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सामाजिक प्रतिमान - जनरीतियाँ , रूढ़ियाँ ( लोकाचार )


सामाजिक प्रतिमान - जनरीतियाँ , रूढ़ियाँ ( लोकाचार ) 


जनरीतियाँ प्रथाएँ एवं रूढ़ियाँ कुछ ऐसे सामाजिक प्रतिमान हैं जिनका विकास मानव समाज में व्यवस्था एवं नियंत्रण बनायें रखने के लिए किया जाता हैं । अन्य शब्दो में सामाजिक प्रतिमान समाज मे व्यवस्था , स्थिरता एवं एकरूपता कायम रखते हैं । ये हमें समाज एवं संस्कृति से अनुकूलन करने में सहयोग देते हैं । समाज मे अनेक प्रकार के प्रतिमान पाये जाते हैं जिन में से कुछ अधिक महत्त्वपूर्ण हैं तो कुछ कम । इनका महत्व बताते हुए बीरस्टीड लिखते हैं समाज स्वयं एक व्यवस्था हैं जिसका अस्तित्व सामाजिक प्रतिमानों से ही सम्भव हो पाता हैं , इस प्रकार सामाजिक प्रतिमान ही सामाजिक संगठन का निचोड़ हैं । सामाजिक शिक्षण , अभ्यस्तता , उपयोगिता , समूह , दण्ड , और पुरस्कार के द्वारा हम प्रतिमानों का अनुपालन करते हैं और धीरे धीरे ये हमारे व्यक्तित्व के अंग बन जाते हैं तथा व्यक्ति के सामने इनके अनुरूप आचरण करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता हैं । यहां हम जनरीतियों , रूढ़ियों , एवं प्रथाओं पर विचार करेंगें ।


जनरीतियाँ ( लोकरीतियाँ )

इस शब्द का सर्व प्रथम प्रयोग अमरीका के प्रोफेसर ग्राहम समनर ने 1906 में अपनी पुस्तक फोकवेज Folkways में किया था ।

यदि हम शाब्दिक दृष्टि से देखे तो यब शब्द दो शब्दों Folk तथा Ways का योग है ( Folk + Ways = Folkways ) जिसका क्रमशः अर्थ हैं जन या जनता तथा रीतियाँ ( जन + रीतियाँ = जनरीतियाँ ) अर्थात कार्य करने के तरीके या रीतियाँ जो समाज मे लोगो द्वारा अपनायी जाती हैं , जनरीतियाँ कहलाती हैं । अन्य शब्दो में , जनरीतियाँ समूह की आदतों को कहते हैं । हमारे अधिकांश दैनिक व्यवहार जनरीतियों द्वारा प्रभावित होते हैं । जनरीतियाँ अपेक्षाकृत स्थायी व्यवहार हैं जिनका पालन करना एक परिस्थिति में आवश्यक माना जाता हैं । साहित्यिक दृष्टि से जनरीति का अर्थ लोगो द्वारा अपनी इच्छाओं व अवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपनाएं गये तरीको से लिया गया हैं जिस प्रकार से प्रत्येक समाज की संस्कृति एवं विचारों में भिन्नता होतीं हैं उसी प्रकार से प्रत्येक समाज की जनरीतियाँ भी भिन्न भिन्न होतीं हैं । जनरीतियाँ का पालन मनुष्य अचेतन रूप से करता रहता है , इनका विकास स्वतः एवं मानव अनुभवों के आधार पर होता हैं । इनका निर्माण योजनाबद्ध तरीको से नही होता अतः ये अनियोजित होतीं हैं । सभी युगों तथा संस्कृति की सभी अवस्थाओ में मनुष्यों के समस्त जीवन पर प्रारंभिक नियंत्रण जनरीतियों के एक विशाल समूह द्वारा ही होता रहा है और यह मानव समाज के साथ ही चली आयी हैं ।जनरीतियाँ मानव की किसी न किसी आवश्यकता की पूर्ति अवश्य करती हैं, अतः आवश्यकताओं में परिवर्तन होने पर इनमें भी परिवर्तन होता रहता हैं । इस प्रकार जनरीतियों का उपयोगी पक्ष भी हैं ।

