परिवर्तित ग्रामीण सामुदायिक शक्ति संरचना
भारत एक ग्राम प्रधान देश है। आज भी यहां की ग्रामीण जनसंख्या शहरी जनसंख्या से तीन गुनी या उससे अधिक है। परिवर्तन समाज का एक नियम है। यद्यपि प्राचीन काल में परिवर्तन की गति धीमी थी लेकिन नियमित थी। शिक्षा औद्योगिकीकरण नगरीकरण एवं प्रवासिता से परिवर्तन की गति में तीव्रता आई है आज विभिन्न क्षेत्रों में परिवर्तन अनेक रूपों में देखा जा रहा है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था सामाजिक संस्था कला धर्म इत्यादि में परिवर्तन आने से ग्रामीण शक्ति संरचना के स्वरूपों में भी परिवर्तन आया है।
सामुदायिक शक्ति संरचना की परिवर्तित स्थिति का पता लगाने के लिए विभिन्न विद्वानों ने समय-समय पर अलग-अलग गांवों के अध्ययन किए हैं जिनका मुख्य उद्देश्य ग्रामीण भारत में हुए परिवर्तनों की प्रकृति को जानना रहा है इन विद्वानों में ए.आर.देसाई , एस सी दुबे ,केथलीन गफ ,एम एन मजूमदार , एम एन श्रीनिवास , डेविड मैण्डल बाम , योगेन्द्र सिंह , मयीरोनवीनर , आन्द्रे बेलै , एम एस ए राव , एम एस गोरे आदि के नाम उल्लेखनीय है।
सामाजिक नियंत्रण के बिना सामाजिक संगठन संभव नहीं। क्योंकि समाज एक बहुत बड़ी इकाई है जिसको किसी एक माध्यम से नियंत्रित करना कठिन है इसलिए समाज को पूर्ण रूप से नियंत्रित करने के लिए कई सामाजिक संस्थाओं जैसे परिवार ,धर्म, जाति एवं राजनीति का सहारा लिया जाता रहा
स्वतंत्रता पूर्व ग्रामीण सामुदायिक शक्ति संरचना का स्वरूप
प्राचीन काल में मानव समुदाय जाति एवं वर्ग के आधार पर विभाजित था। जाति एवं वर्ग के आधार पर लोगों के अधिकार एवं कर्तव्य निर्धारित थे। उच्च जाति एवं वर्गों के लोगों का प्रभुत्व था। निम्न वर्ग एवं जाति के सदस्यों को उच्च जाति एवं वर्गों के लोगों की प्रभुता स्वीकार करनी पड़ती थी। मुख्य रूप से ग्रामीण सामुदायिक शक्ति जमीदारों पंचायतों एवं उच्च जातियों के अधिकार में थी।
जमीदारी प्रथा उन्मूलन के पूर्व के इतिहास का यदि अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट होता है कि ग्रामीण सामुदायिक शक्ति पूर्णरूपेण जमीदार के हाथ में थी। जमीदारों का जमीन पर पूर्ण अधिकार था। इसलिए वे अपने क्षेत्र के जन समुदाय को जिस प्रकार चाहते थे निर्देशित करते थे। इसके अतिरिक्त ग्राम पंचायत एवं जाति पंचायत के हाथों में भी सामुदायिक शक्ति की बागडोर होती थी। समुदाय के सदस्यों की शिकायतों को सुनना उचित निर्णय देना तथा दंड निर्धारण की जिम्मेदारी भी उन्हीं के हाथों में थी।
ग्रामीण समुदाय के आर्थिक विकास की बागडोर भी जमीदारों एवं ताल्लुकेदारों के हाथ थी। चूँकि खेती योग्य जमींन पर इनका पूरा अधिकार था , इसलिए ग्रामीण समुदाय के सदस्यों की उत्पादन में अपना श्रम लगाने अधिक फसल पैदा करने तथा उत्पादन भाग कृषकों को देने आदि का निर्धारण जमींदार के हाथ में होता था। सदस्यों को अपने पारिवारिक जीवन निर्वाह एवं आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जमीदारों की शरण लेनी पड़ती थी। जमीदारों के हाथ में ग्रामीण समुदाय की आर्थिक बागडोर होने के कारण सभी लोग जमीदारों के नियंत्रण में रहते थे। यह भी कहना अतिश्योक्ति नहीं होंगी कि ग्रामपंचायत एवं जाति पंचायत पर भी इन जमीदारों का पूरा अधिकार था। जमींदार लोग ग्रामवासियों के लिए अन्नदाता थे। इसलिए वे जिसे चाहते थे उसे ग्राम पंचायत का सदस्य बना सकते थे।
