Skip to main content

सामाजिक नियंत्रण की अवधारणा एवं परिभाषा,आवश्यकता तथा महत्त्व

सामाजिक नियंत्रण की अवधारणा एवं परिभाषा,आवश्यकता तथा महत्त्व    


सामाजिक नियंत्रण की अवधारणा का समाजशास्त्रीय साहित्य में महत्त्व पूर्ण स्थान है | सामाजिक संरचना में दृढ़ता एवं समन्वय रखने वाली शक्तियों के सन्दर्भ में जितना साहित्य रचा गया उसे सामाजिक नियंत्रण के शीर्षक के अंतर्गत रखा गया है | मैकाइवर कहते है की समाजशास्त्रीय साहित्य का एक बहुत बड़ा भाग सामाजिक नियंत्रण का विवेचन करता है | अमरीकन समाज शास्त्री ई.ए. रॉस पहला व्यक्ति था जिसने सामाजिक नियंत्रण बिषय पर 1901 में अपनी कृति Social Control में व्यवस्थित विचार व्यक्त किये है |                         
           सामाजिक नियंत्रण क्र द्वारा व्यक्तियों के व्यवहारों को समाज के स्थापित प्रतिमानों के अनुरूप ढालने का प्रयास  किया जाता है | इस प्रकार सामाजिक नियंत्रण वह विधि है जिसके द्वारा एक समाज अपने सदस्यों के व्यवहारों का नियमन करता है | सामाजिक  नियंत्रण के द्वारा एक समाज अपने सदस्यों को उनकी निर्धारित भूमिकाएं निभाने , नियमो का पालन करने एवं व्यवस्था बनाये रखने के लिए प्रेरित करता है , प्रत्येक समाज अपने सदस्यों से यह अपेक्षा करता है कि वे एक निर्धारित तरीके से समाज में आचरण करे , उचित रूप से अपनी भूमिकाओं एवं कर्त्तव्यों का निर्वहन करे अन्यथा समाज में व्यवस्था बनायें रखना एवं लोगो की आवश्यकताओं की पूर्ति करना कठिन हो जायेगा प्रत्येक समाज अपने सदस्यों से यह अपेक्षा करता है कि वे उसकी संस्कृति के अनुरूप  व्यवहार  प्रतिमानों  प्रथाओं रीतिरिवाज  मूल्यों आदर्शों एवं कानूनों के अनुरूप आचरण कर समाज को स्थायित्व एवं व्यवस्था प्रदान करे | इसलिए वह अपने सदस्यों पर कुछ नियंत्रण  लगाता  है  इसी प्रकार समाज में जब नयी परिस्थितियां उत्पन्न होती है तब भी समाज अपने सदस्यों के व्यावहारों पर अंकुश रखता है जिससे की नयी परिस्थितियों से प्रभावित होकर लोग सामाजिक ढांचें को तोड़ न दें  | सामाजिक नियंत्रण एक अन्य दृष्टि से भी आवश्यक है हॉब्स के अनुसार , मानव अपनी प्रकृति से भी स्वार्थी , व्यक्तिवादी  , अराजक , लड़ाकू , हिंसक एवं संघर्षकारी है | यदि उसकी इन  प्रवृत्तियों पर अंकुश नहीं रखा जाये और उसे पूरी तरह स्वच्छन्द छोड़ दिया जाय  तो समाज युद्ध स्थल बन जायेगा व मानव का जीना कठिन हो जायेगा | इस क्लेशकारी ,  अराजक एवं अव्यवस्थित स्थित  बचने के लिए ही प्रत्येक समाज नियंत्रण की   व्यवस्था करता है , नियमों एवं क़ानूनों का निर्माण करता है व आवश्यकतानुसार बल प्रयोग करता है | समाजिक नियन्त्रण के आभाव में मानवीय संबंधों  की व्यवस्था एवं सम्पूर्ण मानव जीवन ही अस्त व्यस्त हो जायेगा | डेविस ने उचित लिखा है की समाज का निर्माण ही सामाजिक सम्बन्धों एवं नियंत्रण की व्यवस्था द्वारा होता है एक की अनुपस्थिति में दूसरे का अस्तित्व कदापि  सुरक्षित नहीं , सामाजिक नियंत्रण के द्वारा ही समाज में सन्तुलन , दृढ़ता एवं एक रूपता कायम की जाती है इसके आभाव में सामाजिक मूल्यों एवं आदर्श चकनाचूर हो जायेंगे एवं सामाजिक प्रगति सम्भव नहीं हो सकेगी | हम यहाँ सामाजिक नियंत्रण के विभिन्न पक्षों पर विचार करेंगे