जनरीतियों में केवल ऊपरी सतह में ही परिवर्तन होतो रहते है फिर भी मानव दर्शन , आचार शास्त्र , धर्म और अन्य प्रकार के बौद्धिक चिंतन से जनरीतियों में संशोधन होते रहते हैं । जनरीतियाँ अपेक्षाकृत स्थायी इसलिए हैं कि इनका हस्तांतरण पीढ़ी दर पीढ़ी होता रहता हैं और इनमें परिवर्तन के लिए संघर्ष करना होता हैं । कई जनरीतियाँ तो हम अनुकरण के द्वारा बचपन में ही सीख लेते हैं और वो हमारे व्यवहार की स्थाई अंग बन जाती हैं हम दैनिक जीवन में हज़ारों प्रकार की जनरीतियों का पालन करते हैं और उनके द्वारा ही सामाजिक वातावरण में रहते हैं । खाना खाने , नहाने , सोने , उठने बैठने , अभिवादन करने ,वस्त्र पहनने , मेहमानों का सत्कार करने आदि के लिए समाज मे जनरीतियाँ प्रचलित हैं । जनरीतियों का पालन कराने के लिए औपचारिक दण्ड की व्यवस्था तो नही होती वरन अनौपचारिक तरीकों जैसे हंसी मजाक , निन्दा , व्यंग , आदि का सहारा लिया जाता हैं । ऐसे कोई कानून नही है जो हमें जूते पहनने , सबह नास्ता करने , बिस्तर पर सोने , पत्र पर हस्ताक्षर करने , गिलास से पानी एवं कप से चाय पीने व हिंदी बोलने को बाध्य करें । फिर भी हम यह सब करते है क्योंकि जनरीतियां हमें ऐसा करने को कहती है ।

जनरीतियों की परिभाषा एवं अर्थ -
विभिन्न विद्वानों ने जनरीतियों की परिभाषा इस प्रकार से की हैं :


गिलिन व गिलिन के अनुसार , जनरीतियाँ दैनिक जीवन के व्यवहार के वे प्रतिमान है जो अनियोजित अथवा बिना किसी तार्किक विचार के ही सामान्यतः समूह में अचेतन रूप में उत्पन्न हो जाते हैं ।

मैक़ाइवर व पेज के अनुसार , जनरीतियाँ समाज में मान्यता प्राप्त अथवा स्वीकृत व्यवहार की प्रणालियाँ हैं ।

ग्रीन के अनुसार , जनरीतियाँ कार्य ( व्यवहार ) करने की वे विधियाँ है जो एक समाज या समूह में समान रूप से पायी जाती हैं तथा जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होती रहती हैं ।

मैरिल व एलरिज के अनुसार , शाब्दिक अर्थ में जनरीतियाँ जनता की रीतियाँ है अथवा सामाजिक आदते है जो समूह द्वारा अपेक्षित है तथा दैनिक जीवन में व्यवहार के फलस्वरूप विकसित हुई हैं ।