इसके पश्चात् दूसरी सामुदायिक शक्ति जाति के हाथ थी। प्रत्येक जाति के सदस्यों को बनायें गये नियमों का पालन करना अत्यन्त आवश्यक था। जाति के वे लोग जो आचार संहिता तैयार करते थे वे भी जमीदारों के नजदीक होते थे। इस प्रकार वे अपनी इच्छानुसार सामुदायिक शक्ति की संरचना तैयार करते थे जिससे हर प्रकार से ग्रामीण लोग उनके चंगुल में आ सकें। राज्य सरकार द्वारा औपचारिक रूप से ग्राम पंचायतों के संस्थापन के पहले अधिकाधिक जाती के पुराने ,सम्पन्न एवं अनुभवशील व्यक्तियों को ही ग्रामपंचायत की जिम्मेदारी दी जाती थी। इसके साथ साथ यह भी देखा गया है कि किसी सम्मानित जाति एवं परिवार के मुख्य सदस्य के स्वर्गवास के बाद उसी जाति एवं परिवार के दूसरे बड़े सदस्य को सामुदायिक जिम्मेदारी दी जाती थी अतः स्पष्ट है कि सामाजिक रूप से सक्षम आर्थिक रूप से सम्पन्न एवं राजनैतिक रूप से जागृत परिवार या सत्ता के लालायित लोग अपने प्रभाव से ग्राम पंचायत जैसी संस्था पर नियन्त्रण रखते है
स्वतंत्रता के पश्चात् ग्रामीण सामुदायिक शक्ति संरचना
स्वतंत्रता पूर्व व्याप्त सामुदायिक शक्ति संरचना का स्वरूप आसंतोषजनक था । क्योंकि वह जन सामान्य के शोषण पर आधारित थी । राष्ट्रीय प्रशासन में परिवर्तन के साथ-साथ व्याप्त शक्ति संरचना के परिवर्तन की आवश्यकता पर विचार किया गया। धीरे-धीरे सामाजिक एवं राजनैतिक रूप से योग्य नेताओं की आवश्यकता शोषित वर्गों को मुक्ति दिलाने तथा व्याप्त जमीदारी प्रथा के उन्मूलन पर बल दिया जाने लगा , पंचायती राज को औपचारिक रूप देने तथा ग्रामीण सामुदायिक शक्ति में ऐच्छिक परिवर्तन के लिए कानून पास किए गए जैसे उ प्र पंचायत राज अधिनियम 1948 और उत्तर प्रदेश जमीदारी उन्मूलन अधिनियम 1951 इत्यादि ,इन प्रयासों का मुख्य उद्देश्य यह था कि सामुदायिक नियंत्रण न केवल आर्थिक रूप से संपन्न जमीदार और उच्च जाति के लोगों के हाथ में हो बल्कि इसे सामान्य जनों अनुभव शील एवं योग्य सदस्यों को दिया जाए जो आपसी सहयोग एवं सलाह से सामुदायिक अखंडता की रक्षा करते हुए कमजोर एवं जरूरतमंद लोगों को लाभान्वित कर सामुदायिक विकास को सार्थक बना सके और प्रजातंत्र को कायम करा सकें।
सर्व प्रथम ब्रिटिश सरकार द्वारा 1920 में ग्राम पंचायत के लिए नियम बनाया गया था लेकिन उससे जमीदारों और आर्थिक रूप से संपन्न सदस्यों का आधिपत्य बढ़ता गया जिससे समाज के कमजोर और उच्च वर्गों वर्गो में दूरी बढ़ती गई इसकी सबसे बड़ी कमी थी कि इस व्यवस्था में चुनाव का प्रावधान नहीं था इसलिए यह जनता का पूर्ण विश्वास एवं सहयोग नहीं प्राप्त कर सका इसके पश्चात 1948 में पास किए गए कानून के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छा अनुसार योग्य कार्यकर्ता के चुनाव के लिए वोट देने का पूर्ण अधिकार दिया गया इसके अनुसार महिलाओं को भी ग्रामीण व्यवस्था में