            सामाजिक नियंत्रण का अर्थ एवं परिभाषा 

    सामाजिक नियंत्रण का प्रयोग विभिन्न अर्थो में किया जातारहा  है | एक सामान्य धारणा यह है की लोगों को समूह द्वारा स्वीकृत नियमों के अनुसार आचरण करने के लिए बाध्य करना ही सामाजिक नियंत्रण है  किन्तु यह एक संकुचित  धारणा है  प्रारम्भ में सामाजिक नियंत्रण का अर्थ केवल दूसरे समूहों  से होने समूह की रक्षा करना  और मुखिया के आदेशों का पालन करना मात्र था | बाद में यह धार्मिक और नैतिक नियमो के अनुसार व्यवहार करने को सामाजिक नियंत्रण माना गया | किन्तु वर्तमान समय में सामाजिक नियंत्रण का तात्पर्य सम्पूर्ण समाज व्यवस्था के नियमन से लिया जाता है | जिसका उद्देश्य समाजिक आदर्शों एवं उद्देश्यों को प्राप्त करना है | विभिन्न विद्वानों ने सामाजिक नियंत्रण को इस प्रकार परिभाषित किया है

  मैकाइबर एवं पेज के अनुसार   सामाजिक नियंत्रण का अर्थ उस तरीके से है जिसमे सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था की एकता और उसका स्थायित्व बना रहता है | इसके द्वारा यह समस्त व्यवस्था एक परिवर्तनशील संतुलन  के रूप में क्रियाशील रहती है |

रॉस के अनुसार सामाजिक नियंत्रण  तात्पर्य उन सभी शक्तियों से है जिनके द्वारा समुदाय व्यक्ति  को अपने अनुरूप बनता है |

गिलिन तथा गिलिन के अनुसार सामाजिक नियंत्रण सुझाव अनुनय प्रतिशोध उत्पीड़न तथा बल प्रयोग जैसे साधनो की वह व्यवस्था है जिसके द्वारा समाज किसी समूह के व्यवहार को मान्यता प्राप्त प्रतिमानों के अनुरूप बनता है अथवा जिसके द्वारा समूह सभी सदस्यों को अपने अनुरूप बना लेता है

आगबार्न एवं निमकॉफ लिखते है दबाव का वह प्रतिमान जिसे समाज के द्वारा व्यवस्था बनाये रखने और नियमों को स्थापित करने के उपयोग में लाया जाता है सामाजिक नियंत्रण कहा जाता है |

पी.एच.लैन्डिस के अनुसार   सामाजिक नियंत्रण एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा सामाजिक व्यवस्था स्थापित की जाती है और बनाये राखी जाती है |

पारसन्स  ( Parsons )का मत है की सामाजिक नियंत्रण के द्वारा सामाजिक प्रतिमानों के अनुरूप व्यवहार एवं वास्तविक व्यवहार के बिच पाए जाने वाले अंतर को काम किया जाता है | वे लिखते है सामाजिक नियंत्रण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा  अपेक्षित व्यवहार एवं  गए व्यवहार  अंतर को काम से काम किया जाता है  | पारसन्स ने कहा है  विषयगामी प्रवृत्तियों की कली को फूल बनने से पहले ही कुचल देना सामाजिक नियंत्रण है
पारसन्स के विचारों को स्पष्ट  करते हुए जॉनसन कहते है कि व्यक्ति कई बार तो स्वयं ही अपनी अंतरात्मा  के द्वारा नियंत्रण करता है यह आत्म नियंत्रण अचेतन एवं अनौपचारिक रूप से होता है अतः समाज विरोधी व्यवहार करने का विचार जब कली  के रूप में ही होता है तो उसे कुचल दिया जाता है | किन्तु कई बार विपथगामी प्रवृत्तियाँ जब तक कली से फूल के रूप में विकसित नहीं होती तब तक रोंकी नहीं जाती | इस सन्दर्भ में एक बात उल्लेखनीय है की आत्म नियंत्रण एवं सामाजिक नियंत्रण में अंतर है | आत्म नियंत्रण का सम्बन्ध व्यक्ति से है इसकी प्रकृति वैयक्तिक  है जबकि सामाजिक नियंत्रण का सम्बन्ध सम्पूर्ण समाज से है और इसकी प्रकृति संस्थात्मक  यद्यपि कई बार ये एक दूसरे के पूरक भी होते है  | आत्म नियंत्रण सामाजिक नियंत्रण का एक छोटा भाग मन जा सकता है |