जनरीतियों की विशेषताएं -

जनरीतियाँ समाज में व्यवहार करने की स्वीकृत तथा मान्यता प्राप्त विधियाँ हैं ।


  1. जनरीतियाँ हमारे स्वभाव में इतनी घुल मिल जाती हैं कि हम अनजाने ही उनका पालन करते हैं । समनर ने इसी ओर संकेत करते हुए लिखा है कि जनरीतियाँ प्राकृतिक शक्तियों के समान होती है जिनका पालन व्यक्ति अचेतन रूप से करता है ।
  2. जनरीतियों का जन्म स्वतः होता हैं तथा बार बार दोहराने से इनका रूप विकसित हो जाता हैं । कानून की तरह इनका निर्माण किसी विधान निर्मात्री सभा द्वारा नही किया जाता ।
  3. जनरीतियाँ मानव के लिए उपयोगी हैं । इनके आधार पर ही व्यक्ति सामाजिक मूल्यों एवं पर्यावरण से अपना अनुकूलन स्थापित करता है ।
  4. बीरस्टीड कहते है कि किसी समाज की जनरीतियों की सूची बनाना बड़ा कठिन हैं क्योंकि प्रत्येक समाज में इनकी संख्या असंख्य हैं । समाज के विकास के साथ साथ जनरीतियों कि संख्या भी बढ़ती जाती हैं ।
  5. जनरीतियाँ मानव व्यवहार पर नियंत्रण रखती हैं तथा समाज के सभी सदस्यों के व्यवहारों में एकरूपता उत्पन्न करती हैं ।
  6. जनरीतियाँ पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित की जाती हैं । प्रत्येक पीढ़ी के अपने अनुभव उसमें जुड़ते आते है और उनमें परिपक्वता आती जाती हैं ।
  7. जनरीतियों में व्यवस्था एवं समूह कल्याण की भावना निहित होती हैं। 
  8. जनरीतियाँ अलिखित होती हैं अतः ये कानून की भांति स्पष्ट नही होती ।

समाज मे कुछ जनरीतियाँ अधिक महत्वपूर्ण मानी जाती हैं तो कुछ कम महत्वपूर्ण । महत्वपूर्ण जनरीतियों का उल्लंघन करने पर समाज में तीव्र प्रति6 होती है जब कि कम महत्वपूर्ण के उल्लंघन पर हल्की निन्दा या आलोचना की जाती हैं ।
एक समाज की जनरीतियाँ प्रायः दूसरे समाज की जनरीतियों से भिन्न होती हैं ।

जनरीतियों का महत्व - 

जनरीतियों का हमारे जीवन मे बहुत महत्व हैं । वे हमें सामाजिक सांस्कृतिक वातावरण में रहने की कला सिखाती हैं । वे जीवन की संभावनाओं से हमारे मस्तिष्क को स्वतंत्र करके हमारी कार्य क्षमता को बढ़ाती है । बार बार दोहराने के कारण जनरीतियाँ हमारे कार्य करने और विचार करने की आदत बन जाती हैं तथा वे हमारे मानसिक जीवन की अकथनीय सीमाओ का निर्माण करती हैं । वे हमारे व दूसरों के बारे में भविष्यवाणी करने की क्षमता प्रदान करती हैं जिससे हम जीवन में सुरक्षा तथा व्यवस्था महसूस करते हैं । जनरीतियों का उल्लंघन करने पर व्यक्ति अपने को सामाजिक संपर्क से पृथक पाता है । ऐसी अवस्था में समाज मे उसका जीवन अत्यधिक कठिन हो जाता हैं । प्रो. डेविस कहते हैं यदि मानव जीवन के आधार भूत तथ्य कही दिखाई देते हैं तो समाज की लोकरीतियों में । क्योकि हम लोक रीतियों से अपना जीवन आरम्भ करके उन्हीं तक सीमित रहते हैं ।


लोकाचार ( रूढ़ियाँ )

Mores शब्द लेटिन भाष के MOS शब्द का बहुवचन हैं जिसका अर्थ प्रथा से है । इस शब्द का प्रयोग समूह द्वारा अपेक्षित परम्परागत व्यवहारों के लिए किया गया हैं । mores शब्द की एक व्याख्या यह भी हैं कि इसकी उत्पत्ति moral शब्द से हुई अतः इसका प्रयोग नैतिकता के पर्यायवाची के रूप में किया जाता हैं । समाजशास्त्र में Mores शब्द का प्रयोग करने का श्रेय अमरीकन समाजशास्त्री समनर को हैं । Mores शब्द का हिंदी रूपांतरण लोकाचार एवं रूढ़ियों दोनो ही है । सामान्यतः रूढ़ि शब्द का प्रयोग दकियानूसी , पिछडे , एवं बिगड़े , हुये प्रथा गत व्यवहारों के लिए किया जाता हैं जबकि Mores का अर्थ ऐसे व्यवहारों से हैं जिनमें समूह कल्याण की भावना होती हैं । अतः हम Mores के लिए रूढ़ियाँ शब्द के स्थान पर लोकाचार शब्द का ही प्रयोग करेंगें ।