अपना मत देने का अधिकार दिया गया इससे एक नई सामुदायिक तक की संरचना का जन्म हुआ इसके दो तत्व महत्वपूर्ण हैं एक है ग्राम विकास से संबंधित प्रशासकीय अधिकारी जैसे खंड विकास अधिकारी ग्राम विकास अधिकारी सहायक विकास अधिकारी आदि। दूसरे हैं, निर्वाचित सदस्य जैसे एम पी , एम एल ए , जिला परिषद व ग्राम पंचायत के सदस्य। जहां एक ओर ये औपचारिक शक्ति संरचना विकसित होने लगी वहीं परंपरागत शक्ति संरचना भी भी घिसटती रही। पुरानी ग्रामीण शक्ति संरचना को नया रूप देने का मुख्य उद्देश्य जनता में व्याप्त शोषण और उच्च जाति एवं निम्न जाति के बीच की दूरी को कम करना तथा सभी जाति धर्म वर्ग एवं समुदाय के सदस्यों को उनके अधिकार दिलाना था आता है स्पष्ट है कि परिवर्तित सामुदायिक शक्ति संरचना में नेताओं के चयन के आधार बदल गए जहां पहले नेता उच्च जाति हुआ वर्गो से अनुवांशिक आधार पर भरते थे अब वह प्रजातांत्रिक चुनाव के आधार पर आगे आने लगे अतः कहा जा सकता है कि ग्राम प्रधान लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की धूरी प्रजातंत्र का पहरी और ग्रामीण विकास कार्यों का प्रमुख संग वाहक है वह गांव की स्थानिय जनता का मदत निधि ही नहीं बल्कि ग्राम विकास का अगवा है इसके साथ-साथ अन्य अधिकारी एवम कर्मचारियों का भी प्रधान इन पर होता है जो समुदाय के अंदर एवं बाहर सामुदायिक विकास कारी संस्थाओं में कार्यरत है या किसी विशेष प्रकार की सेवा सुविधा पहुंचाने के लिए जिम्मेदार है इसलिए सामुदायिक कार्यकर्ता के लिए इनसे संपर्क एवं सहयोग करना आवश्यक है।
भारत एक ग्राम प्रधान देश है। आज भी यहां की ग्रामीण जनसंख्या शहरी जनसंख्या से तीन गुनी या उससे अधिक है। परिवर्तन समाज का एक नियम है। यद्यपि प्राचीन काल में परिवर्तन की गति धीमी थी लेकिन नियमित थी। शिक्षा औद्योगिकीकरण नगरीकरण एवं प्रवासिता से परिवर्तन की गति में तीव्रता आई है आज विभिन्न क्षेत्रों में परिवर्तन अनेक रूपों में देखा जा रहा है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था सामाजिक संस्था कला धर्म इत्यादि में परिवर्तन आने से ग्रामीण शक्ति संरचना के स्वरूपों में भी परिवर्तन आया है।
सामुदायिक शक्ति संरचना की परिवर्तित स्थिति का पता लगाने के लिए विभिन्न विद्वानों ने समय-समय पर अलग-अलग गांवों के अध्ययन किए हैं जिनका मुख्य उद्देश्य ग्रामीण भारत में हुए परिवर्तनों की प्रकृति को जानना रहा है इन विद्वानों में ए.आर.देसाई , एस सी दुबे ,केथलीन गफ ,एम एन मजूमदार , एम एन श्रीनिवास , डेविड मैण्डल बाम , योगेन्द्र सिंह , मयीरोनवीनर , आन्द्रे बेलै , एम एस ए राव , एम एस गोरे आदि के नाम उल्लेखनीय है।
सामाजिक नियंत्रण के बिना सामाजिक संगठन संभव नहीं। क्योंकि समाज एक बहुत बड़ी इकाई है जिसको किसी एक माध्यम से नियंत्रित करना कठिन है इसलिए समाज को पूर्ण रूप से नियंत्रित करने के लिए कई सामाजिक संस्थाओं जैसे परिवार ,धर्म, जाति एवं राजनीति का सहारा लिया जाता रहा
स्वतंत्रता पूर्व ग्रामीण सामुदायिक शक्ति संरचना का स्वरूप