             विभिन्न परिभाषाओं के आधार पर हम सामाजिक नियंत्रण के बारे में निष्कर्ष निकल सकते है ---
  1. सामाजिक नियंत्रण में व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि वह सामाजिक  प्रतिमानों के अनुरूप आचरण करें | 
  2. सामाजिक नियंत्रण समाज में संगठन एवं एकरूपता पैदा करता है | 
  3. सामाजिक नियंत्रण तीन स्तरों  पर होता है - समूह का समूह पर नियंत्रण , समूह का व्यक्तियों पर नियंत्रण तथा व्यक्तियों का व्यक्तियों पर नियंत्रण 
  4. सामाजिक नियंत्रण से सामाजिक संबंधों में स्थिरता एवं एकरूपता आती है | 
  5. सामाजिक नियंत्रण से तनाव एवं संघर्षों को काम तथा सहयोग स्थापित किया जाता है | 
  6. सामाजिक नियंत्रण उन साधनों एवं विधियों की ओर  संकेत करता है जिनके द्वारा व्यक्तियों के व्यवहारों   एक आवश्यक साँचें में ढला जाता है | 
  7. सामाजिक नियंत्रण द्वारा विपथगामी प्रवृत्तियों  पर अंकुश रखा जाता तथा उन्हें  कुचल दिया जाता है | 
  8. सामाजिक नियंत्रण के लिए दण्ड एवं पुरस्कार  दोनों विधियों का प्रयोग किया जाता है | 
      इस प्रकार सम्पूर्ण समाज में एकता एवं व्यवस्था बनायें रखने के लिए लोगो के व्यवहार का नियमन करना ही सामाजिक नियंत्रण है | 

     सामाजिक नियंत्रण की आवश्यकता तथा  महत्त्व

   किसी भी समाज का अस्तित्व एवं निरंतरता बनाये रखने के लिए  दृढ़ता , संगठन ,एकरूपता एवं नियंत्रण होना आवश्यक है | मानव की अराजक और व्यक्तिवादी प्रवृति पर नियंत्रण  लगाये  बिना  समाज में संतुलन बनाये रखना कठिन हो जायेगा | सामूहिक एवं व्यक्तिगत उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भी समूह एवं समाज के सदस्यों पर नियंत्रण रखना आवश्यक है समाज को व्यवस्थित एवं संगठित रखकर ही हम सामाजिक लक्ष्यों को प्राप्त कर सकते है और इसके लिए नियंत्रण होना आवश्यक है | सामाजिक ढांचें को नवीन परिवर्तनों के कारण विघटित होने से बचाने एवं लोगों में पारस्परिक सहयोग उत्पन्न करने के लिए बी समाज में नियंत्रण आवश्यक है | इसी सन्दर्भ में सामाजिक नियंत्रण के उद्देश्यों आवश्यकता एवं महत्त्व का हम यहाँ उल्लेख करेंगे

सामाजिक संगठन की स्थिरता - सामाजिक नियंत्रण के द्वारा व्यक्ति की निरंकुश एवं अराजक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखा जाता है और उसे मनमानी नहीं करने दी जाती उसे समाज द्वारा मान्य व्यवहारों के अनुरूप ढालनें  का प्रयास किया जाता है | फलस्वरूप समाज में अनिश्चितता एवं अस्थिरता समाप्त होती है एवं सामाजिक संगठन की निरन्तरता बनी रहती है

परम्पराओं की रक्षा - सामाजिक नियंत्रण का एक उद्देश्य  समाज की व्यवस्था को बनायें रखना एवं परम्पराओं का पालन करना भी है | परम्पराओं में हमारे पूर्वजों का अनुभव एवं ज्ञान निहित होता है जिसे नयी पीढ़ी पुराणी पीढ़ी के द्वारा सीख  लेती है  , परम्पराओं के अनुसार आचरण करने से समाज में एकरूपता एवं दृढ़ता बानी रहती है  , परम्पराएँ हमारी संस्कृति की धरोहर एवं रक्षक है | सामाजिक नियंत्रण द्वारा लोगो को परम्पराओं को मानने  के लिए बाध्य किया जाता है |