               लोकाचार को स्पष्ट करते हुए समनर लिखते हैं , लोकाचार से मेरा तात्पर्य ऐसी लोकप्रिय रीतियों और परंपराओं से है जिनमे जनता के इस निर्माण का समावेश हो चुका है कि वे सामाजिक कल्याण में सहायक है और वे व्यक्ति पर यह दबाव डालती हैं कि वह अपना व्यवहार उनके अनुरूप रखे यद्यपि कोई सत्ता उसे ऐसा करने के लिए बाध्य नही करती । लोकाचार मानव व्यवहार के वे प्रतिमान है जिन्हें समूह कल्याण कारी समझता है तथा उनका उलंघन करना समाज का अपमान करना समझा जाता है । ये एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होते हैं जिन्हें बिना किसी विचार अथवा तर्क के स्वीकार कर लिया जाता हैं इस प्रकार लोकचार वे सामाजिक व्यवहार है जिनकी समूह द्वारा अपेक्षा की जाती हैं तथा ये नैतिकता की भावना पर आधारित होते हैं । लोकाचार में समूह कल्याण की भावना निहित होती हैं । इसलिए इन्हें अधिक दृढ़ता पूर्वक स्वीकृति प्रदान की जाती हैं ।


जनरीतियाँ ही आगे चल कर लोकाचार में परिवर्तित हो जाती हैं । जब कोई जनरीति समाज में लंबे समय से प्रचलित हो , जिसे समूह के लिए आवश्यक माना जाता हो और जिसकी पालना करना समूह के हित में हो वह लोकाचार का रूप ले लेती है । लोकाचार के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जैसे एक विवाह की प्रथा , सती प्रथा , बाल विवाह की प्रथा , विधवा विवाह निषेध , संपत्ति उत्तराधिकार के। नियम , पत्नी का पति के प्रति वफादार होना आदि । इनका पालन समूह के हित मे माना जाता है और उलंघन करने पर तीव्र सामूहिक प्रतिक्रिया होती हैं । एक व्यक्ति को अधिकार है कि वह अपने द्वारा अर्जित संपत्ति किसी को भी दें । किन्तु यदि कोई व्यक्ति अपनी संपत्ति संतानों को न देकर किसी वेश्या को दे दे तो यह व्यवहार अनैतिक एवं साथ ही प्रचलित लोकाचार का उल्लंघन भी माना जायेगा । अतः ऐसा करने पर तीव्र आलोचना की जाती हैं


लोकाचार की परिभाषा एवं अर्थ -

लोकाचार की अनेक विद्वानों ने परिभाषा की हैं । उनमें से हम कुछ का यहां उल्लेख करेंगें :

समनर के अनुसार , जब जनरीतियों में औचित्यपूर्ण जीवन यापन का दर्शन एवं कल्याणकारी जीवन की नीति का समावेश हो जाता हैं तब वे लोकाचार हो जाती हैं ।

मैकाइवर एवं पेज के अनुसार , जब जनरीतियाँ अपने साथ समूह के कल्याण की भावना एवं उचित अनुचित का विचार जोड़ लेती हैं तो लोकाचार में परिणित हो जाती हैं ।

डासन और गेटिस ने लिखा है लोकाचार वे जनरीतियाँ हैं जिन्होंने ने अपने साथ इस निर्णय का समावेश कर लिया है कि उन पर समूह का कल्याण मुख्यतः निर्भर करता है ।

ग्रीन के अनुसार कार्य करने के वे सामान्य तरीके जो जनरीतियों की अपेक्षा अधिक निश्चित व उचित समझे जाते है तथा जिनका उलंघन करने पर गंभीर व निर्धारित दण्ड दिया जाता हैं , लोकाचार कहलाते हैं ।