प्राचीन काल में मानव समुदाय जाति एवं वर्ग के आधार पर विभाजित था। जाति एवं वर्ग के आधार पर लोगों के अधिकार एवं कर्तव्य निर्धारित थे। उच्च जाति एवं वर्गों के लोगों का प्रभुत्व था। निम्न वर्ग एवं जाति के सदस्यों को उच्च जाति एवं वर्गों के लोगों की प्रभुता स्वीकार करनी पड़ती थी। मुख्य रूप से ग्रामीण सामुदायिक शक्ति जमीदारों पंचायतों एवं उच्च जातियों के अधिकार में थी।
जमीदारी प्रथा उन्मूलन के पूर्व के इतिहास का यदि अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट होता है कि ग्रामीण सामुदायिक शक्ति पूर्णरूपेण जमीदार के हाथ में थी। जमीदारों का जमीन पर पूर्ण अधिकार था। इसलिए वे अपने क्षेत्र के जन समुदाय को जिस प्रकार चाहते थे निर्देशित करते थे। इसके अतिरिक्त ग्राम पंचायत एवं जाति पंचायत के हाथों में भी सामुदायिक शक्ति की बागडोर होती थी। समुदाय के सदस्यों की शिकायतों को सुनना उचित निर्णय देना तथा दंड निर्धारण की जिम्मेदारी भी उन्हीं के हाथों में थी।
ग्रामीण समुदाय के आर्थिक विकास की बागडोर भी जमीदारों एवं ताल्लुकेदारों के हाथ थी। चूँकि खेती योग्य जमींन पर इनका पूरा अधिकार था , इसलिए ग्रामीण समुदाय के सदस्यों की उत्पादन में अपना श्रम लगाने अधिक फसल पैदा करने तथा उत्पादन भाग कृषकों को देने आदि का निर्धारण जमींदार के हाथ में होता था। सदस्यों को अपने पारिवारिक जीवन निर्वाह एवं आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जमीदारों की शरण लेनी पड़ती थी। जमीदारों के हाथ में ग्रामीण समुदाय की आर्थिक बागडोर होने के कारण सभी लोग जमीदारों के नियंत्रण में रहते थे। यह भी कहना अतिश्योक्ति नहीं होंगी कि ग्रामपंचायत एवं जाति पंचायत पर भी इन जमीदारों का पूरा अधिकार था। जमींदार लोग ग्रामवासियों के लिए अन्नदाता थे। इसलिए वे जिसे चाहते थे उसे ग्राम पंचायत का सदस्य बना सकते थे।
इसके पश्चात् दूसरी सामुदायिक शक्ति जाति के हाथ थी। प्रत्येक जाति के सदस्यों को बनायें गये नियमों का पालन करना अत्यन्त आवश्यक था। जाति के वे लोग जो आचार संहिता तैयार करते थे वे भी जमीदारों के नजदीक होते थे। इस प्रकार वे अपनी इच्छानुसार सामुदायिक शक्ति की संरचना तैयार करते थे जिससे हर प्रकार से ग्रामीण लोग उनके चंगुल में आ सकें। राज्य सरकार द्वारा औपचारिक रूप से ग्राम पंचायतों के संस्थापन के पहले अधिकाधिक जाती के पुराने ,सम्पन्न एवं अनुभवशील व्यक्तियों को ही ग्रामपंचायत की जिम्मेदारी दी जाती थी। इसके साथ साथ यह भी देखा गया है कि किसी सम्मानित जाति एवं परिवार के मुख्य सदस्य के स्वर्गवास के बाद उसी जाति एवं परिवार के दूसरे बड़े सदस्य को सामुदायिक जिम्मेदारी दी जाती थी अतः स्पष्ट है कि सामाजिक रूप से सक्षम आर्थिक रूप से सम्पन्न एवं राजनैतिक रूप से जागृत परिवार या सत्ता के लालायित लोग अपने प्रभाव से ग्राम पंचायत जैसी संस्था पर नियन्त्रण रखते है
स्वतंत्रता के पश्चात् ग्रामीण सामुदायिक शक्ति संरचना