समूह में एकता  -   समाज एवं समूह का सुचारु रूप से संचालन तभी सम्भव है जब उसमे एकता हो विघटन एवं विपथगमन की प्रवृत्तियाँ प्रबल न हो अन्यथा वह समूह या समाज विश्वखलित एवं विघटित हो जायेगा | नियंत्रण के द्वारा समाज विरोधी शक्तियों पर अंकुश रखा जाता है और उन्हें समाज के अनुरूप ढाला जाता हैं |

समूह में एकरूपता - समूह के व्यवस्थित रूप से संचालन  के लिए यह भी आवश्यक है कि उसके सदस्यों के व्यवहारों में समानता एवं एक रूपता हो | सामाजिक नियंत्रण द्वारा लोगो के विचारों  , व्यवहारों  , मनोवृत्तियों , एवं दृष्टिकोणों  में एकरूपता लायी जाती है |

सहयोग - समाज के अस्तित्व एवं निरंतरता को बनाये रखने के  लिए आवश्यक है कि उसके सदस्यों में परस्पर सहयोग हो | नियंत्रण की सहायता से लोगो से सहयोग प्राप्त किया जाता है | सहयोग के आभाव में समाज में संघर्ष अनियंत्रित जीवन एवं विघटन पैदा होंगे जो सामूहिक जीवन को खतरे में डाल  देंगे | सामाजिक नियंत्रण की उपस्थित में ही सहयोग एवं सहकारिता सम्भव है | सहयोग से ही सामूहिक लक्ष्यों की प्राप्ति हो सकती है |

सामाजिक सुरक्षा -  सामाजिक नियंत्रण लोगो को मानसिक एवं बाह्म सुरक्षा प्रदान करता है।  व्यक्तियों को जब यह विश्वास हो जाता है की उनके हितों की रक्षा होगी तो वह मानसिक रूप से सन्तुष्ट एवं सुरक्षित महसूस करता है।  सामाजिक नियंत्रण के द्वारा व्यक्तियों की शारीरिक एवं संपत्ति की रक्षा भी की जाती है।  इसी प्रकार उनके भरण पोषण की समुचत व्यवस्था  को बनायें रखने में भी समाज नियंत्रण द्वारा सहयोग देता है।  सामाजिक नियंत्रण लोगो में नैतिक दायित्व की भावना पैदा कर उन्हें अपनी पाशविक प्रवृत्तियों से मुक्ति दिलाता और उन्हें समाज के अनुरूप बनना सिखाता है।

व्यक्तिगत व्यवहार  पर नियंत्रण -  सामाजिक नियंत्रण के द्वारा व्यक्ति के स्वच्छंद  व्यवहार एवं मनमानी करने पर भी रोक लगायी जाती है।  यदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार आचरण करने लगेगा तो सामाजिक जीवन का अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा।  नियंत्रण के आभाव में मानव , मानव न होकर पशु  के समान हो जायेगा।  इसी सन्दर्भ में लैन्डिस ने उचित ही कहा  है  मानव नियंत्रण के कारण  ही मानव है।  
इस प्रकार हम देखते है की सामाजिक नियंत्रण के कारण ही समाज का संगठन सम्भव है।  इसके आभाव में मानव जीवन कष्टमय हो जायेगा , सहयोग के स्थान पर संघर्ष  एवं विघटन पनपेगा  , असुरक्षा फैलेगी ,  एकरूपता नष्ट हो जाएगी एवं मानव का विकास रुक जायेगा।  अतः समाज की सुरक्षा , स्थिरता एवं निरंतरता के लिए सामाजिक नियंत्रण आवश्यक है।

