्थी या उसकी समस्या को देखकर तुरंत ही कोई निर्णय नहीं लेना चाहिए बल्कि तब तक उसे किसी प्रकार का कोई निर्णय नहीं देना चाहिए जब तक कि सेवार्थी की समस्या का समुचित अध्ययन एवं निदान ना हो जाए। सामाजिक कार्यकर्ता को बिना किसी पक्षपात के व्यवसायिक संबंधों को प्रारंभ करना चाहिए इसके लिए उसे सेवार्थी के विषय में अच्छे बुरे या योग्य अयोग्य के रूप में धारणा कायम नहीं करनी चाहिए।यह कार्यकर्ता को समस्या के विषय में कोई भी अतार्किक या अवैज्ञानिक निर्णय लेने से रोकता है यह सिद्धांत कार्यकर्ता को व्यवसायिक ढंग से निर्णय लेने तथा व्यवसायिक संबंधों के निर्माण में सहायक होता है।

7 नियंत्रित संवेगात्मक संबंध का सिद्धांत - यह सिद्धांत कार्यकर्ता को इस बात के प्रति सावधान करता है कि यह सेवार्थी की समस्या को देखकर स्वयं उससे व्यक्तिगत एवं भावनात्मक लगाव का अनुभव न रखने लगे। चूंकि कार्यकर्ता एक व्यवसायिक व्यक्ति है इसलिए उसे व्यवसाय ढंग से संबंधित स्थापन की प्रक्रिया पर ध्यान देना चाहिए ऐसा संभव हो सकता है कि सेवार्थी की समस्या एवं कार्यकर्ता के जीवन स्थितियों में कुछ समानता हो ऐसी स्थितियों में कार्यकर्ता स्वाभाविक रूप से सेवार्थी से कुछ जुड़ाव या लगाओ का अनुभव करने लगता है जो व्यवसायिक ढंग से समस्या समाधान की प्रक्रिया में बाधक सिद्ध हो सकता है अतः कार्यकर्ता को चाहिए कि वह सेवार्थी की भावनाओं को व्यवसायिक संवेदनशीलता के आधार पर समझे तथा व्यवसाय ज्ञान और उद्देश्य के आधार पर उसका प्रति उत्तर दें अर्थात सेवार्थी के प्रति कार्यकर्ता की सहानुभूति एक व्यवसायिक और वास्तविक सहानुभूति होने की व्यक्तिगत कार्यकर्ता को व्यक्तिगत रूप से सेवार्थी की समस्या में लिप्त होने के बजाय वस्तुनिष्ठ ढंग से कार्य करना चाहिए उसे सेवार्थी की समस्या के विषय में व्यक्तिगत निर्णय नहीं लेना चाहिए क्योंकि अधिक सहानुभूति कार्यकर्ता के आप निर्णय और स्वतंत्रता में हस्तक्षेप कर सकता है किंतु वही कार्यकर्ता को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अत्यधिक वस्तुनिष्ठता या अलगाव सेवार्थी को इस बात के लिए सशंकितकर सकता है कि कार्यकर्ता को उसकी समस्या में रुचि नहीं है जिससे वह अपने मनोभावों और गोपनीय सूचनाओं को प्रकट करने में हिचक सकता है अतः कार्यकर्ता को पर परानुभूति का उपयोग करते हुए अपने भावनाओं एवं संवेगो पर नियंत्रण रखते हुए व्यवसायिक प्रतिबद्धता का प्रदर्शन करना चाहिए।
           समाज कार्य के प्रारूप एवं सिद्धांत सामाजिक कार्यकर्ताओं को कार्य करने के लिए आधार एवं सुविधाएं प्रदान करते हैं इनकी सहायता से कार्यकर्ता व्यक्ति की समस्याओं का वैज्ञानिक निदान कर पाने में समर्थ होते हैं तथा इनसे सेवा की व्यावसायिकता एवं गुणवत्ता में भी वृद्धि होती है तथा उनका मानकीकरण कर पाना संभव होता है ।

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