मैरिल तथा एलरिज के अनुसार उचित रूप में लोकाचार समूह की वे प्रत्याशाएँ है जो समूह कल्याण के लिए महत्वपूर्ण मानी जाती हैं ।


बोगार्डस के अनुसार वे जनरीतियाँ जो एक समूह के सदस्यों द्वारा अपने समूह के कल्याण के लिए आवश्यक समझी जाती है लोकाचार कहलाती हैं ।

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि लोकाचार ऐसे व्यवहार है जिनमे समूह कल्याण की भावना निहित होती हैं जिनका पालन करना समूह द्वारा उचित माना जाता हैं और उनका उल्लंघन करने पर समूह द्वारा दण्ड की व्यवस्था की जाती हैं । लोकाचार को अधिक स्पष्ट समझने के लिए हम यहाँ उनकी विशेषताओं का उल्लेख करेंगें।

लोकाचार की विशेषताएँ -

स्वतः विकास - लोकाचार का विकास स्वतः होता हैं कानून की भांति उनका जान बूझ कर किसी संगठन विशेष के द्वारा निर्माण नही किया जाता । ये तर्क या भविष्य की कल्पना के आधार पर नही बनाये जाते । इनके विकास में संयोग और आकस्मिकता का बहुत बड़ा हाथ होता हैं ।

अनुदार ( रूढ़ियाँ ) प्रवृत्ति - लोकाचार अनुदार प्रवृत्ति के होते है । चूँकि उनके निर्माण में समूह का अनुभव जुड़ा होता हैं , अतः एक समूह के लोग अपने लोकाचारों को परिवर्तित करने के प्रति अनिच्छा प्रकट करते है । लोग यथास्थिति को ही बनाये रखना चाहते हैं और यहाँ तक कि वैधानिक प्रयत्न भी उन्हें बदलने में असफल होते है । उदाहरणार्थ , बाल विवाह एवं दहेज प्रथा को समाप्त करने के लिए भारत मे कानून बना दिये गए है फिर भी इन लोकाचारों का पालन किया जाता हैं । किंतु इसका यह तात्पर्य नही की उनमें परिवर्तन ही नही हैं ।


स्वाभाविक - चूंकि लोकाचार समाज में एक लम्बे समय से स्थापित होते हैं अतः वे स्वाभाविक होते हैं । एक बच्चा अपने समाज के लोकाचारों को समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा स्वतः ही सीखता और आत्मसात कर लेता हैं क्योंकि ये हीं उसके समाज की नैतिक - संहिता का निर्माण करते हैं । समनर कहते है कि लोकाचार हमें अतीत के द्वारा प्राप्त होते हैं तथा प्रारम्भ से ही लोकाचारों के मध्य जीवन व्यतीत करने के कारण ये अत्यधिक स्वाभाविक प्रतीत होते है । इस प्रकार लोकाचार कठिनता से ही आलोचना का विषय बन पाते हैं । धीरे धीरे लोकाचार व्यक्तित्व के अंग बन जाते है और अचेतन रूप में व्यक्ति इनका पालन करता रहता हैं ।


नैतिकता का अंश - लोकाचारों में नैतिकता का काफी अंश होता हैं , अतः उनका पालन धार्मिक कर्तव्य के रूप में किया जाता हैं । सामान्यतः नैतिकता शब्द का प्रयोग यौन संबंधी नियमो के संबंध में किया जाता है । जो व्यक्ति यौन संबंधी नियमो का उल्लंघन करता है उसे अनैतिक माना जाता हैं । किन्तु लोकाचारों का उल्लंघन भी अनैतिक माना जाता हैं । गरीबो की सहायता करना , जीवों पर दया करना , मेहमानों का सत्कार करना , माता पिता की आज्ञा मानना एवं उनकी सेवा करना आदि सभी ऐसे लोकाचार हैं जिनका पालन हम नैतिकता के कारण करते हैं ।