स्वतंत्रता पूर्व व्याप्त सामुदायिक शक्ति संरचना का स्वरूप आसंतोषजनक था । क्योंकि वह जन सामान्य के शोषण पर आधारित थी । राष्ट्रीय प्रशासन में परिवर्तन के साथ-साथ व्याप्त शक्ति संरचना के परिवर्तन की आवश्यकता पर विचार किया गया। धीरे-धीरे सामाजिक एवं राजनैतिक रूप से योग्य नेताओं की आवश्यकता शोषित वर्गों को मुक्ति दिलाने तथा व्याप्त जमीदारी प्रथा के उन्मूलन पर बल दिया जाने लगा , पंचायती राज को औपचारिक रूप देने तथा ग्रामीण सामुदायिक शक्ति में ऐच्छिक परिवर्तन के लिए कानून पास किए गए जैसे उ प्र पंचायत राज अधिनियम 1948 और उत्तर प्रदेश जमीदारी उन्मूलन अधिनियम 1951 इत्यादि ,इन प्रयासों का मुख्य उद्देश्य यह था कि सामुदायिक नियंत्रण न केवल आर्थिक रूप से संपन्न जमीदार और उच्च जाति के लोगों के हाथ में हो बल्कि इसे सामान्य जनों अनुभव शील एवं योग्य सदस्यों को दिया जाए जो आपसी सहयोग एवं सलाह से सामुदायिक अखंडता की रक्षा करते हुए कमजोर एवं जरूरतमंद लोगों को लाभान्वित कर सामुदायिक विकास को सार्थक बना सके और प्रजातंत्र को कायम करा सकें।
सर्व प्रथम ब्रिटिश सरकार द्वारा 1920 में ग्राम पंचायत के लिए नियम बनाया गया था लेकिन उससे जमीदारों और आर्थिक रूप से संपन्न सदस्यों का आधिपत्य बढ़ता गया जिससे समाज के कमजोर और उच्च वर्गों वर्गो में दूरी बढ़ती गई इसकी सबसे बड़ी कमी थी कि इस व्यवस्था में चुनाव का प्रावधान नहीं था इसलिए यह जनता का पूर्ण विश्वास एवं सहयोग नहीं प्राप्त कर सका इसके पश्चात 1948 में पास किए गए कानून के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छा अनुसार योग्य कार्यकर्ता के चुनाव के लिए वोट देने का पूर्ण अधिकार दिया गया इसके अनुसार महिलाओं को भी ग्रामीण व्यवस्था में अपना मत देने का अधिकार दिया गया इससे एक नई सामुदायिक तक की संरचना का जन्म हुआ इसके दो तत्व महत्वपूर्ण हैं एक है ग्राम विकास से संबंधित प्रशासकीय अधिकारी जैसे खंड विकास अधिकारी ग्राम विकास अधिकारी सहायक विकास अधिकारी आदि। दूसरे हैं, निर्वाचित सदस्य जैसे एम पी , एम एल ए , जिला परिषद व ग्राम पंचायत के सदस्य। जहां एक ओर ये औपचारिक शक्ति संरचना विकसित होने लगी वहीं परंपरागत शक्ति संरचना भी भी घिसटती रही। पुरानी ग्रामीण शक्ति संरचना को नया रूप देने का मुख्य उद्देश्य जनता में व्याप्त शोषण और उच्च जाति एवं निम्न जाति के बीच की दूरी को कम करना तथा सभी जाति धर्म वर्ग एवं समुदाय के सदस्यों को उनके अधिकार दिलाना था आता है स्पष्ट है कि परिवर्तित सामुदायिक शक्ति संरचना में नेताओं के चयन के आधार बदल गए जहां पहले नेता उच्च जाति हुआ वर्गो से अनुवांशिक आधार पर भरते थे अब वह प्रजातांत्रिक चुनाव के आधार पर आगे आने लगे अतः कहा जा सकता है कि ग्राम प्रधान लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की धूरी प्रजातंत्र का पहरी और ग्रामीण विकास कार्यों का प्रमुख संग वाहक है वह गांव की स्थानिय जनता का मदत निधि ही नहीं बल्कि ग्राम विकास का अगवा है इसके साथ-साथ अन्य अधिकारी एवम कर्मचारियों का भी प्रधान इन पर होता है जो समुदाय के अंदर एवं बाहर सामुदायिक विकास कारी संस्थाओं में कार्यरत है या किसी विशेष प्रकार की सेवा सुविधा पहुंचाने के लिए जिम्मेदार है इसलिए सामुदायिक कार्यकर्ता के लिए इनसे संपर्क एवं सहयोग करना आवश्यक है।
Comments
Post a Comment