Comments

Popular posts from this blog

समाजशास्त्र की उत्पत्ति एवं विकास

समाजशास्त्र की उत्पत्ति एवं विकास बाटोमोर के अनुसार समाजशास्त्र एक आधुनिक विज्ञान है जो एक शताब्दी से अधिक पुराना नहीं है । वास्तव में अन्य सामाजिक विज्ञानों की तुलना में समाजशास्त्र एक नवीन विज्ञान है । एक विशिष्ट एवं पृथक विज्ञान के रूप में समाजशास्त्र की उत्पत्ति का श्रेय फ्रांस के दार्शनिक आगस्त काम्टे को है जिन्होंने सन 1838 में समाज के इस नवीन विज्ञान को समाजशास्त्र नाम दिया । तब से समाजशास्त्र का निरंतर विकास होता जा रहा है । लेकिन यहां यह प्रश्न उठता है कि क्या आगस्त काम्टे के पहले समाज का व्यवस्थित अध्ययन किसी के द्वारा भी नहीं किया गया । इस प्रश्न के उत्तर के रूप में यह कहा जा सकता है कि आगस्त काम्टे के पूर्व भी अनेक विद्वानों ने समाज का व्यवस्थित अध्ययन करने का प्रयत्न किया लेकिन एक स्वतंत्र विज्ञान के रूप में समाजशास्त्र अस्तित्व में नहीं आ सका । समाज के अध्ययन की परंपरा उतनी ही प्राचीन है जितना मानव का सामाजिक जीवन । मनुष्य में प्रारंभ से ही अपने चारों ओर के पर्यावरण को समझने की जिज्ञासा रही है । उसे समय-समय पर विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सामना भी करना पड़ा है । इन समस...

सामाजिक नियंत्रण के साधन या अभिकरण

सामाजिक नियंत्रण के साधन या अभिकरण सामाजिक नियंत्रण की व्यवस्था को प्रभावी बनाने के लिए अनेक साधनों एवं अभिकरणों का सहारा लिया जाता है। सामान्यतः साधन एवं अधिकरण में कोई भेद नहीं किया जाता है किंतु इन में पर्याप्त अंतर है। अभिकरण का तात्पर्य उन समूहों संगठनों एवं सत्ता से है जो नियंत्रण को समाज पर लागू करते हैं।नियमों को लागू करने का माध्यम अभिकरण कहलाता है उदाहरण के लिए परिवार, राज्य, शिक्षण, संस्थाएं एवं अनेक संगठन जो प्रथाओं परंपराओं नियमों और कानूनों को लागू करने वाले मूर्त माध्यम है अभिकरण कहे जाएंगे।   साधन से तात्पर्य किसी विधि या तरीके से है किसके द्वारा कोई भी अभिकरण या एजेंसी अपनी नीतियों और आदेशों को लागू करती है। प्रथा, परंपरा, लोकाचार, हास्य, व्यंग, प्रचार, जनमत, कानून, पुरस्कार एवं दंड आदि सामाजिक नियंत्रण के साधन है।सभी अभिकरण एवं साधन मिलकर सामाजिक नियंत्रण की व्यवस्था को कायम रखते हैं।हम यहां सामाजिक नियंत्रण के विभिन्न साधनों एवं अभी कारणों का उल्लेख करेंगे। 1. परिवार नियंत्रण के अनौपचारिक, असंगठित और प्राथमिक साधनों में परिवार का स्थान सर्वोपरि है। परिवार व्य...

प्रकार्य की अवधारणा एवं विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए

प्रकार्य की अवधारणा एवं विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए सामान्यतः प्रकार्य (Function) का अर्थ हम समाज या समूह द्वारा किए जाने वाले कार्य या उसके योगदान से लगाते हैं । किंतु समाज में प्रकार्य का अर्थ सम्पूर्ण सामाजिक संरचना को व्यवस्थित बनाए रखने एवं अनुकूलन करने में उसकी इकाइयों द्वारा जो सकारात्मक योगदान दिया जाता है, से लगाया जाता है । प्रकार्य की अवधारणा को हम शरीर के उदाहरण से स्पष्टतः समझ सकते हैं । शरीर की संरचना का निर्माण विभिन्न इकाइयों या अंगों जैसे हाथ, पाँव, नाक,कान,पेट,हृदय,फेफड़े आदि से मिलकर होता है । शरीर के वे विभिन्न अंग शरीर व्यवस्था को बनाए रखने और अनुकूलन में अपना जो योगदान देते हैं,जो कार्य करते हैं, उसे ही इन इकाइयों का प्रकार्य कहा जायेगा ।  परिभाषा (Definition) -  प्रकार्य को इसी अर्थ में परिभाषित करते हुए रैडक्लिफ ब्राउन लिखते हैं, " किसी सामाजिक इकाई का प्रकार्य उस इकाई का वह योगदान है जो वह सामाजिक व्यवस्था को क्रियाशीलता के रूप में सामाजिक जीवन को देती है । वे पुनः लिखते हैं, " प्रकार्य एक आंशिक क्रिया द्वारा उसे संपूर्ण क्रिया को दिया जाने वाला योगदान ह...