समूह कल्याण की भावना - लोकाचार में समूह कल्याण की भावना निहित होती हैं । स्त्री एवं बच्चों की रक्षा एवं पालन पोषण करना पुरूष का कर्तव्य है । ऐसा न करने पर परिवार एवं समाज का हित खतरे में पड़ सकता हैं ।


लोकाचार अनौपचारिक सामाजिक प्रतिमान हैं - इनका निर्माण करने एवं पालन कराने वाला कोई विशिष्ट औपचारिक संगठन नही होता हैं । इनका पालन करना व्यक्ति स्वयं अपना दायित्व समझते हैं । इनकी सहायता से ही वे सामाजिक वातावरण में रहते हैं ।


सामाजिक नियंत्रण - लोकाचार सामाजिक नियंत्रण का एक सशक्त साधन हैं । इनके पीछे जनमत का दबाव होता हैं । कोई भी व्यक्ति लोकाचार का उल्लंघन करने का साहस नही कर सकता । उनकी आलोचना करने वाले को समाज की ओर से कठोर दण्ड दिया जाता हैं ।

समूह द्वारा अपेक्षित व्यवहार - लोकाचार समूह द्वारा अपेक्षित व्यवहार हैं । प्रत्येक समूह अथवा समाज अपने सदस्यों से एक विशिष्ट प्रकार का व्यवहार करने की अपेक्षा करता है क्योंकि वे व्यवहार प्रथागत होते है उनमें भूत काल का अनुभव जुड़ा होता हैं और वे समूह कल्याण के लिए आवश्यक माने जाते हैं । उदाहरण के लिए , प्रत्येक समाज अपने सदस्यों से यह आशा करता है कि वे अपने शरीर को ढके अर्थात वस्त्र पहनें ।

लोकाचार का प्रभाव कानून से अधिक होता हैं - लोकाचारों के पीछे राज्य , न्यायालय ,पुलिस , जेल , एवं गुप्तचर विभाग आदि की शक्ति नही होती फिर भी इनका प्रभाव एवं दबाव कानून से अधिक होता हैं । इनकी रक्षा करने वाला स्वयं समाज का प्रत्येक व्यक्ति इनका पालन कराने में सिपाही की भूमिका निभाता है । व्यक्ति , पुलिस , सरकार , और न्यायालय की निगाह से बचकर कानून की अवहेलना कर सकता हैं किन्तु समाज की अवहेलना करने लोकाचारों का उल्लंघन करना बहुत कठिन है क्योंकि लोकाचारों की प्रकृति शक्तिशाली होती हैं । इन्हें प्रभावपूर्ण बनाने के लिए समाज मे उनके अनुष्ठानों , संस्कारों , और प्रथाओं को जन्म दिया जाता हैं ।

लोकाचारों के प्रकार - महत्व की दृष्टि से लोकाचार दो प्रकार के हो सकते हैं - एक वे जो समूह के लिए अधिक महत्वपूर्ण होते हैं और दूसरे वे जो अपेक्षतया कम महत्वपूर्ण होते हैं । महत्व का मूल्यांकन उनकी उपयोगिता एवं समूह के लिए की जाने वाली आवश्यकता पूर्ति के आधार पर किया जाता हैं । अधिक महत्वपूर्ण समझे जाने वाले लोकाचारों के उल्लंघन करने पर कम महत्वपूर्ण लोकाचारों की अपेक्षा दण्ड भी अधिक दिया जाता हैं ।


लोकचारों का एक वर्गीकरण सकारात्मक एवं नकारात्मक लोकाचार भी हैं ।


सकारात्मक लोकाचार यह बताते है कि हमें समाज मे जिस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए , जैसे पत्नी को पति के प्रति यौनिक रूप से विश्वसनीय होना चाहिए । माता पिता एवं बड़ो का आदर करना चाहिए , सदा सत्य बोलना चाहिए , व्यक्ति को ईमानदार होना चाहिये , आदि ।


नकारात्मक लोकाचार हमे एक विशेष प्रकार के व्यवहार करने से रोकते हैं किंतु यह नही बताते की किस प्रकार का व्यवहार होना चाहिये । स्त्री को पराये पुरूष के साथ व्यभिचार नही करना चाहिए , चोरी नही करनी चाहिए , झूठ नहीं बोलना चाहिए , जुआ नही खेलना चाहिए , आदि सभी नकारात्मक लोकाचार के उदाहरण हैं ।


सामाजिक जीवन में लोकाचारों का महत्व -


सामाजिक जीवन में लोकाचारों के महत्व एवं उपयोगिता को हम इस प्रकार प्रकट कर सकते हैं :



  1. लोकाचार समाज में नियंत्रण रखने का कार्य करते हैं क्योंकि इनके पीछे पित्रात्माओ एवं अलौकिक शक्ति का भय होता हैं ।
  2. लोकाचारों द्वारा आवश्यकताओं की पूर्ति आने वाली बाधाओं को दूर किया जा सकता हैं ।
  3. लोकाचार हमारे तथा दूसरे के व्यवहारों के बारे में भविष्यवाणी करने की क्षमता प्रदान करते हैं जिससे हम जीवन मे सुरक्षा तथा व्यवस्था का अनुमान करते हैं ।
  4. लोकाचार हमारे अधिकांश निजी व्यवहारों को निश्चित करते हैं । ये समाज के सदस्यों को एक विशेष प्रकार का व्यवहार करने को बाध्य करते हैं और कुछ व्यवहारों को करने पर रोक लगाते हैं ।
  5. लोकाचार व्यक्ति तथा समूह में एकरूपता स्थापित करते हैं । लोकाचार व्यक्ति को अपने समुदाय , सामाजिक वर्ग अथवा लिंग के अनुसार आचरण करने के लिए बाध्य करते हैं । समाज द्वारा स्वीकृत व्यवहारों के अनुसार आचरण करके व्यक्ति समूह तथा अपने अन्य साथियों के साथ एकरूपता स्थापित कर लेता है ।
  6.  लोकाचार सामाजिक सुदृढ़ता के संरक्षक हैं - प्रत्येक सामाजिक इकाई अथवा समूह के अपने लोकाचार होते हैं , लिंग , आयु ,वर्ग , और प्रत्येक समूह के लिए तथा परिवार से लेकर राष्ट्र तक और उससे परे सभी समूहों के लिए भिन्न भिन्न लोकाचार पाये जाते हैं । इनमे से प्रत्येक के लोकाचार समूह की सुदृढ़ता को बनाये रखने का कार्य करते हैं । नगरीय समुदायों की अपेक्षा ग्रामीण समुदायों में लोकाचार अधिक बाध्यतापूर्ण एवं एकता पैदा करने वाले होते हैं ।
  7. लोकाचार सामाजिक कल्याण का कार्य करते हैं ।
  8. लोकाचार नवीन पीढ़ी को समाज की कार्य विधियों का ज्ञान कराते हैं तथा उनके समाजीकरण में योग देतें हैं ।
  9. लोकाचार समाज में मूल्यों और नैतिकता को प्रोत्साहन देतें हैं ।


जनरीति तथा लोकाचार में अंतर -

कई बार लोकाचार एवं जनरीतियों में अंतर इतना सीमांत होता है कि उन्हें पृथक करना कठिन होता हैं । इन दोनों में यह समानता है कि दोनो की उत्पत्ति अति प्राचीन हैं । दोनो ही अनियोजित , अतार्किक तथा तुलनात्मक रूप से अपरिवर्तनीय है । दोनों इस दृष्टि से भी समान हैं कि इनके पालन की स्वीकृति अनौपचारिक तथा सामुदायिक होती हैं और इनका पालन कराने वाला कोई विशेष अधिकारी नही होता । फिर भी इनमें निम्नलिखित भेद पाये जाते हैं :

  1. जनरीतियाँ व्यवहार के सामान्य नियम हैं जबकि लोकाचारों को समाज के लिए अधिक आवश्यक माना जाता हैं








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